नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (सजिल्द) लहरों के राजहंस (सजिल्द)मोहन राकेश
|
1 पाठकों को प्रिय 96 पाठक हैं |
सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध...
अलका अपने को व्यस्त रखने के लिए शृंगारकोष्ठ की सामग्री को सहेजती है। फिर
चबूतरे के पास जाकर तकियों की सलवटें निकालने लगती है। सोचना होगा कि तुझे और
उस व्यक्ति को अच्छा, सुन ।
अलका हाथ रोककर उसकी ओर देखती है। तुझे विश्वास है, तू सचमुच उससे प्रेम करती
है ?
अलका अपने आँसुओं को छिपाने के लिए पलकें झपकती हुई आँखें दूसरी ओर हटा लेती
है। और तू चाहती थी कि उसके लिए कुछ किया जाए।
अलका धीरे से सिर हिला देती है।
तो मैं तुझे निराश नहीं करूँगी। "तू जानती है मैं तुझे कितना चाहती हूँ ! मैं
यह कैसे चाहूँगी कि तेरी भावना पर... अलका, मुझे अब भी विश्वास नहीं होता कि
उसने जो कुछ किया है, उन्माद में किया है। सोचती हूँ कि इसके लिए उसे पर संभव
है मैं ठीक नहीं सोच रही ।
चबूतरे से उठ पड़ती है। अच्छा, तू जाकर शशांक से कह कि वह उद्यान में सबके
आसन लगाने से पहले एक बार मुझसे बात कर ले। अतिथि अब आया ही चाहते हैं।
श्वेतांग लौट आए, तो मैं श्यामांग के लिए दूसरा आदेश भेजती हूँ।
अलका का कंधा थपथपा देती है। अलका साभार झुककर दाई ओर के द्वार से चली जाती
है। तभी सामने के द्वार से नंद अंदर आता है। चेहरे से लगता है जैसे वह कोई
दुर्घटना देखकर आया हो और उसका आतंक अभी उसके मन से निकला न हो। वह आकर पल-भर
झूले के पास रुकता है। सुंदरी अलका के जाने के बाद अपने से बात करती रहती है।
परंतु सोचती हूँ कि यह उन्माद आज ही क्यों ? आज से पहले कभी ऐसा क्यों नहीं
हुआ ? कितने दिन से वह यहाँ काम कर रहा है, फिर क्यों आज ही ?
नंद मदिराकोष्ठ के पास आकर चषक में मदिरा डालता है। तभी सुंदरी की दृष्टि उस
पर पड़ती है।
|