सांस्कृतिक >> नया घर नया घरइंतजार हुसैन
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नया घर एक परिवार की दास्तान है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं जुबैदा को क्या बताता ! मैंने उलटा उससे सवाल कर लियाः
‘‘मगर तू भी अभी तक नहीं सोई
हो।’’
‘‘मुझे तो इस मकान की फ़िक्र खाए जा रही है।’’ और इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने सवाल दाग दिया : ‘‘फिर तुमने क्या सोचा है ?’’
‘‘किस बारे में ?’’ सवाल इतना अचानक था कि वाक़ई मेरी समझ में नहीं आया कि जुबैदा झुँझला गई :
‘‘कौन-सी बेटी ब्याहने को बैठी है, जिसके बारे में पूछूँगी। आशियाने के बारे में पूछ रही हूँ।’’
‘‘आशियाने के बारें में...?’’ मेरे लिए जुबैदा के सवालों को समझना और जवाब देना उस वक़्त दूभर हुआ जा रहा था। मैं तो किसी और ही फ़ज़ा में परवाज़ कर रहा था, जहाँ दुनिया के ये क़िस्से थे ही नहीं। बस शीरीं थीं और मैं था। ‘मैं’ तो उस वक़्त था। मगर इसी के साथ मुझे तअज्जुब हुआ कि शीरीं का तो अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा। हाँ, उस वक़्त ककड़ी कच्ची थी, अब पककर भर गई है और तरश गई है। वाक़ई क्या तरशी-तरशाई नज़र आ रही थी कि हर खम, हर गोलाई नुमायाँ और मुतनासिब, और भरी हुई ऐसी कि अब छलकी और अब मुझे अफ़्सोस होने लगा कि उसे नज़र भरकर देखा भी नहीं। कैसी ग़ाइब हुई, बस जैसे आँखों के आगे बिजली कौंद गई हो। और फिर मुझे वही ख़याल सताने लगा कि शायद उसे शक पड़ गया था। मगर कमाल है, इतने बरसों बाग मिली और उसी शक्की तबीयत के साथ। शक भी, मैंने सोचा, क्या फ़ितना है। दो दिल कितनी मुश्किलों से, कितने नाजुक मरहले तै करके क़रीब आते हैं, घुल-मिल जाते हैं जैसे कभी जुदा नहीं होंगे। मगर एक ज़रा-सा शक आन की आन में सारी कुर्बतों सारी मुलाक़ातों को अकारत कर देता है।
नया घर एक परिवार की दास्तान है जिसका सफ़र अतीत में इस्फ़हान के घर से शुरू होता है और हिजरत करता हुआ, क़ज़वीन हिन्दुस्तान और अंत में पाकिस्तान पहुँचकर भी ज़ारी रहता है।
इंतिज़ार हुसैन सीधी-सादी ज़बान में आपबीती सुनाते हैं। इनसानी मुक़द्दर इनसानी जीवन और ब्रह्मांड से सम्बन्धित मूल प्रश्नों पर सोच-विचार के वक़्त भी इस सहज स्वभाव को क़ाइम रखते हैं। विभाजन के नतीजे में प्रकट होनेवाली सांस्कृतिक, भावात्मक, मानसिक समस्याएं एक सर्वव्यापी और साझा इतिहास और उस इतिहास के बनाए हुए सामाजिक संघटन का बिखराव, देशत्याग, साम्प्रदायिक दंगे, सत्ता की राजनीतिक का तमशा, पाकिस्तान में तानाशाही, राजनीतिक दमन और मूलतत्ववाद के परिणामस्वरूप सामाजिक स्तर पर प्रकट होनेवाली घुटन और सामूहिक मूर्खताओं का एहसास; फिर विरोध और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की वह लहर जो वैयक्तिक सत्ता के विरुद्ध सामूहिक नफरतों को अभिव्यक्त करती है-नया घर में इन सारी घटनाओं का रचनात्मक चित्रण मिलता है।
पिछले चालीस बरसों (‘नया घर’ 1987 ई. में प्रकाशित हुआ था) में होनेवाली वह हर राजनीतिक घटना जिससे सामूहिक दृष्टि प्रभावित हुई है, इंतिज़ार हुसैन की रचनात्मक प्रक्रिया और प्रतिक्रिया में उसकी गूँज सुनाई देती है।
इंतिज़ार हुसैन ने एक बहुत बड़े कैनवस की कहानी को यहाँ ‘मिनिएचर’ रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी का हर पात्र और हर घटना चित्रण में इस तरह गुँथा हुआ है कि सारे घटक एक दूसरे की संगति में ही अपने अर्थ तक पहुँचते हैं। अतीत की धुंध को चीरती हुई कहानी वर्तमान का भाग इस तरह बनती है कि दोनों कहानियाँ अपने अलग-अलग स्तरों पर भी जीवित रहती हैं। नया घर एक सिलसिला भी है और विभिन्न मूल्यों, रवैयों, परम्पराओं और दो ज़मानों के बीच एक संग्राम भी।
‘‘मुझे तो इस मकान की फ़िक्र खाए जा रही है।’’ और इससे पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने सवाल दाग दिया : ‘‘फिर तुमने क्या सोचा है ?’’
‘‘किस बारे में ?’’ सवाल इतना अचानक था कि वाक़ई मेरी समझ में नहीं आया कि जुबैदा झुँझला गई :
‘‘कौन-सी बेटी ब्याहने को बैठी है, जिसके बारे में पूछूँगी। आशियाने के बारे में पूछ रही हूँ।’’
‘‘आशियाने के बारें में...?’’ मेरे लिए जुबैदा के सवालों को समझना और जवाब देना उस वक़्त दूभर हुआ जा रहा था। मैं तो किसी और ही फ़ज़ा में परवाज़ कर रहा था, जहाँ दुनिया के ये क़िस्से थे ही नहीं। बस शीरीं थीं और मैं था। ‘मैं’ तो उस वक़्त था। मगर इसी के साथ मुझे तअज्जुब हुआ कि शीरीं का तो अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा। हाँ, उस वक़्त ककड़ी कच्ची थी, अब पककर भर गई है और तरश गई है। वाक़ई क्या तरशी-तरशाई नज़र आ रही थी कि हर खम, हर गोलाई नुमायाँ और मुतनासिब, और भरी हुई ऐसी कि अब छलकी और अब मुझे अफ़्सोस होने लगा कि उसे नज़र भरकर देखा भी नहीं। कैसी ग़ाइब हुई, बस जैसे आँखों के आगे बिजली कौंद गई हो। और फिर मुझे वही ख़याल सताने लगा कि शायद उसे शक पड़ गया था। मगर कमाल है, इतने बरसों बाग मिली और उसी शक्की तबीयत के साथ। शक भी, मैंने सोचा, क्या फ़ितना है। दो दिल कितनी मुश्किलों से, कितने नाजुक मरहले तै करके क़रीब आते हैं, घुल-मिल जाते हैं जैसे कभी जुदा नहीं होंगे। मगर एक ज़रा-सा शक आन की आन में सारी कुर्बतों सारी मुलाक़ातों को अकारत कर देता है।
नया घर एक परिवार की दास्तान है जिसका सफ़र अतीत में इस्फ़हान के घर से शुरू होता है और हिजरत करता हुआ, क़ज़वीन हिन्दुस्तान और अंत में पाकिस्तान पहुँचकर भी ज़ारी रहता है।
इंतिज़ार हुसैन सीधी-सादी ज़बान में आपबीती सुनाते हैं। इनसानी मुक़द्दर इनसानी जीवन और ब्रह्मांड से सम्बन्धित मूल प्रश्नों पर सोच-विचार के वक़्त भी इस सहज स्वभाव को क़ाइम रखते हैं। विभाजन के नतीजे में प्रकट होनेवाली सांस्कृतिक, भावात्मक, मानसिक समस्याएं एक सर्वव्यापी और साझा इतिहास और उस इतिहास के बनाए हुए सामाजिक संघटन का बिखराव, देशत्याग, साम्प्रदायिक दंगे, सत्ता की राजनीतिक का तमशा, पाकिस्तान में तानाशाही, राजनीतिक दमन और मूलतत्ववाद के परिणामस्वरूप सामाजिक स्तर पर प्रकट होनेवाली घुटन और सामूहिक मूर्खताओं का एहसास; फिर विरोध और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की वह लहर जो वैयक्तिक सत्ता के विरुद्ध सामूहिक नफरतों को अभिव्यक्त करती है-नया घर में इन सारी घटनाओं का रचनात्मक चित्रण मिलता है।
पिछले चालीस बरसों (‘नया घर’ 1987 ई. में प्रकाशित हुआ था) में होनेवाली वह हर राजनीतिक घटना जिससे सामूहिक दृष्टि प्रभावित हुई है, इंतिज़ार हुसैन की रचनात्मक प्रक्रिया और प्रतिक्रिया में उसकी गूँज सुनाई देती है।
इंतिज़ार हुसैन ने एक बहुत बड़े कैनवस की कहानी को यहाँ ‘मिनिएचर’ रूप में प्रस्तुत किया है। कहानी का हर पात्र और हर घटना चित्रण में इस तरह गुँथा हुआ है कि सारे घटक एक दूसरे की संगति में ही अपने अर्थ तक पहुँचते हैं। अतीत की धुंध को चीरती हुई कहानी वर्तमान का भाग इस तरह बनती है कि दोनों कहानियाँ अपने अलग-अलग स्तरों पर भी जीवित रहती हैं। नया घर एक सिलसिला भी है और विभिन्न मूल्यों, रवैयों, परम्पराओं और दो ज़मानों के बीच एक संग्राम भी।
1
बि-इस्मि-सुब्हानहु1, कि सब तारीफ़ें2 उसी के लिए हैं जिसने एक लफ़्ज एक
‘कुन’3 कहकर ये कौनों-मकाँ4 पैदा किए और
ज़मीनों-आस्मान बनाए
और क्या ख़ूब बनाए कि आस्मान के फैलाव में सितारे भर दिए, बीच में उनके
चाँद-सूरज रख दिए, और गोद ज़मीन की नदियों-नहरों, ताल तलैयों से भर दी कि
फ़ौज़5 से उनके बाग़-बग़ीचे फूले और खेत लहलहाए। बाग़ों को रंग-रंग के
फलों से मालामाल किया कि इन्हीं फलों में वह फल भी है जिसे आम कहते हैं और
जिसकी एक क़िस्म सिर्फ़ हमारे जद्दी बाग़6 में पाई जाती थी कि जिसे एक
दफ़ा जो शख़्स चख लेता, ज़ाइक़ा7 उसका न भूलता, ता-उम्र8 होंठ चाटता रहता।
मेवा-जात मुस्तज़ाद9 मिस्ल10 बादाम, किशमिश, अख़रोट व नीज़11 पिस्ता जिसकी
हवाइयों से फ़ीरनी 12की तश्तरियों पर बाहर आती है। खेतों का दामन
सब्ज़ी-तरकारी से भर दिया जाता और गंदुम13, मोठ, मटर जैसी अजनास14 से।
इन्हीं खेतों के बीच एक हँसता हुआ खेत ज़ाफ़रान15 का कहलाया कि बिरयानी की
जान है, क़ोरमें की आन है। तो ऐसा आलम16 ज़ाहिर किया17 और इस आलम के बीच
भाँति-भाँति का जानवर और रंग-रंग की मख़लूक़18 पैदा की कि इसी में इनसान
ज़ईफ़ुलबुन्यान19 भी है। सुब्हान तेरी क़ुदरत20 कि तूने इसी बोदी21
बुनियाद22 वाले जानवर को अशरफ़ुल-मख़लूक़ात23 ठहरा दिया। इस
लतीफ़ा-ए-ग़ैबी24 पर अक़्ल दंग25 है, ज़ुबान गुंग है। लुत्फ़ों-करम26 उसके
किस जुबान से शुक्र27 अदा किया जाए कि इस ज़ालिमो-जाहिल28 मख़लूक़ की
इस्लाम29 के लिए एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बर30 भेजे। अज़ीज़ो !31 फिर भी
कम भेजे कि इस दो-टँगी मख़लूक़32 का जुल्म ज़्यादा है, जह्ल33
बेअन्दाजा34 है।
इन्हीं एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बरों में हमारे प्यारे नबीं35 रहमतुल-लिल आलमीन36 ख़ातिमुल-मुर्सलीन37 हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ललाहु अलैहि व आलिहि व
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1. आरम्भ करता हूँ उसके नाम से जो पवित्र है,
2. तारीफ़ का बहु, स्तुति; 3. हो जा (यह शब्द ईश्वर की ज़ुबान से निकला था, जिससे सृष्टि की रचना हुई; 4. संसार, 5. उपकार, 6. पुरखों का 7. स्वाद, 8. जीवन भर, 9. अतिरिक्त, 10. जैसे, 11. और, 12. खीर, 13 गेहूँ, 14. अनाजों, 15. केसर, 16, संसार, 17. रचा, 18. प्राणी, 19. जिसकी नींव कमज़ोर हो, 20. धन्य है तेरी महिमा, 21. कमज़ोर, 22. नींव, 23. सारे प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ, 24. ईश्वर की अनोखी बात, 25. चकित, 26 करूणा और कृपा, 27 धन्यवाद, 28. निर्दय और अज्ञानी, 29. सुधार, 30 अवतार, 31. प्रियजनों, 32. मनुष्य, 33 अज्ञान, 34. बहुत अधिक, 35. पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहिब, 36. सारे संसार के लिए साक्षात् कृपा और दया, हज़रत मुहम्मद साहिब की उपाधि, 37. उन पैग़म्बरों में आख़िरी पैग़म्बर जिन पर दिव्य ग्रंथ उतरे।
सलअम1 है कि आप और आपकी आले-अतहार2 और अस्हाबे-किबार3 पर बाद दुरुदो-सलात4 के बान्दा-ए-हेचमिक़्दार5 मुश्ताक़ अली वलद6 हकीम चराग़ अली ग़ायत7 इस तज़्किरे8 की बयान9 करता है जो यूँ है कि एक शब10 ख़्वाब में अब्बा जानी को देखा कि स सामने धरे औराक़े-परीशाँ11 को देखकर परीशान12 हैं और अफ़्सोस13 के साथ फ़रमा रहे हैं कि बुजुर्गो ने अपने-अपने वक़्त में हक़ अदा किया,14 हमसे हक़ अदा न हुआ। बस इतने में मेरी आँख खुल गई। पहले परीशान हुआ कि यह कैसा ख़्वाब था। बाद तअम्मुल15 के इसे हर्फ़ें-तंबीह16जाना। खुद को नफ़रीन17 की ऐ सगे-दुनिया18 मुश्ताक़ अली ! अल्लाह तआला तेरे हाल पे रहम करे। तूने उम्र लह्वो-लइब,19 सैरो-शिकार20 में गुज़ार में दी। हनोज़21 तू अलाइक़े-दुनयवी22 में मुब्तला23 है। हरचन्द24 कि सर तेरा चाँदी हो चुका है और इमारत तन की तेरे हिल चुकी है पर हिर्सो-तम्अ25 तुझे नहीं छोड़ती। ऐ ग़ाफ़िल26 अब जबकि तू गोर27 किनारे आन लगा है और पता नहीं कि पैके-अजल28 कब पयाम29 लेकर आ जाए, ख़्वाबे-ग़फ़लत30 से जाग और अपने फ़रीज़ा को पहचान। जान ले कि ख़्वाब में अब्बा जानी का आना और औराक़े-परीशाँ को देखकर अफ़्सोस करना तेरे लिए एक इशारा है।
तब मैंने अब्बा जानी के बिखरे वरक़32 इकट्ठे किए और दिल पे धर लिया कि इस ख़ानदानी तज़्किरे में बाद के ख़ानदानी हालात इज़ाफ़ा करके33 व नीज़ हालते-ज़माना34 क़लमबन्ध करके35 पाया-ए-तक्मील को पहुँचाऊँगा।36 बाद में अख़्लाफ़37 इसमें इज़ाफ़े करते रहेंगे। नीज़ तय किया कि यह काम शिताबी38 से अन्जाम39 दिया जाना चाहिए कि एक तो उम्र कोताह40 है, दूसरे ज़माना पुर-आशोब41 है। रस्तख़ेज़े-बेजा42 का नक़्शा43 है। तराबुलुस में बरादराने-इस्लाम44 पर क़यामत गुज़र गई। तुर्की में ख़िलाफ़त का तख़्ता उलट गया। अमृतसर में फ़िरंगियों ने अपनी देसी रिआया45 को भून डाला। दम के दम में जलियाँवाला बाग़ मक़्तल46 बन गाया। दयारे-हिन्द47 की ख़िल्क़त48 त्राहि-त्राहि पुकार उठी। गाँधीजी ने ऐसा सत्याग्रह किया कि नगर-नगर में क़यामत उठ ख़ड़ी हुई। चौराचौरी में ऐसा हुआ कि ख़िलाफ़तियों और कांग्रेसियों ने थाने ही को फूँक डाला कि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
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1. हज़रत मुहम्मद साहिब का नाम लिखते, लेते या सुनते हैं तो आदर और प्रेम के लिए दुआ के ये शब्द बढ़ा देते हैं, 2, पवित्र सन्तान, 3. प्रतिष्ठिति लोग, 4. प्रार्थना और शान्ति पाठ, 5 बहुत ही विनीत और विवश दास, 6, पुत्र, 7. कारण, 8. जीवन चरित, जीवनी, आपबीती और जगबीती, 9. वर्णन, 10 रात, 11, बिखरे हुए पन्ने, 12 दुखी, 13 खेद, 14 कर्तव्य का पालन किया, 15, विचार, 16, चेतावनी देनेवाली बात, 17 धिक्कार, 18 संसार की माया में लिप्त व्यक्ति, 19 वे बातें जो धार्मिक कार्यों से रोकें, 20 सैर की शिकार, 21 जब भी, 22, दुनिया के बखेड़े, 23. लिप्त, 24. यद्यपि, 25. लोभ, 26 बेख़बर, 27. क़ब्र, 28. यमदूत, 29 सन्देश, 30. गहरी नींद, 31. कर्तव्य, 32, पन्ने, 33, बढ़ाकर, 34. जगबीती, 35. लिखकर, 36 समात्ति करूँगा, 37. पुत्र, पोते आदि, 38. शीघ्रता, 39. अन्त 40 थोड़ी, 41, घटनाओं और उथल-पुथल से भरा हुआ, 42. अनुचित सर्वनाश, 43 दशा, 44. मुसलमान भाइयों, 45 प्रजा, 46. वधभूमि, 47. हिन्दोस्तान, 48 जनता।
किस्सा-मुख़्तसर1 ज़ेरे-आस्मान2 वह हुआ है और हो रहा है कि चश्मे-फ़लक3 ने कभी काहे को देखा होगा। अभी आगे देखिए क्या-क्या होता है। ज़माना बेएतिबार4 है, चर्ख़5 कज-रफ़्तार6 है, घडी-घड़ी रंग बदलता है। संगे-हवादिस7 से ऐसा तफ्रिक़ा8 पैदा करता है कि देस्त दुश्मन बन जाते हैं। अभी चाहत में मरे जा रहे थे, अभी ख़ून के प्यासे हैं। अली बरदरान को देखों, कल तक गाँधीजी से दाँत काटी रोटी थी, ‘तू मन शुदी मन तू शुदम’9 का मज़्मून10 था।
अरे उस महात्मा की ख़ातिर तो उन मौलानाओं ने गोश्त खाना छोड़ दिया था। बी अम्माँ गोश्त की हँडिया पकाने से गईं, दाल तरकारी घोट-घोट के बेटों को खिलाने लगीं। ग़ज़ब खुदा का, मुसलमान घर का बावर्चीख़ाना11 गोश्त की हँडिया की महक से महरूम12 हो जाए। मगर अब गाँधीजी से उनकी ठनी है। वह महात्मा मैना है, ये भाई भड़भड़िया हैं। घड़ी में रन में घड़ी में बन में। कल महात्मा जी पे जान छिड़क रहे थे, अब बेनुक़्त13 सुना रहे हैं, आग के अँगारे उगल रहे हैं। उधर हिन्दू-मुसलमान कटे मर रहे हैं। मुल्तान मक़्तल बन गया।
मिट्टी उस दयार14 की ख़ून से रंगीन हो गई। बरादरे-ख़ुर्द15 इश्तियाक़ अली बी.ए. ने बयान किया है कि मसीहुलमुल्क16 हकीम अजमल ख़ाँ कवाइफ़17 मालूम करने के लिए उस क़रिए18 में गए। एक कूचे से गुज़र हुआ तो क्या देखा कि एक बुढ़िया एक जला-फुँका पिंजरा गोद में लिए जले मलवे पे बैठी गिर्या करती है।19 हकीम साहिब क़िब्ला20 ने अहवाल21 पूछा तो उसने रो-रोके दुहाई दी कि नासपीटों ने मेरे घर को फूँका सो फूँका, मेरे मिट्ठू को भी न छोड़ा, पिंजरा आग में झोक दिया। फिर जले पिंजरे को देखकर वह फूट-फूटकर रोई। उधर हकीम साहिब क़िब्ला भी आबदीदा हो गए।22
बरामदे-ख़ुर्द इश्ताक़ अली जोशे-जवानी में तहरीकें-ख़िलाफ़त23 में शामिल हो गए थे। फ़क़ीर ने उन्हें बहुत रोका-टोका, समझाया कि हाकिमें-वक़्त24 से सरकशी25 करना क़रीने-मस्लहत26 नहीं और हमें तो उनके मुक़ाबिल27 आना यूँ भी भला नहीं लगता कि अब हमारे ख़ानदान का शुमार28 उनके वफ़ादारों में होता है। आगे जो हुआ सो हुआ पर अब तो हम बरकाते-सल्तनते-इंगलिसिया29 के मदहख़्वाँ30 हैं। क्यों न हो कि राज में उनके शेर-बकरी एक घाट पानी पीते हैं और दयारो-अम्सार31 में ऐसा अमन-चैन है कि चाहो तो कूचा-ओ-बाज़ार में, चाहों तो जंगल-वीराने में सोना उछालते चले जाओ, मजाल है कि कोई पूछ ले कि तुम्हारे मुँह में कितने दाँत हैं और हमारे ख़ानदान का इक़्बाल32 तो उन्हीं के चश्में-करम33 का मरहूने-मिन्नते34 है। इस बेमक़्दित35 को उन्होंने
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1, संक्षेप में, 2. आकाश के नीचे, धरती पर, 3. आकाश की आँख, 4. अविश्वसनीय, 5. आकाश, 6 टेढ़ी चाल चलनेवाला, 7. दुर्घटनाओं का पत्थर, 8. फूट, 9. तू मैं हो गया और मैं तू हो गया, 10 दशा, 11. रसोई, 12 वंचित, 13. बहुत बुरा, 14. स्थान, 15. छोटा भाई, 16. हकीम अजमन ख़ाँ की उपाधि, 17. हाल, 18. नगर, 19. रोती है, 20. प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए सम्बोधन का शब्द, 21. हाल का बहु, 22. आँखों में आँशू आ गए, 23. ख़िलाफ़त आन्दोलन, 24 शासक, 25 विद्रोह, 26 जो बात समय के अनुकूल होते हुए अपने हित में न हो, 27. विरोध में, 28, गिनती, 29. अंग्रेज़ी शासन के कल्याण, 30 प्रशंसक, 31. गाँवों और नगरों, 32 समृद्धि, 33. कृपादृष्टि, 34 आभारी, 35. असमर्थ।
ख़ान बहादुरी के ख़िताब1 नवाज़ा2 और ऑनरेरी मजिस्ट्रेटी के उह्दा-ए-जलीला3 पर फ़ाइज़ किया4 कि दाद-ख़्वाह5 रोज़ इस ड्योढी पर हाज़री देते हैं और इंसाफ़ लेकर जाते हैं। बदख़्वा6 हमें बदनाम करते हैं कि वतने-अज़ीज़7 से ग़द्दारी के सिले में8 मरातिब9 हमें मिले हैं। हासिद10 तो हमारे इक़्बाल को देखकर आतशे-हसद11 में जलते हैं और बाते बनाते हैं। वाक़िआ यूँ है कि फिरंगी हाक़िमों ने हमारे ख़ानदान के जुर्में-बग़ावत12 को बख़्शकर13 हमारे दिल ख़रीद लिए। यही तो इस फ़क़ीर न मिया इश्तियाक़ अली से कहा कि बरादरे-अज़ीज़14 ! हमारे एक बुजुर्ग ने सर उठाया था तो कितने दिनों ख़ानदान पर इदबार15 की घटा छाई रही और ख़ता16 एक मर्तबा ही मुआफ़17 होती है। रोज़-रोज़ कोई भी हकीम जुर्म18 से चश्मपोशी19 नहीं करता। मगर बरादरे-अज़ीज के खून में गर्मी कुछ ज़्यादा ही थी, एक न सुनी। ख़ानदान की रवायाते-नमकहलाली20 को ठोकर मारी और अली बरादरान के पीछे लग लिए। मगर पीछे उनके लगकर क्या पाया। हाकिमें-वक़्त की नज़रों से भी गिरे और जिस मक़्सद के लिए यह तौर21 पकड़ा था, वह भी हासिल न हुआ। जगहँसाई के सिवा क्या पाया। ख़िलाफ़त ही का तिया-पाँचा हो गया और ख़ुद अपनों के हाथों। ग़ाज़ी मुस्ताफ़ा कमाल पाशा ने इसका ख़ातिमा-बिलख़ैर22 कर दिया। जब यह खबरे-वहशत-असर23 यहाँ पहुँची तो मत पूछों की इश्तियाक़ मियाँ पर क्या आलम गुज़रा2। धाडे मारे-मारकर रोए। लगता था कि खुदा-नख़्वास्ता25 हमारे घर में कोई मौत हो गई है। मैंने समझाया कि बरादरे-अज़ीज़। ख़िलाफ़त तो अब जसदे-बेरूह26 थी और घर में मय्यत27 का ज़्यादा देर रखना अच्छा नहीं होता है। जनाज़ा निकल गया मुनासिब28 हुआ।
अली बरादरान ख़िलाफ़त के क़ज़िए29 से फ़ारिग़30 हुए तो नज्दियों31 के पीछे लग लिए। इन भाइयों को भी कोई न कोई शग़्ल32 चाहिए। ज़ज्बात33 का इनके यहाँ वुफ़ूर34 है। नदी हर दम चढी़ रहती है। ये भाई लोग इनके भर्रे में आ गए कि सरज़मीने-अरब35 पर जुम्हूरिया-ए-अरबिया-इस्लामिया36 क़ाइम37 होगी। उनके बन्दा-ए-बेदाग38 बन गए। मगर हुआ क्या; उधर उन्होंने अपनी बादशाहत का एलान कर दिया, उधर ये भाई भीगे बताशों की तरह बैठ गए।
तो ये हाल है मुसलमानों का और यह चाल है ज़माने की। तबाही के अख़्बार39 हैं। क़यामत के आसार40 हैं। एक वाक़िया41 अजब गुज़रा। सददू का बेटा मम्दू रात
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1. उपाधि 2. प्रदान किया, 3. महान पद, 4. पहुँचाया, 5. न्याय चाहनेवाले, 6. बुरा चाहनेवाले, 7. प्रिय देश, 8. बदले में, 9. पद, 10 ईष्यालू 11. ईष्या की आग, 12. विद्रोह का अपराध, 13. क्षमा करके, 14. प्यारे भाई, 15. निर्धनता, दुर्दशा, 16 अपराध, 17. क्षमा, 18. अपराध, 19 किसी के दोष देखकर टाल जाना, 20 कृतज्ञता की परंपराएँ, 21. ढंग, 22. अन्त, 32. भयजनक समाचार, 24. हालात हुई, 25. खुदा न करे, 26. मुर्दा, 27. शव, 28 ठीक, 29 झगड़ा, 30. मुक्त हुए, 31. अरब के एक प्रदेश नज्द के निवासी, नज्द से वहाबी सम्प्रदाय का जन्म हुआ, 32. काम, 33. भावनाएँ, 34. आधिक्य, 35. अरब देश 36. अरबी इस्लामी गणतन्त्र, 37. स्थापित, 38. परम भक्त, 29. समाचार, ख़बर का बहु., 40 लक्षण, 41 घटना।
गए ज़मीनों से वापस आ रहा था। दरोग़-बर-गर्दने-रावी1 आकर सुनाया कि ख़ान बहादुर साब, हुआ यूँ कि मैं बटिया-बटिया चला आ रहा था कि पीछे क़दमों की आहट हुई ऐसा लगा कि जैसे कोई जना लम्बे डग भरता हुआ पीछे आ रहा है मुड़कर देखने लगा था कि एक आदमी, टाँगे ये लम्बी-लम्बी जैसे ऊँट की हों, हाथ में लम्बा-सा लठ, लम्बे डग भरता बराबर से सन्न-से ग़ुज़र गया और इधर गुज़रा उधर गाइब। राक़िमुलहुरूफ़2 ने यह सुनकर तअम्मुल किया।3 फिर पूछा अरे मम्दू, तूने अच्छी तरह देखा भी था। बोला, ख़ान बहादुर साबजी, जो झूट बोले सो काफिर। आँखों देखी कहता हूँ और वह्म4 तो मैंने कभी किया ही नहीं। रातें जंगलों में गुजारी हैं, कभी जो वह्म किया हो। मैंने पूछा, वह आदमी लगता था ना ? बोला, आदमी भी था और नहीं भी लगता था। मैंने कहा कि अरे कमबख़्त, यह तूने क्या देख लिया। कहीं दाब्बतुल अर्ज़ तो नुमूदार6 नहीं हो गया। निशानियाँ तो कुछ उसी की-सी हैं।
यह वाक़िआ7 सुनने के बाद मुझे कई दिन तक तश्वीश8 रही। मम्दू की पेशानी9 तो मैंने उसी घड़ी ग़ौर से देख ली थी। बाद इसके दूसरों की पेशानियाँ भी गौर से देखीं। जब दाग़ किसी पेशानी पर दिखाई न दिया तो दिल को क़द्रे10 क़रार11 आया। फिर यह सोचकर अपने दिल को समझाया कि दाब्बुतुलअर्ज़ होता तो इतनी देर कहाँ लगनी थी। सब पेशानियाँ अब तक दा़गदार होतीं और दुनिया ज़ेरो-ज़बर12 हो चुकी होती। ‘क़यामतनामा’13 से रुजू किया,14 वहाँ से भी मेरे ख़याले-नाक़िस15 की तस्दीक़16 हुई। दाब्बतुलअर्ज़ यूँ थोड़ा ही नुमूदार हो जाएगा। सफ़ा17 का पहाड़ जब शक़ होगा, तब उसके बीच से बरामद होगा। सात जानवरों की उसमें शबाहत19 होगी। टाँगे ऊँटवाली, गर्दन पे अयाल20 घोड़ेवाले हाथ में असा।21 उस असा के साथ दरवाज़ों पर दस्तक देगा। वो जो घरों में बन्द बैठे होगें, बदहवास होकर घरों से निकल पड़ेंगे। दाब्बतुलअर्ज़ हर पेशानी को असा से छुएगा। जिस पेशानी को छुएगा, वह दाग़दार नज़र आएगी। बाद में इसके क़यामत को आया समझो।
जब तहक़ीक़22 हो गया कि रात को हंगाम23 किसी घर पे दस्तक नहीं हुई है और किसी पेशानी पे दाग़ नहीं है, तब यह कोताह-अन्देश24 मुत्मइन25 हो बैठा। मगर सोचता हूँ कि यह इत्मीनान आख़िर कब तक। कुर्बें-क़यामत26 के असार27 ज़ाहिर होते चले जा रहे हैं। दाब्बतुलअर्ज़ आज नहीं तो कल नुमूदार हो जाएगा। हमारी पेशानियों को किसी न किसी दिन दाग़दार होना है। यह आसी-पुर-मआसी29 आनेवाले वक़्त से डरता है और तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार30 करता रहता है कि ऐ पालनेवाले ! पेशानी दाग़दार होने
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1. झूठ का पाप कहने वाले का गर्दन पर, 2. वृत्तान्त लेखक, 3 सोचा 4. भ्रम, 5. एक पशु जो प्रलय आने से पहले प्रकट होगा, 6. प्रकट, 7. वृत्तन्त, 8. चिन्ता, 9. माथा, 10. थोड़ा-सा 11. चैन, 12 उथल-पुथल, 13 एक पुस्तक जिसमें महाप्रलय के लक्षण का वर्णन है, 14. पढ़ा, 15. मिथ्या विचार, भ्रम, 16 पुष्टि, 17 मक्के का एक पहाड़, 18. फटेगा, 19. समरूपता, 20. घोड़े की गर्दंन के लम्बें बाल, 21. सोंटा, 22. ज्ञात, 23. समय, 24. अदूरदर्शी मूर्ख, 25. सन्तुष्ट, 26. प्रलय का क़रीब होना, 27. लक्षण, 28. प्रकट, 29. पापी, 30 ईश्वर से पापों की क्षमा चाहना।
इन्हीं एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बरों में हमारे प्यारे नबीं35 रहमतुल-लिल आलमीन36 ख़ातिमुल-मुर्सलीन37 हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ललाहु अलैहि व आलिहि व
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1. आरम्भ करता हूँ उसके नाम से जो पवित्र है,
2. तारीफ़ का बहु, स्तुति; 3. हो जा (यह शब्द ईश्वर की ज़ुबान से निकला था, जिससे सृष्टि की रचना हुई; 4. संसार, 5. उपकार, 6. पुरखों का 7. स्वाद, 8. जीवन भर, 9. अतिरिक्त, 10. जैसे, 11. और, 12. खीर, 13 गेहूँ, 14. अनाजों, 15. केसर, 16, संसार, 17. रचा, 18. प्राणी, 19. जिसकी नींव कमज़ोर हो, 20. धन्य है तेरी महिमा, 21. कमज़ोर, 22. नींव, 23. सारे प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ, 24. ईश्वर की अनोखी बात, 25. चकित, 26 करूणा और कृपा, 27 धन्यवाद, 28. निर्दय और अज्ञानी, 29. सुधार, 30 अवतार, 31. प्रियजनों, 32. मनुष्य, 33 अज्ञान, 34. बहुत अधिक, 35. पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहिब, 36. सारे संसार के लिए साक्षात् कृपा और दया, हज़रत मुहम्मद साहिब की उपाधि, 37. उन पैग़म्बरों में आख़िरी पैग़म्बर जिन पर दिव्य ग्रंथ उतरे।
सलअम1 है कि आप और आपकी आले-अतहार2 और अस्हाबे-किबार3 पर बाद दुरुदो-सलात4 के बान्दा-ए-हेचमिक़्दार5 मुश्ताक़ अली वलद6 हकीम चराग़ अली ग़ायत7 इस तज़्किरे8 की बयान9 करता है जो यूँ है कि एक शब10 ख़्वाब में अब्बा जानी को देखा कि स सामने धरे औराक़े-परीशाँ11 को देखकर परीशान12 हैं और अफ़्सोस13 के साथ फ़रमा रहे हैं कि बुजुर्गो ने अपने-अपने वक़्त में हक़ अदा किया,14 हमसे हक़ अदा न हुआ। बस इतने में मेरी आँख खुल गई। पहले परीशान हुआ कि यह कैसा ख़्वाब था। बाद तअम्मुल15 के इसे हर्फ़ें-तंबीह16जाना। खुद को नफ़रीन17 की ऐ सगे-दुनिया18 मुश्ताक़ अली ! अल्लाह तआला तेरे हाल पे रहम करे। तूने उम्र लह्वो-लइब,19 सैरो-शिकार20 में गुज़ार में दी। हनोज़21 तू अलाइक़े-दुनयवी22 में मुब्तला23 है। हरचन्द24 कि सर तेरा चाँदी हो चुका है और इमारत तन की तेरे हिल चुकी है पर हिर्सो-तम्अ25 तुझे नहीं छोड़ती। ऐ ग़ाफ़िल26 अब जबकि तू गोर27 किनारे आन लगा है और पता नहीं कि पैके-अजल28 कब पयाम29 लेकर आ जाए, ख़्वाबे-ग़फ़लत30 से जाग और अपने फ़रीज़ा को पहचान। जान ले कि ख़्वाब में अब्बा जानी का आना और औराक़े-परीशाँ को देखकर अफ़्सोस करना तेरे लिए एक इशारा है।
तब मैंने अब्बा जानी के बिखरे वरक़32 इकट्ठे किए और दिल पे धर लिया कि इस ख़ानदानी तज़्किरे में बाद के ख़ानदानी हालात इज़ाफ़ा करके33 व नीज़ हालते-ज़माना34 क़लमबन्ध करके35 पाया-ए-तक्मील को पहुँचाऊँगा।36 बाद में अख़्लाफ़37 इसमें इज़ाफ़े करते रहेंगे। नीज़ तय किया कि यह काम शिताबी38 से अन्जाम39 दिया जाना चाहिए कि एक तो उम्र कोताह40 है, दूसरे ज़माना पुर-आशोब41 है। रस्तख़ेज़े-बेजा42 का नक़्शा43 है। तराबुलुस में बरादराने-इस्लाम44 पर क़यामत गुज़र गई। तुर्की में ख़िलाफ़त का तख़्ता उलट गया। अमृतसर में फ़िरंगियों ने अपनी देसी रिआया45 को भून डाला। दम के दम में जलियाँवाला बाग़ मक़्तल46 बन गाया। दयारे-हिन्द47 की ख़िल्क़त48 त्राहि-त्राहि पुकार उठी। गाँधीजी ने ऐसा सत्याग्रह किया कि नगर-नगर में क़यामत उठ ख़ड़ी हुई। चौराचौरी में ऐसा हुआ कि ख़िलाफ़तियों और कांग्रेसियों ने थाने ही को फूँक डाला कि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
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1. हज़रत मुहम्मद साहिब का नाम लिखते, लेते या सुनते हैं तो आदर और प्रेम के लिए दुआ के ये शब्द बढ़ा देते हैं, 2, पवित्र सन्तान, 3. प्रतिष्ठिति लोग, 4. प्रार्थना और शान्ति पाठ, 5 बहुत ही विनीत और विवश दास, 6, पुत्र, 7. कारण, 8. जीवन चरित, जीवनी, आपबीती और जगबीती, 9. वर्णन, 10 रात, 11, बिखरे हुए पन्ने, 12 दुखी, 13 खेद, 14 कर्तव्य का पालन किया, 15, विचार, 16, चेतावनी देनेवाली बात, 17 धिक्कार, 18 संसार की माया में लिप्त व्यक्ति, 19 वे बातें जो धार्मिक कार्यों से रोकें, 20 सैर की शिकार, 21 जब भी, 22, दुनिया के बखेड़े, 23. लिप्त, 24. यद्यपि, 25. लोभ, 26 बेख़बर, 27. क़ब्र, 28. यमदूत, 29 सन्देश, 30. गहरी नींद, 31. कर्तव्य, 32, पन्ने, 33, बढ़ाकर, 34. जगबीती, 35. लिखकर, 36 समात्ति करूँगा, 37. पुत्र, पोते आदि, 38. शीघ्रता, 39. अन्त 40 थोड़ी, 41, घटनाओं और उथल-पुथल से भरा हुआ, 42. अनुचित सर्वनाश, 43 दशा, 44. मुसलमान भाइयों, 45 प्रजा, 46. वधभूमि, 47. हिन्दोस्तान, 48 जनता।
किस्सा-मुख़्तसर1 ज़ेरे-आस्मान2 वह हुआ है और हो रहा है कि चश्मे-फ़लक3 ने कभी काहे को देखा होगा। अभी आगे देखिए क्या-क्या होता है। ज़माना बेएतिबार4 है, चर्ख़5 कज-रफ़्तार6 है, घडी-घड़ी रंग बदलता है। संगे-हवादिस7 से ऐसा तफ्रिक़ा8 पैदा करता है कि देस्त दुश्मन बन जाते हैं। अभी चाहत में मरे जा रहे थे, अभी ख़ून के प्यासे हैं। अली बरदरान को देखों, कल तक गाँधीजी से दाँत काटी रोटी थी, ‘तू मन शुदी मन तू शुदम’9 का मज़्मून10 था।
अरे उस महात्मा की ख़ातिर तो उन मौलानाओं ने गोश्त खाना छोड़ दिया था। बी अम्माँ गोश्त की हँडिया पकाने से गईं, दाल तरकारी घोट-घोट के बेटों को खिलाने लगीं। ग़ज़ब खुदा का, मुसलमान घर का बावर्चीख़ाना11 गोश्त की हँडिया की महक से महरूम12 हो जाए। मगर अब गाँधीजी से उनकी ठनी है। वह महात्मा मैना है, ये भाई भड़भड़िया हैं। घड़ी में रन में घड़ी में बन में। कल महात्मा जी पे जान छिड़क रहे थे, अब बेनुक़्त13 सुना रहे हैं, आग के अँगारे उगल रहे हैं। उधर हिन्दू-मुसलमान कटे मर रहे हैं। मुल्तान मक़्तल बन गया।
मिट्टी उस दयार14 की ख़ून से रंगीन हो गई। बरादरे-ख़ुर्द15 इश्तियाक़ अली बी.ए. ने बयान किया है कि मसीहुलमुल्क16 हकीम अजमल ख़ाँ कवाइफ़17 मालूम करने के लिए उस क़रिए18 में गए। एक कूचे से गुज़र हुआ तो क्या देखा कि एक बुढ़िया एक जला-फुँका पिंजरा गोद में लिए जले मलवे पे बैठी गिर्या करती है।19 हकीम साहिब क़िब्ला20 ने अहवाल21 पूछा तो उसने रो-रोके दुहाई दी कि नासपीटों ने मेरे घर को फूँका सो फूँका, मेरे मिट्ठू को भी न छोड़ा, पिंजरा आग में झोक दिया। फिर जले पिंजरे को देखकर वह फूट-फूटकर रोई। उधर हकीम साहिब क़िब्ला भी आबदीदा हो गए।22
बरामदे-ख़ुर्द इश्ताक़ अली जोशे-जवानी में तहरीकें-ख़िलाफ़त23 में शामिल हो गए थे। फ़क़ीर ने उन्हें बहुत रोका-टोका, समझाया कि हाकिमें-वक़्त24 से सरकशी25 करना क़रीने-मस्लहत26 नहीं और हमें तो उनके मुक़ाबिल27 आना यूँ भी भला नहीं लगता कि अब हमारे ख़ानदान का शुमार28 उनके वफ़ादारों में होता है। आगे जो हुआ सो हुआ पर अब तो हम बरकाते-सल्तनते-इंगलिसिया29 के मदहख़्वाँ30 हैं। क्यों न हो कि राज में उनके शेर-बकरी एक घाट पानी पीते हैं और दयारो-अम्सार31 में ऐसा अमन-चैन है कि चाहो तो कूचा-ओ-बाज़ार में, चाहों तो जंगल-वीराने में सोना उछालते चले जाओ, मजाल है कि कोई पूछ ले कि तुम्हारे मुँह में कितने दाँत हैं और हमारे ख़ानदान का इक़्बाल32 तो उन्हीं के चश्में-करम33 का मरहूने-मिन्नते34 है। इस बेमक़्दित35 को उन्होंने
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1, संक्षेप में, 2. आकाश के नीचे, धरती पर, 3. आकाश की आँख, 4. अविश्वसनीय, 5. आकाश, 6 टेढ़ी चाल चलनेवाला, 7. दुर्घटनाओं का पत्थर, 8. फूट, 9. तू मैं हो गया और मैं तू हो गया, 10 दशा, 11. रसोई, 12 वंचित, 13. बहुत बुरा, 14. स्थान, 15. छोटा भाई, 16. हकीम अजमन ख़ाँ की उपाधि, 17. हाल, 18. नगर, 19. रोती है, 20. प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए सम्बोधन का शब्द, 21. हाल का बहु, 22. आँखों में आँशू आ गए, 23. ख़िलाफ़त आन्दोलन, 24 शासक, 25 विद्रोह, 26 जो बात समय के अनुकूल होते हुए अपने हित में न हो, 27. विरोध में, 28, गिनती, 29. अंग्रेज़ी शासन के कल्याण, 30 प्रशंसक, 31. गाँवों और नगरों, 32 समृद्धि, 33. कृपादृष्टि, 34 आभारी, 35. असमर्थ।
ख़ान बहादुरी के ख़िताब1 नवाज़ा2 और ऑनरेरी मजिस्ट्रेटी के उह्दा-ए-जलीला3 पर फ़ाइज़ किया4 कि दाद-ख़्वाह5 रोज़ इस ड्योढी पर हाज़री देते हैं और इंसाफ़ लेकर जाते हैं। बदख़्वा6 हमें बदनाम करते हैं कि वतने-अज़ीज़7 से ग़द्दारी के सिले में8 मरातिब9 हमें मिले हैं। हासिद10 तो हमारे इक़्बाल को देखकर आतशे-हसद11 में जलते हैं और बाते बनाते हैं। वाक़िआ यूँ है कि फिरंगी हाक़िमों ने हमारे ख़ानदान के जुर्में-बग़ावत12 को बख़्शकर13 हमारे दिल ख़रीद लिए। यही तो इस फ़क़ीर न मिया इश्तियाक़ अली से कहा कि बरादरे-अज़ीज़14 ! हमारे एक बुजुर्ग ने सर उठाया था तो कितने दिनों ख़ानदान पर इदबार15 की घटा छाई रही और ख़ता16 एक मर्तबा ही मुआफ़17 होती है। रोज़-रोज़ कोई भी हकीम जुर्म18 से चश्मपोशी19 नहीं करता। मगर बरादरे-अज़ीज के खून में गर्मी कुछ ज़्यादा ही थी, एक न सुनी। ख़ानदान की रवायाते-नमकहलाली20 को ठोकर मारी और अली बरादरान के पीछे लग लिए। मगर पीछे उनके लगकर क्या पाया। हाकिमें-वक़्त की नज़रों से भी गिरे और जिस मक़्सद के लिए यह तौर21 पकड़ा था, वह भी हासिल न हुआ। जगहँसाई के सिवा क्या पाया। ख़िलाफ़त ही का तिया-पाँचा हो गया और ख़ुद अपनों के हाथों। ग़ाज़ी मुस्ताफ़ा कमाल पाशा ने इसका ख़ातिमा-बिलख़ैर22 कर दिया। जब यह खबरे-वहशत-असर23 यहाँ पहुँची तो मत पूछों की इश्तियाक़ मियाँ पर क्या आलम गुज़रा2। धाडे मारे-मारकर रोए। लगता था कि खुदा-नख़्वास्ता25 हमारे घर में कोई मौत हो गई है। मैंने समझाया कि बरादरे-अज़ीज़। ख़िलाफ़त तो अब जसदे-बेरूह26 थी और घर में मय्यत27 का ज़्यादा देर रखना अच्छा नहीं होता है। जनाज़ा निकल गया मुनासिब28 हुआ।
अली बरादरान ख़िलाफ़त के क़ज़िए29 से फ़ारिग़30 हुए तो नज्दियों31 के पीछे लग लिए। इन भाइयों को भी कोई न कोई शग़्ल32 चाहिए। ज़ज्बात33 का इनके यहाँ वुफ़ूर34 है। नदी हर दम चढी़ रहती है। ये भाई लोग इनके भर्रे में आ गए कि सरज़मीने-अरब35 पर जुम्हूरिया-ए-अरबिया-इस्लामिया36 क़ाइम37 होगी। उनके बन्दा-ए-बेदाग38 बन गए। मगर हुआ क्या; उधर उन्होंने अपनी बादशाहत का एलान कर दिया, उधर ये भाई भीगे बताशों की तरह बैठ गए।
तो ये हाल है मुसलमानों का और यह चाल है ज़माने की। तबाही के अख़्बार39 हैं। क़यामत के आसार40 हैं। एक वाक़िया41 अजब गुज़रा। सददू का बेटा मम्दू रात
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1. उपाधि 2. प्रदान किया, 3. महान पद, 4. पहुँचाया, 5. न्याय चाहनेवाले, 6. बुरा चाहनेवाले, 7. प्रिय देश, 8. बदले में, 9. पद, 10 ईष्यालू 11. ईष्या की आग, 12. विद्रोह का अपराध, 13. क्षमा करके, 14. प्यारे भाई, 15. निर्धनता, दुर्दशा, 16 अपराध, 17. क्षमा, 18. अपराध, 19 किसी के दोष देखकर टाल जाना, 20 कृतज्ञता की परंपराएँ, 21. ढंग, 22. अन्त, 32. भयजनक समाचार, 24. हालात हुई, 25. खुदा न करे, 26. मुर्दा, 27. शव, 28 ठीक, 29 झगड़ा, 30. मुक्त हुए, 31. अरब के एक प्रदेश नज्द के निवासी, नज्द से वहाबी सम्प्रदाय का जन्म हुआ, 32. काम, 33. भावनाएँ, 34. आधिक्य, 35. अरब देश 36. अरबी इस्लामी गणतन्त्र, 37. स्थापित, 38. परम भक्त, 29. समाचार, ख़बर का बहु., 40 लक्षण, 41 घटना।
गए ज़मीनों से वापस आ रहा था। दरोग़-बर-गर्दने-रावी1 आकर सुनाया कि ख़ान बहादुर साब, हुआ यूँ कि मैं बटिया-बटिया चला आ रहा था कि पीछे क़दमों की आहट हुई ऐसा लगा कि जैसे कोई जना लम्बे डग भरता हुआ पीछे आ रहा है मुड़कर देखने लगा था कि एक आदमी, टाँगे ये लम्बी-लम्बी जैसे ऊँट की हों, हाथ में लम्बा-सा लठ, लम्बे डग भरता बराबर से सन्न-से ग़ुज़र गया और इधर गुज़रा उधर गाइब। राक़िमुलहुरूफ़2 ने यह सुनकर तअम्मुल किया।3 फिर पूछा अरे मम्दू, तूने अच्छी तरह देखा भी था। बोला, ख़ान बहादुर साबजी, जो झूट बोले सो काफिर। आँखों देखी कहता हूँ और वह्म4 तो मैंने कभी किया ही नहीं। रातें जंगलों में गुजारी हैं, कभी जो वह्म किया हो। मैंने पूछा, वह आदमी लगता था ना ? बोला, आदमी भी था और नहीं भी लगता था। मैंने कहा कि अरे कमबख़्त, यह तूने क्या देख लिया। कहीं दाब्बतुल अर्ज़ तो नुमूदार6 नहीं हो गया। निशानियाँ तो कुछ उसी की-सी हैं।
यह वाक़िआ7 सुनने के बाद मुझे कई दिन तक तश्वीश8 रही। मम्दू की पेशानी9 तो मैंने उसी घड़ी ग़ौर से देख ली थी। बाद इसके दूसरों की पेशानियाँ भी गौर से देखीं। जब दाग़ किसी पेशानी पर दिखाई न दिया तो दिल को क़द्रे10 क़रार11 आया। फिर यह सोचकर अपने दिल को समझाया कि दाब्बुतुलअर्ज़ होता तो इतनी देर कहाँ लगनी थी। सब पेशानियाँ अब तक दा़गदार होतीं और दुनिया ज़ेरो-ज़बर12 हो चुकी होती। ‘क़यामतनामा’13 से रुजू किया,14 वहाँ से भी मेरे ख़याले-नाक़िस15 की तस्दीक़16 हुई। दाब्बतुलअर्ज़ यूँ थोड़ा ही नुमूदार हो जाएगा। सफ़ा17 का पहाड़ जब शक़ होगा, तब उसके बीच से बरामद होगा। सात जानवरों की उसमें शबाहत19 होगी। टाँगे ऊँटवाली, गर्दन पे अयाल20 घोड़ेवाले हाथ में असा।21 उस असा के साथ दरवाज़ों पर दस्तक देगा। वो जो घरों में बन्द बैठे होगें, बदहवास होकर घरों से निकल पड़ेंगे। दाब्बतुलअर्ज़ हर पेशानी को असा से छुएगा। जिस पेशानी को छुएगा, वह दाग़दार नज़र आएगी। बाद में इसके क़यामत को आया समझो।
जब तहक़ीक़22 हो गया कि रात को हंगाम23 किसी घर पे दस्तक नहीं हुई है और किसी पेशानी पे दाग़ नहीं है, तब यह कोताह-अन्देश24 मुत्मइन25 हो बैठा। मगर सोचता हूँ कि यह इत्मीनान आख़िर कब तक। कुर्बें-क़यामत26 के असार27 ज़ाहिर होते चले जा रहे हैं। दाब्बतुलअर्ज़ आज नहीं तो कल नुमूदार हो जाएगा। हमारी पेशानियों को किसी न किसी दिन दाग़दार होना है। यह आसी-पुर-मआसी29 आनेवाले वक़्त से डरता है और तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार30 करता रहता है कि ऐ पालनेवाले ! पेशानी दाग़दार होने
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1. झूठ का पाप कहने वाले का गर्दन पर, 2. वृत्तान्त लेखक, 3 सोचा 4. भ्रम, 5. एक पशु जो प्रलय आने से पहले प्रकट होगा, 6. प्रकट, 7. वृत्तन्त, 8. चिन्ता, 9. माथा, 10. थोड़ा-सा 11. चैन, 12 उथल-पुथल, 13 एक पुस्तक जिसमें महाप्रलय के लक्षण का वर्णन है, 14. पढ़ा, 15. मिथ्या विचार, भ्रम, 16 पुष्टि, 17 मक्के का एक पहाड़, 18. फटेगा, 19. समरूपता, 20. घोड़े की गर्दंन के लम्बें बाल, 21. सोंटा, 22. ज्ञात, 23. समय, 24. अदूरदर्शी मूर्ख, 25. सन्तुष्ट, 26. प्रलय का क़रीब होना, 27. लक्षण, 28. प्रकट, 29. पापी, 30 ईश्वर से पापों की क्षमा चाहना।
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