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बस्ती

इंतजार हुसैन

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :234
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3812
आईएसबीएन :81-7119-296-3

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एक श्रेष्ठ उपन्यास

Basti a hindi book by Intjar Husain - बस्ती - इंतजार हुसैन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

जब दुनिया अभी नयी-नयी थी, जब आसमान ताजा था और ज़मीन अभी मैली नहीं हुई थी, जब दरख्त सदियों में साँस लेते थे और परिंदों की आवाज़ों में जुग बोलते थे, कितना हैरान होता था वह इर्द-गिर्द को देखकर कि हर चीज़ कितनी नयी थी और कितनी पुरानी नज़र आती थी। नीलकंठ, खटबढ़िया, मोर, फाखता, गिलहरी, तोते जैसे सब उसके संग पैदा हुए थे, जैसे सब जुगों के भेद संग लिये फिरते हैं। मोर की झनकार लगता कि रूपनगर के जंगल से नहीं, वृंदावन से आ रही है। खटबढ़िया उड़ते-उड़ते ऊँचे नीम पर उतरती तो दिखायी देती कि वह मलका-सबा के महल में खत छोड़के आ रही है और हजरत सुलेमान के किले की तरफ जा रही है। और जब गिलहरी मुँडेरे पर दौड़ते-दौड़ते अचानक दुम पर खड़ी होकर चक चक करती तो वह उसे तकने लगता और हैरत से सोचता कि उसकी पीठ पर पड़ी यह काली धारियाँ रामचन्द्रजी की उँगलियों के निशान हैं। और हाथी तो हैरत का एक जहान था। अपनी ड्योढ़ी में खड़े होकर जब वह उसे दूर से आता देखता तो बिलकुल ऐसा लगता कि पहाड़ चला आ रहा है-यह लम्बी सूँड़ बड़े बड़े कान पंखों की तरह हिलते हुए, तलवार की तरह खम खाये हुए दो सफेद सफेद दाँत दो तरफ निकले हुए। उसे देख के वह हैरान अन्दर आता और सीधा बी अम्माँ के पास पहुँचता।

‘‘बी अम्माँ, हाथी पहले उड़ा करते थे ?’’
‘‘अरे तेरा दिमाग तो नहीं चल गया है !’’
‘‘भगतजी कह रहे थे।’’
‘‘अरे उस भगत की अक्ल पे तो पत्थर पड़ गये हैं। लो भला लहीम-शहीम जानवर हवा में कैसा उड़ेगा ?’’
‘‘बी अम्माँ, हाथी पैदा कैसे हुआ था ?’’
‘‘कैसे पैदा होता ! मैया ने जना, पैदा हो गया।’’
‘‘नहीं बी अम्माँ, हाथी अंडे से निकला है।’’
‘‘अरे तेरी अक्ल चरने तो नहीं गयी है ?’’
‘‘भगतजी कह रहे थे।’’
‘‘किस्मत मारे भगत की तो मत मारी गयी है। इतना बड़ा जानवर, हाथी का हाथी, वह अंडे में से निकलेगा। निकलना तो बाद की बात है, उसमें समायेगा कैसे ?’’

मगर उसे भगतजी के इल्म पर बहुत एतिबार था। गले में जनेऊ माथे पर तिलक, चोटी को छोड़कर सारा सिर घुटा हुआ। नोन-तेल की दुकान पर बैठे नोन तेल भी बेचते जाते और रामायण और महाभारत में लिखी हुई हिकमतें भी सुनाते जाते। लड़के-बाले शोर मचा रहे हैं, ‘‘भगतजी, डेढ़ पैसे की साँभर भगतजी धेले का गुड़।’’
‘‘बालको रौल मत मचाओ। धीरज से काम लो,’’ कहते कहते साँभर तोलते गुड़ देते और फिर वहीं से, जहाँ से छोड़ा था, सिरा पकड़ा लेते, ‘‘बालको ब्रह्माजी ने यह देखा तो शेष से कहा कि देख शेष, धरती इस समय अधिक डाँवाडोल है। तू वा की सहायता कर। शेष बोला महाराज, वा को उठा के मोके फन पे रख दो, फिर वह टिक जावेगी। ब्रह्माजी बोले कि शेष तू धरती के भीतर चला जा। शेष ने धरती में एक छेद देखा। वा में सटक गया। धरती तले पहुँच के फन फैलाया और धरती को फन पे टिका लिया। कछवे ने यह देखा तो वा को चिंता हुई कि शेष की पूँछ तले तो पानी है। वा ने शेष की पूँछ तले जाके सहारा दिया। सो बालको, धरती शेषजी के फन पे टिकी हुई है। शेषजी कछवे की पीठ पे टिके हुए हैं। जब कछवा हिले है तो शेषजी हिलते हैं। जब शेषजी हिलते हैं तो धरती हिले है और भूचाल आवे है।’’

मगर अब्बाजान ज़लज़ले की वजह कुछ और ही बताते थे। हकीम बन्दे अली और मुसीब हुसैन रोज़ उस बड़े कमरे में आकर बैठते जिसके बीचों बीच झालरवाला पंखा लटक रहा था और ऊँची छत के बराबर चारों तरफ कँगनी बनी थी जहाँ किसी जंगली कबूतरों के जोड़े ने, किसी फा़खता ने, किसी गुरसल ने अपना अपना घोंसला बना रखा था। दोनों अब्बाजान से कितने मुश्किल-मुश्किल सवाल करते थे और अब्बाजान बिना वक्त़ खोये कुरआन की आयतें पढ़कर और हदीसें सुनाकर सवालों के जवाब देते थे। ‘‘मौलाना ! अल्लाह तआला ने ज़मीन को कैसे पैदा किया ?’’
थोड़ा सोचना फिर जवाब, ‘‘सवाल किया जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी ने कि कु़र्बान हों हमारे माँ-बाप हुजूर पर से, ज़मीन को अल्लाह तबारक व तआला1 ने किस शै से तरकीब दिया ?2 फ़रमाया, समुन्दर के फेन से। पूछा, समुन्दर का फेना किस चीज़ से बनाया ? फ़रमाया, लहर से। पूछा, लहर किस चीज़ से निकली ? फ़रमाया, पानी से। पूछा, पानी कहाँ से निकला ? फ़रमाया दाना-ए-मरवारीद3 से। पूछा, दानाए-मरवारीद कहाँ से निकला ? फ़रमाया, तारीकी से। तब कहा जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी ने कि सिद्दक़त या रसूल्लिलाह।’’4
‘‘मौलाना ज़मीन किस चीज़ पर का़यम है ?’’

फिर दम-भर के लिए सोचना। फिर उसी धीमे स्वर में जवाब, ‘‘सवाल किया सवाल करने वाले ने कि क़ुर्बान हों या हज़रत मेरे माँ-बाप आप पर से। ज़मीन को करार किससे है ? फ़रमाया, कोहे-क़ाफ़ से। पूछा, ‘कोहे-क़ाफ़ के गिर्दा-गिर्द क्या है ? फ़रमाया, सात ज़मीन। पूछा, सात ज़मीनों के गिर्द क्या है ? फ़रमाया, अजदहा। पूछा, अजहदे के गिर्द है ? फ़रमाया, अजगहा। पूछा, ज़मीन के नीचे क्या है ? फ़रमाया, गाय जिसके चार हजार सींग हैं और एक सींग से दूसरे सींग तक का फासला पाँच सौ बरस के सफ़र का है। ये सात तबक5 ज़मीन के
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1. कल्याणकारी व महान 2. रचना की 3. ए अल्लाह के रसूल ! आपने सच कहा 5. पृथ्वी के खंड या लोक।
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उसके दो सींगों पर टिके हुए हैं और मच्छर एक उस गाय के नथुनों के रू ब रू बैठा है कि खौफ़ से उसके वह जुबिंश नहीं कर सकती। बस सींग बदलती है कि उससे जलजला1 आता है। पूछा, खड़ी है वह किस चीज़ पर ? फ़रमाया मछली की पुश्त पर। तब का़यल हुआ सवाल करने वाला और बोला, सिद्धक़त या रसूलिल्लाह !’’
अब्बाजान चुप हुए। फिर बोले, ‘‘हकीम साहब, इस दुनिया की हक़ीक़त बस इतनी है कि एक मच्छर गाय के नथुनों के रू ब रू बैठा है। मच्छर हट जाये तो फिर दुनिया कहाँ होगी ? तो हम एक मच्छर के रहमों-करम पर हैं, मगर नहीं जानते और ग़रूर करते हैं।’’

रोज यही बातें, रोज यही कहानियाँ । जैसे भगतजी और अब्बाजान मिलकर उसके लिए कायनात रच रहे थे। ये बातें सुन-सुनकर उसे तसव्वुर में दुनिया की एक तसवीर बन गयी थी। दुनिया तो ख़ैर पैदा हो गयी, मगर उसके बाद क्या हुआ ? रोयीं बहुत बीबी हव्वा। पैदा हुए उनके आँसुओं से मेंहदी और सुरमा। मगर पेट से पैदा हुए हाबील और काबील दो बेटे और अक़लीमा एक बेटी, चंदे आफ़ताब चंदे माहताब। ब्याह दिया बार ने बेटी को छोटे बेटे हाबील से। तिस पर गुस्सा खाया बड़े बेटे काबील ने और पत्थर उठाके मारा हाबील को कि मर गया वह उससे। उठायी काबील ने हाबील की लाश अपने काँधे पर और चक्कर काटा पूरी ज़मीन का। और गिरा जिस-जिस मुक़ाम पर ख़ून हाबील का, हो गयी उस-उस जगह पर ज़मीन शोर2। तब सोच में पड़ गया का़बील कि करूँ क्या भाई की लाश का कि दुखने लगे थे लाश के बोझ से उसके कंधे। देखा उस घड़ी उसने दो कौवों को कि लड़ रहे थे आपस में और मार डाला एक ने दूसरे को। खोदी मारने वाले ने अपनी चोंच से ज़मीन और गाड़कर उसमें मकतूल3 को जा बैठा दरख्त पर। तब अफ़सोस किया काबील ने कि ऐस खराबी मेरी, न हो सका मुझसे इतना कि होऊँ बराबर कौवे के और करूँ दफ़्न अपने बिरादर को। दफ़्न किया तब भाई ने भाई को, कौवे की मिसाल पर। सो वह थी पहली क़ब्र कि बनी रू-ए-ज़मीन पर
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1. भूकम्प 2. वह भूमि जो क्षार के कारण कृषि के योग्य न रही हो 3. मृतक।
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और था वह पहला ख़ून आदमी का कि हुआ आदमी के हाथों और था वह पहला भाई कि मारा गया भाई के हाथों-उसने पीले वरकों वाली वह किताब बंद करके अब्बाजान की किताबों की अलमारी में उसी जगह रख दी। जहाँ से उठायी थी, फिर बी अम्माँ के पास पहुँचा।
‘‘बी, अम्माँ, हाबील काबील का भाई था।’’
‘‘हाँ बेटे, हाबील काबील का भाई था ?’’
‘‘फिर हाबील को काबील ने कत्ल क्यों किया ?’’
‘‘गिरा ख़ून जो सफेद हो गया था।

उसने यह सुना और हैरान हुआ, मगर अब उसकी हैरत में हलका-हलका डर भी शामिल था, हैरत के तजुर्बों में खौफ़ की पहली लहर। वह उठकर बड़े कमरे में गया जहां रोजाना की तरह हकीम बन्दे अली और मुसीब हुसैन बैठे अब्बाजान से सवाल कर रहे थे और जवाब सुन रहे थे। मगर उस वक़्त अब्बाजान दुनिया के आगाज से छलाँग भरकर दुनिया के अंजाम पर पहुँच चुके थे।
‘‘मौलाना कयामत कब आयेगी ?’’
‘‘जब मच्छर मर जायेगा और गाय कब बैखौफ होगी ?’’
‘‘जब सूरज पच्छिम से निकलेगा।’’
‘‘जब मुर्गी बाँग देगी और मुर्ग़ा गूँगा हो जायेगा ?’’
‘‘मुर्गी कब बाँग देगी और मुर्ग़ा कब गूँगा हो जायेगा ?’’
‘‘जब बोलने वाले चुप हो जायेंगे और जूते के तस्मे बातें करेंगे।’’
‘‘बोलने वाले कब चुप हो जायेंगे और जूते के तस्मे कब बातें करेंगे ?’’
‘‘जब हाकिम जालिम हो जायेंगे और रिआया ख़ाक चाटेगी।’’

एक जब के बाद दूसरा जब, दूसरे जब के बाद तीसरा जब। जबों का अजब चक्कर था। जब जो गुज़र गये, जब जो आने वाले थे, कब-कब के जब अब्बाजान के तसव्वुर में रोशन थे। ऐसे लगता कि दुनिया जबों का बेअंत सिलसिला है। जब, और जब, और जब-मगर अब तसव्वुर की डोरी अचानक से टूट गयी। बाहर बुलंद होते नारों का शोर अचानक अंदर आया और उसकी यादों की लड़ी को तितर-बितर कर गया।
उसने उठकर दरीचे से झाँका और सामने वाले मैदान पर, जो कुछ दिनों से जलसागाह बना हुआ था, एक नज़र डाली और अनगिनतसिरों को गड्ड-मड्ड देखा। जलसा गर्म था, और अचानक नारे लगने शुरू हो गये थे। दरीचा बंद करके फिर कुरसी पर आ बैठा था और किताब को उलट-पुलट करके देखना और जहाँ-तहाँ से पढ़ना शुरू कर दिया था। आखिर सुबह के लिए लैक्चर भी तो तैयार करना था। मगर खिड़की बन्द हो जाने के बावजूद नारों का शोर सुनायी दे रहा था। घड़ी देखी, ग्यारह बज रहे थे। जलसा अब शुरू हुआ है तो पता नहीं ख़त्म कब होगा ?

कहीं फिर वहीं कल का चक्कर शुरू न हो जाये और रात की नींद हराम हो जाये ! आजकल तो जलसों में यही होता है। गाली से शुरू होते हैं और गोली पर ख़त्म होते हैं। मगर कमाल है, वह अपने आप पर हैरान होने लगा। बाहर जितना हंगामा बढ़ता जाता है, मैं अन्दर सिमटता जाता हूँ। कब कब की यादें आ रही हैं। अगले-पिछले किस्से, भूली-बिसरी बातें। यादें एक के साथ दूसरी, दूसरी के साथ तीसरी उलझी हुई, जैसे आदमी जंगल में चल रहा हो। मेरी यादें मेरा जंगल हैं। आखिर यह जंगल शुरू कहाँ से होता है ? नहीं, मैं कहाँ से शुरू होता हूँ ? और वह फिर जंगल में था। जैसे जंगल के अंत तक पहुँचना चाहता हो, जैसे अपना शुरू तलाश कर रहा हो। अँधेरे में चलते-चलते कोई रोशन जगह आती तो ठिठकता,मगर फिर आगे बढ़ जाता कि वह तो उस घड़ी तक पहुँचना चाहता था, जब उसके शऊर ने आँखें खोली थीं, मगर वह घड़ी उसकी पकड़ में नहीं आ रही थी। जब किसी याद पर उँगली रखी तो उसके पीछे से यादों के दल बादल मँडलाते नज़र आये। फिर वह यूँ तला कि उसकी याद के हिसाब रूपनगर में सबसे पहले कौन-सा वाक़िआ हुआ था। मगर उस बस्ती का हर काम सदियों में फैला नज़र आया। दिन रात का क़ाफ़िला वहाँ कितना आहिस्ता से गुज़रता था, जैसे गुज़र नहीं रहा, रुका खड़ा है। जो चीज़ जहाँ आकर ठहर गयी सो बस ठहर गयी। जब बिजली के खम्बे पहली पहल आये थे और सड़कों पर जहाँ-तहाँ डाले गये थे तो यह कितना इन्किलाबी वाकिआ नज़र आता था। पूरे रूपनगर में एक सनसनी दौड़ गयी। लोग चलते-चलते ठिठकते, सड़कों के किनारे पड़े हुए लोहे के लम्बे खम्बों को हैरत से देखते।

‘‘तो रूपनगर में बिजली आ रई ए ?’’
‘‘हम्बे।’’
‘‘मेरे सिर की सूँ ?’’
‘‘तेरे सिर की सूँ।’’
दिन गुज़रते गये, हैरत कम होती गयी। खम्बों पर गर्द की तहें जमती चली गयीं। धीरे धीरे उन पर उतनी ही गर्द जम गयी, जितनी उन कंकरों की ढेरियों पर थी, जो किसी भले वक्त में सड़कों की मरम्मत के लिए यहाँ डाली गयी थीं, मगर फिर डालने वालों ने उन्हें फ़रामोश कर दिया और वे रूपनगर की गर्द में अटे लैंडस्केप का हिस्सा बन गयीं। अब यह खम्बे भी उस गर्द में अटे लैडस्केप का हिस्सा थे। लगता कि सदा से यहाँ पड़े हैं, सदा यहाँ पड़े रहेंगे। बिजली की बात आयी-गयी हो चुकी थी। रोज शाम पड़े लालटैन जलानेवाला कंधे पर सीढ़ी रखे, हाथ, में तेल का कुप्पा लिये प्रकट होता और जगह–जगह लकड़ी के खम्बों पर टिकी दीवारों की बुलन्दी पर ठुकी लालटैनों को रोशन करता चला जाता।

‘‘हे री, बसंती, संझा हो गयी। दिया बाल दे।’’ बसंती साँवली रंगन, भोली सूरत, माथे पर बिंदिया, मली दली साड़ी, नंगे पैरों, थप थप करती ड्योढ़ी पर आती, ताक में रखे दिये में तेल बत्ती डालके जलाती और उलटे पैरों अन्दर चली जाती, बग़ैर उसकी तरफ़ देखे हुए कि वह अपनी ड्योढ़ी पर खड़ा उसे ताकता रहता। छोटी बज़रिया में भगतजी मैले-चीकट डीवट पर रखे दिये में एक पली कड़वा तेल डालकर उसे जलाते और समझ लेते कि उनकी दुकान में रोशनी हो गयी है। उन्हीं की दुकान के आगे, नाली के आगे मटरू मशाल जलाकर खोमचे के बराबर गाड़ देता और थोड़ी थोड़ी देर बाद आवाज़ लगाता, ‘‘सोंठ के बताशे।’’

मगर सबसे तेज़ रोशनी लाला हरदयाल सर्राफ की दुकान पर होती जहाँ छत में लटके हुए लैम्प की रोशनी दुकान से निकलकर सड़क पर थोड़ा उजाला कर देती। रोशनी की पूँजी इस नगर में बस इतनी ही थी। और यह भी कितनी देर ! दुकानें एक एक करके बन्द होती चली जातीं। ड्योढियों के ताकों में झिलामिलाते दिये मंदे होते चले जाते और आख़िर को बुझ जाते। फिर बस किसी-किसी नुक्कड़ पर लकड़ी के खम्बों पर टिकीं लालटैन टिमटिमाती रह जाती। बाक़ी अँधेरा ही अँधेरा। यूँ उस अँधेरे में देखने वाली आँखों को बहुत कुछ नज़र आता।

‘‘बी अम्माँ, यह पिछली जुमेरात की बात है। दोनों बख़त मिल रहे थे। चौपाल के पास से गुजरी तो ऐसे लगा जैसे कोई औरत रो रई है। इधर देखा उधर देखा, कोई भी नई। चौपाल के फाटक के पास एक काली बिल्ली बैठी थी। मेरा दिल धक से रह गया। मैंने उसे धतकार दिया। आगे जो गयी तो ए मैं क्या देखूँ हूँ कि नीम वाली बौर की दीवार पे वही बिल्ली। मैंने फिर उसे धतकारा। वह दीवार से अन्दर कूद गयी। आगे चलके ऊँचे कुएँ वाली गली से निकली तो ए बी अम्माँ, यकीन करियो फिर वही बिल्ली। लाला हरदयाल के चबूतरे पे बैठी ऐसे रो रई थी जैसे औरत रो रई हो। मेरा जी सन्न रह गया।’’
अल्लाह बस अपना रहम करे,’’ बी अम्माँ ने चिंतातुर होकर कहा और चुप हो गयीं। मगर रहम कहाँ ? उसके दूसरे तीसरे दिन शरीफ़न ने आकर दूसरी खबर सुनायी, ‘‘ ए बी अम्माँ ! मुहल्ले में चूहे बहुत मर रये हैं।’’
‘‘अच्छा ?’’

‘‘हाँ, मैं घूरे की तरफ से गुज़री तो देखा कि ढेरों मरे पड़े हैं।’’
पहले चूहे मरे, फिर आदमी मरने लगे। बाहर से आती हुई आवाज-राम नाम सत्त है।
‘‘अरी शरीफ़न ! देख तो सही, कौन मर गया ?’’
‘‘बी अम्माँ ! प्यारेलाल का पूत जगदीश मर गया है।’’
‘‘हए हए ! वह तो कड़ियल जवान था। कैसे मर गया ?’’
‘‘बी अम्माँ उसके गिलटी निकली थी। घंटों में चट-पट हो गया।’’
‘‘गिलटी ? अरी कमबख्त क्या कह रही है।’’
‘‘हाँ बी अम्माँ ! सच कह रही हूँ। ताऊन...।’’

‘‘बस-बस, जबान बन्द कर। भरे घर में इस सत्यानासी बीमारी का का नाम नहीं लिया करते।’’
गिलटी जगदीश के निकली, फिर पंडित हरदयाल के निकली, फिर मिस्राजी के निकली। फिर लोगों के निकलती ही चली गयी। जनाज़ा एक घर से निकला, फिर दूसरे घर से निकला, फिर घर घर से निकला। बी अम्माँ ने और शरीफ़न ने मिलकर दस तक गिनती गिनी। फिर वे गड़-बड़ा गयीं। एक दिन में कितने घरों से जनाज़े निकल गये ! शाम होते होते गली कूचे सुनसान हो गये। न क़दमों की आहट, न हँसते-बोलते लोगों की आवाज़ें। और तो और आज चिरंजी के हारमोनियम की भी आवाज़ सुनायी नहीं दे रही थी, जो जाड़े, गरमी बरसात रोज़ रात को बैठक में हारमोनियम को लेकर बैठ जाता और तान लगाता :


लैला लैला पुकारूँ मैं बन में
लैला मोरी बसी मोरे मन में।


जब सुबह हुई तो बस्ती का रंग ही और था। कोई कोई दुकान खुली थी, बाक़ी सब बन्द। कुछ घरों में ताले पड़ गये थे, कुछ में पड़ रहे थे। किसी घर के सामने बहली खड़ी थी, किसी घर के सामने इक्का। लोग जा रहे थे, नगर ख़ाली हो रहा था। नगर दो तरह से ख़ाली हुआ-कुछ नगर से निकल गये, कुछ दुनिया से गुज़र गये।
‘‘बी अम्माँ ! हिन्दू ज़्यादा मर रहे हैं।’’

‘‘बीबी, हैज़े में मुसलमान मरते हैं, ताऊन में हिन्दू मरते हैं।’’
मगर फिर ताऊन ने हिन्दू-मुसलमान में फ़र्क़ ख़त्म कर दिया। कलमे की आवाजों के साथ निकलते हुए जनाजे़ भी ज़ोर पकड़ गये।
‘‘बहू ! ज़ाकिर को रोककर रखो। यह बार बार बाहर जाता है।’’
‘‘बी अम्माँ ! यह लड़का मेरी नहीं सुनता।’’
‘‘अच्छा अब निकलके देखे, इसकी टाँगें तोड़ दूँगी।’’

मगर किसी धमकी ने उस पर असर नहीं किया। राम नाम सत्त की आवाज़ आयी और वह बाहर ड्योढ़ी पर। जनाज़ा जब गुज़र जाता तो सोगवार औरतें ईधन संभाले बैन करती हुई गुज़रतीं। उनके गुज़र जाने के बाद सड़क कितनी वीरान नज़र आती थी। शरीफ़न दौड़ी हुई आती और उसे पकड़कर ले जाती। टख-टख करती एक बहली आयी और ड्योढ़ी के आगे आकर खड़ी हो गयी।
‘‘अरी शरीफ़न देख तो सही, इन कयामत के दिनों में कौन मेहमान आया है ?’’
शरीफ़न गयी और आयी,‘‘बी अम्माँ ! दानीवर से मामूँ अब्बा ने बहली भेजी है। कहलवाया है कि सबको लेके निकल आओ।’’
बी अम्माँ सीधी बड़े कमरे में गयीं, जहाँ अब्बाजान सबसे अलग दिन-दिन भर मुसल्ले पर बैठे रहते।
‘‘बेटे नासिर अली ! तुम्हारे मामूँ अब्बा ने बहली भेजी है।’’
अब्बाजान थोड़ा रुके। फिर बोले, ‘‘बी अम्माँ ! हुजूर रिसालत मआब ने फ़रमाया है कि जो मौत से भागते हैं वे मौत ही की तरफ़ भागते हैं।’’




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