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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


कैसी अलस-मदालस आवाज थी! जैसी पुराने हिन्दी-चलचित्रों में कभी ठसकेदार रानियों की हुआ करती थी। कुमुद जितनी ही बार कनखियों से न उसे देख रही थी, उतनी ही बार उस स्निग्ध चेहरे की घरेलू मिठास उसे बाँधती जा रही थी। सहसा, गहस्वामिनी ने भागलपुरी रेशमी चादर से अपने दोनों पैर बाहर निकाल दिए, चाँदी की पायजेब के घुघरू धीरे से ठुनके, गोरे चरणों पर तधी महावर की रेखा पर लाल साड़ी की छाया, ललाट पर कुछ फैल गई सिन्दूर की बिन्दी, लाल चूड़ियाँ, माँग की सिन्दूरी प्रगाढ़ रेखा, सब ही लाल जैसे जीवन्त अग्निशिखा ही पलंग पर पड़ी दपदप कर सुलग रही थी-"क्या नाम बताया आपका? मैं कभी-कभी भूल जाती हूँ...” किसी भोली बालिका-सी उस दुधिया हँसी ने कमद को मोह लिया। अपना निर्णय वह उसी क्षण ले चुकी थी-वह यहीं रहेगी। लखनऊ अब वह कभी नहीं लौटेगी। उसे देखकर लोगों की भद्दी फसफसाहट, संदिग्ध-कुटिल चितवनों की मार, सहअध्यापिकाओं की ईदिग्ध बतकही अब उसे कुछ नहीं झेलना होगा। अपने ही दुख में डूबी, एक-दूसरे के प्रति समर्पित यह विचित्र जोड़ी ही शायद उसके आहत चित्त की व्यथा को भुला दे।

उसने एक बार कनखियों से अपनी नवीन स्वामिनी को देखा। वह फिर सिर से पैर तक चादर खींचकर सो गई थी। उसके उन्मादिनी रूप का यही सामान्य-सा परिचय उसे अब तक मिला था।

"आप थकी होंगी, अपने कमरे में चलकर आराम कीजिए। काशी आपका खाना वहीं ले आएगी," राजकमल सिंह ने कहा तो वह एकाएक चौंक पड़ी।

"काशी!" उन्होंने पुकारा।

“जी सरकार!" कहती जो तातार-सी लम्बी साँवली औरत आकर सामने खड़ी हुई, उसे देखकर कुमुद सिर से पैर तक काँप गई। उसका मर्दाना डील-डौल, सपाट छाती, स्याह रंग, गले में पड़ी असंख्य पोत की मालाएँ और कठोर मुखमुद्रा देख उसे बचपन में देखी पहाड़ी रामलीला की ताड़का का स्मरण हो आया :

मैं तो ताड़का तडातड़

तड़तड़ ताड़ करूँगी
 
तुम-जैसे नरों का मैं

संहार करूँगी

हाथ में कुछ न होने पर भी लग रहा था, नंगी शमशीर लपलपा रही है।

"इन्हें इनके कमरे में ले जाओ," राजकमल सिंह ने कहा तो उसे लगा वह किसी जल्लाद को आदेश दे रहे हों-'इसे फाँसी के तख्ते पर खड़ा कर आओ!'

काशी का काला ऊँचा लहँगा, स्कर्ट की-सी ऊँचाई में घुटनों से कुछ ही नीचे तक पहुँच रहा था। कई रंगीन लाल-नीले टुकड़ों को जोड़कर बनाई गई उसकी बंजारिन की-सी चोली पर चिपकाए गए काँच चमचम चमक रहे थे, बड़ी लापरवाही से ओढ़ी चुनरी को उसने दक्षिण अंगवस्त्र की भाँति दोनों कन्धों पर डाल, बिना सिर ढाँपे गर्दन पर फेंटा-सा मार लिया था। पैरों में चाँदी के बुन्देलखंडी पैंजना चलने में खटर-खटर ऐसे बज रहे थे, जैसे किसी खूखार कैदी के पैरों में पड़ी बेड़ियाँ।

बिना उससे एक शब्द बोले काशी उसे उसके कमरे तक पहुँचा गई। जाने से पहले, बड़ी अवज्ञापूर्ण दृष्टि से उसने कुमुद की ओर देखा जैसे पूछ रही हो-कुछ कहना तो नहीं है! उस दृष्टि में न उस नवीन अतिथि की आगमनी का उल्लास था, न कुतूहल, था तीव्र आक्रोश और विद्रूप...

'सुनो,' कुमुद ने ही उसे रोककर कहा-'तुम मेरे लिए खाना मत लाना, मुझे भूख नहीं है। काशी पर, इस आदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, न उसने खाने का आग्रह किया, न यह पूछा कि क्या वह कुछ और लेगी? लम्बी-लम्बी डगें भरती, वह हवेली के असंख्य कोष्ठ-प्रकोष्ठों में खो गई।

द्वार पर चिटकनी चढ़ा, कुमुद ने साड़ी तहाकर धरी और चुपचाप पलंग पर लेट गई। पहली बार उस नवीन परिवेश की चुभन उसे सहस्र सुइयों-सी बींधने लगी। इधर-उधर करवटें बदलने पर भी जब नींद नहीं आई, तब वह खिड़की खोलकर खड़ी हो गई। रजनीगन्धा और खिले गुलाबों की मिश्रित मदिर सुगन्ध, खिड़की खोलते ही पूरे कमरे में धंस आई। हवेली निःस्तब्ध थी, इधर-उधर के सब कमरों की बत्तियाँ बुझ गई थीं। मध्य रात्रि का सन्नाटा चीरती, एक टिट्टिभ विलाप करती निःस्तब्धता को भंग कर गई, फिर वही सन्नाटा छा गया।

आज सोमवार था और पिछले ही सोमवार को तो उसके गृह में वह नाटक खेला गया था। ‘मत मार दीदी, मत मार, मैं तेरे पाँव पड़ती हूँ, आज से कभी नहीं जाऊँगी वहाँ! कभी नहीं...' पर साक्षात् उग्र चंडिका बनी कुमुद ने उसे लकड़ी से मारते-मारते बेदम कर दिया, पूरे कमरे में उसकी चूड़ियाँ टूटकर बिखर गई थीं। अम्मा बीच में न आ जातीं, तो शायद वह उस दिन उसे जान से ही मार डालती। जब मारते-मारते स्वयं उसकी दोनों कलाइयाँ दो दिन तक दुखती रही थीं, तब मार खानेवाली की दुरावस्था कैसी हुई होगी!

"हाय राम, क्या कर दिया तूने कुमुद, लड़की का चेहरा ही बिगाड़कर रख दिया!" अम्मा ने सिसकियाँ रोकने को मुँह में आँचल रख लिया था। ललाट के घाव से बहते रक्त की प्रगाढ़ धारा ने सचमुच ही चेहरे को विकृत कर दिया था। किन्तु एक क्षण को भी उसे अपनी उस छोटी बहन के ललाट के घाव और क्षत-विक्षत देह को देख पश्चाताप नहीं हुआ।

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