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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (सजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3751
आईएसबीएन :9788183612876

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


एक बार कुमुद के जिह्वान पर एक अविवेकी प्रश्न उभर आया था, उससे पहले जिस सहचरी की नियुक्ति हुई थी, उस सहृदया ने किसके दुःख से गले में फाँसी का फंदा डाला था, गृहस्वामी के या स्वामिनी के?

“आप, अब सब सुन चुकी हैं, मालती से मिलकर स्वयं अन्तिम निर्णय लेने की पूरी स्वतन्त्रता आपकी है। यदि आपको कोई आपत्ति हो तो मैं कल ही आपके वापस जाने की पूरी व्यवस्था कर दूंगा। यही नहीं..." इस बार उस दीर्घकाय, गौरवर्ण, आयतचक्षु, सौम्य व्यक्ति का पूरा चेहरा एक उदार सहज स्मित से उद्भासित हो उठा-"आपने जिस नौकरी से त्यागपत्र की बात कही है-आई विल सी दैट यू गेट योर ओल्ड जाब-मुख्यमन्त्री मेरे आत्मीय ही नहीं, अभिन्न मित्र भी हैं। आइए, अब मालती से आपको मिला दूँ।"

कुमुद खड़ी हुई और सहसा उस दीर्घदेही व्यक्ति की छाया में सिमट-सिकुड़कर रह गई। सचमुच ही उसके पार्श्व में चल रही कुमुद हास्यास्पद रूप से छोटी लग रही थी। सोपान-पंक्ति शेष होते ही पहले कमरे का द्वार खोल राजकमल सिंह ने पुकारा-"मालती सो गई हो क्या?"

एकाएक पुकारनेवाले का स्वर, लोरी की-सी थपकी बन, एक बार फिर कमरे की अस्वाभाविक निःस्तब्धता को भंग कर गया-"मालती"...

सिर से पैर तक चादर ओढ़े सोई मालती न हिली, न डुली।

अपदस्थ होकर कमद द्वार पर ही खडी रह गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि भीतर जाए या बाहर ही स्वामिनी के जागने की प्रतीक्षा करे।

“आइए ना, बाहर क्यों खड़ी हैं?"

राजकमल सिंह ने पर्दा उठाकर उसे बुलाया तो वह चुपचाप आकर पायताने के पास खड़ी हो गई।

राजकमल सिंह एक बार फिर सुप्ता पत्नी को जगाने, उसकी अलस-अचल चल खुसरो घर आपने देह पर ऐसे अधिकार से झुक गया, जैसे पास ही खड़ी कुमुद की उपस्थिति का भी उसे भान न रह गया हो।

कुमुद का चेहरा आरक्त हो उठा।

"मालती...मालती!" वह जैसे गुदगुदाकर किसी रूठी बालिका को जगा रहा था-"हूँ..."

"देखो, कौन आया है? उठोगी नहीं?"

इस बार सोनेवाली ने बड़ी अनिच्छा से करवट बदली, फिर झटके से उठकर बैठ गई।

“ये हैं कुमुद, कुमुद जोशी, तुम्हारी देखभाल करने लखनऊ से, इतनी दूर आई हैं, बैठने को नहीं कहोगी?" कंठस्वर में परिहास का पुट एक क्षण को उस करुण चेहरे को अकृत्रिम स्मित से उद्भाषित कर गया।

वह हँसी-“बैठिए!"

तब किस चुप्पी की भूमिका बाँधी थी उसके पति ने? यह तो बोल रही थी।

कुमुद बैठ गई, कौन कहेगा यह उन्मादिनी है! कैसा रूप था, लाल साड़ी, गोरे ललाट पर चवन्नी भर की सिन्दूर की बिन्दी, माँग में सिन्दूर, दोनों हाथों की अँगुलियों में झलझल झलकती हीरे-माणिक की अंगूठियाँ, हाथ-भर लाल चूड़ियों के बीच कंगूरेदार सोने के कड़े, रक्तिम अधरों पर पान की लालिमा, छलकदार नुकीले चिबुक तक आ गई थी, शायद सोते में पान की पीक मोहक अधरों की दरार से टप-टपकर टपकता चला गया था। कत्थे का एक बड़ा-सा धब्बा, रेशमी चादर पर भी छाप लगा गया था।

"कितनी बार तुमसे कहा है मालती, सोते में पान न खाया करो, इतना जर्दा-किमाम तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। खैर, अब तो मिस जोशी आ गई हैं, यह इनकी ड्यूटी है, आप इन्हें दिनभर में दो बीड़े देंगी मिस जोशी, एक खाने के बाद दोपहर को, एक रात।"

बड़े लाड़ से पत्नी की ही पलंग की पाटी पर बैठ राजकमल सिंह ने चूड़ियों-भरा हाथ थाम लिया।

"नींद आई मालती?"

"हाँ, आई।"

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