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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


दाना मियाँ


कद्दावर पठान की सतर देह, पके सन-से बाल, करीने से कतरी-छंटी सफेद दाढ़ी और चेहरे पर एक अविचल गाम्भीर्य, यही थे दाना मियाँ। बच्चे देखते, तो खुशी से बढ़कर घेर लेते। बड़ों की उत्सुक दृष्टि उनके कुली की पीठ पर लदे गट्ठर की चादर को चीरने-फाड़ने लगती।

"क्या-क्या लाए हैं आज आप?" बच्चे पूछते।

“सबर...सबर,” दाना मियाँ दोनों हाथ फैला-फैलाकर ऐसे अन्दाज से मुस्कराकर कहते कि उत्सुकता और बढ़ जाती।

गट्ठर उतरता और दाना मियाँ जेब से तम्बाकू की डिबिया निकालकर तम्बाकू खाते। फिर छोटा-सा बटेरी बटुआ खुलता, उसमें से छालियाँ निकलतीं। बच्चों की अधीरता और बढ़ती।

“खोलिए न दाना मियाँ!" बच्चे मचलते और सधे हाथों से दाना गठरी की गाँठ खोलते, जैसे कोई ख्यातिप्राप्त सर्जन पेट चीरकर 'एपेंडिक्स' निकाल रहा हो। “वाह-वाह! यह देखो, क्या बढ़िया 'कामिक' है...यह रही 'टिटबिट'...यह है 'वेस्टर्नर'...और हजूर, यह क्या आला किताब साहब बहादुर के लिए...” कहते हुए वे धूल-गर्द से पीली पड़ी दस साल पुरानी 'डाइजेस्ट' निकालकर झाड़-पोंछकर ऐसे यल से हथेली पर टिकाकर पेश करते, जैसे खान का निकाला हुआ खरा सोना हो।

"बहुत पुराना है दाना, सन् 52 का"...हम देखकर कहते, तो वे कत्थे से लथपथ बत्तीसी दिखाकर हमारे अज्ञान पर हँस पड़ते, “वाह साहब! हमारे 'बरौन' साहब कहते थे कि पुरानी किताब में पुरानी ‘बरन्डी' का मज़ा आता है।" लिहाजा सन् 52 की पुरानी ‘डाइजेस्ट' खरीद ली जाती, छः ‘कामिक', दो ‘लाइफ' और चार ‘पोस्ट' भी।

फ्रैंड है,” कहकर कुछ शरमाकर उन्होंने 'टॉपिक' बदल दिया, “यह देखिए हुजूर, बेकन व रस्किन की वह लाजवाब किताब लाया हूँ कि तबीयत फड़क उठेगी। पर नैनीताल में अब इनका मार्केट नहीं रहा...” फिर उन्होंने अपना पुराना किस्सा शुरू कर दिया। पादरी 'बरौन' के साथ-साथ ही बेकन और रस्किन को पट वालों के मातम का मर्सिया पढ़ने से दाना को रोकना ही पड़ा, दो किताबें रह रीदकर। पर दाना की रहस्यमयी ‘फ्रैंड' की जिज्ञासा गुदगुदाती रही-क्या जाने पुस्तकों की डोर से बँधी कोई पर्वतीय सुन्दरी या फिर टेलीफोन एक्सचेंज की कोई एंग्लो-इंडियन, और या स्वयं दाना की कोई कल्पना-लोक की उपज।

राजनीति की बहस छिड़ती, तो दाना सजग हो उठते-“दुनिया में एक ही काबिल आदमी है-और वह है पंडित नेहरू।” वे कहते, “जब तक है, तब तक अल्ला-अल्ला और आगे हिन्दुस्तान के मुसलमानों का खुदा हाफिज़। जितना दर्द पंडितजी को है, उतना क्या और किसी को होगा?" नेहरू उनके 'हीरो' थे।

एक बार दो वर्ष पहले पंडितजी नैनीताल आए। फ्लैट में भाषण था। दूर-दूर के पहाड़ों से आती चींटियों-सी पंक्ति ने क्षण-भर में फ्लैट को भर दिया। इधर-उधर देखा, कहीं दाना मियाँ नजर नहीं आए। दूसरे दिन किताबों की फेरी लगाने आए, तो हमने कहा, “आप कल दीखे नहीं?”

चेहरा लटक गया, डूबी आवाज में बोले, “बदकिस्मती ही थी हमारी।"
“क्यों, क्या बीमार थे?" हमने पूछा।
“अरे साहब! बीमार क्या, कब्र से भी चले आते।" वे बोले।
"तो फिर?" हमसे नहीं रहा गया।
"धोबी को शेरवानी दी थी कि खड़े घाट धोकर ले आना, कल पंडितजी का लेक्चर सुनने जाएँगे, पर धोबी और दर्जी भला कब अपनी जबान के सच्चे होते हैं! मन मारकर कोठरी में पड़े रोते रहे।"
“हद है, आप..." हमने कह ही दिया, “शेरवानी न थी तो न ही सही, ऐसे ही चले जाते। पंडितजी कोई रोज़-रोज़ थोड़े ही आते हैं!"
 
“वाह साहब, वाह!” दाना ऐसे बिगड़ खड़े हुए, जैसे मैंने उन्हें भरी महफिल में नंगा ही चले जाने को कह दिया हो। “गोया पंडितजी के सामने हम इस गन्दी-सी तमनिया और कुर्ते में चले जाते!” लाहौल पढ़कर दाना मियाँ ने हमें फटकार दिया।

इसी मार्च की बात है। कई दिनों से दाना नहीं दीखे थे। चारों ओर बर्फ की मोटी चादर जम गई थी। पर बर्फ, वर्षा और तूफान से आज तक दाना ने कभी हार नहीं मानी थी। उनके साप्ताहिक फेरे में ऐसा ढील-ढिलाव कहीं नहीं हुआ था। हम उनकी ईद-बकरीद भले ही भूल जाएँ, हमारी होली-दिवाली उन्हें कभी नहीं भूली। हर त्यौहार पर अपने दोनों लम्बे-लम्बे पठानी हाथ हिलाते हुए वे दूर से ही चिल्लाते, “मुबारक-मुबारक, होली की गुजिया, अबीर-गुलाल मुबारक!” सफेद दाढ़ी पर उनके हिन्दू प्रशंसकों का छिड़का अबीर-गुलाल और टोपी पर रंग के छींटे! इस बार होली आकर चली भी गई, पर दाना नहीं आए, तो कुछ खटका हुआ। नौकर भेजा, तो पता चला कि फेरी पर गए हैं। तीसरे पहर देखा-दाना मियाँ चले आ रहे हैं। पर ये दाना नहीं, जैसे उनकी छाया हो। काला चेहरा, झुकी हुई कमर और आँखों के नीचे स्याह लकीरें। “यह क्या, ऐसे में क्यों फेरी लगाने आए आप?" हमने कहा।

“अब क्या करें, आदत से लाचार हैं। आज आठ दिन से बुखार ने पटक दिया है। सोचा, आज सबसे दुआ-सलाम कर आएँ; फिर न जाने नाव किस घाट लगेगी!" उनकी सदा खुशी और उत्साह से चमकती रहनेवाली बड़ी-बड़ी आँखें एकदम आँसुओं से भर आईं।

“अरे आप ठीक हो जाएँगे। बुखार किसे नहीं आता ! बैठिए, मैं आपकी किताबें ले आती हूँ।” कहकर मैंने दिलासा दिया, कुछ किताबें खरीदीं और कुछ लौटाईं। क्या पता था, यह आखिरी लेन-देन होगा!

पर दाना जान गए थे कि अब आना नहीं होगा। बच्चों के लिए रुके रहे। वे स्कल से लौटकर आए, तो एक बार फिर पुराने दाना बन गए। पुराने मज़ाक दोहराए गए. नई किताबें फैलाईं और नई आला-आला किताबें लाने का वादा कर दुआएँ देकर चले गए।

दूसरे दिन बहुत बर्फ गिरी। तीसरे दिन और चौथे दिन बर्फ फाँदते हम गए, तो दाना के दरवाजे पर ताला पड़ा था। उनके बेटी-दामाद उन्हें घर ले गए थे। बहत दिन बाद पता लगा कि दाना नहीं रहे। उनकी किताबें अभी भी उनकी याद दिलाती हैं और दिल भर आता है।

तल्लीताल के बस-स्टैंड के बाईं ओर एक बेंच पड़ी है, जिस पर होटलों के गाइट, डाँडी के गढ़वाली कुली, नीड़ पर चहकते पक्षियों का-सा कूजन करते हैं। रोडवेज की बसें अभी भी यंत्रवत् आ-आकर यथास्थान खड़ी हो जाती हैं।

तिब्बती लामा बेंच के पास अपनी मैली चादर फैलाकर सीटी, रंगीन मनकों की माला और झुमझुमों का बाजार लगाकर बेचने लगते हैं। इस तरह बेंच के तीनों कोने आबाद हो जाते हैं। वीरान रहता है चौथा कोना। और वह क्या अब कभी आबाद होगा? इसी कोने पर चादर फैलाकर कभी बैठते थे दाना। लम्बी-पतली, मोटी किताबें करीने से सजाकर वे इस अकड़ में बैठे रहते, जैसे पुरानी किताबें नहीं, मोती बेच रहे हों।

उस खाली पड़ी हुई जमीन के बदनसीब टुकड़े को देखकर जी में आता है-उनके मातम में एक मर्सिया पढ़ डालें। और दिल ही दिल में कहते हैं-जब तक यह छलाछल छलकता ताल है, यह बेंच है, इसके तीन आबाद और एक वीरान टुकड़ा है, दाना ! तुम्हें नैनीताल कभी भूलेगा नहीं-खुदा हाफिज़ !

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