नारी विमर्श >> एक थी रामरती एक थी रामरतीशिवानी
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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण
“चुप कर लड़की, यह बाजार नहीं तो और क्या है? जानती है ना औरतों को बाजार नहीं
देखना चाहिए-सुना नहीं तूने..."
सैणि कै नी देखाओ बाजार
बैग कै नी देखाओ भनार
बैग कै नी देखाओ भनार
(स्त्री को बाजार और पुरुष को भण्डार नहीं दिखाना चाहिए।)
पर तब रामजे स्कूल के सामने अशेष पंक्ति में बिखरी बिसातियों की दुकानों में, कुमाऊँ की प्रत्येक किशोरी के प्राण बसते थे। नकली मूंग की मालाएँ, चमचमाते चन्दनहार, चूड़ियाँ, बालों के रंगीन फॅदनों में लगे घुघरू, जिन्हें चोटी में गूंथ, जान-बूझकर इधर-उधर फेंक लड़कियाँ हवा में उड़ी चली जाती थीं। लकड़ी का वह लटू, जिसे फेंकने का एक खास अन्दाज, उसे ऐसी विलंबित चकरघिन्नी में देर तक घुमाता रहता कि आज इलैक्ट्रिक खिलौनों की आभा भी फीकी पड़कर रह जाए! कभी-कभी लगता है कि आज विज्ञान ने बच्चों के खिलौने की दुनिया ही बदल दी है, किन्तु उनके बालसुलभ स्वाभाविक उस उल्लास को छीन लिया है, जो कभी हमारे बचपन की मुट्ठियों में बन्द था। पतंग उड़ाना, काँच पीसकर मंजे को तीखा बनाने में भाई को स्वेच्छा से दिया गया उत्साहपूर्ण सहयोग, गिट्टियों की वह सधी उछाल, वह 'मुट्ठी', 'इक्कम', 'दोयम'-उधर एक गिट्टी हवा में उछली और उसी दक्ष तत्परता से धरती पर पसरी चारों गिट्टियों को मुट्ठी में बाँध, ऊर्ध्व प्रक्षेपित गिट्टी भी साध ली! एक पैर उठा-उठा चौकड़ियों में पत्थर चूमकर फेंकना, हमारे ये सब व्याकरणी सूत्र ही बदल गए हैं। फिर भी कभी ये कौशल, जिन्हें हम बड़े परिश्रम और लगन से सीखते थे, आज किसी शून्य अन्तरिक्ष में विलीन हो गए हैं।
आज इलेक्ट्रिक खिलौनों का संसार बच्चों के लिए सहज-सुलभ बन गया है, इसी से शायद बच्चे अपने नवीनतम खिलौनों से भी ऊब उठते हैं, जबकि हमारी 'किरकैंची' या 'मछली मछली कित्ता पानी' वर्षों तक खेले जाने पर भी कभी बासी नहीं लगे। कपड़े की बनी गुठिया, जिसे बनाने में मेरी बहन जयन्ती की विशेष ख्याति थी, मुझे इतनी प्रिय थी कि एक दिन जब भाई से झगड़ा होने पर उसने मेरी अनुपस्थिति में उसे चूल्हे में झोंक दिया तो मैं उसकी अकाल मृत्यु पर फूट-फूटकर रोई थी।
लोहनीजी की पहली स्मृति मुझे बेरावल की है। हम दोनों भाई-बहनों को वे नित्य प्रातः सोमनाथ के मन्दिर में ले जाते। हमें खेलने छोड़ स्वयं वहीं पेड़ के तले लेट जाते और देर तक गाते रहते। उनकी एक ही प्रिय स्तुति थी :
पर तब रामजे स्कूल के सामने अशेष पंक्ति में बिखरी बिसातियों की दुकानों में, कुमाऊँ की प्रत्येक किशोरी के प्राण बसते थे। नकली मूंग की मालाएँ, चमचमाते चन्दनहार, चूड़ियाँ, बालों के रंगीन फॅदनों में लगे घुघरू, जिन्हें चोटी में गूंथ, जान-बूझकर इधर-उधर फेंक लड़कियाँ हवा में उड़ी चली जाती थीं। लकड़ी का वह लटू, जिसे फेंकने का एक खास अन्दाज, उसे ऐसी विलंबित चकरघिन्नी में देर तक घुमाता रहता कि आज इलैक्ट्रिक खिलौनों की आभा भी फीकी पड़कर रह जाए! कभी-कभी लगता है कि आज विज्ञान ने बच्चों के खिलौने की दुनिया ही बदल दी है, किन्तु उनके बालसुलभ स्वाभाविक उस उल्लास को छीन लिया है, जो कभी हमारे बचपन की मुट्ठियों में बन्द था। पतंग उड़ाना, काँच पीसकर मंजे को तीखा बनाने में भाई को स्वेच्छा से दिया गया उत्साहपूर्ण सहयोग, गिट्टियों की वह सधी उछाल, वह 'मुट्ठी', 'इक्कम', 'दोयम'-उधर एक गिट्टी हवा में उछली और उसी दक्ष तत्परता से धरती पर पसरी चारों गिट्टियों को मुट्ठी में बाँध, ऊर्ध्व प्रक्षेपित गिट्टी भी साध ली! एक पैर उठा-उठा चौकड़ियों में पत्थर चूमकर फेंकना, हमारे ये सब व्याकरणी सूत्र ही बदल गए हैं। फिर भी कभी ये कौशल, जिन्हें हम बड़े परिश्रम और लगन से सीखते थे, आज किसी शून्य अन्तरिक्ष में विलीन हो गए हैं।
आज इलेक्ट्रिक खिलौनों का संसार बच्चों के लिए सहज-सुलभ बन गया है, इसी से शायद बच्चे अपने नवीनतम खिलौनों से भी ऊब उठते हैं, जबकि हमारी 'किरकैंची' या 'मछली मछली कित्ता पानी' वर्षों तक खेले जाने पर भी कभी बासी नहीं लगे। कपड़े की बनी गुठिया, जिसे बनाने में मेरी बहन जयन्ती की विशेष ख्याति थी, मुझे इतनी प्रिय थी कि एक दिन जब भाई से झगड़ा होने पर उसने मेरी अनुपस्थिति में उसे चूल्हे में झोंक दिया तो मैं उसकी अकाल मृत्यु पर फूट-फूटकर रोई थी।
लोहनीजी की पहली स्मृति मुझे बेरावल की है। हम दोनों भाई-बहनों को वे नित्य प्रातः सोमनाथ के मन्दिर में ले जाते। हमें खेलने छोड़ स्वयं वहीं पेड़ के तले लेट जाते और देर तक गाते रहते। उनकी एक ही प्रिय स्तुति थी :
बाघम्बर वाली कर दे दिलों के दुख दूर
कोई चढ़ावै ध्वजा-पताका
कोई चढ़ावै टूल
राजा चढ़ावै ध्वजा-पताका
रानी चढ़ावै टूल
बाघम्बर वाली...
कोई चढ़ावै ध्वजा-पताका
कोई चढ़ावै टूल
राजा चढ़ावै ध्वजा-पताका
रानी चढ़ावै टूल
बाघम्बर वाली...
उनका मांसल कंठ अत्यन्त मधुर था। देवालय के भीम घंटे की गुरुगम्भीर गर्जना के
साथ उनकी वह स्तुति और भी मधुर लगती। कभी-कभी चरवाहे भी, अपनी लाठी टेक उन्हें
भक्ति-विह्वल हो गाते देखते रहते। “देखो", एक दिन मेरे भाई ने कहा, “शिव मन्दिर
में देवी की स्तुति गा रहे हैं। असल में शिवस्तुति आती नहीं बुड़ज्यू को।"
उन्होंने सुन लिया, “अच्छा, हमें शिव की स्तुति नहीं आती, क्यों?” तब सुन :
उन्होंने सुन लिया, “अच्छा, हमें शिव की स्तुति नहीं आती, क्यों?” तब सुन :
जटाकटाह संभ्रम भ्रमन्निर्लिपं निर्झरी
विलोल विचि वल्लरी विराजमान मूर्धनि
धगद्धगद्-धगज्ज्वलं ललाटपट्ट पावके
किशोर चंद्र शेखरे रति प्रति क्षणं मम
विलोल विचि वल्लरी विराजमान मूर्धनि
धगद्धगद्-धगज्ज्वलं ललाटपट्ट पावके
किशोर चंद्र शेखरे रति प्रति क्षणं मम
उनका वह 'धगद्धगद्-धगज्ज्वलं ललाटपट्ट पावके' का सुरम्य पाठ हमें ऐसा मुग्ध कर
गया कि जब कभी ट्रेन यात्रा का सुयोग जुटता, हम दोनों भाईबहन रेलगाड़ी की झपताल
के-से ठेके से उसे मिलाते गाते जाते।
तब हमारे गृह की समृद्धि चरम शिखर पर थी-बीसियों नौकर थे। सोबन सिंह, शेर सिंह, बिशन सिंह, उम्मेद सिंह, ठुल गुसैं (बड़ा गुसाई), नान गुसैं (छोटा गुसाईं)। इनमें से सबसे पुराने थे, गुसाईं द्वय। बड़ा गुसाईं शाही तबीयत का अनुचर था। लम्बा कद, बेहद लम्बी नाक, कानों में सोने के नन्हे बटन पहनता था। इसी से लोहनीजी, जिन्होंने रामपुर नवाब रजाअली खान को कान में हीरे पहने देखा था, उसे 'अन्यारकोट का नवाब' कहकर पुकारते थे। उसका ग्राम अल्मोड़ा के श्मशानघाट विश्वनाथ के पास था। लोहनीजी कहते, "चिन्ताओं का धुआँ इसकी नाक से होकर दिमाग में बस गया है। इसी से इसके मुर्दे दिमाग में बात जरा देर से घुसती है। फिर हमने देखा, जो ठुल गुसाईं, लोहनीजी का सबसे मुँहलगा अनुचर था, उससे वे सहसा हमारे माध्यम से आदेश देने लगे, “मसानिया से कह दे, दही जमा दे। इससे कह कपड़े उठा ले। भूरे बादल घिरे हैं, पानी बरसेगा।"
हमारी समझ में पहले नहीं आया कि क्यों नवाब सहसा डिमोट होकर 'मसानिया' बन गया है। फिर एक दिन समझ गए, “मसानिया, यह मत समझना कि हमारी दो ही आँखें हैं! पीठ में भी दो आँख हैं हमारी, हम सब जानते हैं...”
“क्या जानते हो गुरु, क्या किया है मैंने?'
लम्बे-चौड़े उद्धत भृत्य के गाल पर लोहनीजी की छाप उभर आई थी, "बेशरम, पूछता है क्या किया...जानता है, किस घर का नौकर है तू? यह सब करना है तो किरिस्तानों की नौकरी कर। दो-दो बच्चों का बाप है तू। देवकी का ब्याह कर चुका है, नागमल तेरा समधी है। सुन लेगा। तब?"
ठुल गुसैं क्यों उस दिन सिर झुकाए निरुत्तर खड़ा रह गया, हमारी समझ में बहुत बाद में आया। किसी नापित कन्या के साथ लोहनीजी ने उसे स्वयं देखा ही नहीं, यह भी सुना था कि वह उससे विवाह करने जा रहा है। यद्यपि अपना अपराध स्वीकार कर, बड़े गुसाईं ने उनके पैरों पर टोपी रख क्षमायाचना भी कर ली थी, पर वे टस से मस नहीं हुए, “चोरी भी की होती तो मैं माफ कर देता, पर चरित्रहीनता को मैं माफ नहीं कर सकता।”
मेरी माँ पिघल गई थीं, किन्तु लौहपुरुष पुरुषोत्तम नहीं पिघले। वर्षों पूर्व जिसकी नियुक्ति उन्होंने की थी, उसी को समय से पूर्व अवकाश भी उन्हीं ने प्रदान किया।
हम कभी बीमार पड़ते तो वे ही हमारे एकमात्र कर्ण-दन्त चिकित्सक बनते। कर्णशूल हो तो सुदर्शन के पत्तों को दोनों हथेलियों में मसल, कान में दो बूंदें टपकाते, दर्द हवा!
तब हमारे गृह की समृद्धि चरम शिखर पर थी-बीसियों नौकर थे। सोबन सिंह, शेर सिंह, बिशन सिंह, उम्मेद सिंह, ठुल गुसैं (बड़ा गुसाई), नान गुसैं (छोटा गुसाईं)। इनमें से सबसे पुराने थे, गुसाईं द्वय। बड़ा गुसाईं शाही तबीयत का अनुचर था। लम्बा कद, बेहद लम्बी नाक, कानों में सोने के नन्हे बटन पहनता था। इसी से लोहनीजी, जिन्होंने रामपुर नवाब रजाअली खान को कान में हीरे पहने देखा था, उसे 'अन्यारकोट का नवाब' कहकर पुकारते थे। उसका ग्राम अल्मोड़ा के श्मशानघाट विश्वनाथ के पास था। लोहनीजी कहते, "चिन्ताओं का धुआँ इसकी नाक से होकर दिमाग में बस गया है। इसी से इसके मुर्दे दिमाग में बात जरा देर से घुसती है। फिर हमने देखा, जो ठुल गुसाईं, लोहनीजी का सबसे मुँहलगा अनुचर था, उससे वे सहसा हमारे माध्यम से आदेश देने लगे, “मसानिया से कह दे, दही जमा दे। इससे कह कपड़े उठा ले। भूरे बादल घिरे हैं, पानी बरसेगा।"
हमारी समझ में पहले नहीं आया कि क्यों नवाब सहसा डिमोट होकर 'मसानिया' बन गया है। फिर एक दिन समझ गए, “मसानिया, यह मत समझना कि हमारी दो ही आँखें हैं! पीठ में भी दो आँख हैं हमारी, हम सब जानते हैं...”
“क्या जानते हो गुरु, क्या किया है मैंने?'
लम्बे-चौड़े उद्धत भृत्य के गाल पर लोहनीजी की छाप उभर आई थी, "बेशरम, पूछता है क्या किया...जानता है, किस घर का नौकर है तू? यह सब करना है तो किरिस्तानों की नौकरी कर। दो-दो बच्चों का बाप है तू। देवकी का ब्याह कर चुका है, नागमल तेरा समधी है। सुन लेगा। तब?"
ठुल गुसैं क्यों उस दिन सिर झुकाए निरुत्तर खड़ा रह गया, हमारी समझ में बहुत बाद में आया। किसी नापित कन्या के साथ लोहनीजी ने उसे स्वयं देखा ही नहीं, यह भी सुना था कि वह उससे विवाह करने जा रहा है। यद्यपि अपना अपराध स्वीकार कर, बड़े गुसाईं ने उनके पैरों पर टोपी रख क्षमायाचना भी कर ली थी, पर वे टस से मस नहीं हुए, “चोरी भी की होती तो मैं माफ कर देता, पर चरित्रहीनता को मैं माफ नहीं कर सकता।”
मेरी माँ पिघल गई थीं, किन्तु लौहपुरुष पुरुषोत्तम नहीं पिघले। वर्षों पूर्व जिसकी नियुक्ति उन्होंने की थी, उसी को समय से पूर्व अवकाश भी उन्हीं ने प्रदान किया।
हम कभी बीमार पड़ते तो वे ही हमारे एकमात्र कर्ण-दन्त चिकित्सक बनते। कर्णशूल हो तो सुदर्शन के पत्तों को दोनों हथेलियों में मसल, कान में दो बूंदें टपकाते, दर्द हवा!
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