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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


एक क्षण को उस वाचाल व्यक्ति की मुखर जिह्वा भी ऐंठकर रह गई। कैसा दिव्य रूप था लड़की का साक्षात् अष्टभुजा, शायद गंगोलीहाट की अष्टभुजा ही पर्वत मन्दिर छोड़कर सामने खड़ी हो गई है! खुले बाल, प्रशस्त शुभ्र ललाट पर रोली का लम्बा तिलक, जिसपर चिपके अक्षत तीखे नासाग्र पर बिखर वहीं अटके रह गए थे। नुकीले चिबुक से लेकर कपोल-द्वय तक सद्यः पोती गई हल्दी की पीताभ आभा में गोरा रंग पिटे सोने-सा निखर आया था। उसके हाथ में लाल-पीले कलावे का बँधा कंकण देख सहसा कमला वल्लभ को याद आया-आज ही तो इसकी बारात आएगी।

वह हँसकर खड़ा हो गया, “वड़ा तेवर है री तेरा! बड़ी शेरनी सेर तो छोटी शेरनी सवा सेर! एकदम अपनी माँ पर गई है छोकरी।"

अपने लिए यह ओछा सम्बोधन सुनते ही कालिंदी बिफर उठी, “चले जाइए यहाँ से, इसी वक्त, समझे? शर्म नहीं आई आपको? मामा की पोजीशन का भी ध्यान नहीं आया आपको?"

“ओह, पोजीसन!” वह हँसा, फिर धम्म से सोफे में फँस, बड़े फूहड़ ढंग से दोनों पैर उठा, पालथी मार वैठ गया, “ये सब पोजीसन-उजीसन तो रईसों के चोंचले हैं लड़की-हमारी पोजीसन साली क्या कम है री? हमारी माँ का मायका था नौलखी पांडे के यहाँ, जिनके महल में चूना-गारे की जगह उड़द की दाल की पिट्ठी विछी। अभी भी ज्यों-की-त्यों धरी है। अरे तुम्हारी दिल्ली के लालकिले की भी उसके आगे क्या विसात! हमारी एक बहन झिझाड़ के दीवानों की बहू है, दूसरी सेलाखोला के जोसियों की-हम साले दस साल से पूरे गाँव के सरपंच हैं। चाहते तो कब के मन्त्री बन गए होते, पर कौन जाए कीचड़ में सनने! तुम्हारे मामा की पोजीसन की ऐसी-तैसी। चाहते तो हम भी हाथी-पालकी में चढ़कर आ सकते थे, पर हम तो महात्मा गाँधी के चेले हैं-फकीरी में दिन काटते हैं और रईसी को मारते हैं लात, समझी? अच्छा, छोकरी, अब बहुत जवान मत चला; बुला अपनी मदर को, बाकी अकाया-बकाया हिसाब हम उसी से करेंगे।"

दोनों भाई महात्मा गाँधी के उस विचित्र चेले को निष्क्रिय बने देखते ही रहे। इस छडूंदर को न उगलते ही बन रहा था, न निगलते।

"तू भीतर जा बेटी," देवेन्द्र ने एक प्रकार से धकियाकर ही कालिंदी को भीतर कर दिया, फिर बड़े विनम्र स्वर में हाथ बाँधे उस सनकी अतिथि के सम्मुख दोहरा हो गया। वह बीड़ी निकालकर पीने जा रहा था तो देवेन्द्र ने मेज पर धरी इनहिल की डिबिया उसे थमा दी।

“वाह, विलैती है साले साहब?" चतुर सियार-सी उसकी चैंधियाई आँखें सहसा दप से जल उठी-फिर बड़े ही फूहड़ ढंग से डनहिल को मुट्ठी में बाँध वह गाँजे की-सी दम लगा, नाक से धुआँ निकालने लगा।

“आप थोड़ा सुस्ता लें। मैंने अपने सर्किल इंस्पेक्टर को बुलाया है, आपको बाजार ले जाकर खड़े-खड़े नए कपड़े सिलवा लाएगा। आप इन कपड़ों में तो कन्यादान नहीं कर सकते।"

वह फिर बिफरकर उकइँ होकर बैठ गया, “क्यों? क्या खराबी है जी इन कपड़ों में?"

"मैंने कब कहा खरावी है, पर आप तो जानते हैं, कन्यादान के लिए तो टोपी से रूमाल तक कोरा होना चाहिए ना।"

देवेन्द्र ने बड़े छल-बल से उसे शान्त किण, फिर स्वर को और भी विनम्र बनाकर उसने कहा, "फिर आपको पीने की भी हुड़क लगी है न, व्हिस्की-रम-जिन जो चाहे, वह आपको पेश करेगा।"

कमला वल्लभ महाउत्साह से खड़ा हो गया, “बैंक यू साले साहब, बैंक यू! अरे तरस गए हैं यार, हम चुस्की लगाने को। पहाड़ की कुछ हरामजादी औरतों ने 'शराब बन्द करो' के नारे लगा पूरे शहर में शराबबन्दी लागू कर दी है। महीनों से हम साले 'द्राक्षासव' और सुरा संजीवनी से प्यास बुझा रहे हैं-बिलैती मिलेगी न?"

"हाँ-हाँ, एकदम विलायती। जी में आए तो दो-चार बोतलें अखत-वखत के लिए भी अपने इस थैले में डाल लीजिएगा।"

कमला वल्लभ अपना चीकट थैला उठा चटपट उठ गया, "अभी चलूँ पर वैफ से तो मिले ही नहीं-खैर, लौटकर मिल लेंगे-गला सूख रहा है।"

द्वार पर खड़ा थानेदार अब्दुल लतीफ मूंछों ही मूंछों में हँस रहा था, यह देवेन्द्र ने देख लिया था और कोई चारा भी तो नहीं था।

विपत्ति का वह काला बादल जिस तेजी से आकर उस मंगल बेला को मलिन कर गया था, उसी तेजी से अचानक आकाश के सुदूर कोने में ठेल दिया गया।

निश्चित होकर दोनों भाई बारात की तैयारी में जुट गए।

अन्नपूर्णा ने एक शब्द भी नहीं कहा। वह शायद सब सुन चुकी थी, पर यह तो ठीक नहीं हुआ-कहीं बीच ही से थानेदार को चकमा देकर भाग आया तो?

किन्तु फिर जो हुआ, उसके लिए अन्नपूर्णा तो क्या, गृह का कोई भी सदस्य प्रस्तुत नहीं था।

और आज चार दिन बाद उस उदास गृह को देख कौन कह सकता था कि यहाँ किसी शुभकार्य का आयोजन भी कभी हुआ था।

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