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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


पत्रकारों की भीड़, कैमरे, दूरदर्शन की टीम सब को कोठी की गारद, हड़के कुत्तों-सा ही खदेड़ रही थी।

"आप लोग जाइए, साहव किसी से नहीं मिलेंगे-क्या बिटिया? वे तीन दिन से अपने कमरे में वन्द हैं, अपनी माँ से तो मिलीं नहीं, आपसे क्या मिलेंगी!”

अखबार की कटिंग को बार-बार पढ़ते भीतर के कमरे में स्वयं ही नजरबन्द हुए देवेन्द्र कभी उठते, कभी वैठते और कभी पिंजरे में बन्द विवश व्याघ्र से ही चक्कर काट रहे थे।

पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी श्री देवेन्द्र भट्ट के द्वार पर आई बारात, दहेज के कारण लौटी-डॉक्टरनी वधू का अपूर्व साहस-दहेज की ऊँची रकम अदा करने का तीव्र विरोध। बाद में टिप्पणी में कालिंदी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में क्या हिन्दी और क्या अंग्रेजी-दोनों समाचार पत्रों ने कहीं भी कृपणता नहीं दिखाई थी। हमारे समाज में ऐसी दो-चार साहसी लड़कियाँ हों तो दहेज की मारक व्याधि स्वयं ही विलुप्त हो जाएगी।

आज चौथा दिन था, कमरे में बन्द कालिंदी एक बार भी बाहर नहीं निकली, यहाँ तक कि महेन्द्र के जाने से पूर्व अन्नपूर्णा की लाख विनती-चिरौरी भी उसने सुनी की अनसुनी कर दी, "प्लीज अम्मा, मुझे भगवान के लिए छोड़ दो, मुझे किसी से नहीं मिलना है।"

पूरा गृह सीमित अतिथियों की विदा के साथ पुनः पूर्ववत् हो गया था। माधवी दो बार आकर बड़ी देर तक अनुनय-विनय कर हार मान लौट गई थी। पंडितजी अपनी पोथियाँ समेट अधूरे विवाह की पूरी दक्षिणा ले पहाड़ चले गए थे।

“अब तो घर में कोई नहीं है कालिंदी, तेरे मामा-मामी और मैं ही हैं, कुछ खा-पी ले बेटी, कब तक भूखी-प्यासी रहेगी?"

अन्ना का रुआँसा स्वर भी उसे नहीं पिघला सका। चौथे दिन सुबह वह स्वयं ही उस बन्द कमरे में छटपटा उठी। वह उठी और गुसलखाने में शॉवर खोल न जाने कब तक आँखें बन्द किए खड़ी रही-निकल जाए सर की सारी गरमी, ठंडी बौछार उसे सिक्त कर सचमुच चैतन्य कर गई।

कपड़े पहन वह दर्पण के सम्मुख खड़ी हुई तो उसे अपना ही प्रतिबिम्ब अनचीन्हा लगा-तीन ही दिन में उसका चेहरा कितना बदल गया था! तौलिये से बार-बार रगड़े जाने पर भी महाऔदार्य से पोती गई हल्दी उसके पीताभ चेहरे से अभी पूरी तरह छूटी नहीं थी, जैसे त्वचा के बहुत भीतर तक धंस गई हो! वह जानती थी कि आज इस शहर की जिस दिशा में वह निकलेगी, असंख्य प्रश्नों की बौछार उसे छलनी कर देगी, किन्तु कायर की भाँति कमरे में वह कब तक बन्द रह पाएगी? वह बन्द ही पड़ी अपने भाग्य पर तरस खाती रही तो भविष्य से जूझने की रही-सही शक्ति भी गंवा बैठेगी। उसने कोई अपराध तो नहीं किया है। कोई पाप तो नहीं किया है। अब वह हर प्रश्न का उत्तर दे सकती थी। पूछे, जिसे जो पूछना है!

हाथ ही से भीगे बालों का जूड़ा लपेट वह द्वार खोल बाहर निकल आई।

अम्मा, मामी शायद चौक में थीं, यह वक्त मामा के पिछवाड़े की जाफरी में अखबार पढ़ने का है, यह भी वह जानती थी। उसका भाग्य अच्छा था, जो किसी ने उसे घर से निकलते नहीं देखा। बाहर खड़े सन्तरी भी शायद चाय पीने चले गए थे-वह सीधे नाक की सीध में चलती रही। ज्येष्ठ की तप्त धरणी अभी भी सामान्य ही तप्त हो पाई थी। जिस पथ पर वह चली जा रही थी, वह अभी जनशून्य था, पथ की निःसीम शून्यता को उसकी चप्पलों की पदचाप ही विचलित कर रही थी। कहीं दूर कोई तृषार्त गाय जोर से रम्भाई, सिर के ऊपर घनगर्जन करता एक हवाई जहाज उड़कर विलीन हो गया, धीरे-धीरे वह उस गहन अभयारण्य में खो गई। यह अछूती वनस्थली उसने कभी स्वयं ही ढूँढ़ी थी-लगता था, आसपास ही कहीं श्मशान घाट था, बीच-बीच में बाल जलने की एक विचित्र दुर्गंध अवश्य उसे कभी विचलित कर जाती थी। कभी गोलाकार पंक्ति में चीखती चीलें उस निःस्तब्धता को भंग कर जातीं, फिर वही सूईपटक सन्नाटा छा जाता। एक बार वह माधवी को भी यहाँ लाई थी।

“कहा था न मैंने माधवी, अद्भुत अछूती जगह ले चलूंगी तुझे।"

"खाक अद्भुत है! चल, लौट चलें-मुझे तो यहाँ डर लग रहा है, कोई गला घोंट डाल दे तो चील-कौए भी लाश न पाएँ। मुझे तो लगता है, या तो आसपास कहीं कोई उजड़ा कब्रिस्तान है या कोई मुर्दा जलाने का मसानी घाट।"

उसका अनुमान ठीक ही था। एक दिन अकेली ही वह बहुत दूर तक चली गई और अवसन्न चिता का उठता हुआ धआँ स्पष्ट दिखने लगा-पास ही एक क्षीण कलेवरा नदी थी और एक जीर्ण शिवमन्दिर।

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