नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
सचमुच ही चिता पर सद्य-दग्ध देह से विलग की गई चूनर ओढ़ वह दुकान में लगे
टूटे दर्पण के सम्मुख खड़ी हो गई और झुक-झुककर अपना चेहरा देखने लगी, “अरे,
क्या करती है?" गोपाल ने घबराकर उसे अपनी ओट में छिपा लिया, “देखती नहीं, अभी
तो इसे पहननेवाली की आधी देह भी नहीं फूंकी। वे लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?"
पर वह धृष्टा, दुःसाहसी किशोरी चूनर को मफलर-सा लपेटती, लोहे की टूटी कुरसी
पर बैठ गई।
“अरे देखने दे, अभी उनके लौटने में देर है, फिर सबकी पीठ है हमारी ओर, चेहरे
नहीं। हाय-हाय, एकदम गोरी उजली है यह तो, किसके घर की मिट्टी है रे? पैर तो
देखो, भैरवी!"
चन्दन ने अपने जीवन में पहली बार जलती चिता की ओर अनभ्यस्त भयचकित दृष्टि
फेरी।
दो सफेद आलता लगे पैर छोटी-सी चिता का घेरा तोड़-फोड़कर ऐसे बाहर लटक आए थे,
जैसे गौर-चरणयुगल की स्वामिनी, अभी-अभी लपटों की झुलस से व्याकुल होकर चिता
से नीचे कूद पड़ेगी।
"नन्द बाबू की बिटिया है।" गोपाल कहने लगा, "अभी पिछले फागुन ही में तो विवाह
हुआ था। याद नहीं है तुझे, इसी की शादी के तो सन्देश खिलाए थे। जापे के लिए
मायके आई थी। तीन दिन छटपटाकर आज सुबह मर गई।"
चरन ने हड़बड़ाकर चूनर उतार दूर पटक दी। जिसके ब्याह के सन्देश का मीठा स्वाद
अभी भी जिह्वा पर था, उसी के महाप्रस्थान की राही चूनर लेकर भला हास-परिहास
कैसे कर गई वह!
चन्दन काठ बनी चुपचाप खड़ी रह गई। जलती चिता से आँखें फेर ही नहीं पाई। अग्नि
की लपटें, गौर-चरणयुगल को लीलने बढ़ी और उसने दोनों हाथों में मुँह छिपा
लिया।
कभी अपनी माँ से सुना, एक ऐसा ही प्रसंग उसे स्मरण हो आया। पहाड़ के उप्रेती
कुल के नाम की महिमा की दन्तकथा। न जाने कब किस बालिका-वधू की अजन्मा सन्तान,
ऐसे ही उसके प्राण ले बैठी थी। पेट चीरकर श्मशान में शिशु निकला था-जीवित।
उसी का नाम पड़ा उप्रेती। पता नहीं, घटना में सत्य का अंश भी था या कोरी
कपोलकल्पना; किन्तु क्या इस गोरे-गोरे सफेद पैरों की स्वामिनी को भी, अजन्मा
गर्भस्थ शिशु को देखने की ललक लिए ही चिता पर चढ़ना पड़ा? चिता को घेरकर खड़े
आत्मीय स्वजन, कुछ पीछे खिसक आए थे।
क्या तो, उसका पिता, जिसने एक साल पहले अग्नि को साक्षी कर, प्राणाधिका कन्या
का कन्यादान किया था, आज फिर उसी विश्वासघाती अग्नि को साक्षी कर, एक बार फिर
कन्यादान करने, इसी भीड़ में सिर झुकाए विवश खड़ा है!
“ऐ खैपा!" चरन के तीखे स्वर को सुनकर चन्दन चौंकी तो देखा, काले भूत-सा खैपा,
एकटक उसी को देख रहा है। चरन की पुकार सुन, वह अप्रतिम होकर केटली के नीचे की
आग उकसाने लगा। “कैसे देख रहा है मरा तुम्हें! लगता है, सुन्दरी नई भैरवी
देखकर पुरानी की माया भूल रहा है। क्यों, है न रे? अच्छा सुन, हम मंदिर होकर
लौटेंगी तब तक बढ़िया पेशल दो प्याला चाय तैयार रखना। और अगर तेरी बिरादरी
विदा नहीं हुई, भगवान न करे, कोई दूसरी बारात न जुटी तो पिछवाड़े, हमारी चाय
भिजवा देना।"
वह चन्दन को खींचकर एक ढालू-सी पगडंडी में उतर गई।
कैसा आश्चर्य था कि वही चन्दन, जो कभी सड़क पर निकलती अर्थी की रामनामी सुनकर
माँ से चिपट जाती थी, रात-भर भय से थरथराती रहती थी, आज महाश्मशान के
बीचोंबीच जा रही सड़क पर निःशंक चली जा रही थी। कहीं पर बुझी चिताओं के घेरे
से उसकी भगवा धोती छू जाती, कभी बुझ रही चिता का दुर्गंधमय धुआँ हवा के किसी
झोंके के साथ नाक-मुँह में घुस जाता। ऐसी दुर्गंध, जो कभी उसकी पड़ोसिन के
भोटिया चौके से आकर उसकी माँ के सात्विकी नथुनों को क्रोध से फड़का देती थी।
'आग लगे इस अघोर लम्याणी को, लगता है आज फिर भेड़ भून रही है, दामाद आ गया
होगा।' अम्मा कहती और खिड़की पटापट मूंदती, उबकाइयाँ लेने लगती।
प्रतिवेशिनी तिब्बती मौसी की चार बेटियाँ थीं और चारों दामाद भेड़ों पर बसाते
ऊन की लच्छियाँ, बदबूदार मोटे थुम्भे लादकर व्यापार को निकलते और सास के यहाँ
अकसर पड़ाव करते रहते। उन्हीं जामाता प्रवर के स्वागत में, पाँगती मौसी,
पशम-सहित भेड़ भूनकर पूरा मुहल्ला बसा देती। पर आज चन्दन को वही परिचित
दुर्गन्ध मायके की सुध दिला गई। वह पल-भर ठिठककर खड़ी हो गई। और चरन ने फिर
झकझोर दिया, “ऐ जी, चलो जल्दी, वह रहा मंदिर।" श्मशान की क्षीण नदी की धारा
अचानक ही युवती बन गई, किसी किशोरी की देह की ही भाँति यहाँ मंदिर के पास आकर
सहसा गदरा गई थी।
“साड़ी घुटनों तक समेट लो और मेरा हाथ कसकर पकड़ लो, समझी? पत्थरों पर पाँव
मत रखना, एकदम चिकने हैं, फिसलोगी तो फिर महीना भर खाट पर पड़ी रहोगी।"
मन्दिर तक ही नदी की लक्ष्मण रेखा-सी खिंच गई थी, और पानी भी तो गहरा था।
शीतल जल की दुःसाहसी लहरें, उसे क्रमशः नीचे की ओर खींचने लगीं, और वह घबराकर
अपना सन्तुलन खो बैठी।
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