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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


मजार के पास खड़ी चन्दन के नाक-मुँह में लोबान का तेज खुशबूदार धुआँ, महराबों से छनकर घुसा, उसका माथा घूम गया। क्या सचमुच ही उस निर्विकार अवधूत के प्रेम में विह्वला, इन दो सौतों के बीच उसे अपना जीवन गुजारना होगा? "चलो, अभी तो मन्दिर बहुत दूर है, पता नहीं गोपाल खैपा (पगला) भी कहीं हाट-बाजार न गया हो, तब तो चाय का एक प्याला भी नहीं जुटेगा, क्यों?"

चन्दन को भी बड़ी जोर की प्यास लग आई थी-वैसे भी वह तुलसीदास की सात्विक चाय पीकर ऊबने लगी थी।

“वह क्या मन्दिर का पुजारी है?" उसने फिर पूछा।

"नहीं जी।" हँसकर चरन ने चाल तेज कर दी कि चन्दन हाँफती-हाँफती उसके पीछे भागने लगी।

“उस मन्दिर का कोई पुजारी-वुजारी नहीं है। वह तो श्मशान का चांडाल है। वहीं पर चाय-पानी की छोटी-सी दुकान भी करता है। खासी बिक्री हो जाती है। पर मूरख धेले-पैसे का हिसाब रखना नहीं जानता। और कोई होता तो हजारों की माया जुटा ली होती। मैंने तो कई बार कहा, 'अरे मिठाईविठाई, केक-बिस्कुट भी रख लिया कर न दुकान पर। न हो तो खूब प्याजमिर्च डालकर पकौड़ियाँ ही एक थाल सजा लिया कर। मुर्दा फूंक-फाँककर, थके-मादे हारे जुआरी दो घड़ी चटपटी चीजें खाकर, सुस्ता ही लेंगे।' पर अभागे के दिमाग में तो निरा गोबर भरा है। बोला, 'सूतक में भला कोई प्याज खाएगा! कैसी बातें कर रही है तू?' अब कौन समझाए उसे? अरे, इसी मसान में सगे छोटे भाई को फूंककर, पीपल-तले बैठे एक बड़े भाई को बोतल खोलते भी देख चुकी हूँ। हँसी-मजाक सबकुछ चलता है यहाँ। चिता पर चढ़नेवाली की हड्डियों के अंगार बनने से पहले ही, एक बार पास में खड़े उसके पति से किसी को यह कहते भी सुन चुकी हूँ- 'क्यों इतना दुःख ले रहे हो भाई-तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है। मेरी एक विवाह-योग्य भानजी है, देखने में साक्षात लक्ष्मी!' जी में आया, ससुरे भानजी के मामा को, उसी जलती चिता में धकेल दूं। अरे अभागी को पूरी तरह जलने तो दे, हरामी! कौन कहता है, मसान में बैराग उपजता है?"

"तुम क्या अकसर यहाँ आती रहती हो?" अवाक् होकर चन्दन ने पूछा तो वह हँसने लगी।

"हाँ, जी हाँ, मैं ही नहीं अब तुम भी यहाँ अकसर आया करोगी। जब गोसाईं यहाँ साधना के लिए आते हैं, कई बार चिलम पहुँचानी होती है, फिर माया दी बार-बार कह देती हैं, 'देख चरन, वहीं बनी रहना, किशोरी साधिका हैं, गुरु की साधना का फूल। तू वहीं बनी रहेगी तो साधना पूर्ण होगी गुरु की।' गुरु तो बैठे रहते हैं, जैसे पत्थर की मूरत। उन्हें चिलम थमाकर, इसी पीपल की ओट ये यह नाटक देखती हूँ। कभी-कभी खैपा देख लेता है तो यहीं चाय पहुँचाता है। दिमाग का कोठा तो खाली है अभागे का, पर दिल का पूरा सिकन्दर है। एक शीशी में इलायची, दालचीनी, सोंठ, न जाने क्या-क्या कूटकर रखता है। कहता है, पेशल चाय बनाता हूँ तेरे लिए। वैसे है हरामी, एक नम्बर का मजाकिया, होटल का नाम धरा है-'श्मशान-विहार'।"

थककर चन्दन बुरी तरह हाँफने लगी थी।

"बस, इतने ही में थक गईं!" चरन ने आँचल से एक बड़ा-सा पत्थर पोंछकर उसे बिठा दिया और स्वयं भी उसके पैरों के पास बैठ गई।

"मैं तो कभी उसे ग्राहकों के सामने ही खूब चिढ़ा देती हूँ। चाय एकदम ठंडी है, रे खैपा! लगता है, आज किसी बुझी चिता के अंगारों पर ही केटली धरकर उबाल लाया है। झट हँसकर दूसरा प्याला बना लाता है। मजाल जो कभी मेरी बातों का बुरा माने। अकेले, माया दी को फूटी आँखों नहीं देख सकता। कहता है, 'जिस दिन तेरी माया दीदी चिता पर चढ़ने आएगी, उस दिन सब ग्राहकों को एकदम फिरी पेशल चाय पिलाऊँगा' लो यह आ गई उसकी दुकान। चलो, अच्छा हुआ, खुली ही मिल गई।"

“ओहे खैपा, कोथाय गैली रे।"

(अरे पगले, कहाँ गया रे?)

दुकान के पास ही लगे, नारियल के सतर वृक्ष की डालियाँ हिलीं, और साँप-सा सुरसुराता, नारियल की-सी कठोर देह का खैपा हँसता हुआ उनके सम्मख खड़ा हो गया। पहले उसने चरन को देखा फिर चन्दन को। धीरे-धीरे महाकत्सित चेचक के दागों से भरे चेहरे पर आश्चर्य, आनन्द और जिज्ञासा की असंख्य झुर्रियाँ उभर आईं।

चन्दन सिहर उठी।

सामने फैला, मरघट का सपाट मैदान, क्षीण से क्षीणतर होती नदी की मरियल धारा, और फटे टाट के चन्दोबे के नीचे खड़ा मसान का वह विकराल चांडाल! “वाह, वाह! आज तो एकदम बढ़िया दुशाला पा गया है रे! किस भागवन्ती ने चिता चढ़कर यह चूनर थमा दी तुझे। मुझे दे देना रे, वटतला के मेले में, उस छिनाल से छिपाकर ओढ़ लूँगी तो नई दुल्हन-सी लगूंगी, देख तो, लग रही हूँ न दुल्हन?"

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