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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


जेठ कच्छ में बीड़ी के व्यापारी थे, उतनी दूर अन्धी माँ की पोटली कहाँ लादे फिरते? देवर-देवरानी पहले ही कन्नी काटकर न्यारे हो चुके थे। इसी से बेचारी राजराजेश्वरी अकेली ही इस विराट हवेली में बच्ची और बुढ़िया के साथ रहने लगी। श्वसुरगृह में आकर उसने एक ही सुख का उपभोग किया था और वह था हवेली के आवास का सुख। उसके कृपण पति ने जीवन-भर फटी बनियान और चीकट धोती पहनकर दहकती भट्टी के सान्निध्य में, अपने जीवन की सब आकांक्षाएँ खो दी थीं। किन्तु उसी ने, पता नहीं किस औदार्य से उस सुन्दर हवेली के निर्माण में, छाती खोलकर रख दी थी।

पति की तेरहवीं के पश्चात्, आत्मीय स्वजनों के विदा होते ही, चतुरा राजराजेश्वरी ने भविष्य की योजना बना ली। इतनी बड़ी हवेली में, वह अबोध पुत्री और वय-भार से नमित होकर बच्ची से भी अधिक अबोध बन गई अन्धी-बहरी सास को लेकर कैसे रहेगी? तीन कोठरियाँ अपने लिए रखकर, उसने पूरी हवेली, गर्ल्स स्कूल बनवाने के लिए दान कर दी। पूरे शहर में, उस प्रवासिनी पर्वतीय विधवा युवती के दान की चर्चा चल पड़ी। कोई कहता, “दिल हो तो ऐसा ही हो। चाहती तो किसी दफ्तर को किराये पर उठाकर, जिन्दगी-भर आराम से पैर पसारे दिन काट लेती !" कोई कहता : “देख लेना मक्खीचूस बूढ़ा रात को गर्ल्स कॉलेज की प्रिंसिपल की छाती पर चढ़कर, उसके प्राण ले लेगा।"

पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। स्कूल चला और चलते-चलते कॉलेज बन गया, और उसी कॉलेज के साथ-साथ कदम रखती, चल पड़ी स्वयं दुःसाहसिनी राजराजेश्वरी। स्कूल की प्रिंसिपल थीं प्रौढ़ा मिसेज खन्ना। उन्होंने स्वयं बाल-वैधव्य की पीड़ा का यथार्थ भोगा था। अपने फटे पैरों की बिवाई ने उन्हें पराई पीर की अनुभूति करा दी। स्वयं उन्होंने वैधव्य से मोर्चा लेकर, बुरी तरह पछाड़ दिया था। सूने मन और चीखते समाज से लोहा लेने को सारे दाँव-पेंच उन्होंने अपनी इस प्रतिभावान शिष्या को सिखा दिए और फिर अपने अखाड़े में खींचकर गंडा बाँध दिया। उन्हीं की स्नेहमयी छत्रछाया में राजराजेश्वरी पढ़ने लगी। सन्तानहीना शारदा खन्ना ने चन्दन को छाती से लगा लिया। चन्दन उन्हें दादी कहती थी और सगी दादी को कहती थी-हाऊ।

सचमुच हौवा ही थी दादी। जूड़ा खोलकर वह कभी उलझे सफेद केश पूरे चेहरे पर फैला देती। दहाड़ें मारती मृत पुत्र को पुकारने लगती और कभी अपने अतृप्त यौवन की उद्दाम स्मृतियों का ऐसा नग्न प्रदर्शन करने लगती कि सड़क के आवारा छोकरे, तालियाँ बजा-बजाकर उसे अश्लील ढंग से बढ़ावा देते। एक दिन अँधेरी रात में, वह ऐसी ही अवस्था में रोती-कलपती घर से निकली तो फिर नहीं लौटी।

राजराजेश्वरी को उसके पैरों में खड़ी कर, शारदा खन्ना भी समय से कुछ पूर्व स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण करके अपनी बहन के पास रहने विदेश चली गई थीं। उनकी बड़ी इच्छा थी कि चन्दन भी उनके साथ विदेश चले, किन्तु राजराजेश्वरी के प्राण ही उस इकलौती सन्तान में बसते हैं, यह वह बुद्धिमती नारी जानती थी। उन्होंने चन्दन को साथ ले चलने की जिद नहीं की। राजराजेश्वरी कहीं भूल से यह न समझ बैठे कि निःस्वार्थ भावना से किए गए अनुग्रह का प्रतिपादन माँगा जा रहा है इस बात का परोपकारिणी मिसेज खन्ना ने पूरा खयाल रखा। प्राणों से भी प्रिय बन गई चन्दन को छाती से लगाकर मिसेज खन्ना ने आँखें पोंछी और राजराजेश्वरी को ऐरोड्रम के एकान्त कोने में खींच ले गई।

"राजेश्वरी!" उन्होंने विदा लेते-लेते अपनी सखी और शिष्या के कानों में गुरुमन्त्र की गायत्री फूंक दी, "लड़की के हाथ, जल्दी ही पीले कर छुट्टी पा लेना। उसमें ढील-ढिलाव मत करना, समझीं?"

"क्यों?" भीतर ही भीतर एक अनजानी धड़कन में धड़कती राजराजेश्वरी का कलेजा बैठ गया।

वैसे तो वह सुन्दरी पुत्री को दिन-रात आँखों में मूंदकर रखती थी। यौवन की जिस देहरी पर उसने स्वयं एक घातक ठोकर खाई थी, उस पर कहीं लड़की भी ठोकर खाकर न गिर पड़े, इसका वह दिन-रात ध्यान रखती यी। कॉलेज जाती तो वह साथ रहती, लौटती तो वह पुत्री के कदम से कदम मिलाती चलती। जागरूक सिंहिका की ही भाँति, वह नित्य पुत्री का छायाग्रास निगलती रहती। पर क्या उसने स्वयं, अपनी ऐसी ही सजग प्रहरी बनी माँ को नहीं छल लिया था? अम्माँ क्या कुछ जान पाई थीं, जो वह जान लेगी? हो सकता है, शारदा बहनजी ने कुछ दाल में काला देख लिया हो।

"पगली कहीं की!" शारदा खन्ना ने, उसकी दोनों दुबली कलाइयाँ थाम ली थीं, “तुम्हारे लिए तो तुम्हारी चन्दन अब भी बिना फ्रॉक के खाली कच्छे में घूमनेवाली चन्दन है, क्यों? तुम्हारी लड़की-सी सुन्दर लड़की पूरे शहर में दीया लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगी, राजेश्वरी! ऐसा रूप, जिसे देखकर हम अधेड़ औरतों की भी आँखें झपकना भूल जाती हैं, फिर उस सौन्दर्य के चिकने पत्थरों पर, किस नौजवान के पैर नहीं फिसलेंगे? जरा अपने पड़ोस पर ही आँखें फेरो। एक से एक गबरू जवान पटे पड़े हैं। वह भी तुम्हारी बिरादरी के होते तो मुझे चिन्ता नहीं थी। अँगुली उठाते ही तुम एकसाथ सहस्र राजपुत्रों का स्वयंवर अपने आँगन में ही रचा सकती थीं। पर भगवान न करे, उनमें से एक की भी आँखें इस पर पड़ें। इसी से कहती हूँ राजेश्वरी, तुम्हारी कई छुट्टियाँ पड़ी हैं, लम्बी छुट्टी लेकर पहाड़ चली जाओ और अच्छा घर-वर देखकर चटपट गंगा नहा लो। किसी भी समाज में रूपमती पुत्री की माँ के लिए जामाता ढूँढना कोई सिरदर्द नहीं होता। ऐसी भाग्यवती सास को दामाद ढूँढ़ने नहीं पड़ते; दामाद स्वयं उसे ढूँढ़ लेते हैं।"

ठीक कह रही थीं शारदा बहनजी।

सारी रात वह बेचैनी में डूबी, बरामदे में टहलती, आसपास की हवेलियों के बुों को देखती रही। उसकी हवेली के चारों ओर, कंधे पर हाथ धरे, शाहजहाँपुर के समृद्ध रोहिला पठानों की ऊँची-ऊँची कोठियाँ खड़ी थीं। एक से एक सुन्दरी, गोरी-नीली आँखोंवाली, कोहकाफ की-सी परियाँ हाथ हिला-हिलाकर, सुन्दरी चन्दन को नित्य अपने यहाँ बुलाती रहतीं। आज ईद है, कल मौलूद है, परसों पीर मलंग की मजार पर चादर चढ़ेगी और हर उत्सव में चन्दन को साथ ले चलने का दुराग्रह ! रांजराजेश्वरी के हाँ या ना कहने से पूर्व ही, कभी बचपन से उसके साथ खेली ताहिरा चन्दन को घसीट ले जाती, कभी नसीम! न जाने कब उनकी ईद, इस छोकरी की भी ईद बन जाए! यह चिन्ता ही तो अब उसे सताने लगी थी। दिन डूबे, प्रतिवेशिनी सखी के उत्सव-समारोह से, चन्दन खस और हिना-मोतिया में सँवरी लौटती, तो राजेश्वरी उसके निर्दोष चेहरे की मज्जा तक अपनी सन्धानी दृष्टि से उधेड़कर देख लेती। चन्दन के रूप की ओर अब तक उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ी थी। शारदा बहनजी की चलते-चलते दी गई शिक्षा ने चन्दन को क्या एक ही दिन में बदल दिया था?

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