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विविध उपन्यास >> एक सदी बाँझ

एक सदी बाँझ

मस्तराम कपूर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :472
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3528
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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यह उपन्यास हिमाचल प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखा गया है

Ek sadi banjh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शायद एक आदर्श की कल्पना, एक दूरगामी लक्ष्य को निर्धारित करना गलत नहीं हैं गलत है उस आदर्श तो तात्कालिक जीवन से बिल्कुल अलग मानना और उस तक पहुँचने की उतावली। हम एक झटके में उस आदर्श तक पहुँचना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि जिस पेड़ को हम लगा रहे है उसके फल भी हमें खाने को मिल जाएँ। इसीलिए हम उस लक्ष्य के मार्ग की बाधाओं के प्रति असहिष्णु होकर उन्हें हिंसात्मक तरीके से हटाना चाहते हैं।

 हम इसी शरीर से स्वर्ग को भोगना चाहते हैं और इसी चाह में बड़े से बड़ा कुकर्म करने से भी नहीं चूकते। शायद दुनिया के हर आदर्शवादी दर्शन का इतिहास इसीलिए खून से लथपथ है। शुद्ध रूप से यथार्थवादी दर्शन निराशा का दर्शन ही हो सकता है क्योंकि यथार्थ जीवन किसी भी मंजिल तक नहीं पहुँच पाता। मंजिल से पहले ही उसका समाप्त हो जाना तय है। यथार्थवादी के मन में मंजिल का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता, उसकी मंजिल यात्रा के साथ-साथ पीछे सरकती जाती है और जीवन का अंतिम सत्य मंजिल नहीं यात्रा बन जाती है- एक ऐसी यात्रा जिसमें मंजिल के न मिलने की निराशा तो रहती है लेकिन मंजिल को खोजने का उत्साह कभी कम नहीं होता।

दो शब्द


‘एक अटूट सिलसिला’, ‘तीसरी आँख का दर्द’ और ‘स्वप्न-भंग’- इन तीन खंडों में विभाजित प्रस्तुत उपन्यास का प्रारंभ मेरे लेखकीय जीवन के लगभग प्रारंम्भ में हुआ था और इसका अंत भी मेरे लेखकीय जीवन के लगभग अंत में हो रहा है। पहले दो भाग अलग से प्रकाशित हुए थे। मैंने इनसे परिवर्तन करना उचित समझा है क्योंकि ये मेरी लेखकीय यात्रा के पड़ाव हैं।
हिमालय प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास में तीन पीढ़ियों के पात्रों के अनुभवों तथा स्मृतियों के माध्यम से लगभग पूरी सदी के और विशेषकर स्वाधीन भारत के 43 वर्षों के पारिवारिक, सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक द्वंद्ध को प्रतिबिंबित करने का प्रयास किया गया है। इसके पात्र और इनसे संबंधित घटनाएं काल्पनिक होती हैं किन्तु देश-काल यथार्थ  है।

79 बी, पाकेट , मयूर विहार,
दिल्ली 110091

मस्तराम कपूर


एक सदी बांझ



देवला आठ दस घरों की छोटी-सी बस्ती है। यहाँ की लूण-तम्बाकू की एक मात्र छोटी-सी दुकान, साल में सात महीने उजड़ी-उजड़ी रहती है किन्तु कुछ महीने उसके भाग खुल जाते हैं। सर्दियों के शुरू होते ही गधेरने की ‘गद्दी’ पलम की ओर आने लगते हैं या गर्मियों के शुरू में वे गधेरने वापस जाते हैं तो उन दिनों देवला में रौनक आ जाती है। गधेरने के रास्ते का एक बड़ा पड़ाव होने के कारण यहाँ उन दिनों यात्रियों के झुण्ड टिके दिखाई पड़ते हैं। निर्जला एकादशी की पिछली रात को भी देवला में खूब चहल-पहल होती है क्योंकि ततवानी के स्नान के लिए जाने वाले जातरू रात यहीं पर बिताते हैं।
देवला के ततवानी चार कोस दूर है किन्तु पहाड़ी रास्ता इतना उबड़-खाबड़ है कि रात के समय चलने का किसी को साहस नहीं होता है। बड़ी-बड़ी चट्टानों को काटकर रास्ते बने हैं जिन पर थोड़ी-सी भी असावधानी हुई तो कई सौ फुट नीचे तक लुढ़कने  की नौबत आ जाती है। रास्ता लूणी खड्ड के साथ लिपटा हुआ है। देवला से ततवानी तक लूणी खड्ड को आठ-दस बार पार करना पड़ता है। पानी का बहाव इतना जोरदार है कि पाँव फिसलते ही दस बारह कदम दूर तक बह जाना मामूली बात है। इसी डर से ततवानी के जातरू रात को देवला ठहर जाते हैं और दूसरे दिन सुबह तड़के उठकर ततवानी के लिए चल पड़ते हैं। देवला में रात काटना अच्छा ही रहता है क्योंकि यह बस्ती है। जातरुओं को डेरा वृक्ष तले ही लगाना पड़ता है, लेकिन जंगली जानवरों का भय नहीं होता।

पंडित नित्यानन्द की पार्टी जब वहाँ पहुँची तो दस बज चुके थे। सोने लायक अच्छे-अच्छे स्थान पहले आए जातरुओं ने घेर लिये थे। कई सोने की तैयारी कर रहे थे, कइयों के अलाव बुझे नहीं थे और रात भर बुझने वाले भी नहीं थे। जेठ महीने में भी यहाँ रात को इतनी सर्दी पड़ती है कि आग और कम्बल के बिना रात नहीं कटती। स्त्रियाँ इस पुण्य अवसर का लाभ उठाकर रात-भर जागरण करने पर तुली हुई थीं। ऐसे अवसरों पर बारामाही और छमाही गानों का स्वर गूँजता है। स्त्रियों की टोलियों में होड़ होती है। एक टोली गाना गाती है जिसका उत्तर दूसरी को देना पड़ता है। यह सिलसिला रात भर चलता रहता है।

पंडित नित्यानन्द की पार्टी में पाँच व्यक्ति हैं एक तो वे स्वयं, खैरा गाँव के वंश-परम्परा से प्रसिद्ध पंडित। आयु पचास के ऊपर हो चुकी है किन्तु काफी स्वस्थ दीखते हैं। उनकी पत्नी पार्वती उनसे दस-बारह वर्ष छोटी होंगी। लेकिन वेश-भूषा से लगता है अभी नई नवेली दुल्हन हैं। सूफ की काली घघरी, रेशमी कुर्ता और गोटेगदार ओढ़नी के अलावा शादी-ब्याह के मौकों पर पहने जाने वाले गहने उनके अंगों पर थे। नाक में पड़ी सोने की नथ आधे चेहरे को ढके हुए थी नथ ने नाक के छेद को काफी बड़ा कर दिया था। इस समय वह सोने की डोर से कसी हुई थी। चाँदी के चाक पर ओढ़ी हुई गोटे की किनारी वाली ओढ़नी में वह ऐसी लग रही थी कि जैसे किसी गिरजे को सिर पर उठाए जा रही हो। उनका लड़का दिवाकर छरहरे बदन का युवक है। रंग गोरा, बाल सिनेमा के अभिनेताओं के स्टाइल में अस्त-व्यस्त हैं। वह कालेज की पढ़ाई समाप्त करके अब नौकरी की तलाश में है। चौथा व्याक्ति अमर नाम का एक युवक है जिसका इस परिवार के साथ अभी तो इतना ही सम्बन्ध है कि वह दिवाकार का मित्र और सहपाठी है किन्तु इसके अतिरिक्त एक और सम्बन्ध का सूत्रापात भी होने वाला है। पंडित नित्यानन्द की लड़की रमा के साथ उसकी कुड़माई हो रही है। वास्तव में उसे इसी सिलसिले में पंडित जी ने बुलाया था कि पंडिताइन की बहन लड़के को देखना चाहती थीं।

जातरुओं की इस टोली में इन चार व्यक्तियों के अतिरिक्त एक मजदूर लड़की थी। लगभग अट्ठारह वर्ष की अलस्था, साफ-सुथरे कपड़े उसके सुन्दर सुडौल शरीर के ढँके हुए थे। गले में चाँदी की अठन्नियों-चवनियों को जोड़कर बना हुआ हार पड़ा था। लड़की का नाम रूपा था और बैजनाथ के मोटरों के अड्डे से बोझ उठाने के लिए इस टोली को उसे अपने साथ लेना पड़ा था। लेना पड़ा इसलिए कि वहाँ और कोई मजदूर नहीं मिला। कम से कम अमर ने तो टोली के मुखिया पंडित नित्यानन्द को यही बताया कि और कोई मजदूर नहीं मिल सकता। ततवानी के यात्रियों के पास बोझ के नाम पर रोटियों की टोकरी ही मुख्य होती थी और उसे उठाने के लिए ऐसे मजदूर की तलाश होती थी, जो ‘‘बाहरकी’’ जाति का न हो। इधर रूपा का हार उसकी जात का विज्ञापन कर रहा था। अमर ने जब रूपा को अपने साथ चलने के लिए कहा तो पास खड़े दूसरे मजदूरों ने उसकी जात की स्पष्ट घोषणा कर दी थी किन्तु अमर उनकी बात अनसुनी करके रूपा को अपने साथ ले आया था। रूपा को देखते ही पंडिताइन जल-भुन कर रह गई। दिवाकर ने रूपा को साथ चलने का इतना जोर डाला कि पंडिताइन को हार मान कर चुप होना पड़ा। पंडित जी इस विवाद में योगी की तरह निर्लिप्त बने रहे। आखिर रूपा के पास बिस्तर दिया गया था और रोटियों का टोकरा अमर और दिवाकर को बारी-बारी उठाना पड़ा था।

मजदूर की तलाश में ही उन्हें बैजनाथ में चार बज गए थे इसलिए देवला पहुँचते-पहुँचते दस बज गए। अमर ने दौड़-धूप करके बैठने का स्थान खोज निकाला। दूसरे जातरुओं के डेरे से पन्द्रह बीस कदम दूर तो था लेकिन आरामदेह था। पंडिताइन ने स्थान देखकर नाक सिकोड़ी किन्तु कोई चारा न देखकर उसी पर सन्तोष करना पड़ा। रूपा के सिर से बिस्तर उतारने के लिए दिवाकर आगे बढ़ा। अँधेरे में कुछ दिखाई न पड़ रहा था। बिस्तर उतारते-उतारते उसका हाथ रूपा के गाल से छू गया।

रूपा चौंक पड़ी किन्तु दिवाकर ने धीरे से कहा, ‘‘अरी डरती क्यों हो ? यह साँप नहीं है।’’
पंडिताइन ने कुछ कड़े स्वर में पूछ लिया, ‘‘क्या बात है ?’’
इससे पहले कि रूपा कुछ कहे दिवाकर ने हँसकर कह दिया, ‘‘बिस्तर की रस्सी को साँप समझकर डर गई।’’
बात खत्म हो गई किन्तु रूपा का उस समय शरीर सिहर गया था। बिस्तर उतार जब वह कुछ दूर बैठ गई तो उसका मन इसी बात में डूब गया कि दिवाकर ने जानबूझ कर ऐसा क्यों किया ?
कम्बल बिछ चुके थे। अमर ने छोटा-सा अलाव भी तैयार कर दिया था। पंडित जी चुपचाप सिगरेट पी रहे थे। पंडित जी की यह आदत थी कि बोलते थे तो बेलगाम और चुप रहते थे तो बेजबान। दिवाकर ने रोटियों का टोकरा एक पत्थर पर रख दिया था। अब वह उसे लाने के लिए उठा। टोकरा पत्थर पर न देखकर उसे पहले तो थोडा़ आश्चर्य हुआ। शायद उसे कोई उठा लाया होगा। सारा सामान देख लेने पर भी वह नहीं मिला तो उसका कुतूहल बेचैनी में बदल गया। पंडित नित्यानन्द उसकी परेशानी को ताड़ गए।
‘‘क्या हुआ ?’’ उन्होंने पूछा।

दिवाकर ने दोनों हाथ सिर पर रख कर कहा, ‘‘कोई उठा ले गया।’’ अमर चौक पड़ा। डेरे की व्यवस्था करते-करते अभी-अभी वह रूपा के बारे में सोचने लगा था। उसकी भोली सूरत मासूम हँसी और दूसरे स्पष्ट-अस्पष्ट गुणों का विश्लेषण कर रहा था। दिवाकर की बात का सम्बन्ध इसलिए उसने तुरन्त रूपा के साथ जोड़ दिया। किसी के कुछ कहने से पहले ही उसने पूछ लिया, ‘‘किसे....?’ न जाने कैसे उसके होठों में ‘रूपा’ शब्द अटक गया।
दिवाकर ने कहा, ‘‘अभी तो मैंने इधर, इस पत्थर पर रखा था, पाँच मिनट भी नहीं हुए।’’
उसकी बात सुनकर सबका दिल बैठ गया। बात दरअसल यह थी कि ततवानी की यात्रा रोटियों के सहारे ही होती थी। उस पहाड़ के पानी में ऐसा गुण था पेट में पहुँचते ही तेज भूख लगने लगती थी। इसलिए जातरू दो दिन के लिए चार-पाँच दिनों का भोजन साथ लिये निकलते थे। देवला में सिर्फ एक दुकान थी यहाँ कुछ आटा-चावल मिल सकता था। यह दुकान भी बन्द हो गई थी। और कोई चारा न देखकर उन्होंने वह रात भूखे ही बिताने का निश्चय किया।

रात का तीसरा पहर। देवला के जातरू बुझते हुए अलावों के पास कम्बलों में लिपटे पड़े थे। कम्बल में सिमटे हुए भी हवा का झोंका लगने पर सिरह उठते थे और नींद में ही घुटनों को और सिकोड़ लेते थे। हवा साँय-साँय चल रही थी। एक अलाव को घेरे हुए चार व्यक्ति सोए हुए थे। तीन पुरुष और एक स्त्री। सभी जैसे नींद में बेहोश थे। उन्हीं के पास अलाव के कुछ दूर एक युवती घुटनों में सिर छिपा कर सिसक-सिसक कर रो रही थी। न जाने कितनी देर से यह क्रम चल रहा था ? रह-रह कर वह युवती पास ही आराम से सोए व्यक्तियों को देख लेती थी। फिर दुगुने विषाद से बच्चे की तरह रो उठती थी।

अलाव के गिर्द सोए हुए व्यक्तियों में जरा-सी हरकत हुई। एक ने कम्बल को चारों ओर से दबाकर ठंडी हवा के आने के सब रास्तें बन्द कर लिए। दूसरे ने करवट बदलने की कोशिश की। सर्द हवा के स्पर्श से शायद उसने हिलना-डुलना उचित नहीं समझा। एक युवक ने जैसे आँखे खोल दीं। शायद नींद में ही ऐसा किया हो। लेकिन, नहीं। वह जाग गया और आश्चर्य में डूबा-डूबा कुछ सोच रहा था। पास ही हिचकी की आवाज फिर आई। वह उठ बैठा। उसने उधर-उधर देखा तो एक काँपती हुई हुई, गठरी-सी उसे दिखाई पड़ी। वह धीरे-धीरे उठा, कम्बल को हाथों में लेकर वह दबे पाँव उस गठरी की ओर बढ़ा।
बिजली की-सी फुर्ती से रूपा मुड़ी। उसके होंठ क्रोध में भिंचे हुए थे। किन्तु सामने अमर को देखकर सकपका गई। उसके मुँह पर आए हुए शब्द हिचकियों में विलीन होने लगे और फिर वह फफक कर रो उठी। अमर ने कम्बल उसके शरीर से लपेट दिया और पूछा-

‘‘तुम्हें किसी ने कम्बल नहीं दिया ?’’
रूपा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘‘बोलती क्यों नहीं ? किसी ने तुम्हें कम्बल नहीं दिया ?’’
‘‘कहाँ से देते ? उनके पास फालतू कम्बल था ही कहाँ ?’’
‘‘क्यों पाँच कम्बल आए थे ?’’
‘‘एक माँ जी के तकिए के लिए....’’
कहते-कहते वह रुक गई। अमर गम्भीर हो गया।
‘‘तुम अलाव के पास क्यों नहीं सो गई ?’’
रूपा ने अलाव की ओर नजर डाली और फिर कुछ उदास सी हो गई।
किसी ने तुम्हें अलाव के पास भी नहीं सोने दिया ?’’
‘‘उन्होंने कहा था कि सो जाओ।’’ ‘
‘‘किसने दिवाकर ने ?’’

‘‘हाँ।’’
‘‘तो फिर.....? क्यों नहीं सोईं ?’’
‘‘मुझे अच्छा नहीं लगा...।’’ कहते-कहते रूपा सिमट-सी गई। अमर कुछ समझ नहीं सका। कुछ देर चुप रहने के बाद अमर बोला-
‘‘अच्छा, तुम घड़ी भर सो लो।’’
‘‘और आप ?’’
‘‘मैं काफी सो चुका हूँ। ....अब जरा घूम आता हूँ।’’ अमर उठकर चला गया तो रूपा देर तक उसकी ओर देखती रही फिर एक पत्थर को तकिया बना कर वहीं लेट गई।
जातरुओं का शोरगुल सुनकर अब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि चलने की सब तैयारियाँ हो चुकी हैं। शायद वे लोग उसी के उठने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने पास ही पंडिताइन, पंडितजी आदि को देखकर वह ग्लानि से सिमट गई। उसे आशा थी कि उस पर गालियों की बौछार शुरू हो जाएगी। पंडिताइन ने अब तक कैसे सब्र किया, यह उसके लिए सचमुच आश्चर्य की बात थी। दिवाकर उसकी ओर घूर रहा था। रूपा अँगड़ाई लेना चाहती थी। लेकिन किसी कारण उसका साहस नहीं हुआ। हक्का-बक्का होकर वह वहीं खड़ी रही। इस समय उसे क्या करना चाहिए। यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। पंडित जी हमेशा की तरह ही अपने में डूबे थे। किन्तु पंडिताइन में रूपा ने जो परिवर्तन देखा, उससे वह काँप उठी। निकट जाकर डरते-डरते बोली, ‘‘मालकिन गलती हो गई।’’

पंडिताइन ने न जाने इसका क्या अर्थ लगाया, ‘‘वह तो पहले ही जानती थी। छोटी जात को जब रूप मिल जाता है तो ऐसा ही होता है।’’
रूपा का रोम-रोम सिहर उठा। उसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिला। स्त्री की आँखों में इतना घिनौनापन उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसने चारों ओर देखा। उसकी आँखे जिसे ढूँढ़ रही थीं वह कहीं दिखाई नहीं पड़ा। पंडिताइन की ओर देखते ही उसे लगा कि वह उसे कच्चा चबा डालने के लिए व्याकुल हो रही है। पंडितजी दस-बारह कदम दूर दातून कर रहे थे। रूपा उनके पास पहुँची। उसे देखते ही पंडितजी बोल उठे, ‘‘अरे, अभी तक तेरी नींद नहीं गई ! हाथ-मुँह धोकर तैयार हो। देर भी हो रही है।’’
रूपा ने उनके शब्दों में निश्छलता देखी तो पशोपेश में उड़ गई।
‘‘मुझे बड़ी देर हो गई बझिया1 !’’

‘‘कोई बात नहीं लेकिन अब और देरी मत करो।’’ कहते-कहते पंडितजी मुड़ गए। ततवानी पहुँचते-पहुँचते बारह बज गए। घड़ी में भी और उन लोगों के चेहरों पर भी। भूखे पेट इतनी चढ़ाई चढ़ना और ऐसी धूप में...किसी को आशा नहीं थी वे सही-सलामत वहाँ पहुँच जाएँगे। रास्ते में एक दो बार पार्वती देवी को गश आ गया। दिवाकर की हालत भी बिगड़ गई थी किन्तु पंडितजी और रूपा न जाने किस शक्ति से भूख की यातना को सह सके। अमर उनके साथ नहीं था। वह दाल चावल का प्रबंध करने के लिए देवला में पिछड़ गया था। सभी की आश उस पर लगी हुई थी। किन्तु उसका कहीं नामों निशान नहीं था। ततवानी पहुँच कर एक पेड़ के नीचे सभी लोग बैठ गए दिवाकर एक ऊँचे से पत्थर पर खड़ा होकर अमर की राह देखने लगा। पंडिताइन गुमसुम मुरझाई हुई लेटी रहीं। पंडितजी सिगरेट फूँकने में व्यस्त रहे। रास्ते में किसी में कोई खास बातचीत नहीं हुई थी पाँच-छः घंटों की चुप्पी ने उनकी वाकशक्ति का जैसे हरण कर लिया था।

 पंडितजी ने पीर्वती की ओर देखकर कहा, ‘‘तब तक नहा लो, तो अच्छा है।’’ पंडिताइन ने कोई उत्तर नहीं दिया। आसपास पेड़ों के नीचे जातरुओं के झुंड थे। स्त्रियां भजन गा रही थीं। सामने की ततवानी के पोखर थे। हर साल हजारों लोगों के काम में आने पर भी इनका रूप वही रहा। किसी ने तो इन्हें घाट-तालाब की शक्ल में बँधवाया, न स्त्री-पुरुष के बीच उचित व्यवस्था ही की। लूणी खड्ड के किनारे बड़े-बड़े पत्थरों से दोंनों पोखर घिरे हुए थे। प्रकृति ने दोनों के बीच एक छोटी-सी चट्टान खड़ी कर दी थी जो पर्दे का काम देती थी। पाँच-सात बारह के पेड़ों के अतिरिक्त कोई पेड़ भी नहीं था, जिसकी छाया में जातरू विश्राम कर सकते। इस उजाड़ और भयानक जगह में साल में एक बार ‘निर्जला एकादशी’ के
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1.    बारह की जातों द्वारा बड़ी जातों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सम्बोधन, जिसका अर्थ है मालिक।

दिन मोक्ष के लिए उतावले जातरू इन्हीं पत्थरों में ज्यों-त्यों दिन काट चले जाते थे। पंडिताइन ने लोगों की भीड़ को पोखरों के आसपास देखा तो उसे विरक्त हो गई-क्या इसी तीर्थस्थान के लिए लोग पागलों की तरह दौड़ आते हैं ? जहाँ बैठने की व्यवस्था भी नहीं है, न खाने-पीने की ! दूसरी व्यवस्था पर शायद उसका अधिक जोर था। और शायद वह उस व्यवस्था की चिन्ता में इतनी डूब गई थी कि पति के प्रश्न को उसने सुना ही नहीं। पंडितजी थोड़ी देर के बाद फिर बोले, अमर आता ही होगा। कुछ सामान तो जरूर लाएगा। लेकिन तब-तक नहा धोकर तैयार हो जाना चाहिए। अरी तुम चुप क्यों हो ? दिवाकर कहाँ गया है ?’’

अब की बार भी उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने रूपा की ओर देखा। रूपा की नजर सामने दो स्त्रियों पर टिकी हुई थी जो पोखर में नहाकर आ रही थीं।
पंडितजी चुपचाप सिगरेट के कश लेने लगे। बीच-बीच में वे कभी रूपा की ओर और कभी पंडिताइन की ओर देख लेते। थोड़ी देर में वे अपने अतीत की कुछ स्मृतियों में खो गए। उन्होंने देखा एक युवक माथे पर तिलक लागाए, मलमल की धोती पहने सत्यनारायण की कथा कह रहा है। उसके सामने एक सुन्दर लड़की बैठी हुई है। युवक का ध्यान पुस्तक से हटकर बार-बार उसकी ओर जा रहा था। लड़की आँखों में आँसू भरकर उसे एक टक देख रही है। युवक उस लड़की के संबन्ध में कुछ जानने को उत्सुक हो रहा है। कथा सामाप्त होने पर युवक कमरे में पूजा का सामान एक गठरी में बाँध रहा है और साथ ही उस लड़की के बारे में सोच रहा है। अचानक किसी के आने से वह चौंक पड़ता है-
‘‘कौन ?’’

‘‘मैं....हूँ।’’
युवक विस्मय और खुशी से उस लड़की की ओर देखता है।
‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
‘‘पारो।’’
‘‘क्या काम है ?’’
‘‘एक बात पूछने आई हूँ ।’’
‘‘बोलो।’’
‘‘सत्यनारायण की कथा करने में मन की मुराद पूरी हो जाती है क्या ?’’
‘‘किताब में तो ऐसा ही लिखा है ?’’
‘‘लेकिन आप क्या मानते हैं ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘यही कि बिना परिश्रम के कोई मुराद पूरी नहीं होती।’’
‘‘क्या कथा झूठी है ?’’

‘‘कथा सच्ची है या झूठी यह तो नहीं जानता। लेकिन इसका फल बकवास है। ....मैं तो रोज ही इसे पढ़ता हूँ। अगर यह ठीक होता तो मुझे संसार में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। लेकिन तुम क्यों पूछती हो ?’’
लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया वह जाने लगी। ‘
 ‘‘जरा सुनो।’’
लड़की रुक गई।

‘‘यह तो बताओ कि तुम्हारे मन की मुराद है क्या ?’’
‘‘कहने से अब क्या होगा ?’’
‘‘मैं कोई तरीका निकाल दूँगा।’’
‘‘निकालोगे ?’’
‘‘क्यों नहीं ?’’
‘‘जादू-मन्त्र जानते हैं ?’’
‘‘कुछ न कुछ जरूर करूँगा तुम्हारे लिए।’’
लड़की वापस आकर दीवार के सहारे खड़ी हो गई।
‘‘तो फिर सुनिए।...किसी से कहिएगा मत। मैं इसी घर के मालिक की लड़की हूँ।.....’’
‘‘क्या, पंडित श्यामसुन्दर की ?’’
‘‘हाँ !....’’ लेकिन आप तो सब कुछ जानते ही होंगे....?’’
‘‘नहीं मैं कुछ नहीं जानता।’’        


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