लोगों की राय

स्त्री-पुरुष संबंध >> वर्जित फल

वर्जित फल

भीमसेन त्यागी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3470
आईएसबीएन :81-7016-461-3

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

408 पाठक हैं

प्रस्तुत है एक मनोहारी कथा....

Varjit Phal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हिन्दी के प्रख्यात कथाकार भीमसेनी त्यागी का उपन्यास ‘वर्जित फल’ एक मनोहारी कथा है, जिसमें नायिका नीरा दो पुरुषों-पति चितरंजन और मनभावन प्रेमी ललित के बीचोबीच से अपने अस्तित्व, पहचान, समर्पण, नैतिक मूल्यों और सामाजिक मान्यताओं के लचर-फचर रथ पर सवार होकर गुजरना चाहती है। अपनी मानसिकता में नीरा न एकदम जड़ पतिव्रता है और न ही बंधनहीन नारी, मगर फिर भी वह ललित को समर्पण कर देती है। यह न उसकी जिद है और न पाप-मगर फिर भी कुछ ऐसा कर्म है जो पूरे वातावरण को पहले स्तब्धता और फिर बहस में धकेल देता है। इस अवैध बालक का पिता कौन है तथा किस पिता के नाम से यह बालक भविष्य में जाना जाएगा-इस बात पर नीरा का चरित्र मानो पूरे समकालीन समाज को बहस के चौराहे पर ला खड़ा करता है।

आज के प्रगतिशील युग में दाम्पत्य की भाषा, परिभाषा और संविधान काफी बदल गए प्रतीत होते हैं। कैसी बनावट और बुनावट से जूझ रही है हमारी वैवाहिक संस्था-यह उपन्यास इस नुकीले प्रश्न की धार है और संभवतः उसका उत्तर भी।

वर्जित फल


ललित बस से उतरा तो सूरज पश्चिम की पहाड़ी पर झुक आया था। परछाई लंबी हो गई थी। वह काठबँगला की तरफ बढ़ा तो पैर बोझिल होने लगे। अब उसे फिर उन्हीं लोगों के बीच जाना होगा जो उसे कतई-कतई पसंद नहीं करते। आज वह पूरे एक साल बाद राजपुर आया है। अब भी न आता, अगर डैडी की बीमारी की खबर न मिली होती।
ललित ने घण्टी बजाई तो साँवली-सी लड़की दरवाजे पर आई। चेहरे पर थकान, आखों में निराशा। ललित ने उसे हैरत से देखा और कहा, ‘‘अरे, तुम ! कितनी बदल गयी हो, नीरा !’’
‘‘बदली कहाँ ? वही तो हूँ।’’

‘‘वही कहाँ हो ! एक बार तो मैं पहचान ही नहीं सका।’’
‘‘तुम क्या, अब तो मैं खुद ही अपने को नहीं पहचानती।’’
ललित ने पूछा, ‘‘डैडी कैसे हैं ?’’
‘‘कुछ बेहतर हैं।’’
ललित बैठक में आते ही दीवान पर पसर गया।
नीरा ने पूछा, ‘‘क्यों, डैडी से नहीं मिलोगे ?’’
‘‘मिल लूँगा उनसे भी।’’ ललित ने तकिए का सहारा लेते हुए कहा, ‘‘पहले तुम एक चाय पिलाओ-अच्छी सी।’’
नीरा रसोई की तरफ चली गई।
ललित को खयाल आया-क्या हो गया नीरा को ? यह तो कभी ऐसी न थी। वह उसे बचपन से जानता है। ललित की ममी की सहेली मिसेज सिंह की इकलौती बेटी है नीरा वह पहले-पहल अपनी ममी के साथ काठबँगला आई थी। दुबली-पतली, गुमसुम। हलके नीले रंग के फ्रॉक में आंटी से सटकर बैठी थी। ललित उसके सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘आओ, लूडो खेलें !’
नीरा ने कोई जवाब नहीं दिया। वह आंटी से एकदम चिपक गई।

आंटी ने कहा, ‘जाओ बेटी, खेल लो !’
नीरा उठकर ललित के साथ हो ली।
लूड़ो में ललित की बहन मीता भी शरीक हो गई। वह ललित से कुल दो साल छोटी है। लेकिन ललित कुछ ज्यादा ही छोटी समझता है। उस पर हुक्म चलाना और कभी-कभी डाँट लेना अपना हक समझता है।
लूड़ों की बाजी जमी तो ललित को पता चला-नीरा उतनी सीधी नहीं, जितनी देखने में लगती है। वह बहुत जिद्दी और चिड़चिड़ी लड़की है। दौड़ने में ललित से भी तेज। उसे पेड़ पर चढ़कर चुपके-चुपके लीची खाने का चस्का था। पेड़ पर ऐसे चढ़ जाती जैसे बिल्ली। ललित ने उसका नाम पूसी रख छोड़ा। नीरा इस नाम से चिढ़ती थी, और ललित को चिढ़ाने में मज़ा आता है।
नीरा वुडस्टाक स्कूल में मसूरी पढ़ती थी। उससे बहुत कम मिलना हो पाता। लेकिन जब-जब मिली, वही नीले फ्रॉक वाली लड़की नज़र आई। वही जिद्द और वही तुनक मिजाजी। लगता-जिन्दगी के एक मोड़ पर आकर उसकी उम्र ठहर गई है और वक्त के साथ-साथ सिर्फ उसका शरीर बढ़ रहा है।
कुछ बरस बाद वह मेडिकल कॉलेज में मुंबई चली गई....
नीरा चाय की ट्रे लिए सामने खड़ी थी। ललित ने पहला घूँट सिप करके कहा, ‘चाय तो अच्छी बनी है। अच्छी चाय और अच्छी पत्नी इत्तफाक से मिलती हैं।’’
‘‘और पति ?’’

‘‘इसके बारे में तुम बेहतर जानती हो।’’
नीरा का चेहरा सफेद पड़ गया।
तीन साल पहले नीरा की शादी का कार्ड मिला तो ललित को आश्चर्य हुआ था। शादी ! उस फ्रॉकवाली लड़की की ! उसे क्या तमीज घर-गृहस्थी चलाने की !
ललित पिछले साल राजपुर आया तो आंटी ने बताया था-नीरा ने एम.एस. करने के बाद अपनी मरजी से किसी क्लासफैलो के साथ शादी की है और दोनों ने साथ-साथ प्रैक्टिस शुरू की है। लेकिन दोनों में बनती नहीं, नीरा तलाक देने की सोच रही है...
ललित ने चाय सिप करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, यह बताओ-तुम बंबई से आई कब ?’’
‘‘कई रोज हो गए। मैं यहाँ बोर हो रही थी और तुम्हारा इंतजार कर रही थी।’’
‘‘मेरा इंतजार ? मेरा तो कोई इंतजार नहीं करता।’’
नीरा की नजर तेजी से ललित के चेहरे पर गई।

 चाय की आखिरी घूँट लेकर वह उठी और बरतनों को समेटकर अंदर चली गई।
‘‘ललित !’’ अंदर से नीरा की महीन आवाज आई, ‘‘तुम्हें डैडी बुला रहे हैं।’’
ड्राइंगरूम का पिछला दरवाजा गैलेरी में खुलता है। दाए हाथ माथुर साहब का कमरा है और उसके ठीक सामने के कमरे में नीरा ठहरी है। पीछे दो कमरे है, किचन, बाथरूम वगैरह।
कमरा उदास है। पलंग पर माथुर साहब लेटे हैं। वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद खाँसते हैं। पुराना मर्ज है। दमा दम के साथ। इन दिनों मर्ज कुछ ज्यादा ही उभार पर है।

ललित नमस्कार करके एक कुर्सी पर बैठ गया। माथुर साहब पलंग की पाटी पकड़कर धीरे से उठे। उनका जिस्म सूखकर खंजड़ी बन गया है। चेहरे पर झुर्रियों का जाल है। उन्होंने बूढ़े शेर की तरह बुझी आँखों से ललित की तरफ देखा, ‘‘सुना भाई, क्या हालचाल है ?’’
‘‘जी, ठीक हैं सब।’’
‘‘सर्विस कैसी चल रही है ?’’
‘‘वह भी ठीक चल रही है।’’
‘‘खाने का क्या इंतजाम ?’’
‘‘वही।’’
‘‘होटल में ?’’ माथुर साहब ने झुँझलाकर कहा, ‘‘भला होटल का खाना कब तक खाता रहेगा ?’’
ललित ने कोई जवाब नहीं दिया।

‘‘मरजी है तुम्हारी। आज कल के लौंडे किसी की सुनते तो हैं नहीं।’’
ललित बिना सुने ही समझ गया था-डैडी क्या कहना चाहते हैं। वह समाजशास्त्र में एम.ए. करने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में लेक्चरर नियुक्त हो गया है। तीसवाँ पार कर चुका, लेकिन शादी अभी तक नहीं की। माथुर साहब को लगता है, ललित शादी न करके कोई गुनाह कर रहा है। आखिर हर एक काम की उम्र होती है। अब तो दस रिश्ते वाले चक्कर काटते हैं। दो बरस बाद कोई पूछेगा भी नहीं। अव्वल तो यह साली उम्र ही ऐसी है, फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी का माहौल ! वहाँ तो एक से एक हरामी छोकरी हैं....
माथुर साहब के मन में भय समाया है कि ललित शादी न करके कुछ गड़बड़ कर रहा है। वह जानते हैं कि गड़बड़ तो शादी के बाद ही होनी है। लेकिन वह चाहते हैं कि गड़बड़ ललित की पसंद की नहीं, उनकी पसंद की हो।
‘‘हाँ, तो भई ! अब क्या इरादा है ?’’

ललित ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया। कमरे में आशंकाभरी चुप्पी छा गई।
चुप्पी को भंग किया माथुर साहब की खों-खों ने। उन्हें फिर खाँसी का दौरा पड़ गया, जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। उन्होंने किसी तरह छाती को दबाकर टूटते स्वर में कहा, ‘‘बे-टी, पानी !’’
नीरा लपककर सुराही में से पानी ले आई। माथुर साहब ने दो घूँट पिया। साँस सम पर आई।
‘‘कैसा खराब जमाना आ गया !’’ माथुर साहब ने माथे पर हाथ मारा और फिर पलंग पर लुढ़क गए।
ललित खुश हुआ। लेकिन तभी उसके भीतर बैठे एक और ललित ने टोका-यह कैसी खुशी है, जो दूसरे की तकलीफ में से रस खींचती है। वक्त आदमी को कितना मजबूर कर देता है ! यह वही डैडी हैं, जिनकी आवाज पूरे घर में नंगी तलवार की तरह झमझमाती थी। थी किसी में हिम्मत, जो उनके सामने चूँ भी कर सके। अगर वही वक्त रहा होता तो आज डैडी ललित से यह न पूछते कि उसका इरादा क्या है। वह फौरन नादिरशाही फरमान जारी करते और उम्मीद करते कि उस पर अमल किया जाए।

माथुर साहब ने सीने को हाथ से दबाकर कहा, ‘‘बेटी, यह हमारी तो सुनता नहीं, तुम्हीं समझाकर देखो।’’
नीरा चुप रही।
ललित उठा और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
ऊपर छत पर सिर्फ एक छोटा-सा कमरा है। बौद्ध विहार की तरह चारों तरफ ढलुवाँ छत और तमाम दीवारें शीशे की। ललित दरवाजा खोलकर अंदर दाखिल हुआ। उसने उत्तर की दीवार का पूरा पर्दा हटाया तो पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर कमरे में घुस आया। ललित को लगा-दुनिया दूर-दूर तक फैल गई है। सूरज पहाड़ी के पीछे छिप गया है, लेकिन दिन अभी नहीं छुपा। पहाड़ी के उस तरफ पीली धूप फैली होगी और इस तरफ साँझ का सुरमा बिखरा है। शाल वन में नई-नई कोपलें फूट रही हैं। ललित वहीं खड़े-खड़े वन में दूर तक दौड़ता चला गया....पूरे काठबँगले में ललित को यही कमरा पसंद है। वह जब तक राजपुर रहा, इसी कमरे में रहता था। और अब भी आना होता है तो इसी में ठहरता है।

अँधेरा कुछ और घिर आया है। ललित ने ट्यूबलाइट जला दी। पूरा कमरा दूधिया रोशनी में नहा गया। अब ललित का ध्यान कमरे के सामान पर गया। वही पलंग है, वही छोटी-सी मेज और वही शांति निकेतन के डुगडुगी जैसे मूढ़ों का जोड़ा। कोने में किताबों का शैल्फ भी वही है, लेकिन सारे सामान को इस करीने से सजाया गया है कि कमरा एकदम बदला-बदला नजर आता है। ललित ने यहाँ आकर थोड़ी राहत महसूस की। वह पलंग पर लेट गया और अँधेरे के घोल में डूबते पहाड़ को देखने लगा...
अचानक नीरा ने कमरे में कदम रखा।
ललित उठकर बैठ गया। उसने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘नीरा, तुम यहाँ इस तरह क्यों रह रही हो ?’’
‘‘किस तरह ?’’

‘‘ममी तो अपनी ट्रेनिंग कर रही हैं और तुम एक बीमारी की खिदमत में जुटी हो। यह तुम्हें अच्छा लगता है ?’’
‘‘बीमारों की देखभाल करना तो मुझे सचमुच अच्छा लगता है।’’
‘‘तो दस-बीस और बीमार यहाँ लाकर छोड़ दें ?’’
‘‘मैं ?’’
‘‘हाँ, तुम।’’
‘‘तो करो मेरा इलाज।’’
‘‘नहीं, तुम्हारे लिए तो किसी और डॉक्टर की तलाश करनी होगी।’’
‘‘तुम डॉक्टर नहीं हो ?’’

‘‘हूँ, लेकिन तुम्हारे लिए नहीं।’’ नीरा अचानक गंभीर हो गई, ‘‘ललित, तुम अंकल की बात मान क्यों नहीं लेते ?’’
‘‘नीरा, मैं डैडी को नहीं समझ पाता और लगता है, वह भी कभी मुझे समझ नहीं पाएँगे।’’
‘‘लेकिन अंकल ठीक ही तो कहते हैं। शादी करनी है तो सही वक्त पर क्यों न की जाए !’’
‘‘मेरा शादी का कोई इरादा नहीं है।’’
‘‘क्यों ?’’ नीरा ने हैरत से ललित की तरफ देखा, ‘‘शादी तो सभी करते है।’’
‘‘हाँ, करते हैं और डैडी ने तो एक नहीं, दो-दो शादियाँ रचाई हैं। मैंने अपने घर में शादी का जो रूप देखा, उससे मुझे नफरत हो गई है।’’
‘‘वह क्यों ?’’


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book