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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (रामधारी सिंह दिवाकर)

रामधारी सिंह दिवाकर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3382
आईएसबीएन :81-7016-617-9

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रामधारी सिंह दिवाकर के द्वारा चुनी हुई दस सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ.....

10 Pratinidhi Kahaniyan - Hindi Stories by Ramdhari Singh Diwakar)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बातें- कुछ अपनी, कुछ कहानियों की

आठ कहानी-संग्रहों और एक प्रकाश्य कहानी-संग्रह से दस कहानियों को ‘छाँट’ कर निकालना, वह भी ऐसी कहानियों को, जो प्रतिनिधि भी हों, बड़ा मुश्किल काम था। आखिर ‘प्रतिनिधि’ की कसौटी क्या हो, इस विचार ने परेशान किया था। अंतर्द्वंद्वों और कई पूर्वाग्रहों को एक किनारे छोड़कर दस कहानिय़ों का चयन करना पड़ा।

इन संकलित कहानियों में मेरा विकास भी लक्षित हो सकता है। पाठक इस विकास को बेहतर ढंग से पकड़ पाएँगे।
एकदम शुरू की कहानियाँ, पता नहीं क्यों, मुझे स्वयं बहुत पसंद नहीं आतीं, इसलिए लगभग दस-बारह वर्षों की अवधि में लिखी गई कहानियाँ इस संग्रह में नहीं आ सकीं, जो कहानियाँ अपने समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, और प्रशंसित हुई थीं। ‘घर्मयुग’ और ‘सारिका’ में कई कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं, लेकिन उनमें से एक भी कहानी ‘प्रतिनिधि’ के नाम पर इस संग्रह में नहीं जा पा रही है, इसलिए मुझे तो यही लगता है कि किसी कहानीकार की प्रतिनिधि कहानियों के चयन का काम कोई सुविज्ञ पाठक, कथालोचक या समकालीन सहयात्री कथाकार करे तो अधिक न्यायसंगत होगा।

प्रतिनिधि कहानियों के नाम पर चौदह-पंद्रह वर्षों के आरंभिक लेखन से सिर्फ़ दो कहानियाँ इस संकलन में आ रही हैं। शेष सारी कहानियाँ बाद की हैं-हाल-फिलहाल तक की। अतीत के अनुराग के प्रति ऐसी तटस्थता क्यों है, इसकी एक वजह है। शुरुआती कहानियों में से एक अरसे तक मैं एक खास दायरे के बाहर नहीं जा सका। वह दायरा था, गाँव के परिवेश में पढ़ने-लिखने और नौकरी करने के सिलसिले में बाहर जाती नई पीढ़ी। पृष्ठभूमि में माता-पिता, भाई-बहन और खेतिहर परिवार और पढ़-लिखकर शहर में नौकरी करने वाला लड़का। इसके साथ ही छूट गए परिवार के सपने, जो बेटे के इर्द-गिर्द बुने जाते थे।

मैं स्वयं ऐसी ही पारिवारिक पृष्ठभूमि से शहर आया था, इसलिए माँ-बाप भाई-बहन और गाँव-समाज के परिवेश को पूरी अंतरंगता से जानता-पहचानता था। लेखक जिस परिवेश से संस्कार और आत्मा के स्तर पर गहरा जुड़ाव रखता है, उसको लेकर लिखने की सुविधा महसूस करता है। मेरे साथ वही हुआ। मैंने कई कहानियाँ लगभग इसी केंद्रीय विषय को लेकर लिखीं। उसी दौर की दो कहानियाँ इस संग्रह में जा रही हैं। ‘खोई हुई ज़मीन’ कहानी में तथाकथित कृतघ्न पीढ़ी की उदारता और मानवीयता परिवार के हृदयहीन व्यवहार को लज्जित करती है। दुर्दिन झेप रही बुआ को नायक की माँ, बड़े बाबूजी और परिवार के दूसरे लोग जिस उपेक्षा से दुत्कारते हैं, शहर में नौकरी करने वाला लड़का उस बुआ के प्रति उदार बनकर अपनी पढ़ाई (विद्या) को सार्थक करता है।

उस दौर की दूसरी कहानी ‘सरहद के पार’ भी इस संग्रह में ही है, जिसमें प्रकारांतर से गाँव का सांप्रदायिक सौहार्द भी प्रतिबिंबित हुआ है। इस कहानी में ‘विदादृष्टि’, ‘अनाम संज्ञा’, ‘दीवार बरगद’ (सभी कहानियाँ ‘धर्मयुग’) , बड़े होते लोग’ (‘सारिका’) और ‘संबंधवाचक’(‘सा० हिंदुस्तान’) के माता-पिता की दयनीयता नहीं है, बल्कि एक निष्करुण उदासीनता है, विकल्प का विश्वास है, जो सुविधाओं में रहने वाले बेटे को ही करुण और निस्सहाय बना देता है। इस रूप में यह कहानी उस दौर की कहानियों से थोड़ा भिन्न प्रतीत होगी।
धीरे-धीरे अहसास होने लगा कि परिवार और पारिवारिक रिश्तों से मुझे बाहर निकलना चाहिए, लेखक के स्तर पर जो वैचारिक ज़मीन तैयार हो जाती है, उससे निकल पाना उतना आसान नहीं होता। निकलने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है।

मैं मुख्यतः गाँव पर लिखता रहा हूँ और गाँव का यथार्थ बहुत जटिल होता है। यह जितना अग्रगामी है, उतना ही पश्चगामी। जाति-व्यवस्था वैसे तो पूरे हिंदू-समाज का अडिग और निर्विकल्प यथार्थ है, लेकिन गाँव में यह कुछ ज़्यादा ही दिखाई पड़ता है। यहाँ जाति के नाम पर अलग-अलग टोले होते हैं। जातिगत अलगाव नगरों-महानगरों में भी कम नहीं है, लेकिन वहाँ ऊपर से दिखाई नहीं पडता। एक ही मुहल्ले या कॉलोनी में अलग-अलग जातियों और धर्मों के लोग अलग-अलग दुनियाओं में रहते हैं।

‘सदियों का पड़ाव’ में ब्राह्मण होने की श्रेष्ठता और जीविका के प्रश्न का द्वंद्व है। मन के भीतर ब्राह्मण होने का अभिमान जब रोटी के सवाल से टकराता है, तब स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है। कविता के एक बडे़ आलोचक ने इस कहानी पर अपनी राय देते हुए कहा था कि कहानी कलुषभाव का प्रचार करती है, लेखक को ऐसी कहानी नहीं लिखनी चाहिए। मैंने विनम्रता से जवाब दिया था कि कहानी एक बार फिर पढ़ी जाए और मूल व्यंग को समझने की कोशिश की जाए।
इस संकलन में ‘शोक-पर्व’ कहानी भी है। इस कहानी को राजेन्द्र यादव जब ‘हंस’ में छापने लगे तो मुझे पत्र लिखा कि इस कहानी में और वालेंतीन रास्पुटीन के ‘अंतिम घड़ी’ के कथाकार में आश्चर्यजनक साम्य है, मैंने तब रास्पुटीन का नाम भी नहीं सुना था, उनकी कथाकृति ‘अंतिम घड़ी’ को पढ़ने की बात तो दूर। राजेन्द्र जी ने लिखा कि कभी-कभी दो भिन्न देशों और भाषाओं के दो कहानीकारों की रचनाओं में विलक्षण साम्य चकित करता है। मुझे भी लगा कि इस तरह की सोच पूरी मानवजाति की नियति की समरुपता को ही उद्धृत करती है।

आरक्षण की सुविधा पाकर पिछड़े और दलित वर्ग के जो लोग शासन, प्रशासन और सत्ता के सम्मानित पदों पर पहुँचते हैं, उनमें अधिसंख्य ऐसे होते हैं, जिनकी आकांक्षा उच्च संभ्रांत वर्ग में शामिल होने की और अपनी पृष्ठभूमि के परिवार या जाति को नकारने की होती है। ‘माटी-पानी’ कहानी में गाँव के ही सवर्ण वर्ग के हत्यारे को गिरफ्तार कराने के लिए टोले के लोगों के कहने पर पिता अपने एस० पी० बेटे के पास जाते हैं, तो देखते हैं कि हत्यारा अपनी पत्नी के साथ वहाँ विराजमान है और बेटे के परिवार में इतना घुला-मिला है कि वे खुद बाहरी आदमी बन जाते हैं। दलित वर्ग के उच्चपदस्थ अधिकारी को सवर्ण वर्ग में स्वागत और देखावे की स्वीकृति से कभी-कभी भ्रम हो जाता है। वह भ्रम जब किसी झटके के साथ टूटता है, तब ‘गाँठ’ कहानी लिखने की प्रेरणा मिलती है। संगृहीत ‘गाँठ’ शीर्षक कहानी इसी भ्रम-भंग की कहानी है।
मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद समाज की ढकी हुई सच्चाई उसी तरह अचानक बाहर आई, जैसे बड़े भूकंप में ज़मीन के नीचे का कीचड़-कादो और दबी हुई कितनी ही चीज़ें ऊपर आ जाती हैं। सवर्ण-अवर्ण में विभाजित समाज की सच्चाइयाँ आरक्षण के सवाल पर खुलकर सामने आ गईं। अब तक दबे-कुचले लोग तनकर खड़े होने लगे। सवर्ण-अवर्ण के रिश्ते कई मुद्दों पर हिंसक भी हुए। संग्रह में ‘सूखी नदी का पुल’ शीर्षक कहानी भी है, जिसमें मुंबई में रहने वाली गाँव की ‘सवासिन’ बुच्ची दाय वर्षों के बाद अपने मायके लौटती है। गाँव के पुराने रिश्तों को अपने स्नेह, समर्पण, त्याग और कृतज्ञता की स्मृति से पुनर्जीवित करती है। कहानी में कोई आदर्शवादी स्थापना नहीं है, बस एक छोटी-सी घटना है।

जनतांत्रिक चेतना का ही परिणाम था कि समाज और राजनीति के हाशिए पर पड़े लोग धीरे-धीरे सत्ता के केंद्र में आने लगे। अब तक जिस वर्ग के लोगों का सत्ता पर आधिपत्य था, वे परिधि की तरफ धकेले जाने लगे। मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद यह गति ज़्यादा तेज़ हो गई। वंचितों का राजनैतिक और सत्ता में वर्चस्व, जनतंत्र में मतदान के अधिकार की महिमा का मीठा प्रसाद था। लेकिन इसी के भीतर से एक विडंबना का भी जन्म हुआ। सत्ता में आए वंचितों में उसी वर्ग का चरित्र उभरने लगा, जिस वर्ग को चतुर्दिक शोषण के नाम पर सत्ता से बाहर धकेला गया था। इस विषय पर मैंने कुछ कहानियाँ और ‘आग-पानी-आकाश’ नाम से उपन्यास लिखा। इस संग्रह में ‘इस पार के लोग’ शीर्षक कहानी इस पार और उस पार (पिछड़े और अगड़े) के वर्ग-चरित्र को एक ही धरातल पर चरितार्थ करती है।

‘मखान पोखर’ कहानी मैंने बड़े जतन से, काफी सोच-समझकर और कहा जाए तो तन्मय भाव से लिखी थी। गाँव अपनी परंपरा, लोक-रंग और मानवीय आस्था की जिस ज़मीन पर अभी हाल तक जीता रहा, उसकी एक झलक इस कहानी में मिलेगी। इस कहानी में पिछड़े वर्ग की एक विधवा युवती दुलरिया का आत्मसंघर्ष है। दुलरिया एक ही साथ अपने परिवार, समाज और स्वयं से संघर्ष करती है और अंत में अपने वेगमय प्रेम के कारण सबको जीत लेती है।
सन् सड़सठ के बाद भारतीय राजनीति में प्रादेशिक स्तर पर संविद की सरकारों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह केंद्र में भी लागू हो गया है। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना तक भारत का एक सपना सँजोए लगभग स्थिर-सा दिखाई पड़ता है। उसके बाद से यथास्थिति टूटने लगती है। पिछले एक-डेढ़ दशकों से जो राजनीति का भयावह यथार्थ दिखाई पड़ने लगा है, उसमें आदर्श या नैतिकता के तमाम मान-मूल्य ध्वस्त हो गये हैं। नाकारात्मक मूल्यों के पूजित होने का यह राजनीतिक आचरण भारतीय जनतंत्र का कोढ़ बनकर सामने आया है। इस संग्रह की अंतिम कहानी ‘काले दिन’ में जिस अपराधी को चौदह-पंद्रह साल पहले जाति से बहिष्कार किया गया था, उसी का शानदार स्वागत वे ही लोग करते हैं, जिन्होंने उसका और उसके परिवार का हुक्का-पानी बंद करवाया था। राजनीति का अपराधीकरण या अपराधी का राजनीतिकरण आज के समय की दहशत-भरी सच्चाई है।

किसी एक कहानीकार के बूते की बात नहीं है कि अपने समय के समग्र यथार्थ को लिख सके। मैंने अपनी कहानियों में बदलते हुए गाँव की सिर्फ़ एक झलक देखी और दिखाई है। कहानियाँ लिखते-पड़ते पैंतीस-चालीस वर्ष हो गए। मुड़कर अपनी पिछली यात्रा पर सोचता हूँ कि किस तरह परिवार से निकलकर मैं खुले समाज में आया। फिर भी क्या परिवार छूट पाया है ? व्यक्ति क्या परिवार और समाज से स्वतंत्र-निरपेक्ष हो पाएगा ? और क्या मैं गाँव के या समाज के यथार्थ को भली-भाँति समझा पाया हूँ ?
सिर्फ अपनी समझ ही कहानियों में रूपायित हो पाई है। मेरी समझ सबकी समझ बन जाए, यह क्या ज़रूरी है ? संतोष यही है कि कहानी यथार्थ का आलेखन नहीं होती, यथार्थ के भीतर जो सत्य है, वही सत्य सत्याभास के रूप में कहानी में उतरता है, यानी एक गढ़ा गया झूठ, जो सच्चाई लगता है।

अपनी छोटी-सी कथा-यात्रा में आज इस मोड़ पर पहुँचकर महसूस करता हूँ कि कहानी लिखने के शुरूआती दौर में जो एक किस्म का भावावेग था, भाषा को सजाने-सँवारने की जो अतिरिक्त चेष्ठा और आकाँक्षा होती थी, वह धीरे-धीरे मंद पड़ती गई।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी कई आंदोलनों से होती हुई यहाँ तक पहुँची है। हर आंदोलन के अपने-अपने मुहावरे थे और हर आंदोलन ने हिंदी कहानी को कुछ न कुछ दिया। फिलहाल हिंदी कहानी का कोई आंदोलन नहीं है, लेकिन मुझे लगता है, अघोषित रूप से हिंदी कहानी एक बड़े आंदोलन से गुज़र रही है।
हिंदी कहानी का वृत्त व्यापक हुआ है। विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न-भिन्न अनुभवों से हिंदी कहानी समृद्ध हो रही है। शिल्प के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। हिंदी कहानीकारों के अध्ययन का दायरा भी बढ़ा है। लैटिन अमेरिकी साहित्य और उत्तर आधुनिकता की अवधारणा ने हिंदी कहानी में नए विमर्श के द्वार खोले हैं।
सांप्रदायिकता, स्त्री-विमर्ष ने हिन्दी कहानी को समकालीन सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों के रू-ब-रू ला खड़ा किया है। स्त्रियों और दलितों को अब मुखवाचक कहानीकारों की ज़रूरत नहीं रही। वे अपनी बात खुद कहने लगे हैं और अपनी अलग पहचान की माँग करने लगे हैं। मुझे लगता है, इक्कीसवीं सदी में हिंदी कहानी की यही मुख्यधारा होगी।

सरहद के उस पार


शहर की हालत आजकल ठीक नहीं है। शाम के बाद ही सन्नाटा छा जाता है, सड़कों पर। पंद्रह-सोलह दिन पहले सांप्रदायिक आग की एक चिंगारी बगल के कस्बे से उड़ककर शहर के एक मुहल्ले पर आ गिरी थी। कस्बे में किसी बात को लेकर हिंदुओं-मुसलमानों के बीच मार-पीट हुई। छुरेबाज़ी और आगज़नी की घटनाएँ भी हुईं। प्रशासन की सख्ती और राहत का काम उधर चल रहा था कि इस शहर के एक मुहल्ले में आग भड़क उठी। यहाँ भी छुटपुट वारदातें हुईं, लेकिन अफवाहें ज़्यादा उड़ी हैं। मिनट दो मिनट पर दिखने वाली पुलिस की गश्ती गाड़ियाँ दहशत पैदा करती हैं। कुछ इलाकों में शाम के बाद लोगों की आमद-रफ्त बिलकुल कम हो जाती है। अपना निवास ऐसे ही इलाके में है, इसलिए मैं एकदम सवेरे लौट आता हूँ।

उस दिन भी सवेरे ही लौटा था, शाम से कुछ पहले ही। ऊपर अपने फ्लैट के पास गया तो ड्राइंगरूम का दरवाज़ा खुला मिला। रूम के बाहर बैढब दुफितिया चप्पलें पड़ी थीं। अंदर बाबूजी सोफे पर दोनों पैर मोड़े बैठे हुए थे। अप्रत्याशित रूप से उन्हें आया देख, मैं कुछ क्षणों के लिए स्तंभित रह गया। जाने किस भावनात्मक आवेश के तहत मैंने उनके पैर छुए। उनकी आँखें छलछला आईं। भर्राई हुई आवाज़ में वे देर तक मुझे असीसते रहे।

मैं उनके सामने खड़ा था और देख रहा था कि उन्होंने अपना बोरिया-बिस्तर कहाँ रखा है। कहीं कुछ दीख नहीं रहा था कि मैंने पूछने की गरज़ से यों ही पूछ लिया, ‘‘आपको यहाँ तक पहुँचने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई ?’’ बाबूजी फीकी-सी हँसी हँसने लगे, ‘‘नहीं, कुछ खास नहीं। पता था मेरे पास। फिर भी पूछना पड़ा लोगों से।’’ वे सामने की दीवार की तरफ देखने लगे। दीवार पर एक बड़ा-सा लैंडस्केप टँगा हुआ था और एक दूसरे फ्रेम में एक हिरन था, जो पानी की तलाश में बेतहाशा भागा जा रहा था। ये दोनों चित्र मेरे कलाकार मित्र की कलीकृतियाँ हैं। बाबूजी की आँखें देर तक उन चित्रों की सीध में टँगी रहीं।
इसके बाद जैसे कोई विषय नहीं रहा था बातचीत को बढ़ाने के लिए। मैंने गौर से बाबूजी के चेहरे को देखा। कटे धनखेत की तरह चेहरा था उनका-वैसा ही सूखा, सूना और उजड़ा। दाढ़ी के सफेद बाल खूँटियों की तरह उगे हुए थे। गड्ढ़ों में छिपी मरियल-सी आँखों के आसपास धुंध-जैसी कालिमा थी। अंदर कमरे में गया तो रश्मि ने अस्फुट स्वर में पूछा, ‘‘आपके पिता जी है क्या ?’’
‘‘हाँ, कब आए हैं ?’’

‘‘थोड़ी ही देर पहले। मैं बाहर निकल रही थी। यीशू को लिए हुए थी गोद में, कि ये बाल्कनी में चुपचाप खड़े मिले। पूछा कि किसको खोज रहे हैं तो साफ-साफ कुछ बोले नहीं। एकाएक घबरा से गए। फिर धीरे से बोले, ‘नरेन...नरेन्द्र रहता है यहाँ ? सहरसा वाला नरेन्द्र ?’ पूछा कि क्या काम है तो कुछ बोले नहीं। मैंने सोचा कि कैसे विचित्र आदमी हैं। आगे बढ़ने लगी तो बोले, ‘वो नरेन्द्र...मेरा लड़का है।’ मैं ठिठक गई।...कभी के देखे रहें तब ना!’’
‘‘अच्छा, चाय-वाय कुछ दी ?’’

‘‘हाँ गयी थी चाय लेकर। बोले, ‘नहीं पीता हूँ।’ लौटाकर ले आई।’’ कमरे में खड़ा मैं यह सोचता रहा कि बाबूजी इस, तरह एकाएक चले कैसे आए ? वे कभी आए नहीं थे यहाँ। तकरीबन सात बरसों से उनसे मुलाकात भी नहीं हुई है। इस बीच सिर्फ तीन बार उनके खत आए थे। हर खत सूचना के तौर पर था। चार-पाँच वर्ष पहले माँ की मृत्यु की सूचना लेकर पहला खत आया था। खत इतने विलंब से मिला था क्रियाकर्म भी तब तक समाप्त हो चुके थे। दूसरा खत छोटे भाई की शादी की सूचना लेकर आया था और तीसरे खत में उस बाढ़ का ज़िक्र था, जिसमें घर-द्वार सब डूब गए थे, मवेशी मर गए थे और खड़ी फसल का तिनका तक नहीं बचा था। इस तीसरे पत्र के जवाब में मैंने तीन सौ रुपय का मनीऑर्डर बाबूजी के नाम भेज दिया था। इस बाढ़-पीड़ित सहायता राशि को उन्होंने स्वीकार कर लिया था। पावती की रशीद मुझे मल गई थी। रसीद पर कैथी लिपि में बाबूजी का हस्ताक्षर था-यदुवीर प्रसाद। शनैः शनैः एकदम लुप्त होती जा रही इस कैथी लिपि में बाबूजी के हस्ताक्षर को पढ़ने में मुझे कोई असुविधा नहीं हुई थी। हालाँकि मेरी पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में कैथी लिपि कभी आई नहीं थी, लेकिन पारिवारिक कारणों से इस लिपि का ज्ञान मुझे हो गया था। बहुत पहले जब मैं मैट्रिकुलेशन में था, बाबूजी के लिए कभी-कभार कैथी लिपि में कुछ लिखना पड़ जाता था। वैसे बाबूजी को कामचलाऊ उर्दू भी आती थी, लेकिन उर्दू में लिख नहीं पाते थे, पढ़ –भर लेते थे। उनके पास अपनी शिक्षा-दीक्षा का कोई भी प्रमाण-पत्र नहीं था। गाँव में मौलवी साहब का पुराना मदरसा था, जिसमें बाबूजी को कागज़ात वगैरह पढ़ने-लिखने की व्यावहारिक और कामचलाऊ तालीम मिली थी। चूँकी गाँव में खानगी मिडिल स्कूल तब खुला था, जब मैं लोअर प्राइमरी पास कर चुका था, इसलिए मेरी आरंभिक शिक्षा भी मौलवी साहब के मररसे में हुई थी।...बाबूजी के हस्ताक्षर वाली पावती की रसीद पर विलुप्त होती उस लिपि के अक्षरों को देखना, सुखद अनुभव था मेरे लिए। काफी देर तक मैं कैथी लिपि के अक्षरों को अपनी स्मृति में लिखता-मिटाता रहा था।

बाबूजी सोफे पर उसी तरफ पैर मोड़े बैठे थे। अपनी दोनों टाँगों को बाँहों में घेरकर बैठने की उनकी परिचित मुद्रा और छत के शून्य में खोई-सी आँखों को देखकर मुझे उस गौरेये का याद आ गई थी, जो कुछ ही दिन पहले इसी कमरे में एक आँधी में कहीं से भटककर आ गई थी और रात-भर सोफे के नीचे एक कोने में पड़ी रही थी। प्राण-रक्षा में जैसी बदहवासी मैंने उस अकेली पड़ी गौरेये में देखी थी, वैसी घबराहट किसी आदमी में मैंने कभी नहीं देखी।
बाबूजी एकदम चुप थे। मैंने सन्नाटा तोड़ने के लिए यों ही पूछ लिया, ‘‘आप एकाएक चले आए।’’
उन्होंने बनावटी खाँसी से गला साफ किया। कुछ और बात कहना चाहते थे शायद लेकिन एकदम संक्षिप्त हो गए, हाँ, यों ही।’’
मैंने अपने पहले वाले प्रश्न को दोहराया, ‘‘डेरा खोजने में कोई दिक्कत भी हुई ?’’
‘‘कोई खास नहीं। लिखा हुआ था।’’ बोलते हुए उन्होंने पर्चा मेरी ओर बढ़ा दिया। पर्चे पर कैथी लिपि में मेरे निवास का पता था।
बात फिर चुप्पी के बीच कहीं फंस गई थी। वे सामने की दीवार की तरफ देखने लगे थे। कमरे के बाहर सूर्यास्त की उजास कटे हुए प्रतिबिंब की तरह अधखुले दरवाज़े से आ रही थी। बाबूजी के आधे चेहरे पर उस उजास की छाया थी, जिसमें उनकी अधमुँदी आँखों का मौन महसूस किया जा सकता था।

शहर की वारदातों की दहशत में मार्च महीने की तनहा शाम बाहर सड़क पर धीरे-धीरे गहरा रही थी विचित्र-सी घुटन थी कमरे में। तकरीबन सात वर्षों बाद बाबूजी से मुलाकात हुई थी, लेकिन उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था। संवादहीनता का वह तनाव मुझे न वहाँ से उठने दे रहा था, न इत्मीनान से बैठने दे रहा था। मेरा कोई दुश्मन नहीं था वहाँ। सामने बैठे व्यक्ति मेरे बाबूजी थे, लेकिन ऐसा लगता था, जैसे मैं बस उस सीट पर बैठ गया हूँ, जिसके बराबर की सीट पर मर्डर केस का मेरा मुद्दालह बैठा हो। पता नहीं, एक अबूझ-से मानसिक तनाव में यह सब मैं क्यों सोच रहा था ? कम से कम बाबूजी की बाबत यह सब सोचना शांत और विवेकशील मनःस्थिति में निश्चय ही गैरवाजिब था। उनके साथ वैसा तनावपूर्ण कोई भी रिश्ता नहीं था। बस, सूखती हुई झील की तरह हम दोनों के बीच की आंतरिकता थी जिसमें आरोप-प्रत्यारोप का कोई भी दृश्य-आधार नहीं था।

किचन में रश्मि नाश्ता तैयार कर रही थी। ‘‘उनके लिए बना रही हो ?’’ मैंने पूछा तो रश्मि ने कड़ाही में पकते हलवे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आप भी ले लीजिएगा।’’ किचन में हलका अँधेरा था, लेकिन पहले से किचन में रहने के कारण रश्मि को अँधेरा महसूस नहीं हो रहा था। मैंने बल्ब जला दिया। थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। समझ में नहीं आ रहा था। बाबूजी से क्या बात करूँगा। अलग-अलग संदर्भों के कटे हुए वाक्यों को लेकर मैं फिर ड्राइंगरूम में आ गया और सामने बैठते हुए पूछा,‘‘घर का हाल-चाल कैसा है ?’’

‘‘अच्छा नहीं है।’’ उनका सपाट और बेलाग जवाब था। बाबूजी का यह वाक्य प्रसंग बीज की तरह था। मैं बीजांकुर को जड़ से ही तोड़ देना चाहता था। बाबूजी मेरी चुप्पी को स्पष्टीकरण का संकेत समझ बैठे थे। कहने लगे, ‘‘बस जी रहे हैं किसी तरह हम लोग तो...’’ इसके बाद उनकी आवाज़ एकाएक कट गई। शायद वे भीतर से लड़खड़ा गए थे। सँभलते हुए बोले, ‘‘किरन यहीं अस्पताल में है। ऑपरेशन हुआ है पेट का। आज तेरहवाँ दिन है।...नहीं, चौदहवाँ दिन है आज पट्टी खुल गयी है। फिर भी...।’’
‘‘चौदह-पन्द्रह दिन से आप यहीं हैं आपने खबर नहीं दी ?’’ मैं भीतर से बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। चौदह दिनों से बाबूजी मेरी छोटी बहन को लेकर यहीं इसी शहर के अस्पताल में हों और मुझे खबर तक न हो यह बात मुझे बुरी तरह कचोटने लगी थी।

बाबूजी एकदम निरुत्तर हो गए। मेरे भीतर बौखलाहट थी। मुझे लग रहा था कि बाबूजी के पास इसका उत्तर है ज़रूर, मगर वे कहना नहीं चाहते।
उत्तर के उस भाषाहीन अर्थ को मैं समझ रहा था। यह स्थिति साफ-साफ महसूस हो रही थी, जिसके तहत एक अंतराल हमारे बीच कायम हो गया था। धीरे-धीरे सर्द होते रिश्ते के प्रति अपनी-अपनी तटस्थता लेकर हम जहाँ तक पहुँचे थे, उसके बाद से किसी अभ्युक्ति की ओर आवश्यकता हम दोनों को शायद नहीं थी।...लेकिन बाबूजी चले कैसे आए ? क्या अपनी पराजय को वे भी जीत में बदलने का निर्णय लेकर इस तरह चले आए हैं ? यहीं अस्पताल में मेरी बहन का ऑपरेशन हो, दो हफ्ते बीत जाएँ और मुझे ख़बर तक न हो, क्या प्रतिशोध नहीं है उनका...न आते। क्या फर्क पड़ जाता ?
बाबूजी का उत्तर शायद मुझे मिल गया था। अपने भीतर किसी पत्थर बने अंश को घिसने का प्रयास करते हुए पूछा, ‘‘कौन-सी बीमारी है किरन को ?’’ -‘‘पेट की बीमारी थी। गाँव में ब्लाक के डॉक्टर ने कहा, ‘पटना या दरभंगा ले जाइए, किसी बड़े अस्पताल में। ऑपरेशन का केस है’।’’...बाबूजी कुछ सोचने- से लगे थोड़ी देर चुप रहकर कहने लगे, ‘‘हारकर आना पड़ा। बड़ी मुसीबत थी। पैसे-कौ़ड़ी का कोई उपाय नहीं था। आखिर सुलेमान भाई बोले कि चलिए पटने में उनकी बेटी रहती है नगमा। दामाद यहीं अस्पताल में वाले कॉलेज में क्लर्क हैं।...कोई दिक्कत नहीं हुई। सुलेमान के दामाद ने सब इंतज़ाम कर दिया।’’ बोलते हुए उनकी आवाज़ थक गई थी। क्षणों तक सुस्ताने के बहाने वे दरवाजे़ के पास बाहर अँधेरे की तरफ देखने लगे।

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