कहानी संग्रह >> रोमांचक विज्ञान कथाएँ रोमांचक विज्ञान कथाएँजयंत विष्णु नारलीकर
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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...
पुस्तक में लेखक ने लिखा था कि मुंबई लगातार बाहर से आनेवाले आप्रवासियों की
भीड़ अपने अंदर समाता रहा है। शहर के संसाधनों को बारंबार ज्यादा-से-ज्यादा
दावेदारों के बीच बाँटना पड़ा है। इस कारण पर्यावरण और शहरी जीवन के मानकों
का निरंतर ह्रास हुआ है। फिर भी मुंबईवासी हमेशा ही निरंतर बिगड़ती दशा के
अनुरूप स्वयं को ढालते रहे और कभी कोई आवाज नहीं उठाई। लेखक के शब्दों में,
मुंबईवासियों की दशा देगची में गरम होते पानी में रहनेवाले मेढक की तरह है;
जैसे-जैसे पानी गरम होता जाता है, मेढक को तकलीफ तो होती, पर वह बजाय कूदने
के गरम होते पानी के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता। लेकिन धीरे-धीरे ऐसी अवस्था
हो जाती है जब मेढक की सहनशक्ति जवाब दे जाती है, तब वह बेहोश होकर मर जाता
है। लेखक ने चेतावनी भी दी थी कि अगर समय पर काररवाई नहीं की गई तो मुंबई की
भी यही दशा होने वाली है। राजेश ने महसूस किया कि समय पर कभी काररवाई की ही
नहीं गई।
केवल उस निगम आयुक्त ने कुछ करने की सोची भी तो उसे दूर फिंकवा दिया गया। यह
किताब पढ़कर राजेश रात-दिन चिंता में डूबा रहने लगा। अंत में उसकी चिंताएँ ही
सपने की शक्ल लेकर उसे डराने लगीं। वह खुद को टब में बैठे मेढक के रूप में
देखता था। सपने शुरू होने पर वह देखता कि टब में बैठा वह गरम पानी से नहा रहा
है; पर जल्द ही पानी बहुत ज्यादा गरम हो जाता। उसे कष्ट तो होता, वह बेचैनी
से करवटें भी बदलता, पर कभी टब से बाहर नहीं निकलता-जब तक कि पीड़ा असहनीय न
हो जाए। तभी उसका दुःस्वप्न समाप्त हो जाता; परंतु वह जीवित बचेगा कि नहीं-यह
उसे कभी पता नहीं लग पाता।
चर्नी रोड स्टेशन निकल जाने पर राजेश सीट छोड़कर उठ गया। मुंबई की लोकल ट्रेन
में चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उससे भी ज्यादा कठिन है। वह जानता था कि
चर्चगेट स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ ट्रेन पर धावा बोलने को तैयार खड़ी
होगी, और अगर ट्रेन रुकते ही वह तुरंत नीचे नहीं कूदा तो डिब्बे से बाहर नहीं
निकल पाएगा। इन दिनों तो रात-दिन 'रश ऑवर' रहने लगा है। इसके दादा के जमाने
में दिन में कुछ घंटे ट्रेनें खाली चला करती थीं, पर अब नहीं। राजेश का ऑफिस
कफ परेड की एक गगनचुंबी इमारत में था। चर्चगेट स्टेशन से खचाखच भरी बस से
ऑफिस तक सफर करने के बजाय राजेश ने पैदल चलने का फैसला किया। उसके पास आधे
घंटे का समय था। शायद वह धोंदिबा को भी पकड़ सकता था, जो तब तक मछली मारने
नहीं निकला होगा। धोंदिबा एक जवान मछुआरा था, जो कफ परेड के पास मच्छीमार नगर
नामक मछुआरों की बस्ती में रहता था। कुछ साल पहले संयोगवश राजेश की उससे भेंट
हो गई थी। आज भी वे दोनों अपनी पहली मुलाकात को मुसकराकर माफ करते हैं।
राजेश और उसका मित्र मच्छीमार नगर के निकट एक स्टॉल पर भेलपुरी खा रहे थे।
दोनों ही मुंबई में दिनोदिन बढ़ती नए लोगों की भीड़ पर टीका-टिप्पणी भी कर
रहे थे-
"उदाहरण के तौर पर इन मछुआरों को ही लें।" राजेश के मित्र ने कहा, "उन्हें
यहीं से मछली मारनी जरूरी है जो महानगर का दिल है; जबकि पूरा कोंकण तट उनके
लिए खाली है?"
"बिलकुल ठीक! पर उन्हें कौन कहे? हमारे नेता तो किसी भी नए आनेवाले को 'न'
कहते नहीं, क्योंकि वह उनका वोटर हो सकता है।"
राजेश ने हाँ में हाँ मिलाई। मित्र ने आगे कहना जारी रखा, "हमें इन मछुआरों
को बताने की जरूरत है कि मित्रो, जाओ कहीं और मछली पकड़ो, मुंबई के शोरगुल को
और मत बढ़ाओ।"
तभी बगल से खखारने की आवाज आई। उनके ठीक पीछे खड़ा नौजवान बोल उठा, "आपकी
बातचीत में बाधा डालने के लिए माफी चाहता हूँ। पर मैं बताना चाहता हूँ कि
भीड़ हम नहीं, कोई और बढ़ा रहा है। मछुआरों की यह बस्ती तो यहाँ बाहरी लोगों
के आने से पहले की है। यह बस्ती यहाँ तब से है जब अंग्रेजों ने मुंबई को अपने
अधिकार में लिया था। मेरे पुरखे बड़ी शांति से यहाँ पर मछली पकड़ा करते थे,
तब आप बाहरी लोगों का शोरगुल यहाँ आया भी नहीं था।"
"मैं खेद प्रकट करता हूँ।" राजेश ने कहा था, जिसे मुंबई का इतिहास कुछ पता
था-"मुझे याद है कि मैंने कहीं पढ़ा था कि यह बस्ती इतनी पुरानी है।"
पर राजेश का मित्र अविश्वास से ताकता रहा। उस युवक ने कहा, "अपनी गलती मान
लेने के लिए मैं आपका आदर करता हूँ। बहुत कम लोग ऐसा करते हैं। जब कभी आपके
पास समय हो तो मैं आपको कुछ पुराने रिकॉर्ड दिखा सकता हूँ, जिन्हें मेरे
परिवार ने कई पीढ़ियों से सँभालकर रखा है। वैसे मेरा नाम धोंदिबा है।"
वह छोटी सी मुलाकात एक लंबी सी मैत्री की शुरुआत थी, जिसने राजेश की जिंदगी
में ताजगी और जिज्ञासा भर दी थी। उसे धोंदिबा के पेशे से ईर्ष्या होती थी,
क्योंकि वह अपनी नौका लेकर अकसर खुले समुद्र में पागल कर देनेवाली भीड़ से
दूर चला जाता था। आज भी उसने उसी भेलपूड़ीवाले से धोंदिबा के बारे में पूछा।
आपने कुछ मिनटों की देरी कर दी, श्रीमान !" भेलपूड़ीवाले ने बताया और समुद्र
में कुछ सौ मीटर दूर जा चुकी नौका की ओर इशारा किया। अच्छा, जब वह लौटेगा तब
उससे मिल लूँगा।" राजेश ने मानो अपने आपसे कहा। पर उस वक्त उसे तनिक भी भान
नहीं था कि अत्यंत विनाशकारी परिस्थितियों में उनकी भेंट होगी, वह भी कुछ
घंटों के भीतर ही।
सन् 2041 में भारत की वाणिज्यिक राजधानी होने के नाते मुंबई को भारत के सभी
शहरों में नंबर-दो का खिताब प्राप्त था। मुंबईवाला कभी भी नंबर-एक खिताब की
परवाह नहीं करता; क्योंकि नंबर-एक की हैसियत राष्ट्र की राजधानी होने के नाते
दिल्ली के लिए आरक्षित थी, बल्कि मुंबईवाला तो ऐसे शहर में होने का गर्व
महसूस करता था जो राजनीतिक दखलंदाजी, अफवाहों, हिंसा और परिवर्तन- शीलता से
मुक्त है, जो नंबर-एक रैंक के साथ जुड़ी रहती है। मुंबईवाला गर्व से यह बात
कह सकता था कि मुंबई की स्थिरता और कार्य-संस्कृति पूरे भारत में बेजोड़ थी।
इन्हीं खूबियों के कारण ही वह भारी भीड़, गंदी बस्तियों और शोरगुल (कोलाहल)
को भी अनदेखा करने को तैयार था, और ऐसा करते-करते वह खुद भी आत्म-संतुष्टि के
खतरे का सामना करने लगा था।
इसी आत्म-संतुष्टि के कारण ही किसी को कभी आभास ही नहीं हुआ कि शहर जिंदा
रहने की सभी हदें पार कर चुका है। कोई गणितज्ञ कह सकता था कि स्थिति अब विनाश
के सिद्धांत का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी : अब यह कगार के निकट था।
दुर्भाग्य और विध्वंस अब अवश्यंभावी थे। कोई चिकित्सक शहर की दशा की तुलना
मधुमेह के रोगी से कर सकता था, जो उच्च रक्तचाप और कमजोर दिल से पीड़ित हो,
लेकिन अपने खान-पान को नियंत्रित करने और दवाइयाँ लेने की सलाह पर कोई
ध्यान न देता हो। पर न तो गणितज्ञ और न ही चिकित्सक भविष्यवाणी कर सकते थे कि
विनाश कब और कैसे हो। इसलिए जब 10 अक्तूबर, 2041 को शहर का अंत आया भी तो
इसमें उस दिन का कोई खास हाथ नहीं था।
उस विनाशलीला की शुरुआत बेहद मामूली सी घटना से हुई, जो राजेश के कफ परेड
स्थित उसके दफ्तर में घुसने के कुछ देर बाद घटी। सुबह साढ़े नौ बजे से कुछ
मिनट ही ऊपर हुए होंगे। राजेश ने एक चिट्ठी डिक्टेट करनी शुरू ही की थी कि
मशीन ने काम करना बंद कर दिया। तभी उसे महसूस हुआ कि बत्तियाँ और एयर कंडीशनर
भी बंद हो चुके थे।
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