कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (ममता कालिया) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (ममता कालिया)ममता कालिया
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प्रस्तुत संकलन में जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया गया है, वे हैं ‘आपकी छोटी लड़की’, ‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘दल्ली’, ‘लैला-मजनू’, ‘जितना तुम्हारा हूँ’, ‘सुलेमान’, ‘छुटकारा’, ‘पीठ’, तथा ‘बोहनी’।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर
प्रकाशन की एक महत्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत के सभी
शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा वे कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार ममता कालिया ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं ‘आपकी छोटी लड़की’, ‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘दल्ली’, ‘लैला-मजनू’, ‘जितना तुम्हारा हूँ’, ‘सुलेमान’, ‘छुटकारा’, ‘पीठ’, तथा ‘बोहनी’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका ममता कालिया की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा वे कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार ममता कालिया ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं ‘आपकी छोटी लड़की’, ‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘दल्ली’, ‘लैला-मजनू’, ‘जितना तुम्हारा हूँ’, ‘सुलेमान’, ‘छुटकारा’, ‘पीठ’, तथा ‘बोहनी’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका ममता कालिया की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ
रचना हमारी प्रतिनिधि होती है अथवा हम रचना के प्रतिनिधि होते हैं, यह मैं
आज तक तय नहीं कर पाई। कहानी लिखते समय कभी एहसास नहीं होता कि यह हमारी
या हमारे समय की पहचान बनेगी। रचना-प्रक्रिया के अपने आंतरिक दवाब होते
हैं, जैसे भूख, प्यास और नींद के। लड़कपन से अब तक मेरे साथ एक बात
है-मुझे जो कुछ भी होता है, बड़ी जोर से होता है। भूख लगेगी तो इतनी जोर
से, प्यास लगेगी तो गला चटक जायेगा, नींद आएगी तो बैठे-बैठे सो जाऊँगी।
यही हाल कहानी लिखने का है। दिमाग में अनार की तरह छूटती है कहानी। उसके
लाल, हरे, पीले, नीले रंग उड़ रहे हैं, ऐसे कि गिनने में नहीं आ रहे। एक
कहानी के चार-चार शीर्षक सूझ रहे हैं-कहानी रसोई में सब्जी जला रही है,
संवाद में श्रवणशक्ति चुका रही है, बिस्तर पर नींद उड़ा रही है। एकदम
सुनामी लहरों की तरह प्रलयंकारी वेग से आती है कहानी और फिर उतनी ही
तीव्रता से वापस हो जाती है। सुबह मस्तिष्क का तट ऐसा वीरान पड़ा होता है
कि वहाँ घोंघे और सीपियों के सिवा कुछ नहीं होता। जब मैंने लिखना शुरू
किया था तब इस किस्म के फ्लैशेज़ बहुत अधिक होते थे और मैं सोचती थी, एक
दिन मैं अखबार निकालूँगी—‘ममता टाइम्स’।
हमने प्रेस भी लगाया, अखबार भी छापे, लेकिन वहाँ से ‘ममता
टाइम्स’ नहीं निकला। मैंने भी अपना इरादा ताक पर रखकर अपनी आधी
ऊर्जा नौकरी में लगा दी। मेरे दिल दिमाग का बावलापन ही मेरी रचनाओं का
सबसे बड़ा कारण और कारक रहा है। जब मैं अन्य रचनाकारों का स्टडीरूम देखती
हूँ तो दंग रह जाती हूँ-दुर्लभ एकांत, करीने से लगी पुस्तकें, सलीके से
बिछा बिस्तर, कंप्यूटर और इंटरनेट सुविधा, कॉफी का इंतजाम।
मैंने अपनी कहानियों को ऐसी पृष्ठ भूमि का ठाट-बाट नहीं दिया, लेकिन हर हाल में लिखा-घर में, कॉलेज में, रेल में, रिक्शे पर; हर उस जगह, जहाँ आसपास जीवन था। बहुत अधिक साफ-सुथरे, सलीकापसंद माहौल में मेरी रचना-प्रक्रिया ठिठुर जाती है।
मेरे विचार से एक लेखक अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया को जितना समझता है, उससे कहीं ज्यादा उसे उसके अग्रज रचनाकार समझते हैं। समय-समय पर कई वरिष्ठ और साथी लेखकों ने मेरी रचना-प्रक्रिया पर आश्चर्य और आक्रोश दोनों प्रकट किए हैं। श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ में यह विशेषता थी कि वे नए से नए लेखक को पढ़ते थे और अपनी राय देते थे। उनके शब्दों में-‘‘मैं यही कह सकता हूँ कि ममता की रचनाओं में अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बाँध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है, कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृशन चंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएँ। यथार्थ का आग्रह न कृशन चंदर में था, न जैनेंद्र कुमार में, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखती, उसकी कहानियाँ ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्योरों का गुंफन, नश्तर का सा काटता तीखा व्यंग और चुस्त-चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन-चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा-‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘माँ’ और ‘आपकी छोटी लड़की’।’’
अगर सूचना विज्ञान में ऐसा कंप्यूटर निकल आए जो हमारी दिमागी प्रक्रिया को ज्यों का त्यों मॉनीटर पर उतार दें, तो यकीन मानिए, मेरी रचना-प्रक्रिया का ऐसा पेचीदा संजाल सामने आए कि मैं खुद उसका विश्लेषण न कर पाऊँ। कोई ऊर्जा-तरंग है जो चलती चली जाती है। दिमाग में एक बार में पाँच-पाँच कहानियाँ लिखी जा रहीं है, तीन उपन्यास साथ-साथ चल रहे हैं, दो नाटक मंच पर अभिनीत किए जा रहे हैं...
प्रस्तुत कहानियों में कुछ ऐसी हैं, जो अपने आप मुझ तक चली आई हैं। इलाहाबाद में रसूलाबाद घाट पर कतार से खड़ी सरकारी जीपों को देखकर रवीन्द्र और मेरे मुँह से एक साथ यही बात निकली, ‘‘भारत सरकार नहाने आई है।’’ घर लौट कर रवि तो चैन की नींद सो गए, पर मेरे मन में वह दृश्य चक्कर लगाता रहा। यूनिवर्सिटी में छात्रों ने हड़ताल कर रखी थी। दोनों अनुभव ‘लड़के’ कहानी में काम आ गए। इस कहानी पर वासु चटर्जी ने ‘रजनी’ सीरियल का अंतिम एपीसोड़ बनाया था, जो सरकार को इतना नागवार गुज़रा कि उन्हें यह धारावाहिक ही बंद कर देना पड़ा। इसी तरह दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही टैक्सी ड्राइवर, होटल दलाल जिस तरह मुसाफिर के सामान पर झपटते हैं, उस अनुभव को ज्यों का त्यों लिखने-भर से ‘दल्ली’ कहानी लिखी जा सकी। ‘आपकी छोटी लड़की’ मेरे अपने लड़कपन की कहानी है। इस लंबी कहानी को लिखने में ज़रा भी श्रम नहीं पड़ा। एक बार यादों की डिबिया खोली तो सारे पात्र बाहर निकल पड़े। जब यह कहानी पहली बार ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी तो पाठकों के इतने पत्र आए कि तत्कालीन संपादक मनोहर श्याम जोशी को इस कहानी पर संपादकीय लिखना पड़ा। उन्होंने कहा कि ममता कालिया की कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ से संकेत मिलते हैं कि साहित्यिक रचना भी लोकप्रिय हो सकती है। हिमांशु जोशी ने मुझसे कहा, ‘‘आपकी कहानी छापकर हमारा काम बहुत बढ़ जाता है। हर डाक में डाकिया सिर्फ आपकी कहानी पर चिट्ठियों के बंडल डाल जाता है।’’ इन सब बातों से बड़ी हौसला अफज़ाई हुई, वरना लिखना तो सागर में सुराही उँडेलने के समान होता है। इतना विशाल हिंदी साहित्य का कोष-इसमें कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ।
इन दस कहानियों में मैंने अपनी प्रारंभिक कहानी ‘छुटकारा’ इसलिए दी कि उसमें कच्ची धान की बाली की गंध है। मैंने जब लिखना शुरू किया था, प्रायः उस उम्र में आजकल लेखिकाएँ नहीं लिखतीं। आजकल प्रौढ़ अवस्था में वे लिखना शुरू करती हैं, जब कलम-कलाई में चौकन्नापन आ जाता है। मेरे लिए लेखन साइकिल चलाने जैसा एडवेंचर रहा है, डगमग-डगमग चली और कई बार घुटने, हथेलियाँ छिलाकर सीधा बढ़ना सीखा। समस्त गलतियाँ अपने आप कीं, कोई गॉडफादर नहीं बनाया। बिल्ली की तरह किसी का रास्ता नहीं काटा और किसी को गिराकर अपने को नहीं उठाया। हमारे समय में लिखना, मात्र जीवन में रस का अनुसंधान था; न उसमें प्रपंच था न रणनीति। निज के और समय के सवालों से जूझने की तीव्र उत्कंठा और जीवन के प्रति नित नूतन विस्मय ही मेरी कहानियों का स्रोत रहा है।
प्रायःविवाह के बाद लड़कियों का परिवेश बदलता है। मेरे साथ ऐसा हुआ होता तो मैं कहीं की न रहती। रवि के और मेरे जीवन में लिखना और पढ़ना, प्रेम करने और लड़ने के जितना ज़रूरी है। इस घर में किताबें गुम होने की रफ्तार भी मज़े की है। खुद अपनी लिखी किताबें नहीं मिलतीं। मेरे प्रकाशक पहले की छपी मेरी अप्राप्य पुस्तकों को नए संस्करण में छापना चाहते हैं, पर किताबें हैं कि मिल नहीं रहीं। कई बार घर की अलमारियों में दफन हो जाती हैं, कभी किसी साहित्य-प्रेमी की अंतिम प्रति भी भेंट चढ़ जाती है।
मेरा लिखने का कोई निश्चित समय नहीं है। बिना सोचे-समझे कहानी शुरू कर देती हूँ, मानो शून्य आसमान में सितारा चिपका रही हूँ। पहले तो एकांत ही नहीं मिलता। अगर मिल भी गया तो बजाय लिखने के टी.वी. चैनलों के ऊटपटाँग उत्पात में समय नष्ट करती हूँ। न लिखा जाए तो रसोई की ओर कूच कर जाती हूँ और रसोई में कोई काम बिगड़ जाए तो पाँव पटकती कमरे में आ जाती हूँ, जहाँ हरदम मेरे कागज फैले रहते हैं। कई बार दो-चार कागज़ उड़कर गायब भी हो जाते हैं। लोग जीवन में अराजक होते हैं, मैं लेखन में अराजक हूँ। इस सबके बावजूद, जब भी, जो भी मैंने अब तक लिखा, उसे मैं स्वीकार करती हूँ। मैं अपनी हर कहानी पर यह शपथ-पत्र लगा सकती हूँ कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुए लिखी। हर कहानी को अपने कलेजे की गर्मी से सेंका और पकाया। कितना ही यथार्थ अपनी नसों पर झेला, कितना कुछ औरों को झेलते देखा। जिस वक्त जो लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। हर में लिखा, हर हाल में लिखा। अपना गुस्सा, अपना प्यार, अपनी शिकायतें, अपनी परेशानियाँ तिरोहित करने में लेखन को हरसू मददगार पाया। जो कुछ रू-ब-रू कहने में सात जनम लेने पड़ते, वह सब रचनाओं में किसी न किसी के मुँह में डाल दिया। मेरा यकीन है कि लेखन से सबसे अच्छा जीवन साथी मुझे क्या, किसी को भी नहीं मिल सकता।
मैंने अपनी कहानियों को ऐसी पृष्ठ भूमि का ठाट-बाट नहीं दिया, लेकिन हर हाल में लिखा-घर में, कॉलेज में, रेल में, रिक्शे पर; हर उस जगह, जहाँ आसपास जीवन था। बहुत अधिक साफ-सुथरे, सलीकापसंद माहौल में मेरी रचना-प्रक्रिया ठिठुर जाती है।
मेरे विचार से एक लेखक अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया को जितना समझता है, उससे कहीं ज्यादा उसे उसके अग्रज रचनाकार समझते हैं। समय-समय पर कई वरिष्ठ और साथी लेखकों ने मेरी रचना-प्रक्रिया पर आश्चर्य और आक्रोश दोनों प्रकट किए हैं। श्री उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ में यह विशेषता थी कि वे नए से नए लेखक को पढ़ते थे और अपनी राय देते थे। उनके शब्दों में-‘‘मैं यही कह सकता हूँ कि ममता की रचनाओं में अपूर्व पठनीयता रही है। पहले वाक्य से उसकी रचना मन को बाँध लेती है और अपने साथ बहाए लिए चलती है, कुछ उसी तरह जैसे उर्दू में कृशन चंदर और हिंदी में जैनेंद्र की रचनाएँ। यथार्थ का आग्रह न कृशन चंदर में था, न जैनेंद्र कुमार में, लेकिन ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखती, उसकी कहानियाँ ठोस जीवन के धरातल पर टिकी हैं। निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के छोटे-छोटे ब्योरों का गुंफन, नश्तर का सा काटता तीखा व्यंग और चुस्त-चुटीले जुमले उसकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। ममता की बहुत अच्छी कहानियों में तीन-चार कहानियों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा-‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’, ‘लड़के’, ‘माँ’ और ‘आपकी छोटी लड़की’।’’
अगर सूचना विज्ञान में ऐसा कंप्यूटर निकल आए जो हमारी दिमागी प्रक्रिया को ज्यों का त्यों मॉनीटर पर उतार दें, तो यकीन मानिए, मेरी रचना-प्रक्रिया का ऐसा पेचीदा संजाल सामने आए कि मैं खुद उसका विश्लेषण न कर पाऊँ। कोई ऊर्जा-तरंग है जो चलती चली जाती है। दिमाग में एक बार में पाँच-पाँच कहानियाँ लिखी जा रहीं है, तीन उपन्यास साथ-साथ चल रहे हैं, दो नाटक मंच पर अभिनीत किए जा रहे हैं...
प्रस्तुत कहानियों में कुछ ऐसी हैं, जो अपने आप मुझ तक चली आई हैं। इलाहाबाद में रसूलाबाद घाट पर कतार से खड़ी सरकारी जीपों को देखकर रवीन्द्र और मेरे मुँह से एक साथ यही बात निकली, ‘‘भारत सरकार नहाने आई है।’’ घर लौट कर रवि तो चैन की नींद सो गए, पर मेरे मन में वह दृश्य चक्कर लगाता रहा। यूनिवर्सिटी में छात्रों ने हड़ताल कर रखी थी। दोनों अनुभव ‘लड़के’ कहानी में काम आ गए। इस कहानी पर वासु चटर्जी ने ‘रजनी’ सीरियल का अंतिम एपीसोड़ बनाया था, जो सरकार को इतना नागवार गुज़रा कि उन्हें यह धारावाहिक ही बंद कर देना पड़ा। इसी तरह दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही टैक्सी ड्राइवर, होटल दलाल जिस तरह मुसाफिर के सामान पर झपटते हैं, उस अनुभव को ज्यों का त्यों लिखने-भर से ‘दल्ली’ कहानी लिखी जा सकी। ‘आपकी छोटी लड़की’ मेरे अपने लड़कपन की कहानी है। इस लंबी कहानी को लिखने में ज़रा भी श्रम नहीं पड़ा। एक बार यादों की डिबिया खोली तो सारे पात्र बाहर निकल पड़े। जब यह कहानी पहली बार ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी तो पाठकों के इतने पत्र आए कि तत्कालीन संपादक मनोहर श्याम जोशी को इस कहानी पर संपादकीय लिखना पड़ा। उन्होंने कहा कि ममता कालिया की कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ से संकेत मिलते हैं कि साहित्यिक रचना भी लोकप्रिय हो सकती है। हिमांशु जोशी ने मुझसे कहा, ‘‘आपकी कहानी छापकर हमारा काम बहुत बढ़ जाता है। हर डाक में डाकिया सिर्फ आपकी कहानी पर चिट्ठियों के बंडल डाल जाता है।’’ इन सब बातों से बड़ी हौसला अफज़ाई हुई, वरना लिखना तो सागर में सुराही उँडेलने के समान होता है। इतना विशाल हिंदी साहित्य का कोष-इसमें कहाँ मैं, कहाँ मेरी कहानियाँ।
इन दस कहानियों में मैंने अपनी प्रारंभिक कहानी ‘छुटकारा’ इसलिए दी कि उसमें कच्ची धान की बाली की गंध है। मैंने जब लिखना शुरू किया था, प्रायः उस उम्र में आजकल लेखिकाएँ नहीं लिखतीं। आजकल प्रौढ़ अवस्था में वे लिखना शुरू करती हैं, जब कलम-कलाई में चौकन्नापन आ जाता है। मेरे लिए लेखन साइकिल चलाने जैसा एडवेंचर रहा है, डगमग-डगमग चली और कई बार घुटने, हथेलियाँ छिलाकर सीधा बढ़ना सीखा। समस्त गलतियाँ अपने आप कीं, कोई गॉडफादर नहीं बनाया। बिल्ली की तरह किसी का रास्ता नहीं काटा और किसी को गिराकर अपने को नहीं उठाया। हमारे समय में लिखना, मात्र जीवन में रस का अनुसंधान था; न उसमें प्रपंच था न रणनीति। निज के और समय के सवालों से जूझने की तीव्र उत्कंठा और जीवन के प्रति नित नूतन विस्मय ही मेरी कहानियों का स्रोत रहा है।
प्रायःविवाह के बाद लड़कियों का परिवेश बदलता है। मेरे साथ ऐसा हुआ होता तो मैं कहीं की न रहती। रवि के और मेरे जीवन में लिखना और पढ़ना, प्रेम करने और लड़ने के जितना ज़रूरी है। इस घर में किताबें गुम होने की रफ्तार भी मज़े की है। खुद अपनी लिखी किताबें नहीं मिलतीं। मेरे प्रकाशक पहले की छपी मेरी अप्राप्य पुस्तकों को नए संस्करण में छापना चाहते हैं, पर किताबें हैं कि मिल नहीं रहीं। कई बार घर की अलमारियों में दफन हो जाती हैं, कभी किसी साहित्य-प्रेमी की अंतिम प्रति भी भेंट चढ़ जाती है।
मेरा लिखने का कोई निश्चित समय नहीं है। बिना सोचे-समझे कहानी शुरू कर देती हूँ, मानो शून्य आसमान में सितारा चिपका रही हूँ। पहले तो एकांत ही नहीं मिलता। अगर मिल भी गया तो बजाय लिखने के टी.वी. चैनलों के ऊटपटाँग उत्पात में समय नष्ट करती हूँ। न लिखा जाए तो रसोई की ओर कूच कर जाती हूँ और रसोई में कोई काम बिगड़ जाए तो पाँव पटकती कमरे में आ जाती हूँ, जहाँ हरदम मेरे कागज फैले रहते हैं। कई बार दो-चार कागज़ उड़कर गायब भी हो जाते हैं। लोग जीवन में अराजक होते हैं, मैं लेखन में अराजक हूँ। इस सबके बावजूद, जब भी, जो भी मैंने अब तक लिखा, उसे मैं स्वीकार करती हूँ। मैं अपनी हर कहानी पर यह शपथ-पत्र लगा सकती हूँ कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुए लिखी। हर कहानी को अपने कलेजे की गर्मी से सेंका और पकाया। कितना ही यथार्थ अपनी नसों पर झेला, कितना कुछ औरों को झेलते देखा। जिस वक्त जो लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। हर में लिखा, हर हाल में लिखा। अपना गुस्सा, अपना प्यार, अपनी शिकायतें, अपनी परेशानियाँ तिरोहित करने में लेखन को हरसू मददगार पाया। जो कुछ रू-ब-रू कहने में सात जनम लेने पड़ते, वह सब रचनाओं में किसी न किसी के मुँह में डाल दिया। मेरा यकीन है कि लेखन से सबसे अच्छा जीवन साथी मुझे क्या, किसी को भी नहीं मिल सकता।
-ममता कालिया
आपकी छोटी लड़की
‘‘टुनिया, ज़रा भागकर चिट्ठी डाल
आ।’’
‘‘टुनिया, ठंडा पानी पिला।’’
‘‘मैंने गैस पर दूध चढ़ाया है, तू पास खड़ी रह टुन्नो ! कुछ करना नहीं है। जब दूध उफनने लगे, तब तू गैस बंद कर देना।’’
दिन भर दौड़ती है टुनिया। स्कूल से आकर होमवर्क करती है, थोड़ा-बहुत खाना खाती है और इसके साथ ही शुरू हो जाता है काम पर काम। घर के टेढ़े से टेढ़े और सीधे काम सब टुनिया के ज़िम्मे। टुनिया बाज़ार से लकड़ी लाएगी, टुनिया पौधों में पानी देगी, टुनिया मम्मी को दवाई देगी, टुनिया बाहर सूख रहे कपड़े उठाएगी, टुनिया दस बार दरवाज़ा खोलेगी, दस बार दरवाज़ा बंद करेगी। अगर पड़ोसिन आंटी से पन्द्रह दिन पहले दी गई कटोरी मँगानी है तो टुनिया ही जायेगी। वह इतनी बहादुर है, जो जाकर सीधे-सीधे कह दे, ‘‘आंटी, वह कटोरी दे दीजिए। वही, जिसमें हम सरसों का साग दे गए थे आपको।’’
अचानक मेहमान आ जाएँ तो बर्फ माँगने केरावाला मेमसाब के पास टुनिया ही जाएगी। और किसकी मजाल, जो उस बदमिजाज औरत को पटाकर उसके फ्रिज़ से बर्फ निकलवा सके।
टुनिया है तो तेरह की, पर लगती है ग्यारह की। न उसे दूध पीना अच्छा लगता है, न अंड़ा खाना। हलका-फुलका बदन है उसका। कमर इतनी छोटी कि स्कूल यूनिफॉर्म की स्कर्ट खिसकी पड़ती है। ज़रा भागे तो ब्लाउज़ स्कर्ट के बाहर। इसीलिए टुनिया को बैल्ट लगानी पड़ती है या फिर स्कर्ट में तीन-तीन जगह हुक फँसाने के लिए लूप। स्कूल जाने के लिए तो बाकायदा तैयार होना ही पड़ता है, टाई भी लगानी पड़ती है, जूते भी चमाचम चाहिए। पर वैसे टुनिया को ढंग से कपड़े पहनने का धीरज कहाँ! जो हाथ आया, गले में डाल लिया। घर में सभी के बाल कटे हुए हैं-मम्मी के, दीदी के। यहाँ तक की कोलीन के भी। कोलीन सुबह शाम आती है, डस्टिंग करती है, कपड़े इस्तरी करती है और रसोई में खाना बनाने के पूर्व की तैयारी। खाना उससे नहीं बनवाया जाता। मम्मी कहती हैं कि वह पकाएगी तो छूत लग जाएगी। टुनिया को यह ज़रा भी समझ नहीं आता है कि यह छूत कैसे लग सकती है ? जैसे कोलीन आटा गूँधे, सब्जी काट दे तो ठीक, लेकिन वही सब्जी यदि छौंक दे तो छूत, वही आटा अगर सेंक दे तो छूत। कोलीन है बड़ी फैशनेबल। नाक-भौं सिकोड़ते हुए बता चुकी है कि अगर उसके बाप को दारू का इतना लालच न होता तो वह कभी काम करने न निकलती, वह भी घर-घर।
कोलीन तीन घरों में जाती है। वह इतना पाउडर लगाती है कि पड़ोस के देवराज ने उसका नाम ‘पाउडर एंड कंपनी’ रख छोड़ा है। कोलीन ऊँची सी फ्रॉक पहनती है और ऊँची सैंडिल। उसका शरीर भी कई कोण से ऊँचा-ऊँचा लगता है। हर इतवार वह चर्च जाती है और हर शनिवार पिक्चर। कभी उसके बालों में नया क्लिप होता है, कभी स्कर्ट की जेब में नया रूमाल। बगल वालों की आया मेरी जब पूछती है, ‘कहाँ से लिया ?’ तो कोलीन आँखें मटकाकर कहती है, ‘हमारा बॉयफ्रैंड दिया...।’
टुनिया को कोलीन पसंद नहीं है। उसे लगता है, कोलीन अच्छी लड़की नहीं है। जिन बातों पर टुनिया को गुस्सा आता है, उन पर कोलीन खिलखिलाकर हँस पड़ती है। हर समय मस्ती सी चढ़ी रहती है उस पर। फैशन और पिक्चर के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता। वह बाकायदा ऐक्टिंग करके पिक्चर की कहानी सुनती है भले ही कोई सुने, चाहे न सुने। उसका इस तरह मटकना टुनिया को नापसंद है। वह कई बार मम्मी से कह चुकी है, ‘‘इसकी छुट्टी क्यों नहीं कर देतीं ?’’ पर मम्मी हर बार एक ही सुर पर बात खत्म करती हैं,’’ टुन्नो, तू तो सुबह तैयार हो कर चल देती है स्कूल। बेबी को टाइम नहीं मिलता। रह गई मैं। तो भाई साफ बात है, मुझसे इतना काम होता नहीं। कोलीन भी मदद न करे तो मैं मर जाऊँ।’’
मम्मी मरने-जीने के सवाल न जाने कहाँ से ले आती हैं-बात-बात पर। अभी जब जबलपुर से माधुरी आंटी आई थीं और छुट्टियों में टुनिया को साथ ले जाना चाहती थीं, मम्मी ने कहा, ‘‘न बाबा न ! टुनिया को मैं नहीं भेज सकती। एक तो कोलीन छुट्टी पर गई हुई है, ऊपर से तू इसे ले जाएगी। मुझसे नहीं होता इतना काम। मैं तो जीते-जी मर जाऊँगी।’’
माधुरी आंटी अकेली चली गई थीं, हालाँकि टुनिया मन ही मन बहुत तरसी थी साथ जाने के लिए। कैसा होगा जबलपुर, उसने मन ही मन सोचा था। अपनी किताब में उसने भेड़ाघाट के बारे में पढा़ था। वह वहाँ जाकर मिलान करना चाहती थी कि किताबें कितना सच बोलतीं हैं। पर मम्मी को वह कैसे मर जाने दे।
मम्मी की खातिर तो वह सारा दिन भागती है। कई ऐसे भी काम करती है, जो उसे कतई पसंद नहीं। मसलन, पाल साहब के यहाँ जाकर पापा को फोन करना, नल बंद होने पर निचली मंजिल पर डॉ॰ जगतियानी के घर से पानी लाना, बाजार से काँदाबटाटा खरीदना और सामान मम्मी को पसंद न आने पर उसे वापस करने दुकान पर जाना। मम्मी उससे दुनिया-भर का सामान मँगाएँगी, फिर उसमें मीन-मेख निकालेंगी, ‘‘साबुन में तू दस पैसा ज्यादा दे आई है बट्टी लेकर वापस वोहरा के पास जा और कह, हमें नहीं लेना साबुन। लूट मची है क्या, जो दाम मन में आया, ले लिया। टुन्नो, इतनी बड़ी हो गई तू अभी तक अदरक खरीदने की अक्ल नहीं आई। यह एकदम दो कौड़ी की अदरक है, गट्ठे वाली। अदरक तो एकदम बादाम जैसी आ रही है आजकल।’’
अब टुनिया क्या जाने अदरक बादाम जैसी कैसी होती है। उसे तो अदरक एकदम नीरस चीज लगती है, खाने में भी और देखने में भी। एक बार खरीदकर वापस करना क्या इतना आसान होता है ! पसीना आ जाता है। कार्टून अलग बनता है।
छुट्टी वाले दिन एक दोपहर घर में पानी एकदम खत्म था। मम्मी ने झट से कह दिया, ‘‘टुनिया, एक छोटी बालटी पानी नीचे से ले आ, कम से कम चाय तो बने।’’
डॉ॰ जगतियानी के यहाँ नल के साथ-साथ हैंडपंप भी लगा है। निचली मंजिल होने की वजह से उनके यहाँ पानी हर वक्त आता है। डॉ॰ और मिसेज़ जगतियानी दोनों सुबह अपने क्लिनिक पर जाते हैं। दोपहर ढाई तीन बजे तक लौटते हैं। लौटकर खाने के बाद वे सो जाते हैं-एयर कंडीशनर चलाकर। उनके घर की पूरी देखभाल उनका नौकर रामजी करता है। वही फोन सुनता है, कॉलबेल बजने पर दरवाज़ा खोलता है, कार साफ करता है और खाना बनाता है। सारी शाम जब डॉक्टर साहब और मिसेज़ जगतियानी क्लिनिक पर होते हैं, रामजी टी॰ वी॰ देखता है। यह उसका रोज का काम है। टी॰ वी॰ को वह टी॰ बी॰ कहता है। एक-एक एनाउंसर को वह पहचानता है। उसने सबको नाम दे रखे हैं, ‘फर्स्ट क्लास’, ‘सेकंड क्लास’, ‘चलेगा’ और ‘खटारा’।
उस दिन टुनिया पीतल की बाल्टी लेकर नीचे पहुँची तो डॉक्टर साहब के घर का पिछला दरवाज़ा खुला था। टुनिया सीधे अंदर पहुँच गई। टोंटी खोलकर देखा, पानी नहीं था। फिर उसने हैंड़पंप चलाया। वह भी सूखा पड़ा था। तभी रामजी रसोई में से निकल कर आया, ‘‘आज पानी नहीं है, सब खलास।’’
टुनिया ने एक बार और नल खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि रामजी ने अपने पाजामे की ओर इशारा किया और अश्लील ढंग से मुस्कराकर कहा, ‘‘लो इससे भर लो।’’
टुनिया कुछ समझ नहीं पाई; पर जो कुछ उसने देखा,उससे घबराकर वह दहशत से चीखती भाग खड़ी हुई। बाल्टी वापस उठाने का किसे होश था।
बेतहाशा भागती टुनिया तीसरी मंजिल पर घर में घुसी तो मम्मी की घुड़की पडी, ‘‘पानी नहीं लाई न, अब पीना शाम की चाय। काम तो कोई करना ही नहीं चाहता आजकल। एक कोलीन है, उसे कुछ कहो तो वह मुँह बनाती है। एक तू है, तेरे अलग नखरे। जो करूँ, मैं करूँ, मैं मरूँ।’’
टुनिया का मन इस वक्त इतना घिना और घबरा रहा था कि वह क्या न कर दे, पर माँ की भुन-भुन सुनकर भन्ना गई। ये मम्मी हैं, इन्हें क्या फिक्र, टुनिया पानी क्यों नहीं लाई ? इनका तो बस काम होना चाहिए, नहीं तो ये मरने को तैयार बैठी हैं।
‘‘और बाल्टी फेंक आई, बोल तो सही मुँह से? हद हो गई ढीठपने की। खाली बाल्टी उठाकर लाने में इसकी कलाई मुड़ती है। एक हम थे। हमारी माँ ज़रा इशारा कर दे, हम सिर के बल उलटे खड़े रहते थे।’’
बस शुरू हो गया ये और इनका जमाना। अब यह रिकार्ड जल्दी नहीं रुकने वाला। लकड़ी काटने से लेकर सिर काटने तक के अपने तजुर्बे सुनाए जाएँगे। नानी के सिरहने लहरता साँप मम्मी ने कुचला था लोहेवाली की सोने की तगड़ी का पता मम्मी ने लगाया था, चोर को सेंध लगाते सबसे पहले मम्मी ने देखा था। नानी की बीमारी में उन्हें कैसे सँभाला था...कैसे बताए टुनिया कि यह सब करना आसान है, बनिस्बत वापस नीचे जाने के, अपनी आँखों वह गंदी चीज़ देखने के, महज एक बाल्टी की खातिर।
दीदी के साथ तो ऐसा नहीं करती मम्मी। दीदी उनका एक भी काम नहीं करती, फिर भी उसके सामने मम्मी कभी शिकायत नहीं करती। वह तो काँदाबटाटा लेने बाजार नहीं जाती, उसे पानी लेने डॉ॰ जगतियानी के यहाँ नहीं भेजा जाता, बिजली का बिल जमा करने की कतार में दीदी तो कभी नहीं लगी। दीदी सुबह आठ बजे सोकर उठती है। उठते ही हुक्म चलाने लगती है, ‘‘कोलीन, मेरे नहाने का पानी गरम करो। मम्मी, आलू का टोस्ट बना दो। टुनिया, इस कुर्ते के साथ का दुपट्टा ढूँढ़ दो।’’
दीदी नहाने चली जाती है और घर-भर उसके कॉलेज जाने के काम में इस कदर व्यस्त हो जाता है, जैसे दीदी काम पर जा रही हो। मम्मी गेट पर उसे घड़ी और रूमाल पकड़ाने भागती हैं। दीदी थैंक्यू भी नहीं कहती। बस, एक ‘महारानी नज़र’ सब पर डाल शान से चल देती है। अकेली कॉलेज जाती है, पर यों लगता है, मानो चार अर्दली आगे,चार पीछे चल रहे हैं। किस शान से दीदी सड़क क्रॉस करती है, आती-जाती टैक्सियों, कारों को चुनौती देती। है किसी की मजाल, जो दीदी से पूछे, ‘क्यों जी, यह सड़क क्या आपके पापा ने बनवाई है ? वह पैदल पारपथ क्या बटेरों के लिए छोड़ रखा है ?’
टुनिया को पता है, जब दीदी कॉलेज के लिए निकलती है, कॉलोनी के आधा दर्जन लड़के तो तभी अपने-अपने घर से निकलते हैं। वे इधर-उधर छा जाते हैं कोई पुलिया के पास, कोई चौराहे पर, कोई बस स्टाप पर। दीदी इन सबकी हीरोइन हैं। किसी ने दीदी को कॉलेज के स्टेज पर नृत्य करते देख लिया है, बस गुडुप। किसी ने दीदी को डिबेट में बोलते सुना है, धराशायी। कोई दीदी की चाल का दीवाना है, कोई दीदी के बालों का। बच्चू सीने पर हाथ रखकर गाता है, ‘उड-उड़ के कहेगी खाक सनम....।’आबू दो साल से एल॰ एल॰ बी॰ में फेल हो रहा है। दीदी किसी की ओर नहीं देखती। गर्दन को एक गुमान भरा झटका दे वह बस स्टाप पर ऐसे खडी़ हो जाती है, जैसे बंकिघंम पैलेस की बग्घी उसके लिए आने वाली हो।
एक दिन तो आ गई थी-प्रिंस राजगढ़ की गाड़ी। दीदी बस स्टाप पर खड़ी थी कि चॉकलेट रंग की कार झटके से आकर सामने खड़ी हो गई। प्रिंस खुद ड्राइव कर रहे थे। निहायत शालीनता से बोले, ‘‘मिस सहाय, मैं भी कॉलेज जा रहा हूँ, मे आइ हैव द प्लेज़र टु ड्रॉप यू !’’
दीदी ने एक नज़र उसे देखा और कहा, ‘‘सॉरी, मैं नहीं जानती आप कौन हैं ?’’
प्रिंस सिर झुकाकर चला गया। वह कॉलेज नहीं गया। वह इतना तिलमिला गया कि उसने उसी दिन न सिर्फ कॉलेज, वरन् शहर भी छोड़ दिया।
‘‘टुनिया, ठंडा पानी पिला।’’
‘‘मैंने गैस पर दूध चढ़ाया है, तू पास खड़ी रह टुन्नो ! कुछ करना नहीं है। जब दूध उफनने लगे, तब तू गैस बंद कर देना।’’
दिन भर दौड़ती है टुनिया। स्कूल से आकर होमवर्क करती है, थोड़ा-बहुत खाना खाती है और इसके साथ ही शुरू हो जाता है काम पर काम। घर के टेढ़े से टेढ़े और सीधे काम सब टुनिया के ज़िम्मे। टुनिया बाज़ार से लकड़ी लाएगी, टुनिया पौधों में पानी देगी, टुनिया मम्मी को दवाई देगी, टुनिया बाहर सूख रहे कपड़े उठाएगी, टुनिया दस बार दरवाज़ा खोलेगी, दस बार दरवाज़ा बंद करेगी। अगर पड़ोसिन आंटी से पन्द्रह दिन पहले दी गई कटोरी मँगानी है तो टुनिया ही जायेगी। वह इतनी बहादुर है, जो जाकर सीधे-सीधे कह दे, ‘‘आंटी, वह कटोरी दे दीजिए। वही, जिसमें हम सरसों का साग दे गए थे आपको।’’
अचानक मेहमान आ जाएँ तो बर्फ माँगने केरावाला मेमसाब के पास टुनिया ही जाएगी। और किसकी मजाल, जो उस बदमिजाज औरत को पटाकर उसके फ्रिज़ से बर्फ निकलवा सके।
टुनिया है तो तेरह की, पर लगती है ग्यारह की। न उसे दूध पीना अच्छा लगता है, न अंड़ा खाना। हलका-फुलका बदन है उसका। कमर इतनी छोटी कि स्कूल यूनिफॉर्म की स्कर्ट खिसकी पड़ती है। ज़रा भागे तो ब्लाउज़ स्कर्ट के बाहर। इसीलिए टुनिया को बैल्ट लगानी पड़ती है या फिर स्कर्ट में तीन-तीन जगह हुक फँसाने के लिए लूप। स्कूल जाने के लिए तो बाकायदा तैयार होना ही पड़ता है, टाई भी लगानी पड़ती है, जूते भी चमाचम चाहिए। पर वैसे टुनिया को ढंग से कपड़े पहनने का धीरज कहाँ! जो हाथ आया, गले में डाल लिया। घर में सभी के बाल कटे हुए हैं-मम्मी के, दीदी के। यहाँ तक की कोलीन के भी। कोलीन सुबह शाम आती है, डस्टिंग करती है, कपड़े इस्तरी करती है और रसोई में खाना बनाने के पूर्व की तैयारी। खाना उससे नहीं बनवाया जाता। मम्मी कहती हैं कि वह पकाएगी तो छूत लग जाएगी। टुनिया को यह ज़रा भी समझ नहीं आता है कि यह छूत कैसे लग सकती है ? जैसे कोलीन आटा गूँधे, सब्जी काट दे तो ठीक, लेकिन वही सब्जी यदि छौंक दे तो छूत, वही आटा अगर सेंक दे तो छूत। कोलीन है बड़ी फैशनेबल। नाक-भौं सिकोड़ते हुए बता चुकी है कि अगर उसके बाप को दारू का इतना लालच न होता तो वह कभी काम करने न निकलती, वह भी घर-घर।
कोलीन तीन घरों में जाती है। वह इतना पाउडर लगाती है कि पड़ोस के देवराज ने उसका नाम ‘पाउडर एंड कंपनी’ रख छोड़ा है। कोलीन ऊँची सी फ्रॉक पहनती है और ऊँची सैंडिल। उसका शरीर भी कई कोण से ऊँचा-ऊँचा लगता है। हर इतवार वह चर्च जाती है और हर शनिवार पिक्चर। कभी उसके बालों में नया क्लिप होता है, कभी स्कर्ट की जेब में नया रूमाल। बगल वालों की आया मेरी जब पूछती है, ‘कहाँ से लिया ?’ तो कोलीन आँखें मटकाकर कहती है, ‘हमारा बॉयफ्रैंड दिया...।’
टुनिया को कोलीन पसंद नहीं है। उसे लगता है, कोलीन अच्छी लड़की नहीं है। जिन बातों पर टुनिया को गुस्सा आता है, उन पर कोलीन खिलखिलाकर हँस पड़ती है। हर समय मस्ती सी चढ़ी रहती है उस पर। फैशन और पिक्चर के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता। वह बाकायदा ऐक्टिंग करके पिक्चर की कहानी सुनती है भले ही कोई सुने, चाहे न सुने। उसका इस तरह मटकना टुनिया को नापसंद है। वह कई बार मम्मी से कह चुकी है, ‘‘इसकी छुट्टी क्यों नहीं कर देतीं ?’’ पर मम्मी हर बार एक ही सुर पर बात खत्म करती हैं,’’ टुन्नो, तू तो सुबह तैयार हो कर चल देती है स्कूल। बेबी को टाइम नहीं मिलता। रह गई मैं। तो भाई साफ बात है, मुझसे इतना काम होता नहीं। कोलीन भी मदद न करे तो मैं मर जाऊँ।’’
मम्मी मरने-जीने के सवाल न जाने कहाँ से ले आती हैं-बात-बात पर। अभी जब जबलपुर से माधुरी आंटी आई थीं और छुट्टियों में टुनिया को साथ ले जाना चाहती थीं, मम्मी ने कहा, ‘‘न बाबा न ! टुनिया को मैं नहीं भेज सकती। एक तो कोलीन छुट्टी पर गई हुई है, ऊपर से तू इसे ले जाएगी। मुझसे नहीं होता इतना काम। मैं तो जीते-जी मर जाऊँगी।’’
माधुरी आंटी अकेली चली गई थीं, हालाँकि टुनिया मन ही मन बहुत तरसी थी साथ जाने के लिए। कैसा होगा जबलपुर, उसने मन ही मन सोचा था। अपनी किताब में उसने भेड़ाघाट के बारे में पढा़ था। वह वहाँ जाकर मिलान करना चाहती थी कि किताबें कितना सच बोलतीं हैं। पर मम्मी को वह कैसे मर जाने दे।
मम्मी की खातिर तो वह सारा दिन भागती है। कई ऐसे भी काम करती है, जो उसे कतई पसंद नहीं। मसलन, पाल साहब के यहाँ जाकर पापा को फोन करना, नल बंद होने पर निचली मंजिल पर डॉ॰ जगतियानी के घर से पानी लाना, बाजार से काँदाबटाटा खरीदना और सामान मम्मी को पसंद न आने पर उसे वापस करने दुकान पर जाना। मम्मी उससे दुनिया-भर का सामान मँगाएँगी, फिर उसमें मीन-मेख निकालेंगी, ‘‘साबुन में तू दस पैसा ज्यादा दे आई है बट्टी लेकर वापस वोहरा के पास जा और कह, हमें नहीं लेना साबुन। लूट मची है क्या, जो दाम मन में आया, ले लिया। टुन्नो, इतनी बड़ी हो गई तू अभी तक अदरक खरीदने की अक्ल नहीं आई। यह एकदम दो कौड़ी की अदरक है, गट्ठे वाली। अदरक तो एकदम बादाम जैसी आ रही है आजकल।’’
अब टुनिया क्या जाने अदरक बादाम जैसी कैसी होती है। उसे तो अदरक एकदम नीरस चीज लगती है, खाने में भी और देखने में भी। एक बार खरीदकर वापस करना क्या इतना आसान होता है ! पसीना आ जाता है। कार्टून अलग बनता है।
छुट्टी वाले दिन एक दोपहर घर में पानी एकदम खत्म था। मम्मी ने झट से कह दिया, ‘‘टुनिया, एक छोटी बालटी पानी नीचे से ले आ, कम से कम चाय तो बने।’’
डॉ॰ जगतियानी के यहाँ नल के साथ-साथ हैंडपंप भी लगा है। निचली मंजिल होने की वजह से उनके यहाँ पानी हर वक्त आता है। डॉ॰ और मिसेज़ जगतियानी दोनों सुबह अपने क्लिनिक पर जाते हैं। दोपहर ढाई तीन बजे तक लौटते हैं। लौटकर खाने के बाद वे सो जाते हैं-एयर कंडीशनर चलाकर। उनके घर की पूरी देखभाल उनका नौकर रामजी करता है। वही फोन सुनता है, कॉलबेल बजने पर दरवाज़ा खोलता है, कार साफ करता है और खाना बनाता है। सारी शाम जब डॉक्टर साहब और मिसेज़ जगतियानी क्लिनिक पर होते हैं, रामजी टी॰ वी॰ देखता है। यह उसका रोज का काम है। टी॰ वी॰ को वह टी॰ बी॰ कहता है। एक-एक एनाउंसर को वह पहचानता है। उसने सबको नाम दे रखे हैं, ‘फर्स्ट क्लास’, ‘सेकंड क्लास’, ‘चलेगा’ और ‘खटारा’।
उस दिन टुनिया पीतल की बाल्टी लेकर नीचे पहुँची तो डॉक्टर साहब के घर का पिछला दरवाज़ा खुला था। टुनिया सीधे अंदर पहुँच गई। टोंटी खोलकर देखा, पानी नहीं था। फिर उसने हैंड़पंप चलाया। वह भी सूखा पड़ा था। तभी रामजी रसोई में से निकल कर आया, ‘‘आज पानी नहीं है, सब खलास।’’
टुनिया ने एक बार और नल खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि रामजी ने अपने पाजामे की ओर इशारा किया और अश्लील ढंग से मुस्कराकर कहा, ‘‘लो इससे भर लो।’’
टुनिया कुछ समझ नहीं पाई; पर जो कुछ उसने देखा,उससे घबराकर वह दहशत से चीखती भाग खड़ी हुई। बाल्टी वापस उठाने का किसे होश था।
बेतहाशा भागती टुनिया तीसरी मंजिल पर घर में घुसी तो मम्मी की घुड़की पडी, ‘‘पानी नहीं लाई न, अब पीना शाम की चाय। काम तो कोई करना ही नहीं चाहता आजकल। एक कोलीन है, उसे कुछ कहो तो वह मुँह बनाती है। एक तू है, तेरे अलग नखरे। जो करूँ, मैं करूँ, मैं मरूँ।’’
टुनिया का मन इस वक्त इतना घिना और घबरा रहा था कि वह क्या न कर दे, पर माँ की भुन-भुन सुनकर भन्ना गई। ये मम्मी हैं, इन्हें क्या फिक्र, टुनिया पानी क्यों नहीं लाई ? इनका तो बस काम होना चाहिए, नहीं तो ये मरने को तैयार बैठी हैं।
‘‘और बाल्टी फेंक आई, बोल तो सही मुँह से? हद हो गई ढीठपने की। खाली बाल्टी उठाकर लाने में इसकी कलाई मुड़ती है। एक हम थे। हमारी माँ ज़रा इशारा कर दे, हम सिर के बल उलटे खड़े रहते थे।’’
बस शुरू हो गया ये और इनका जमाना। अब यह रिकार्ड जल्दी नहीं रुकने वाला। लकड़ी काटने से लेकर सिर काटने तक के अपने तजुर्बे सुनाए जाएँगे। नानी के सिरहने लहरता साँप मम्मी ने कुचला था लोहेवाली की सोने की तगड़ी का पता मम्मी ने लगाया था, चोर को सेंध लगाते सबसे पहले मम्मी ने देखा था। नानी की बीमारी में उन्हें कैसे सँभाला था...कैसे बताए टुनिया कि यह सब करना आसान है, बनिस्बत वापस नीचे जाने के, अपनी आँखों वह गंदी चीज़ देखने के, महज एक बाल्टी की खातिर।
दीदी के साथ तो ऐसा नहीं करती मम्मी। दीदी उनका एक भी काम नहीं करती, फिर भी उसके सामने मम्मी कभी शिकायत नहीं करती। वह तो काँदाबटाटा लेने बाजार नहीं जाती, उसे पानी लेने डॉ॰ जगतियानी के यहाँ नहीं भेजा जाता, बिजली का बिल जमा करने की कतार में दीदी तो कभी नहीं लगी। दीदी सुबह आठ बजे सोकर उठती है। उठते ही हुक्म चलाने लगती है, ‘‘कोलीन, मेरे नहाने का पानी गरम करो। मम्मी, आलू का टोस्ट बना दो। टुनिया, इस कुर्ते के साथ का दुपट्टा ढूँढ़ दो।’’
दीदी नहाने चली जाती है और घर-भर उसके कॉलेज जाने के काम में इस कदर व्यस्त हो जाता है, जैसे दीदी काम पर जा रही हो। मम्मी गेट पर उसे घड़ी और रूमाल पकड़ाने भागती हैं। दीदी थैंक्यू भी नहीं कहती। बस, एक ‘महारानी नज़र’ सब पर डाल शान से चल देती है। अकेली कॉलेज जाती है, पर यों लगता है, मानो चार अर्दली आगे,चार पीछे चल रहे हैं। किस शान से दीदी सड़क क्रॉस करती है, आती-जाती टैक्सियों, कारों को चुनौती देती। है किसी की मजाल, जो दीदी से पूछे, ‘क्यों जी, यह सड़क क्या आपके पापा ने बनवाई है ? वह पैदल पारपथ क्या बटेरों के लिए छोड़ रखा है ?’
टुनिया को पता है, जब दीदी कॉलेज के लिए निकलती है, कॉलोनी के आधा दर्जन लड़के तो तभी अपने-अपने घर से निकलते हैं। वे इधर-उधर छा जाते हैं कोई पुलिया के पास, कोई चौराहे पर, कोई बस स्टाप पर। दीदी इन सबकी हीरोइन हैं। किसी ने दीदी को कॉलेज के स्टेज पर नृत्य करते देख लिया है, बस गुडुप। किसी ने दीदी को डिबेट में बोलते सुना है, धराशायी। कोई दीदी की चाल का दीवाना है, कोई दीदी के बालों का। बच्चू सीने पर हाथ रखकर गाता है, ‘उड-उड़ के कहेगी खाक सनम....।’आबू दो साल से एल॰ एल॰ बी॰ में फेल हो रहा है। दीदी किसी की ओर नहीं देखती। गर्दन को एक गुमान भरा झटका दे वह बस स्टाप पर ऐसे खडी़ हो जाती है, जैसे बंकिघंम पैलेस की बग्घी उसके लिए आने वाली हो।
एक दिन तो आ गई थी-प्रिंस राजगढ़ की गाड़ी। दीदी बस स्टाप पर खड़ी थी कि चॉकलेट रंग की कार झटके से आकर सामने खड़ी हो गई। प्रिंस खुद ड्राइव कर रहे थे। निहायत शालीनता से बोले, ‘‘मिस सहाय, मैं भी कॉलेज जा रहा हूँ, मे आइ हैव द प्लेज़र टु ड्रॉप यू !’’
दीदी ने एक नज़र उसे देखा और कहा, ‘‘सॉरी, मैं नहीं जानती आप कौन हैं ?’’
प्रिंस सिर झुकाकर चला गया। वह कॉलेज नहीं गया। वह इतना तिलमिला गया कि उसने उसी दिन न सिर्फ कॉलेज, वरन् शहर भी छोड़ दिया।
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