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कविता संग्रह >> तारापथ

तारापथ

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3259
आईएसबीएन :000000

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पंत जी की श्रेष्ठ कवितायें

Tarapath

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जन्म-अल्मोड़ा की जगत् प्रसिद्ध सौन्दर्य-स्थली-कौसानी में 20 मई सन् 1900 ई. को हुआ।
 अल्मोड़ा के एक अत्यन्त कुलीन एवं संपन्न परिवार में पन्त जी ने जन्म लिया। पंत जी के पिता पं. गंगादत्त पंत अलमोड़ा के अग्रगण्य नागरिक थे। आपकी प्राथमिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। आपने बनारस में इन्ट्रेन्स की परीक्षा पास की और प्रयाग के म्योर कालेज में एफ. ए. के छात्र रहे।

असहयोग आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के सम्मुख शिक्षा-संस्थान छोड़ने की प्रतिज्ञा करने के कारण फिर आपने विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की। किन्तु अपनी लगन के कारण आपने अनेक विषयों का और विशेषकर साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक युग की सम्पूर्ण प्रगतियों के संबंध में भी आपका ज्ञान विशेष रूप से प्रौढ़ है।

कविता की ओर पंत जी की रुचि जन्मजात रही। बाल्य-काल से ही आप कविता लिखने लगे थे। किसी-किसी कवि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह एक ही रात में अथवा एक ही रचना में प्रसिद्ध हो गया। पंतजी के सम्बन्ध में भी यह अक्षरशः सत्य है। आप अपनी पहली ही छपी रचना से हिन्दी के साहित्याकाश में पूर्ण प्रभा से उदित हो गये। आपकी कविता के छन्द, भाषी, भाव, और कल्पना ने सबको विमोहित कर लिया। ‘ग्राम्या’ और ‘गुंजन’ पंत जी की सर्वश्रेष्ठ काव्य कृतियाँ हैं।

सम्पूर्णता का कवि

(1)

प्रत्येक युग में रचना सक्षम, संघर्षशील और स्वतन्त्रचेता कवि के बारे में अकसर एक विशेष प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। उसके बारे में उसके जीवन-काल में ही उसकी काव्य रचना को लेकर अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी, प्रशंसात्मक आशंसात्मक, चमत्कारपूर्ण और चौंकानेवाली विचार पद्धतियाँ सामने आती हैं। उसके आलोचक और प्रशंसक जब तक उसके बारे में एक विशेष विचार कसौटी का निर्धारण करते हैं, तब तक अपनी रचनाशीलता और सत्योपलब्धि में कवि किसी दूसरे बिन्दु पर खिसक जाता है। अकसर कवि के अन्दर ही यह सतत रचनात्मक गतिशीलता उसके आलोचकों, प्रशंसकों और विरोधियों-सभी को एक साथ चौंकाती है, उन्हें हतप्रभ, करती है, उनकी विचार कसौटियों या आग्रहों, दुराग्रहों, सदाग्रहों को काटती चलती है। अकसर प्रशंसक घोर विरोधियों में बदल जाते हैं, तटस्थ, उदासीन हो जाते हैं। चाहे उनके आग्रह और उनकी आशंसाएँ कवि की विचार-सरणि के निकट ही क्यों न हों, कवि की गतिशीलता के साथ ही वे अपने को गतिशील नहीं बना पाते और इस तरह जो सदाग्रह होता है, उसी से एक-घोर विरोधी अथवा कुतर्कपूर्ण पूर्वाग्रह का निर्माण होता है। विरोधियों और निन्दकों या नासमझों के लिए तो कवि की यह सतत गतिशीलता उनको पूर्वाग्रहों के लिए और अधिक सामग्री जुटाती चलती है।

अन्ततः इन सारी बातों से एक विचित्र सी भ्रान्त और छद्म धारणा का निर्माण होता है। इसी भ्रान्त धारणा से या आलोचना के ऐसे ही सर्वप्रचलित ‘मिथ’ से समाचोलना और युग की कसौटियाँ तक कभी-कभी निर्धारित होने लगती हैं और साहित्य के विद्यार्थी के लिए कवि के काव्य- वैभव तक सीधे पहुँचना और उसका पुनर्मूल्यांकन या सही मूल्यांकन करना असम्भव नहीं तो कुछ कठिन अवश्य हो जाता है। अकसर आलोचकों की इसी भ्रांत विचार-प्रणाली को देखकर कोई भी कवि अपने ऊपर वह नैतिक दबाव महसूस करता है, जिसके वशीभूत होकर वह पाठक और काव्य मर्मज्ञ को सीधे अपने काव्य वैभव तक पहुँचाने के लिए इन धारणाओं को काटता है और कविता की व्याख्या का बुनियादी उत्तरदायित्व भी स्वयं ही वहन करता है।

यह सवाल अपने मूल में आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि से जुड़ा हुआ है, लेकिन इस सवाल का सम्बन्ध किसी सर्वस्वीकृत कवि से नहीं है। यह सवाल किसी भी ऐसे रचनाकार से जुड़ा हुआ नहीं है, जिसकी एक काव्य-रूढ़ि निर्मित हो चुकी हो, या जो अपनी कला सचेतना और अनूभूति निर्माण में सतत गतिशील न हो, या जो आलोचनापेक्षी प्रशंसापेक्षी हो, या जो अपने अन्दर के सतत उद्वेलनों या भाव संघर्षों से प्रताड़ित और पीड़ित न होकर, सन्तुष्ट निर्विकार और निश्चिन्त हो, अथवा काव्य सचेतना के मूल उपादानों से दूर हट गया हो। आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि का सवाल भी, जैसा कि कहा गया है, एक रचना सक्षम संघर्षशील और स्वतंत्रचेता कवि के साथ जुड़ा ही हुआ है। इसे हम कवि व्यक्तित्व की विवादास्पदता भी कह सकते हैं। कवि के व्यक्तित्व का इस रूप में विवादास्पद होना उसकी जीवंतता और शक्तिमत्ता का प्रमाण है। इस तरह आलोचना की कसौटी और मूल्यांकन दृष्टि मुख्यतः कवि की जीवंतता और गतिशील शक्तिमत्ता के स्वीकार से जुडी हुई है कि आलोचना और मूल्यांकन सम्पूर्णतः एक स्वतन्त्र आलोचक अथवा मूल्यांकनकर्ता की अपनी विचार पद्धतियों को निर्मित करने की कार्य पद्धति है या उसे कवि के जीवंत और शक्तिमन्त काव्य वैभव के अन्दर से होकर आना चाहिए। इस प्रकार बड़ी लम्बी चौड़ी बहस उठायी जा सकती है, जिसके लिए यहाँ जगह नहीं है। फिर भी सत्य का पक्ष ही यही है कि आलोचना मूल्यांकनकर्ता के विचारों का कवि रचनाकार के ऊपर आरोपण नहीं है, बल्कि कविता के अन्दर से होकर आनेवाली उसकी (कविता की) जीवंतता और शक्तिमत्ता को खोलने वाली एक उत्तरदायित्वपूर्ण संरचना है।

महाकवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त के समस्त काव्य- वैभव का एक तटस्थ और सम्पूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने के लिए इस भूमिका के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। आज सन् 1968 ई. में, जब पन्त जी 69 वें वर्ष में प्रवेश (जन्म, 20 मई 1900 ई.) कर चुके हैं और उनके अदम्य साहसी, जीवन्त और शक्तिशाली रचनात्मक व्यक्तित्व के लगभग 50 वर्ष हमारे सामने हैं, अर्थात् 50 वर्षों का रचित काव्य वैभव जो अपने स्वतंत्रचेता निर्णयों और अपनी सतत गतिशीलता के कारण लगातार तथाकथित ‘अलोचनामिथों’ का निर्माण अपने इर्द-गिर्द करता रहा है जब कि उनके प्रशंसक उनके घोर विरोधी हो गये हैं, अथवा तटस्थ और उदासीन, जब कि उनकी रचनाओं और भावबोध की नयी-नयी दिशाओं के सतत अन्वेषण ने उनके विरोधियों के लिए पूर्वाग्रहों और गलत व्याख्याओं और तरह-तरह के विवादों को जन्म देने के लिए और अधिक उत्तेजित किया है, प्रस्तुत उपर्युक्त भूमिका का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि प्रस्तुत मूल्यांकन की दृष्टि पन्तजी की उस सतत संघर्षशील, गतिमय और अनेक स्तरीय काव्य-सम्पदा के अन्दर से होकर आने वाली दृष्टि होगी। कम-से-कम प्रस्तुत मूल्यांकन का प्रयास इसी दिशा में होगा।

अकसर पन्तजी के काव्य संचरण की विभिन्न दिशाएँ अनेक प्रकार के गलत विवादों और आलोचना मानों को जन्म देती रही हैं और इन बचकाने किन्तु तथाकथित गम्भीर, प्रयासों में कहीं भी कवि-व्यक्तित्व की गतिशील अन्त संगति को नहीं ढूँढ़ा गया है। यह बात निस्सन्देह रूप से स्वीकार की जा सकती है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान काव्य में गतिशीलता और उसके अन्वेषण की नयी दिशाओं को लेकर जितना विवादास्पद व्यक्तित्व कवि पन्त का रहा है और आज भी बना हुआ है, इतना किसी दूसरे समकालीन या उत्तरकालीन कवि का नहीं रहा। यह विवादास्पदता भ्रमवश उत्पन्न न होकर कवि का अन्त संरचना के क्षणों और निर्णयों से लगातार एक तादात्म्य स्थापित न कर सकने की, काव्य मर्मज्ञों की क्षमता के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं। मूल्यांकन-दृष्टि की इसी पृष्ठभूमि में हम पन्तजी के काव्य की विशिष्टताओं उपलब्धियों और उसकी अन्त संगति का सम्यक् और एक सम्पूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं।


(2)



श्री सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य वैभव एवं विकास का एक सम्पूर्ण मूल्यांकन प्रस्तुत करने के पहले यहाँ छायावादी काव्य की देशीय और अन्तर्देशीय पृष्ठभूमि और परिस्थितियों और सन्दर्भों पर संक्षेप में विचार कर लेना उचित होगा। यहाँ निश्चित है कि इस शताब्दी के पूर्णाद्ध के तीन दशक, जिनमें छायावादी कवि की मानसिक और कला-चेतना संबंधी धारणाएँ निर्मित और परिपुष्ट हुईं, एक व्यापक जन-जागरण का समय रहा है। इस जन-जागरण की मूल प्रेरणा के रूप में महात्मा गाँधी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द तथा महाकवि टैगोर रहे हैं। गाँधी जहाँ इस व्यापक जागरण के राजनैतिक और आध्यात्मिक गुरु रहे हैं, वहीं स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द या महर्षि अरविन्द ने इसको भारतीय सांस्कारिक और सांस्कृतिक अध्यात्म और सार्वभौमिक अन्तश्चेतना और राष्ट्र-प्रेम से जोड़ने में अधिक योग दिया है।

 (गांधी का अध्यात्म निश्चय ही इन लोगों से अलग तरह का अध्यात्म है।) टैगोर ने इस जागरण को एक कलात्मकता, भारतीय पावनता और व्यक्ति के नैतिक निजत्व से जोड़ा। हमारी परतन्त्रता ने महर्षि अरविन्द या स्वामी विवेकानन्द जैसे योगियों और धर्म नेताओं की सारी चेतना को भी इस तरह प्रभावित किया कि एक ओर यदि वे अपनी सारी साधना और सारे ज्ञान को व्यक्ति के निजत्व परिष्कार की ओर लगाते दिखाते हैं, तो दूसरी ओर उन्हें अपने दलित देश और जाति और जन समूह के उत्थान और उसकी मुक्ति की कल्पना और कार्यशीलता भी अभिभूत किये हुए हैं। हमारी परतन्त्रता वह प्रमुख कारण है, जिसने उस काल में उत्पन्न इन मनीषियों के अपने ज्ञान और दर्शन का विकास किसी एक ही दिशा में नहीं होने दिया ! यदि भारतवर्ष स्वतन्त्र होता तो सम्भव था कि स्वामी विवेकानन्द यौगिक क्रियाओं का अध्ययन, अनुशीलन और प्रचार में ही लगे रहते और उनकी यह विराट शक्तिमत्ता और राष्ट्र-प्रेम और समस्त दर्शन की पुनर्व्याख्या और पश्चिम और पूर्व के विशाल, ज्ञान चिंतन, धर्म और संस्कार की तुलनात्मक विवेचना और उपलब्धि से हम वंचित रह जाते।

 देश की अधः पतित मनोदशा को ध्यान में रखकर ही विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘हम एक ऐसे देश में पैदा हुए हैं, जहाँ हर दो आदमी इकट्ठे होने पर एक-दूसरे से लड़ बैठते हैं।’’ साथ ही भारतीय मनुष्य की छिपी हुई शक्ति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने यह भी कहा था, ‘‘एक दिन हम सारी दुनिया में आग (आदर्श, प्रेम और पवित्रता की आग से यहाँ मतलब है।) लगा देंगे।’’ हमारी परतन्त्रता ही वह प्रमुख कारण है, जिससे उस काल का प्रत्येक मनीषी एक अर्द्धचिन्तक और अर्द्धदार्शनिक बनकर रह गया है और उसे अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रमुख अंश इस व्यापक जागरण को और अधिक समृद्ध बनाने में लगाना पड़ा है। वह एक प्रकार से हमारी विडम्बना या विवशता और तात्कालिक नैतिक दायित्व की माँग दोनों ही थी। बहरहाल, कहने का तात्पर्य यह है कि इसी विवशता और नैतिक दायित्व की माँग के अन्दर से तत्कालीन भारतीय साहित्य और कविता उद्भूत हुई है।

छायावाद-पूर्व के युग की कविता में एक सीमित राष्ट्र-प्रेम और अन्ध-पुरातन श्रद्धा और विश्वास अधिक था। वह अन्दर की एक दुहरी चेतना से पीड़ित और उद्भ्रान्त नहीं था। द्विवेदी युग के कवि के निर्णय बड़े ही सरल और सन्देहरहित होते थे। उसके सामने उस तरह से कुछ भी अस्पष्ट और उहापोह ग्रस्त नहीं था, जिसमें हर निर्णय एक खतरे को जन्म देता चलता है और हर निर्णय की इयत्ता का प्रभाव-दुष्प्रभाव कवि, कलाकार और चिन्तक के अगले निर्णयों पर पड़ता ही है। छायावादी कवि की समस्त चेतना और कलात्मक उपलब्धि की बुनियाद में उसकी वह दुहरी चेतना रही है। एक ओर मनुष्य के निजत्व की चिन्ता और मानव-मात्र की चैतन्य शक्तिमत्ता की खोज और उसका विकास, तो दूसरी ओर भारत की पददलित जनता और उसकी दुर्दशा के प्रति एक निश्छल और निर्मम आक्रोश। इसीलिए गाँधी और विवेकानन्द ने किसी एक भारतीय भाषा के लेखक-कवि को ही प्रभावित नहीं किया, उनका प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय बौद्धिक चेतना पर समान रूप से लक्षित किया जा सकता है।

 चाहे वह रवीन्द्रनाथ हों या शंकर कुरुप्प या सुन्दरम् या सुब्रह्मण्यम भारती या काजी नजरुल इस्लाम या जीवनानन्द दास अथवा निराला या सुमित्रानन्दन पन्त। सम्पूर्ण भारतीय बौद्धिक चेतना पर जो एक विषण्ण अवसाद की छाया झलकती है और उसके साथ ही मनुष्य उच्चतर चेतना और नव अभ्युत्थान का जो एक विराट सन्देश मिलता है, वह इसी व्यापक भारतीय जन-जागरण और उसके पीड़ाजनक निर्णयों का प्रतिफल है। इस व्यापक जन- जागरण और अभ्युत्थान चेतना की पृष्ठभूमि में ही छायावाद कवि का मानसिक निर्माण हुआ है। यदि इसे ध्यान में रखा जाये तो ऊपर से अत्यन्त विचित्र लगने वाली और लगातार दुहरे-तिहरे स्तर पर क्रियाशील रहने वाली छायावादी कवि की रचना- प्रक्रिया को समझना आसान होगा और उसमें एक गुणात्मक अन्तःसंगति आसानी से खोजकर निकाली जा सकती है। साथ ही छायावादी कविता के सम्पूर्ण भाव-पट का निर्माण, उसकी अन्तःप्रेरणा और उसकी विशिष्ट निर्मितियों तथा विशिष्ट उपलब्धियों को भी रेखांकित किया जा सकेगा।

अपने ऐतिहासिक बोध और मूल्य-स्थापन में अनेक वाद-विवादों के बावजूद आज छायावादी कविता के आविर्भाव का एक स्पष्ट रूप हमारे सामने है। स्थूल परिभाषाओं के विवादों से परे छायावादी कविता की सम्पूर्ण स्थिति-उसकी पृष्ठभूमि, उसका आविर्भाव, उद्देश्य और उपलब्धि-के बारे में अत्यधिक स्पष्टता से विवेचन और मूल्यांकन का प्रश्न आज उठाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में हम एक नकारात्मक वाक्य से अपनी बात शुरू करेंगे। यह कि छायावादी कविता का आविर्भाव मात्र एक भाषागत विद्रोह ही नहीं था। जैसा कि अनेक बार यह बात आलोचकों और छायावाद पर शोध-ग्रन्थ लिखने वालों ने कही है कि वह द्विवेदी-युगीन भाषा की इतिवृत्तात्मकता और स्थूल वर्णानात्मकता के विरुद्ध भाषागत अभिव्यंजना का अन्तर्मुखी प्रयत्न था। वास्तव में कवि की भाषा में अन्तर तभी होता है, जब उसकी सम्पूर्ण काव्यानुभूति की बनावट में अन्तर आ जाये।

काव्यानुभूति की बनावट का एक नया रूप स्वयं ही अपने लिए एक नयी भाषा का आविष्कार कर लेता है। कहने का मतलब यह है कि भाषा की यह चेतना अनुभूति की चेतना से अलग और स्वतन्त्र रूप में नहीं आती। अतः छायावादी काव्य के आविर्भाव को केवल भाषा के नवीन आर्विभाव या प्रयत्न से जोड़ना भ्रामक है। दरअसल भाषा का प्रश्न छायावादी कवि के सामने अपनी पृथक् अनुभव-दिशा के साथ-साथ ही जुड़ा हुआ आया है। जिस गोपालशरण सिंह या गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, मैथिलीशरण गुप्त या रामचरित उपाध्याय के लिए भाषा का प्रश्न अलग था, उस तरह का प्रश्न छायावादी कवि के सामने नहीं था। या यों कहें कि कविता और भाषा के इस अति- प्रारम्भिक सवाल और उसकी समस्या से अलग छायावादी कवि के लिए विद्रोही होने के कारण कहीं अधिक गहरे और महत्वपूर्ण थे और कविता की सम्पूर्ण जीवंतता से सम्बद्ध थे। गोपालशरण सिंह के लिए मुख्य समस्या यह थी कि वे सवैया या घनाक्षरी छन्द को खड़ी बोली में लिख सकते हैं या नहीं। दूसरे, बहुत से बाह्म और अति साधारण विषयों के लिए अगर ब्रजभाषा का लालित्य प्रतिकूल पड़ता है तो उसके लिए वे या दूसरे उपर्युक्त कवि खड़ी बोली का उपयोग करेंगे।

उदाहरणार्थ-‘काशीफल कूष्माण्ड कहीं हैं। कहीं लौकियाँ लटक रही हैं।’ अथवा ‘ऐसी सुविधा और कहाँ है। थोड़े में निर्वाह यहाँ है’ जैसी उक्तियों को कविता का रूप देने की बात एक ब्रजभाषा का कवि सोच भी नहीं सकता था। उसे ‘लौकियों के लटकने’ या ‘कूष्माण्ड’ शब्द के ही काव्यत्व-सम्पन्न होने में सन्देह था। न ही उसने ‘थोड़े में निर्वाह’ जैसी बात पर कविता में विचार कहने की हो सोची थी। इसी तरह गुजर जायेंगे दिन गुजरते-गुजरते, कि उतरेगा यह मैल उतरते-उतरते’ (नारायण प्रसाद ‘बेताब’) जैसी उपदेशात्मक भाषा के प्रयोग की समस्या, इधर छायावादी कवि के सामने भी नहीं थी। भाषागत विद्रोह की जितनी गहरी चेतना और आवश्यकता पूर्व छायावादी कवि को थी, वैसी हिन्दी कविता के इतिहासक में और कहीं नहीं मिलेगी। उसके पीछे एक कारण था-एक सर्व-स्वीकृत काव्य-भाषा (ब्रजभाषा) का परित्याग करके नव-विकसित बोली का कविता के रूप में प्रयोग।

 निश्चय ही इस विवशता और चुनौती के पीछे ब्रजभाषा का भयावह काव्य-रूढ़ियों के जाल में फँस जाना और दूसरी ओर बदली हुई राजनैतिक ऐतिहासिक, सामाजिक और व्यक्ति-चेतना की परिस्थितियाँ थीं। इन दोनों परिस्थितियों के कारण द्विवेदी युग की कविता का मूल स्वर राष्ट्रवादी तो है, लेकिन एक संकीर्ण अर्थ में ही राष्ट्रवादी। इस कविता- युग को लेकर राष्ट्रीयता और राष्ट्र-प्रेम या उसके स्वदेशी होने की इतनी प्रशस्ति आलोचकों ने की है, आज उस तरह के राष्ट्र-प्रेम को ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद’ कहना, सहसा चौंकाने वाला लगेगा। लेकिन ऐसा करने के पीछे कोई दुराग्रह या द्विवेदी-युग की कविता की अवमानना नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक निश्चित दृष्टिकोण है, जो उसके बाद आने वाली छायावादी काव्य प्रवृत्ति को समझने में मदद करता है, ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद की कविता’ कहकर द्विवेदी-युग की कविता का अवमूल्यन करने की जगह हम उसे उसके सही संदर्भों में रखने की एक निष्पक्ष कोशिश कर रहे हैं। विशेषकर तब, जबकि छायावादी कवि का मानसिक विकास भी लगभग उन्हीं परिस्थितियों में होते हुए वह भारतीयता के एक निश्चित दायरे के ऊपर उठकर एक समग्र मानवता की खोज और एक सार्वभौमिक मूल्यवत्ता को उपलब्ध करने में सचेष्ट दिखाई देता है। इस तरह यह बात आज निस्संदेह रूप से कही जा सकती है कि छायावादी कविता के मूल उद्भव के पीछे भाषा की सचेतना की जगह काव्य मूल्य की चेतना अधिक प्रखर है।

छायावादी कविता के उद्भव की इस प्रमुख उद्भावना को नज़र-अन्दाज करते रहने या उसे गौण रूप में देखते रहने के कारण ही छायावाद पर अनेक लांछन और गलत आरोप लगाये गये, जो काफ़ी दिनों तक आलोचना अथवा विद्यार्थियों के पाठ्य-क्रम में प्रचलित रहे। उदाहरणार्थ, यह एक सर्व स्वीकृत धारणा सी बन गयी कि छायावाद कविता का अर्थ रोमैण्टिक, मांसल और भावना-प्रधान व्यक्तिमूलक काव्य से है। इस धारणा को छायावादी कवियों की प्रारम्भिक कविताओं ने बहुत हद तक पुष्ट भी किया। उसकी वजह निश्चित रूप से इस काव्य विद्रोह को एक व्यक्ति-सापेक्ष्य नैतिक स्वीकृति देना था और कविता के उपादानों को प्रकृति, प्रेम, रंग और संबोधनों के बीच से उठाना था। शुरू में कविता के संपूर्ण भावावेश से उद्भूत अंतिम परिणाम या प्रयुक्त इन उपादानों पर ही अटककर रह गयी। लेकिन धीरे-धीरे जब आज वे सारे के सारे नव- निर्मित काव्य उपादान स्थिर हो गये हैं और बहुत कुछ उनके अर्थ और उनकी बिम्ब परिणति से हम परिचित हो गये हैं, हमें उनके अन्दर जाकर उस कविता की मूल अवधारणा को टटोलने पर यही सत्य मिलता है कि छायावादी कविता के उद्भव के पीछे उसके पूर्व की सारी हिन्दी कविता के समानान्तर एक मूल्यगत विद्रोह की भावना ही प्रमुख थी। यह मूल्यगत विद्रोह अपने तत्कालिक पूर्ववर्तियों या रीतिवादियों से न होकर, भक्तिकालीन कविता की गहरी प्रपत्ति भावना और उसकी महाकाव्यमूलक प्रवृत्ति से भी था।

 ज़ाहिर है, यह चुनौती कोई मामूली चुनौती नहीं थी। हिन्दी कविता की सम्पूर्ण मूल्यगत उपलब्धियों पर एक प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर उसके समक्ष नैतिक मानवीय मूल्य को एक नयी सार्वभौमिकता से प्रतिष्ठित करने का यह आग्रह एक बहुत बड़ा आग्रह था। इसी अर्थ के समानान्तर हमने द्विवेदी-युगीन हिन्दी कविता को एक संकीर्ण राष्ट्रवाद की कविता कहा है; क्योंकि उस युग के सारे कवियों की मूल चेतना भाषा, विषय, वस्तु, परिणाम और मूल्य-इन सभी दृष्टियों से भारतीय और मध्य देश की सीमाओं में बँधी है। उसके आदर्शों और लक्ष्यों का तेवर अपनी सारी वर्णानात्मकता के बावजूद भावुकता-प्रधान है। यह भावुकता उस चुनौती के कारण आयी है, जो इस काल के कवि को ब्रजभाषा और ब्रजभाषा के रीतिवादी कवियों और स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा अन्य धर्म सुधारकों और समाज व्याख्याताओं ने उसके समक्ष प्रस्तुत कर दी थी। निश्चय ही इस तरह की चुनौती की परिणति एक आदर्शवादी, अभिधा-प्रधान, भावुकतापूर्ण काव्य में ही हो सकती थी, जिसमें मुखरता (लाउड थिंकिंग) अधिक हो, जबकि छायावादी कवि इन समस्त राष्ट्रीय उद्बबोधनों को आत्मसात् करते हुए भी कविता को इस तरह की समसामयिकता और एकदेशिकता के ऊपर एक सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने के लिए प्रयत्नशील दिखाई पड़ता है। इस सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने में उस पुरातनता और रुढ़िबद्ध मूल्यों से मुक्ति भी चाहता है, जहाँ हिन्दी के भक्तकवि अपनी सम्पूर्ण और सार्वभौमिक प्रपत्ति-भावना (शरणागति) से एक बार पहुँच चुके हैं। उस तरह ही भाव-तन्मयता और तथाकथित समग्रता से छुटकारा पाने में ही छायावादी कविता का ‘आधुनिक होना’ निहित है। मुक्ति की यह कामना अपने को अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भों और वर्तमान वैज्ञानिक विकास और मनुष्य की एक विचित्र-सी असहाय नियति से अपने को जोड़ने के लिए है।

 इसलिए छायावादी कविता का सम्पूर्ण भावपट आधुनिक है और उसकी समस्त चेतना एक नये प्रकार की विशाल नैतिक मानववादी भूमि पर प्रतिष्ठित है। इस संदर्भ में पन्तजी की वह शक्ति द्रष्टव्य है, जहाँ पर उन्होंने छायावाद की ऐतिहासिक दृष्टि से अनुपयोगी विगत वास्तविकता को अपनी बोध-दृष्टि से अतिक्रम कर नवीन ‘यथार्थोन्मुख आदर्शों की खोज’ (छायावाद : पुनर्मूल्यांकन) कहा है। छायावादी कवि की यह ‘इतिहास दृष्टि’ केवल अपनी पूर्ववर्ती कविता-धारा के विरोध या चुनौती से न उपजकर, सम्पूर्ण हिन्दी कविता की मूल्यगत उपलब्धि को सर्वथा नयी साहसिक चुनौती देने के कारण उत्पन्न हुई है। यथार्थ (वास्तविकता) को ‘अनुपयोगी’ और ‘विगत’ मानना अपने आपमें छायावादी कविता को एक विशेष और लम्बा ऐतिहासिक दायित्व सौंपना है। इसी ऐतिहासिक दायित्व को ध्यान में रखते हुए और छायावादी कविता की शक्तिमत्ता, जीवंतता और मूल्यवत्ता और उसके ‘व्यक्तित्व’ को प्रतिष्ठापित करते हुए पन्तजी ने लिखा है-‘‘यद्यपि एक दृष्टि से उसमें छायावाद भक्तिकाल की भावतन्मयता तथा समग्रता का अभाव हो, पर दूसरी दृष्टि से वह भक्तिकाल की साम्प्रदायिकता, एकांगिता आदि से मुक्त व्यापक विश्व चैतन्य के स्पर्श से युक्त, निखिल मानव समाज के लिए अधिक भावात्मक बोध लिये हुए होने के कारण, काव्यमूल की कसौटी में अधिक लोकप्रिय नहीं तो अधिक श्रेष्ठ अवश्य है, क्योंकि वह अपनी अंचल छाया में भावी मानव-मूल्य एवं भावी जीवन-ज्योति, अपनी कलात्मक शोभा में सँजोये हुए हैं। मध्ययुगीन सन्तों की तरह छायावादी कवि आत्मब्रह्म और आत्म- परिष्कार की खोज में न जाकर विश्वात्मा और विश्वजीवन की खोज में अग्रसर हुए। अतः उनकी प्रेरणा का स्रोत मध्ययुगीन भारतीय अन्तश्चेतना (साइकी) न रहकर विश्व चेतना (यूनिवर्सल साइकी) रही।’’

(छायावाद : पुनर्मूल्यांकन)।  
इसी तरह हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण हिन्दी कविता की पृष्ठभूमि में छायावादी कविता एक नये ऐतिहासिक बोध से संयुक्त, एक सार्वभौमिक मानववाद को नैतिक मूल्य के रूप में स्वीकृत कर कविता को उसकी कलात्मक और नैतिक चेतना में सार्वभौमिक क्षण तक ले जाने का सर्वथा एक नया प्रयत्न है। परिभाषा देने का यह प्रयत्न सिर्फ छायावादी कविता को पुरानी आलोचना और पूर्वाग्रह के जाल से मुक्त करने और उसको सही संदर्भों में रखने के लिए है। छायावादी कविता को ‘रोमांसलता’ के जिस प्रच्छन्न सीमित काव्य-मूल्य से जोड़ा गया है, वह इस कविता-धारा की अनेकानेक उपलब्धियों को झुठलाता और नकारता है और इस तरह उसका एक सम्पूर्ण अध्ययन और मूल्यांकन सम्भव नहीं हो पाता। ये प्रच्छन्न प्रशंसात्मक और गुण रूप पूर्वाग्रह अनेकानेक कठिनाइयों और कविता-धारा का मज़ाक उड़ाने और न समझ सकने तथा गलत व्याख्याओं के कारण उत्पन्न हुए हैं। इन व्याख्याओं से छायावाद के कई मूर्धन्य कवि आक्रान्त भी रहे हैं और उन्होंने अपनी कविता की विश्वजनीन संवेदनाओं पर सीधे दृष्टि न डालते हुए, आलोचना के इन मानदंड़ों की स्वयं व्याख्या करने या उन्हें परिभाषित करने की भी कोशिशें की हैं। ‘छायावाद’ नाम को लेकर ही, जो इस कविता-धारा को एक व्यंग्योक्ति के रूप में दिया गया था-स्वयं प्रसादजी और महादेवी वर्मा ने अपने-अपने ढंग से अपनाने और परिभाषित करने की कोशिश की। निश्चय ही उन्होंने परिभाषा के उपादन अपनी कविताओं से ही लिये, लेकिन एक व्यंग्य के रूप में प्राप्त उस नाम को उन्होंने गम्भीरतापूर्वक तो लिया ही। प्रसादजी का इस कविता को ‘पारदर्शी वेदना’ से जोड़ना और महादेवी का उसे ‘रहस्-चैतन्य’ की परिकल्पना से परिपूर्ण करना उनकी अपनी कविताओं की संगति में अधिक उचित तो मालूम पड़ता है, लेकिन सम्पूर्ण कविता धारा के मूल्यांकन के लिए ये परिभाषाएँ आज अकसर छोटी लगती हैं।

 इस सम्बन्ध में श्री सुमित्रानन्दन पन्त का दृष्टिकोण हमेशा विश्लेषणात्मक और मूल्यपरक रहा है। उन्होंने कविता के कला-मूल्यों और वस्तु की ऐतिहासिक और निजात्मक व्याख्या अधिक की है और इस तरह कविता को किन्ही निश्चित और संकीर्ण परिभाषाओं में न बाँधकर उसके अध्ययन के क्षेत्र और सम्भावनाओं को अधिक महत्व दिया है। ‘पल्लव’ की भूमिका से लेकर, ‘आधुनिक कवि’, ‘रश्मिबंध’, ‘चिदम्बरा’ आदि सारे कविता-संग्रहों संकलनों की भूमिकाओं में उनका दृष्टिकोण हमेशा व्याख्यात्मक, मूल्यपरक,  अध्ययनपरक और कविता और युग और इतिहास और कवि की अन्त संगति की एक खोज रहा है। यह यह द्रष्टव्य है कि पल्लव की भूमिका की मूल दृष्टि परिभाषात्मक न होकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अपनी कविता (और इस तरह सम्पूर्ण छायावादी कविता) की कलात्मक और वस्तुगत उपलब्धियों की अंत संगति की खोज है। इस सम्बन्ध में आगे कवि की विभिन्न काव्य दिशाओं पर विचार करते हुए हम विस्तार में जायेंगे। यहाँ केवल इतना ही कि छायावादी कविता के विश्लेषण में पन्तजी की दृष्टि कवितागत उपलब्धियों को परिभाषाओं की संकुचित सीमा में बाँधने और उसके बाहर पड़ने वाले प्रसंगों को नकारना नहीं रहा है।

‘निराला’ इस सम्बन्ध में बिलकुल तटस्थ या आत्मस्थ रहे हैं। ‘प्रबन्ध प्रतिमा’, ‘चाबुक’ या ‘चिन्तन’ के अधिकाश निबंध कविता की आंतरिक खोज और दूसरे कवियों के प्रसगों विवरणों से अधिक सम्बद्ध हैं उनकी व्याख्याएँ एक विशुद्ध कलावादी आलोचना या प्रभाववादी और विवरणात्मक विश्लेषण के अधिक निकट पड़ती हैं। वास्तविकता यह है कि पन्त और निराला दोनों ही छायावाद की तथा कथित भ्रांति-मूलक अवधारणाओं से अपने-अपने ढंग से प्रभावित या आतंकित नहीं हुए हैं। जहाँ पन्त कविता की गतिशील उपलब्धियों के प्रति सचेत हैं और उसकी प्रयोग धर्मिताओं की व्याख्या से कविता की भाव परिधि को बढ़ाते चलते हैं, वहाँ निराला अपने अन्दर और बाहर के अनेक कारणों और वैषम्यों से इस तरह के प्रयत्नों से अलग-थलग और तटस्थ है।


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