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मुक्ति यज्ञ

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1981
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3267
आईएसबीएन :0000

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स्वतंत्र्य-संग्राम से सम्बद्ध खण्ड-काव्य....

MUKTI YAGYA

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कवि-परिचय


श्री सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म सन् 1900 में कौसानी में हुआ।
दस साल की आयु तक उनका नाम गोसाईंदत्त था। महाकवि जन्म और उनकी मां की मृत्यु, ये दोनों घटनाएं साथ-साथ घटित हुईं। मातृ-विहीन, अत्यधिक दुर्बल बालक के दीर्घ जीवन की मनौती मनाते हुए उनके वात्सल्य-विमूढ़ पिता ने उन्हें एक गोस्वामी को अर्पित कर दिया, जिनके उनका नाम गोसाईंदत्त पड़ा। उनका बचपन कौसाकी में बीता। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं के वर्नाक्यूलर स्कूल में हुई। दस वर्ष की आयु में वे अल्मोड़ा गये। वहाँ के हाई स्कूल में नाम लिखाते समय उन्हें अपना नाम बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई। सर्टिफिकेट पर लिखे नाम को तत्काल चाकू से खुरदकर उन्होंने अपनी कल्पना के आदर्श पात्र सुमित्रा- नन्दन (लक्ष्मण) का नाम लिख दिया। तभी से उनका यही नाम चल रहा है। अल्मोड़ा से पन्तजी को उनकी शिक्षा के लिए काशी भेजा गया। वहाँ के जयनारायण हाईस्कूल से उन्होंने स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की और उनके बाद उच्चतर शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गये। सन् 1921 ई० में असहयोग आन्दोलन के कारण उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड दी।


काव्य-चेतना का प्रादुर्भाव और विकास



पन्त जी को कवि बनाने का सबसे अधिक श्रेय उनकी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर वे बड़े हुए है। बचपन से ही उनके संस्कार उन्हें कवि-कर्म की ओर प्रेरित कर रहे थे और उस प्रेरणा के विकास के लिए कौसानी के पर्वत–प्रदेश की प्राकृतिक शोभा ने आधारभूमि का निर्माण किया। वहीं की प्रकृति के बीच बडे़ होने के कारण प्रकृति-प्रेम पन्तजी के स्वभाव के अभिन्न अंग बन गये हैं। ‘मेरा रचनाकाल’ और ‘मैं और मेरी कला’ नामक निबन्धों में उन्होंने अपने कवि-जीवन की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है- ‘‘तब मैं छोटा-सा चंचल भावुक किशोर था, मेरा काव्य-कंठ अभी नहीं फूटा था, पर प्रकृति मुझ मातृहीन बालक को, कवि-जीवन के लिए मेरे बिना जाने ही जैसे तैयार करने लगी थी। पर्वत प्रदेश के उज्ज्वल चंचल सौन्दर्य ने मेरे जीवन के चारों ओर अपने नीरव सम्मोहन का जाल बुनना शुरू कर दिया था।’’

परन्तु, पन्तजी जीवन-भर केवल प्रकृति का आंचल पकड़कर उसी से मनुहारें नहीं करते रहे, हिन्दी कविता की विभिन्न प्रवृत्तियों के उत्थान-पतन के साथ वे प्रायः सभी में अपना योग देते। वर्गीकरण की सुविधा के लिए पन्त के सम्पूर्ण काव्य का विभाजन रूप-काव्य और विचार-काव्य नाम से किया जा सकता है। प्रथम वर्ग की मुख्य कृतियाँ हैं- ‘वीणा’ ‘ग्रन्थि’ और ‘पल्लव’। इन कृतियों में कवि की दृष्टि मुख्यतः रूपात्मक और कुछ अंशों में भावात्मक सौन्दर्य पर केन्द्रित है। ‘वीणा’ जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है, उनका दुधमुँहा प्रयास है। इन कविताओं में पन्तजी का किशोर मन उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रहा है। शान्तिप्रिय द्विवेदी के शब्दों में ‘वीणा’ में पन्तजी के ‘अविकच शैशव का अबोध जगत् है।’ वीणा की अधिकांश कविताएं भाव-प्रधान हैं। कल्पना की उड़ानें कहीं-कहीं बहुत ऊँची हैं। ‘ग्रन्थि’ वियोग-श्रृंगार की रचना है, जिसमें कथा केवल पृष्ठभूमि है और नायक के द्वारा नायक के द्वारा प्रथम पुरुष में कही गई है।

उनमें श्रृंगार के प्रमुख संचारी भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है जो ऐन्द्रियता से युक्त होते हुए भी संयत और परिष्कृत है, प्रकृति-प्रेम और प्रकृति-सौन्दर्य की अभिव्यंजना ‘पल्लव’ में अधिक प्रांजल और परिपक्व रूप में हुई है। ‘पल्लव’ की अनेक छोटी-बड़ी रचनाओं में पन्तजी ‘निर्द्वन्द्व प्रकृतिपुत्र’ हैं, उनकी दृष्टि प्रकृति के अंग-अंग से फूटती हुई शोभा पर टिकी हुई थी। परन्तु ‘पल्लव’ में संकलित ‘परिवर्तन’ कविता में उनके हृदय मंथन और बौद्धिक संघर्ष का प्रतिबिम्ब भी मिलता है। इस कविता में जीते हुए तथ्यों के प्रति उपेक्षा और आशोन्मुखी परिवर्तन के प्रति आग्रह विद्यामान है। यह कहना अनुचित न होगा कि रूप से विचार की ओर उड़ने की प्रकिया का आरम्भ इसी ‘परिवर्तन’ कविता से हुआ है। ‘गुंजन’ में पन्तजी का ध्यान फूलों, ओस की बिन्दुओं और निर्झर की कलकल से हट कर मानव की ओर गया है, परन्तु उसकी समस्याओं से उलझने की इच्छा उनमें नहीं जगी है। ‘युगान्तर’ उस सौन्दर्यभोगी कल्पना-पुत्र के अन्तर्द्वन्द्व की कविता है जिसे निरी कल्पना से अब सन्तोष नहीं मिलता, जो जीवन की समस्याओं पर सोचने को तैयार हो रहा है।


पन्तजी का विचारक रूप पहले–पहल उनके प्रतीक-रूपक ‘ज्योत्सना’ में दिखाई दिया था। ‘गुंजन’ की प्रारम्भिक कविताओं में भी कुछ विचार हैं परन्तु वहां कवि का ध्यान मुख्य रूप से कविता के रूप-पक्ष पर ही केन्द्रित है। पन्तजी ने पृथ्वी के त्रास की आवाज पहली बार ‘युगान्त’ में सुनी और उसके बाद ‘युगवाणी’ में इन समस्याओं के निदान और समाधान का कार्य आरम्भ हुआ। पन्तजी के विचार-विकास में दो मुख्य दर्शनों की प्रधानता है। वे दर्शन हैं मार्क्सवाद और अरविन्द दर्शन। ‘युगवाणी लिखने के समय तक पन्तजी’ अरविन्द दर्शन के सम्पर्क में नहीं आये थे, इसलिए उनका चिन्तन प्राचीन भारतीय दर्शन तथा मार्क्सवाद की पृष्ठ-भूमि में पल्वित हुआ।

‘युगवाणी’ और ग्राम्या’ में पूँजीपतियों की भर्त्सना तथा कृषक और श्रमजीवियों आदि की प्रशंसा की गई थी। उसमें मार्क्स का स्तवन और भौतिकवादी दर्शन का आंशिक स्वीकार भी था। यही कारण था कि  आलोचकों की ओर से घोषणा कर दी गई कि पन्तजी पूर्ण मार्क्सवादी हो गये हैं, लेकिन यदि हम ध्यान से देखें तो पता लग जाता है कि ‘युगवाणी’ में भी कवि की दृष्टि केवल भौतिकवाद को स्वीकार करके नहीं चली थी। उन्होंने ‘युगवाणी’ में ही यह समझ लिया था कि भौतिकवाद और अध्यात्मवाद एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह दोनों के बीच समन्वय स्थापित करे। केवल बहिर्जीवन के संगठन से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। संकीर्ण भौतिक-वाद पर उन्होंने ‘युगवाणी’ की अनेक रचनाओं में आपेक्ष किया है—


हाड़ मांस का आज बनाओगे तुम मनुज-समाज ?
हाथ पाँव संगठित चलाओगे जग-जीवन-काज ?


उनकी दृष्टि में भौतिकवाद आध्यात्मिक सिद्धि की प्राप्ति का साधन मात्र है—

 
भूतवाद उस धरा-स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
जहाँ आत्मदर्शन अनादि से समासीन अम्लान।


‘ग्राम्या की रचना के बाद पन्त जी का झुकाव अरविन्द दर्शन की ओर हुआ। ‘युगवाणी’ और ग्राम्या’ की रचनाओं में अध्यात्मवाद की सूक्ष्म रेखाएँ भौतिकता की व्यापक पृष्ठभूमि पर खींची गई थीं; अरविन्द दर्शन में उन्हें दोनों के संतुलित समन्वय का संकेत मिला और उसके प्रभाव के कारण पन्तजी ने जो काव्य-कृतियाँ लिखीं उनमें उनकी काव्य-चेतना का एक नया मोड़ आरम्भ होता है। यहां से ‘स्वर्णकिरण’ युग का आरम्भ होता है। इसे पन्तजी ने ‘चेतना काव्य’ का नाम दिया है। स्वर्णकिरण’ ‘स्वर्णधूलि’ उत्तरा ‘अतिमा’, ‘वाणी’ आदि इसी युग की कृतियाँ हैं। पन्तजी ने लिखा है कि ‘‘मैंने एक नवीन काव्य-संचरण में आदर्शवाद तथा वस्तुवाद के विरोधों को नवीन मानव-चेतना के समन्वय में ढालने का प्रयत्न किया है।’’
चेतना काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण और अन्तिम कड़ी है ‘लोकायतन’।

प्रस्तुत ‘मुक्तियज्ञ’ प्रसंग ‘लोकायतन’ का ही एक अंश है, परन्तु अंश होते हुए भी वह अपने आप में पूर्ण है। ‘लोकायतन’ एक लक्ष्य प्रधान भविष्योन्मुखी काव्य है। उसका काव्य ‘‘वाल्मीकि अथवा व्यास की तरह एक ऐसे युग शिखर पर खड़ा है जिसके निचले स्तरों में उद्वेलित मन का गर्जन टकरा रहा है और ऊपर का स्वर्ग प्रकाश, अमरों का संगीत और भावी का सौन्दर्य बरस रहा है।’’ उनके अपने शब्दों में ‘‘सांप्रतिक युग का मुख्य प्रश्न सामूहिक आत्मा का मनःसंगठन है, अतः आधुनिक मानव को अंतः शुद्धि के द्वारा अन्तर्जगत के नये संस्कारों को गढ़ना है।

सामाजिक स्तर पर आत्मा का यही संस्कार ‘लोकायतन’ का प्रतिपाद्य है।’’ वास्तव में पन्तजी ने आज की दुर्निवार स्थितियों में जबकि चारों ओर मूल्यों के विघटन, खंडित आस्था और आपाधापी की हलचल का बोलबाला है, ‘लोकायतन’ में आत्मा का एक अमर भवन स्थापित करने तथा सारी पृथ्वी को अन्तश्चैतन्य के रागात्मक वृत्त में बाँधने की कल्पना की है। पन्तजी की यह विश्वदृष्टि राष्ट्र और देश की सीमाओं को पार करती हुई गई है, इसलिए भारत के राजनीतिक आन्दोलनों और सामाजिक समस्याओं का चित्रण भी उनके लिए अनिवार्य हो गया है। ‘मुक्तियज्ञ’ लोकायतन का वही अंश है जिसमें भारत के स्वतन्त्रता का युद्ध आद्योपान्त वर्णन किया गया है। इसलिए ‘मुक्तियज्ञ’ को समझने के लिए इस युग की राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है।


‘मुक्तियज्ञ’ की पृष्ठभूमि



 ‘मुक्तियज्ञ’ में उस युग का इतिहास अंकित है जब भारत में एक हलचल मची हुई थी और सम्पूर्ण भारत में क्रांति की आग सुलग रही थी। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र के आतंक के अवसाद पर विजय पाकर जनता फिर नये युद्ध के लिए तैयार हो गयी थी। देश के युवक विशेष रूप से जागरुक हो गए थे। सारे देश में युवक समाजों की नींव पड़ी जिनमें देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रश्नों पर विचार होता था। इन्हीं के द्वारा जनता को सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे सेनानी मिले; सारे देश में सत्याग्रह, हड़ताल और बहिष्कार आन्दोलनों की बाढ़ आ गयी। किसानों और मजदूरों के जीवन में जागृति की एक नई लहर आ गयी। सरदार पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों ने भूमिकर से छूट पाने के लिए सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह किया।


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