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जीवन कथाएँ >> कस्तूरी कुण्डल बसै

कस्तूरी कुण्डल बसै

मैत्रेयी पुष्पा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :331
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3220
आईएसबीएन :9788126704217

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मुक्ति-संघर्ष की व्यक्तिगत कथाएँ

Kasturi Kundal Base

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हर आत्मकथा एक उपन्यास है और हर उपन्यास एक आत्मकथा। दोनों के बीच सामान्य सूत्र ‘फिक्शन’ है। इसी का सहारा लेकर दोनों अपने को अपने आप की कैद से निकालकर दूसरे के रुप में सामने खड़ा देते हैं। यानी दोनों ही कहीं न कहीं सर्जनात्मक कथा-गढ़न्त हैं। इधर उपन्यास की निवैयक्तिता और आत्मकथा की वैयक्तिकता मिलकर उपन्यासों का नया शिल्प रच रही हैं। आत्मकथाएँ व्यक्ति की स्फुटित चेतना का जायजा होती हैं, जबकि उपन्यास व्यवस्था से मुक्ति-संघर्ष की व्यक्तिगत कथाएँ। आत्मकथा पाए हुए विचार की या ‘सत्य के प्रयोग’ की सूची है और उपन्यास विचार का विस्तार और अन्वेषण।

जो तत्व किसी आत्मकथा को श्रेष्ठ बनाता है वह है उन अन्तरंग और लगभग अनछुए अकथनीय प्रसंगों का अन्वेषण और स्वीकृति जो व्यक्ति की कहानी को विश्वसनीय और आत्मीय बताते हैं। हिन्दी में जो गिनी-चुनी आत्मकथाएँ हैं, उनमें एक-आध को छोड़ दें तो ऐसी कोई नहीं है जिसकी तुलना मराठी या उर्दू की आत्मकथाओं से भी जा सके। इन्हें पढ़ते हुए कबीर की उक्ति ‘सीस उतारै भूंई धरै’ की याद आती है। यह साहसिक तत्त्व कस्तूरी कुंडल बसै में पहली बार दिखाई देता है।

‘चाक’, ‘इदन्नमम’ और ‘अतमा कबूतरी’ जैसे उपन्यासों की बहुपठित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की इस औपन्यासिक आत्मकथा के कुछ अंश यत्र-तत्र प्रकाशित होकर पहले ही खासे चर्चित हो चुके हैं; अब पुस्तक रुप में यह सम्पूर्ण कृति निश्चित ही हिन्दी के आत्मकथात्मक लेखन को एक नई दिशा और तेवर देगी।

 

इसे उपन्यास कहूँ या आपबीती...?

यही है हमारी कहानी। मेरी और मेरी माँ की कहानी। आपसी प्रेम, घृणा, लगाव और दुराव की अनुभूतियों से रची कथा में बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो मेरे जन्म के पहले ही घटित हो चुकी थीं, मगर उन बातों को टुकड़ों-टुकड़ों में माताजी ने जब-तब बता डाला, जब-जब उन्हें अपनी बेटी को स्त्री-जीवन के बारे में नए सिरे से समझाना पड़ा। अपनी बाल्यावस्था की बहुत सी घटनाएँ याद रही, बहुत सी विस्मृत हो गईं और बहुत सी ऐसी थीं, जिनका छोर तो अपने पास था, मगर वे किसी दिशा की ओर नहीं ले जाती थीं। कालान्तर में ऐसा भी हुआ कि सबकुछ अपनी आँखों के सामने घटित हुआ, लेकिन फिर भी क्रम टूटता था। जगह खाली रह जाती थी। वहाँ कल्पनाओं, अनुमानों से सूत्र जोड़ने पड़े। माँ भी पूरी तरह कहाँ खुलती थीं ? लेकिन उनकी बेटी उनका लगाव, गुस्सा, लाड़, अलगाव, ममता और निर्मोह हो जाने की एक-एक भंगिमा का बचपन में चित्र उतारती रही। हो सकता है, जो घटा हो, वह कहानी में न हो, और जो हो, वह जीवन में न घटा हो, मगर यादों में जो मुकम्मल तस्वीरें जिन्दा हैं, वे ही कहानी का आधार हैं, भले वे किसी और से सुनी हों, या अपने परिवार के बारे में किंवदन्तियाँ रही हों। मेरे लिए तो सबकुछ माँ के निकट से जानने की ही पीड़ा और प्रक्रिया रही और शायद इसीलिए मैं ठोस यथार्थ की तरह अपने तीखे-मीठे अनुभव लिखकर मुक्ति की आकांक्षा में माताजी रूपी संस्कार को अपने ‘सिस्टम’ से निकाल रही थी या कि अपने बाहर-भीतर को पछीटने-खँगालने पर तुली हुई इस कथा को लिख रही थी !

 

मैत्रेयी पुष्पा

 

रे मन जाह, जहाँ तोहि भावे

 

 

‘मैं ब्याह नहीं करूँगी।’
सोलह वर्षीय लड़की ने धीमे से कहा था, जिसे माँ ही सुन सके। कहाँ सोचा था कि उसकी यह बात आँगन के बीच ऐसे गूँजेगी कि घर की दीवारें हिलने लगें ! सब से पहले तो माँ ने ही भयभीत होकर देखा और नजरों से कहा-‘कस्तूरी, लड़कियों से ऐसे दुस्साहस की उम्मीद कौन कर सकता है ? वे तो माँ-बाप के सामने सिर उठाकर बात तक एक नहीं कर सकती, मरने का शाप हँस-हँसकर झेलती हैं और गालियाँ चुपचाप सहन करती हुई अपनी शील का परिचय देती हैं, तू मर्यादा तोड़ने पर आमादा क्यों हुई ?’

पीलिया के मरीज बड़े भाई ने सुना, उसका शरीर तो थरथराया, मगर मूँछें तन गईं। अभी तक कुँआरा है, बहन कुँआरी बैठी रही तो उसके ब्याह के बारे में कौन सोचेगा ? घर की इज्जत मेंटनेवाली बहन को, उसका वश चले तो खोदकर गाड़ दे। पीले रंग की आँखें लाल हो गईं। छोटे भाई ने सवाल किया-‘मेरी ससुराल के लोग क्या कहेंगे ? कैसे सामना करूँगा लोगों का, सोचते ही घबरा जाता हूँ।’

‘और बिरादरी ?’ जाति के नाम पर छोटे भाई ने दाँत पीसे। अपने परिवार की महिमा के चाँद में कलंकनुमा यह बहन...इसने ब्राह्मण परिवार के उपाध्याय गोत्र की सनाढ्य परम्परा मैली करने की ठानी है।
कस्तूरी, ढीठ किशोरी, माँ की आँखों में उठती प्रचंड आग की ओर से मुँह फेरकर खड़ी हो गई। भाई बलबलाते रहे, वह मूली उखाड़ने और गाय-भैसों को चारा डालने के लिए खेतों पर बनी झोंपड़ी की ओर निकल गई। मामूली सूरत की साँवली और दुबली-पतली लड़की को माँ और भाइयों के गुस्से का कारण समझ में नहीं आ रहा था, जिन्होंने यह नहीं पूछा कि ब्याह आखिर वह क्यों नहीं करना चाहती ? उसे इस बात का भी अचम्भा था कि घर में बरसों से दो वक्त चूल्हा नहीं जला, पर ये लोग ब्याह की दावत करने के लिए तैयार हैं ! वह खुद से पूछती-ब्याह क्यों होता है ? उत्तर एक नहीं, कई आते, जिनसे वह इतना घबरा जाती कि दोबारा ब्याह के बारे में सोचना नहीं चाहती थी। अत: बकोशिया ब्याह के लिए सहमति-असहमति भुलाकर वह दिन-भर बरहे में (खेतों पर) बछड़े-बछियों और उन चिड़िया-तोतों के साथ रहती थी, जिनके लिए ब्याह के झमेले न थे।
मगर ऐसे कितने दिन तक ?

घर के हर कोने से शोरगुल जाल की शक्ल में उठा। उसे बाँधने लगा। माँ सामने खड़ी हो गई, अग्निवाण हाथ में नहीं था, माँ की जीभ पर था, छोड़ दिया-‘तू अपने भाइयों को खेत की मूली समझ रही है ? सिर काटकर धर देंगे और मैं तुझे बचा नहीं पाऊँगी, नादान ! बाप नहीं है तो क्या तू आजाद हो गई ?

कस्तूरी अपनी छोटी-छोटी आंखों से घूरती रही मां को। न नजर नीची की, न टस-से-मस हुई। छोटी-छोटी चोटों के चलते जिस माँ का नाम लेकर रोती-कराहती रही है, वही आज उसके फैसले पर ऐसी बेजार कि कोसों दूर छिटक गई ! ऐसा कहना क्या इतना बड़ा जुर्म है ? ब्याह न करना लड़की का अपराध है ? उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि माँ और भाई इस भुखमरी के समय उसके ब्याह के जश्न की बात कैसे सोच सकते हैं ? क्या वे उससे ऐसे आजिज आ गए हैं ? जब कि वह खेतों में जी-तोड़ मेहनत करती है।

माँ की खाट से अपनी खाट दूर करके बिछा ली थी लड़की ने। पास लेटने-सोने का मतलब कि ब्याह के घेरे की कथा फिर से शुरू। उस घेरे को काटने के तर्क से बाज नहीं आएगी कस्तूरी। कलह होगी, मौहल्ला जागेगा।
माँ ही बेटी के पास पहुँची। उसकी खाट पर पायताने बैठ गई। सोती समझकर पाँव सहलाने लगी। माँ की यह सदा की आदत है, जब भी वह खेत में पानी लगाती है, या निराई-गुड़ाई करके लौटती है, रात को माँ इसी तरह आ बैठती है, खाट पर।

मगर आज कस्तूरी पागल की भाँति हड़बड़ाकर उठ बैठी। माँ का रवैया जो आजकल चल रहा था, उससे खफा, कठोर स्वर में बोली-‘तू मुझे फुसलाने आई है चाची या कटे पर नमक छिड़कने ? खूब काट-छील चुकी न ?’’
माँ दो पल चुप रही। कस्तूरी ने उसके हाथों के बीच से अपना पाँव खींच लिया था, अपमानित-सी हुई, मगर माँ के बड़प्पन और ममता से भरकर बोली-‘‘नहीं बेटा, मैं तो यह पूछने आई थी कि सारी उमर कुँआरी रहेगी, अकेली। तुझे डर नहीं लगता ?’’
-डर ! डर ही तो लगता है चाची । सच्ची, ब्याह से बड़ा डर रहता है।
-सो क्यों ?
-मुझ में सती होने की हिम्मत नहीं है। मुझे मरने से डर लगता है-कस्तूरी की आवाज उस बछिया की-सी हो गई, जो रम्भाते हुए माँ को पुकारती है।
-हाय बेटा ! तू कैसा असगुन सोच रही है ! तू सती क्यों होगी ? सौ-सौ बरस जिए तेरा सुहाग। तू काए को मरेगी, मरें तेरे बैरी।

-चाची, पति मरेगा तो सुहाग जिन्दा नहीं रहेगा और सुहाग मरेगा तो मुझे ही मरना पड़ेगा। तेरी असीस में इतना दम कहाँ कि मुझे बचा ले।
-पर तेरा पति मरेगा, ही काए को ?
-वह बूढ़ा है, बीमार है, कब तक जिएगा ? जो वर ढूँढ़ा है, मुझे पता चल गया है। और यह तू भी जानती है कि पति की चिता पर बैठकर जिन्दा जल मरने वाली औरत को लोग पूजते हैं। जिन्दा रही तो जीते-जी मार डालेंगे। चाची, मैंने रेशम कुँवर सती की किताब पढ़ी है।
माँ चौकी-‘‘किताब पढ़ी है ?’’

अनर्थ क्यों हो रहा है, सूत्र माँ के हाथ आ गया। इस बार उसका स्वर धीमा, मगर इतना तीखा और नोंकदार था कि कस्तूरी बिलबिला जाए-‘‘तो तू पोथी-पत्तरा पढ़कर बरबाद हुई है ? हाय कुभागी तू होते ही न मर गई ! मैं तो सोच रही थी रामश्री की अम्मा मेरी छोरी के दूत कर रही हैं-कि कस्तूरी की चाची अपनी लड़िकिनी के लाच्छिन सुधारो। मैं तो खुद ही भोगे बैठी हूँ, तीसरे दिन रामश्री की चिट्ठी आ जाती है। डाकिया देखते ही मुझे जूड़ी का जुर चढ़ जाता है कि चिट्ठी नहीं आई, बेटी का दुख-दर्द चलकर आ गया।’’
माँ ने गुस्से में कस्तूरी की पीठ को धाँय-धाँय कूटा, बाद में अपनी छाती पीटी और दाँत घिस-घिसकर गालियाँ दी-‘‘मेरी सौत, तू खानदान की जड़ में दीमक, हम सब का सफाया कर देगी। हरजाई, कौन सा यार तुझे ब्याह होकर विदा होने से रोक रहा है ?’’

माँ जल्दी ही अपनी जुबान पर काबू न कर लेती तो हो सकता है भीतर का सारा ताप गला फाड़कर निकलने लगता, लोग सुनते और पूछते तो किस मुँह से बताया जाता कि जो गाँवों में अब तक नहीं हुआ, वह अनर्थ उनके घर होने जा रहा है। बताकर कहाँ रहा जाता ? बरहे में सारा घर कब तक मुँह बाँधे पड़ा रहता ? गाँव की लीक से हटना-गाँव समाज से बेदखल होना है, यह बात कस्तूरी नहीं जानती तब क्या अनुभवी माँ भी नहीं समझती ?
अब सवाल-जवाब कुछ भी नहीं...। होंठ भींचकर माँ रोने लगी। भीतर से टीसें उठतीं, आँसू बहते और होंठ बेकाबू से बुदबुदाते-‘‘अब इस कुल का क्या होगा ? आदमी भागा नहीं, हमें मार गया। गोरों के बूटों के आगे हमें पटक गया। जमींदार का कोड़ा लडकों पर बरसेगा। ये दोनों भी डर गए तो ?’’
-क्या कह रही है तू ?-कस्तूरी ने झुँझलाकर पूछा।
-तू सुनेगी, कहूँ ? पर तू ज्वानी में गर्रा रही है, तुझे हमारी विपदा से क्या लेना ?
कहकर माँ उठ खड़ी हुई तो खाट मचमचा उठी।

चलते-चलते सुना दिया माँ ने-‘‘बड़ा पीलिया का मरीज है, सब जानते हैं, पर ब्याह हो जाता तो सहारा पा जाता...पर तू अड़ियल छोरी ! आज को तेरी जगह मेरी रज्जो (बड़ी बेटी) होती तो गाय की तरह, जहाँ हम कहते, चल देती। तू तो आदमी के बुढ़ापे और बीमारी से बिदक रही है, यह नहीं पता कि तेरा बाप मुझे जवानी में ही छोड़कर भाग गया। गोरों की मार बुढा़पे और बीमारी से बड़ी है, तेरे भइया भी डर के मारे भाग जाएँगे। तू यहाँ चौंतरा करके बैठी रहना, यही चाहती है नठिया (नाँठ करने वाली) ?’’ आखिरी वाक्य कहकर माँ ने धम्म से पाँव पटका जैसे कस्तूरी को कुचल डालना चाहती हो।

मां कुछ भी कहे, कस्तूरी को पढ़ना अच्छा लगता है।
कलम, खड़िया, तख्ती और पोथी की फिराक में वह दिन-भर घूमा करती है, जिसके कारण घर और खेत के कामों में लापरवाही हो जाती है और वह भाई की फटकार के बाद माँ की मार खाना मंजूर कर लेती है। पढ़ाई के कलम-खड़िया जैसे साधन-प्राप्त करना कस्तूरी जैसी लड़की के न भाग्य में है, न बस में। उसने धरती की नरम रेत को तख्ती माना है। उँगली ही कलम बना ली। अपनी सहेली रामश्री को गुरु समझा है। उसी का लिखा एक कागज दीक्षा में ले आई। कागज पर ओलम लिखी है। ओलम के अक्षर जोड़कर मात्रा मिलाकर शब्द बनाना सीखने लगी। माँ से चुप्पे-चोरी वह किताब पढ़ने की विद्या तक आनेवाली थी कि रामश्री का ब्याह हो गया, वह ससुराल चली गई। ब्याह होने का सबसे बड़ा नुकसान उसे रामश्री को खोने के रूप में हुआ था। यह अलग बात है कि रामश्री की चिट्ठी जब भी आती है, उसकी अम्मा कस्तूरी को ही पढ़ने के लिए बुलाती है। चाची से कुछ भी कहे रामश्री की अम्मा, मगर चिट्ठी पढ़ती हुई कस्तूरी को वह अपनी बेटी रामश्री की तरह ही देखती है। रोती है तो उसी के कन्धे पर हथेली धर लेती है। कस्तूरी समझ लेती है, बहुत घबरा रही है रामश्री की अम्मा।

सो कस्तूरी नाम की लड़की ने कभी इस बात का मलाल नहीं किया कि उसके पास खड़िया, तख्ती और कलम नहीं है। दूसरी बात यह थी कि वह जान गई थी-इस गृहस्थी में खर्चा का अंत नहीं। हर दम न कपड़े-लत्ते पूरे हों, न मिर्च-मसाले ठीक से जुटें। ऊपर से छोटे भइया की बहू के नेगचार दम नहीं लेते। चाची और भाई हलकान रहते हैं। चाची को लगान चुकाने की जूड़ी बारहों मास चढ़ी रहती है।
सबसे बड़ा और कड़ियल खर्चा-सरकारी लगान है, कस्तूरी क्या जानती नहीं, इसी के कारण बाप भागे, इसी के कारण भाई भाग जाने की हालत में हैं। चाची कहती है-सुरसा मुख लगान ! जितनी जमीन नहीं, उतनी रकम। गोरे अँधेर करें तो सूरज भी डर के मारे छिपा रहे। इस धरती पर राज उनका है, आसमान के देवताओं को भी पीट-पीटकर मार डालने की कूवत रखते हैं गोरे लोग।

कस्तूरी जानती है कि माँ के प्राण इसी बात को लेकर हाहाकार कर रहे हैं, पर कहे किससे ? बाँटे किससे ? यहाँ सभी की हालत एक-सी है-काशीफल उबालकर खा लो, कुलफा रांधकर पेट भरो। आम की गुठली खाओ, क्योंकि आम का गूदा जमींदार के यहाँ इकट्ठा होता है। बहेरा और कोदो के सिवा अन्न जैसी चीज नहीं।
माँ कहती है, साग-पात से पेट भरकर भी इस बात को वह भूल नहीं सकती, पर रात के अँधियारे-सी घिरती आती इस लड़की की जवानी, बेटो की राह में अँधेरा करनेवाली है, भूख-प्यास भुला डालती है ? रीता कलेजा चटकने लगता है। भगवन्, क्यों जन्म देता है लड़कियों को ? लोग कहते हैं लड़कियाँ पापों का फल होती हैं, वे फल विषफल भी हों तो आदमी क्या करें ? बेटी रूपी दुश्मन को कोसते रहो, धिक्कारते रहो, छुटकारा नहीं मिलनेवाला। माँ सिसक-सिसककर रोई थी।
रोकर हलकी हुई कस्तूरी की चाची (माँ) चुपके से बेटों के पास गई थी, जगह तलाशी, जो न घर थी, न बरहे में। कस्तूरी की पहुंच से दूर एक घेर में।

लेकिन कस्तूरी भी ऐसी मिट्टी की नहीं बनी कि कोई रूँध ले।
माँ के सामने आकर खड़ी हो गई और दोनों बाँहें फैलाकर रास्ता रोक लिया-‘‘क्या कह रही थी चाची ? इस लड़की का ब्याह इस तरह तय करो कि भनक न लगे ? ब्याह हुए पीछे कौन चूँ-चपड़ कर सकती है ? चुटिया पकड़नेवाला पाँच हाथ का आदमी काबू में रखता है।’’
बेटी की बात सुनी तो माँ थरथरा गई, ऐसे देखा, जैसे कह रही हो-हाय बीजुरी, तू वहाँ थी ? मां का कलेजा कब छोड़ेगी ? पर माँ ने उस समय बेटी के गोड़ गह लिये थे, हाहा खाई। बिनती की कि ब्याह तेरे बुरे के लिए नहीं, भले कि लिए होगा।
वज्र के मानिन्द कस्तूरी। उसकी माता ने गले में कौर उतार सके, न चैन की नींद सो सके। कस्तूरी देखती कि चाची रात में उठी बैठी है। आँगन और दालान में चमगादड़-सी फेरी खा रही है।

लड़के बिगड़े बछड़ों-से छिटकने के लिए तैयार। छोटा अपनी बहू को मायके छोड़ आया है, क्योंकि लगान की वसूली के लिए कारिन्दे आनेवाले हैं। और नकटी लड़की ने संग नहीं दिया तो बदले की सजा माँ को आसानी से दी जा सकती है। तभी तो माँ गुहार उठी, पास आकर-‘‘कस्तूरी, जिसकी बेटी कुँआरी रहती है, उसकी सात पीढ़ियाँ गल जाती हैं, समझ ले।’’
मगर लड़की बहरी हो गई।

कलह और बढ़ी, क्योंकि कुर्की का ऐलान हुआ। लगान देना किसके बस की बात है और कुर्की के लिए जिन्दगी हाजिर है, जैसी अवस्था सामने थी। माँ ने गालियों की आँधी बेटी की ओर छोड़ दी-‘‘यह सतमासी तब जनमी थी, जब बड़ा बेटा मरा था। सत्यानाशिनी का जन्म ही जंजाल की तरह आया। पेट में माँ ने पसेरी मार ली थी, वह फिर भी नहीं मरी। पैदा होते ही भंगिन से फिंकवाई जा रही थी कि अभागी रो पड़ी।’’ माँ का मानना है कि संसार में औरत के मुकाबले कोई सख्तजान नहीं। बेटों को रोग-धोग व्यापे, इसे कभी छींक तक न आई। अरे...गाय मरे अभागे की, बेटी मरे सुभागे की। मगर बेटी मरे तो सही।

असल मामले की धुरी हिल गई तब जब साफ हो गया कि अब कस्तूरी को देकर बदले में बड़े को भँवराया नहीं जा सकता। यह लड़की उस आदमी से ब्याह करने के बदले कहीं भाग जाएगी, जिसने अपनी बहन बड़े को देने के लिए कहा है और बदले में इसे माँगा है। आगे समस्या यह भी है कि इसको घर से कौन विदा कर ले जाएगा ? ‘ब्याह नहीं करेगी’ का ऐलान करके यह किसी सपनों के राजकुमार की ख्वाइश कर रही है क्या ? राजकुमार तो खैर सपने में ही होता है, मेल का किसान लड़का भी मिलेगा ? मिलेगा तो ब्याह का खर्च कैसे उठेगा ?

कस्तूरी क्या जानती नहीं, मां की चिन्ताएँ हजार हैं, और गाँव में बद्री बनिया के सिवा गाँठ का पूरा कोई नहीं। इस गाँव से उस गाँव तक के अनेक गाँवों तक साहूकार और जमींदार की हैसियत ही आदमियों जैसी है, बाकी तो सब सूद और लगान की एवज मुफ्त है-भाई कहते हैं। साथ ही, लड़की की देह का भराव देखकर माँ का मन सूखे डंठल-सा काँपता है तो रोगी भाई का चेहरा हल्दी की गांठ-सा सिकुड़कर छोटा हो गया है और आँखों में पीली आँधी-सी उठती है, जो कहती है-कमबख्त लड़की, तुझे लड़कियों की तरह भाई का दुख भी नहीं सालता ? बहनें भाइयों के लिए कहां-कहाँ से नहीं गुजर जातीं।–धिक्कार के तूफान में घिरी है कस्तूरी।

 

अँगरेजों का हुक्म ! कुर्कियों का जलजला।

 

 

गाँवों में हाहाकार मच गया। माना कि हाहाकार नया नहीं, मगर चोटें नए सिरे से पड़ती हैं। यातना देने के नए-नए ढंग गोरों ने खोज निकाले हैं, जैसे वे लगान लेने के बहाने आदमी को सजा देने में आनन्द पाते हों कि उनके आतंक का साम्राज्य जमा रहे तो अँगरेजी सत्ता को कौन उखाड़ सकता है ? बस हुकूमत ने दंड देने के लिए गली-गली पिटाईखाने खोल दिए और ढोर-डंगर, कपड़ों के साथ गृहस्थी के बर्तन, भाँड़े, डाकुओं की तरह लूट लिये। आदमी की तह-परतें उधेड़ डाली, मगर सोने-चांदी का कील काँटा नहीं मिला।

जमींदार कहने के लिए अपना है, क्योंकि रंगरूप से अपना जैसा है, मगर मातहत तो गोरों का है। किसी कुर्की-नीलामी से लगान की भरपाई न हो तो किसानों को पिटवाने में जुटकर अपनी जमींदारी बरकरार रखता है, क्योंकि जानता है, अपनों पर जुल्म करने की एवजी में तरक्की और इनाम-खिताब मिलने की सम्भावना रहती है। अगर जालिम नहीं बन पाएगा तो जमींदार किस बात का ? हक छीन लिया जाएगा। सो डर और असुरक्षा लगातार खूँखारी की ओर ढकेलते जाते हैं। आज किसानों के कपड़े उतरवा लेने के बाद खाल उधेड़ने का हुक्म हुआ है।

कस्तूरी ने ये सारी बातें चबूतरे पर बैठे, चिन्ता में डूबे हुए, भयभीत लोगों के मुँह से सुनीं तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। कलेजे पर बड़े भाई की छवि उतर आई जिसका नाम नन्दन लाल वल्द ज्वाला प्रसाद उसी सूची में शामिल था और यह तय था कि लिखे नामोंवाले व्यक्तियों के साथ खून की होली खेली जानी है, उनके ही खून से।

किशोरी लड़की का साँवला चेहरा काला-सा पड़ गया। होंठ खुल आए। आँखों में अँधेरे का रेत भरा हो जैसे। वह लम्बी-लम्बी उसाँसे लेती हुई माँ को सिर्फ महसूस कर रही थी, देख नहीं पा रही थी। उसने ताकत लगाकर, लगभग आँखें, फाड़कर देखा-माँ का यह रूप...? उसने माँ के अनेक रूप देखे हैं-रोते-घबराते, चीखते-चिल्लाते, भीख-माँगते, रिरिआते, लेकिन आज इनमें से कुछ नहीं, माँ का चेहरा आग की तरह गनगना रहा है। अँगार गर्दन पर सँभाले दुबली-पतली मझोले कद की माँ अपना जर्जर लहँगा समेटती हुई और ओढ़नी सीने पर ढँकती हुई कभी इधर भागती है, कभी उधर। मौहल्ले की सारी औरतें ज्यों जौहर के लिए तैयार हो रही हों, भाग-भागकर पौर में जुटने लगीं।

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