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कविता संग्रह >> मिट्टी की बारात

मिट्टी की बारात

शिवमंगल सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3156
आईएसबीएन :81-7178-932-3

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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ‘मिट्टी की बारात’ हिन्दी के ओजस्वी कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन का सातवाँ कविता संग्रह

Mitti ki barat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वर्ष 1974 के साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित मिट्टी की बारात हिन्दी के ओजस्वी कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन का सातवाँ कविता संग्रह है, सूरज के सातवें घोड़े की तरह। इसमें सन् 1961 से 1970 की अधिकांश रचनाएँ संग्रहित हैं जो इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि प्रशासन की एकरसता के बावजूद सुमन जी अपने रचनाकार का धर्म पूरी मुस्तैदी से निबाहते रहे हैं।

मैं और किसी से नहीं, स्वयं से वंचित हूँ
तुम कहाँ सम्हालोगे मेरी बिखरती थाती;
मेरी समाधि पर तुम क्या दीप जलाओगे
यदि जीवित ही बन सका न मैं जलती बाती !


यह संग्रह की भानुमती का पिटारा है, तरह-तरह की शक्लें, किसिम-किसिम के करिश्मे। पेट पालने के लिए हर जादूगर को ये दाँव आजमाने पड़ते हैं।
साहित्य का पेट सामान्य से कुछ बड़ा होता है, बेतुका भी। एक बार बिखर जाने पर स्वयं को समेट सकना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है, पर मैं तो


‘‘जनम शंभु हित हारा। को गुन अवगुन करै बिचारा।।’’


प्रतिबद्धता से कैसे बच पाऊँगा, उसी के बल पर तो साहित्यिक रंगरूटों की भरती में कभी अपना नाम दर्ज कराया था। पचास पार करते-करते यह अवश्य सीख गया कि बहुत-से आंदोलन फैशन के लिए होते हैं, ड्रेन ट्राउजर की तरह। बच्चन ने बहुत गलत तो नहीं कहा कि ‘राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला।’ राह कभी एक-सी तो होती नहीं अतएव जैसे-जैसे वह बदलती जाए वैसे-वैसे पथिक को भी हवा-पानी-धूप के अनुकूल स्वयं को ढालते रहना चाहिए। यों मंजिल पा सकना भी उतनी ही बड़ी ऊब या बोरियत होती होगी, जितनी देवताओं की अमरता। जन्म मरण के चक्कर से छूट सकना कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। कभी जीने और कभी मरने में ही सच्चा मजा है।

शाश्वत शांति के भ्रम में गिने-चुने जीवंत क्षणों को गुमाने की बेवकूफी करने वाले मरने के बाद भी पछताते होंगे। यह सच है कि ज़माना जटिलतर होता जा रहा है। देखते-देखते दिक्युग आ गया। अभी तो कविता के आयाम ही बदले हैं, अब कवि के आयाम भी बदलेंगे। सौरमंडल की विजय के साथ-साथ सर्जक को नयी बारह खड़ी सीखनी होगी। मिट्टी की बारात में मैंने जीवन की इस विराटता को जड़-चेतन के सूक्ष्म संबंधों द्वारा पकड़ने का यत्न किया है, पर जैसे उसकी अवचेतना हाथ में आते-आते रह गई। लुका-छिपी का यह खेल भी बुरा नहीं है, इस संधान से नये संदर्भों का जन्म होगा। नया यथार्थ अपने-अपने ढंग से ही समझा जा सकता है, उसकी कोई सार्वभौमिक और सार्वकालिक परिभाषा नहीं हो सकती। गरीबी-बेकारी दूर न होगी तो साहित्य और कला के आयामों का संवेदन व्यापक कैसे बन पायेगा, नये आकाश को आलिंगन करने की विह्वलता न होगी तो यथार्थ अपने हाथ-पैर कहाँ पसारेगा, क्योंकि अब धरती में स्थान कम होता जा रहा है। ज्वलंत सत्य आज कवि-कल्पना से बाजी मार ले गया है, इसीलिए अब साहित्य कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर नहीं लिखा जा सकता। मित्रों के दुराग्रह और प्रकाशकों के पुराग्रह का अहसान मानता हूँ।

शिवमंगलसिंह ‘सुमन’

इनको चूमो



कीचड़-कालिख से सने हाथ
इनको चूमो
सौ कामिनियों के लोल कपोलों से बढ़कर
जिसने चूमा दुनिया को अन्न खिलाया है
आतप-वर्षा-पाले से सदा बचाया है।

श्रम-सीकर से लथपथ चेहरे
इनको चूमो
गंगा-जमुना की लोल-लहरियों से बढ़कर
माँ-बहनों की लज्जा जिनके बल पर रक्षित
बुन चीर द्रौपदी का हर बार बढाया है।

कुश-कंटक से क्षत-विक्षत पग
इनको चूमो
जो लक्ष्मी-ललित क्षीर-सिंधु के
चर्चित चरणों से बढ़कर
जिनका अपराजित शौर्य
धवल हिम-शिखरों पर महिमा-मण्डित
मानवता का वर्चस्व सौरमण्डल स्पंदित कर आया है।


आषाढ़ का पहला दिवस



करता विवश
उमड़ी घटा को देखकर
चूमूँ लहराते केश को
पी लूँ तपन, सीझूँ सपन
गदरा उठूँ
इतरा उठूँ
पातीम्बरी आकाश में
उलझी हुई
नीलाम्बरी के छोर-सा,
टपकूँ निबौरी-सा निपट
थिरकूँ विसुध वन-मोर-सा,
बौछार के उल्लास में
सोंधी धारा की गंध को
पी लूँ तृषित गजराज-सा
झूमूँ सहज
हर सल्लकी औ’ शाल की
मदविह्वला नत डाल पर
निर्व्याज-सा
झपटूँ शिकारी बाज बन
जर्जर व्यवस्था के जलपते गिद्ध पर
कर विद्ध ख़ूनी चंचु
पंजे तोड़ पैने
जीर्ण डैने ध्वस्त कर
दूँ मुक्त कर आकाश
हंसों औ’ बगुलियों के लिए
नवगर्भ-धारण के
अमित आयाम में,
गोरी छलकती
रस-कलश में भीजती
बिछुए बजाती झींगुरों के
चल पड़े उस गौल पर
जिसकी हुमसती आटहों में
धुकधुकी साधे
कहीं दुबकी खड़ी हो
नटखटी गोपाल की,
हर प्रात में
गोपाल से पहले उठे
हलधर हठी
जोते धरा की पीर को
उस नीर के आह्वान में
जो लहलहाए
लू-लपट में झुलसते इन्सान को
चूनर उड़ाती, खिलखिलाती
झूमती फसलें
छितिज के छोर से
उठती दिखतें
लूटती दिखें बौछार के हर तार में
द्यावा-धरा की प्रीति की
घुमड़न समेटे स्रोत-सा
अल्हड़ छयल
उद्ग्रीव कजरारे दृगों को चूमता
बरबस बढ़ जाता हवस



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