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इस गुब्बारे की छाया में

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3142
आईएसबीएन :81-7055-180-3

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यहाँ जो भी रचनाएँ संकलित हैं वे पहले अन्य किसी संग्रह में प्रकाशित नहीं की गयी हैं।

Is Gubare Ki Chhaya Main

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यहाँ जो भी रचनाएँ संकलित हैं वे पहले अन्य किसी संग्रह में प्रकाशित नहीं की गयी हैं। सुविधा के लिए रचनाओं के साथ उनका लेखन वर्ष भी दे दिया गया है।
सन् 1974 में ‘युगधारा’ और ‘सतरंगे पंखों वाली’ की अधिकांश रचनाओं के साथ आठ नयी रचनाओं (‘मंत्र’, ‘तर्पण’, ‘राजकमल चौधरी’,‘वह कौन था’, ‘दूर बसे उन नक्षत्रों पर’, ‘देवी लिबर्टी’, ‘तालाब की मछलियाँ, ’और ‘जयति जयति जय सर्व मंगला’) को मिलाकार ‘तालाब की मछिलायाँ’ नामक संग्रह आया था। वह संग्रह दस-बारह वर्षों से उपलब्ध नहीं है। गत चार-पाँच वर्षों से ‘युगधारा’ और ‘सतरंगे पंखों वाली’ दोनों संग्रह अपने-अपने मूल रूप में उपलब्ध हैं। अतः उन आठों रचनाओं को किसी न किसी संग्रह में आ जाना चाहिए था। उसी क्रम में उन रचनाओं में से चार इस संग्रह में लिए जा रहे हैं।
‘रामराज’ की बहुचर्चित कविता है। लेकिन अब तक पूरी कविता मिल नहीं पायी है। इसके मात्र दस टुकड़े ‘हंस’ के जून 1949 के अंक में छपे थे—जो अपूर्ण हैं। ‘हंस’ के अगले अंकों में कविता का शेष अंश नहीं है। सम्भव है कि किसी और पत्रिका में हो—जहाँ तक हमारी पहुँच नहीं हो पायी है अब तक।
बहुत प्रयास के बाद भी पाठान्तर और पाठशोध की सम्भावना बनी हुई है—यह हमारी लाचारी है।

महादैत्य का दुःस्वप्न

अकस्मात—
अजीब-सी रासायनिक दुर्गन्ध
पूस की ठिठुरन वाली उस हवा में महसूस हुई
भेड़िये की विष्टा से मिलती हुई दुर्गन्ध
बनैले सूअर की गू से मिलती हुई दुर्गन्ध
छेद कर नासा-रन्ध्र कर दिया उद्विग्न मन को, प्राणों को
‘‘क्या है यह ?’’—विचलित हो उठे अन्तःकरण मेरे
‘‘क्या है यह ?’’—छत पर निकलकर लगाऊँ पता
आवाज दूँ पड़ोसियों को—‘‘क्या है यह ?’’
‘‘आ रही है किधर से ऐसी अजीब बद-बू ?’’

तेरहवीं रात थी पूस के उजाले पाख की
कोहरे में धुली-धुली चाँदनी फैली थी
चमक रही थीं छतें ही छतें
लेटा था शीतकाल उझली-सी धुली-छतों पर
चमक रहा था महागगन महानगर का
भारी-भारी जहाज से खड़े थे महा-प्रासाद
बीस मंजिला-तीस मंजिला-चालीस मंजिला
उनका विद्युत-श्रृंगार कर रहा था उपहास
चाँदनी गरीबिन का...कोहरे की मारी हुई

बिल्ली-सी अति चौकस
चुपचाप, पैर मारकर
पहुँचा छत पर,
बैठा, दुबककर
फुला-फुलाकर नथने
लेने लगा गंध का अंदाज
देखने लगा खुली आँखों से आस...पास...
सोचा और फिर-फिर सोचा :
मात्र मुझको ही महसूस हो रही है
यह विकट दुर्गन्ध
धोखा तो नहीं खा गई मेरी घ्राण चेतना !
और कहाँ कोई दिखाई पड़ रहा है छतों पर इधर-उधर !
अब इत्ती रात गए, मैं किस-किससे मालूम करता फिरूँ
‘‘क्यों, भाई, तुमको भी हवा में कुछ महसूस हो रही है
यही, कोई खास किस्म की स्मेल !
यही, कोई खास किस्म की गंध !
अच्छी-बुरी कोई बास !
दुर्गन्ध या सुगन्ध !’’
कि इतने में
दुर्गन्ध का वो लहरा निकल गया दूर
सहज हुई हवा
स्वच्छ लगने लगा वातावरण
--ऐसा स्वच्छ कि मुझको लगा...
दुर्गन्ध-फुर्गन्ध कुछ नहीं थी
वो तो अपने चित्त का भ्रम था !

नृत्यरत पिशाच का चटख-विकराल मुखौटा
होता गया और चटख और भी विकराल
आकार बढ़ता गया उसका
दुगुना-चौगुना-अठगुना, दसगुना
नृत्यरत पिशाच की बेडौल वीभत्स काया
आकार में बढ़ती गई
दुगुनी-चौगुनी-अठगुनी, दसगुनी....
छतों पर सरकने लगी क्रमशः
किंभूत-किमाकार उस पिशाच को
काली डरावनी छाया...
जंगम आतंक के स्थूलायत सुदीर्घ
पैरों की भद्दी छायाऽऽकृति
मजे में लग गई टहलने-बुलने

फलाँगती आई इस छत पर, उस छत पर
वो देखो, वो देखो !
भारी-भारी जहाज-से खड़े महा-प्रासाद
नृत्यरत पिशाच की जांघों के अन्तराल में
लगते हैं कैसे ! कैसे लगते हैं !....
कोई ढीठ बालक, दुर्दान्त प्रकृति शिशु
स्वनिर्मित क्रीड़ा भवनों को
लेकर अपनी जांघों के अन्दर
खड़ा है, खड़ा है
चल रहा है, चल रहा है
बाकी और बालक चकित हैं, विस्मय-विमोहित
‘‘क्या यह वही साथी है उनका !
जाने कैसी लीला रच रहा है !
क्यों आतंकित कर रहा है इस प्रकार सबको !’’
क्या पता, हमारे ही साथ का कोई व्यक्ति
जाड़े के निभृत-निशीथ में
कर रहा हो अभ्यास दानवी माया का
क्या पता, हमारे ही बीच का कोई एक
चुपचाप सीख रहा हो पिशाच-नृत्य का पाठ !

 

1984

 

 

इस गुब्बारे की छाया में

 

‘‘सारी रात रही मैं बैठी
कसम खुदा की, शपथ राम की
सारी रात रही हूँ बैठी
मेरे इस अभिनव प्रिय शिशु का
माथा गुब्बारे-सा फूला
ओह, फूलता चला गया है
अभी और भी फूलेगा क्या ?
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
ठीक-ठाक है
गर्दन-कंधे
बाँह-बूँह भी ठीक-ठाक हैं
लेकिन देखो, सिर कैसा है
भारी-भड़कम गुब्बारे-सा
दीख रहा है
जाने क्या तो रोग ढुक गया
पैदा होते ही यह बबुआ
भद्दा-भद्दा लगा दीखने
डाक्टर साहा, बतलाओ जी
अभी और कितना फूलेगा
मेरे बबुआजी का माथा ?
हाय राम, यह—
कैसा तो भद्दा दिखता है !
जाने अब इसकी किस्मत में
विधना फिर से क्या लिखता है !
डाक्टर साहा,
इसका माथा छोटा कर दो
पैर पड़ूँ हूँ
सही शकल में ला दो इसको
जो-कुछ मेरे पास धरा है
दे डालूँगी सारा ही कुछ
हाँ, हाँ सारा सरबस दूँगी
माथा इसका छोटा कर दो
जाने क्या तो रोग ढुक गया !
जी, पैदा होते ही इसमें !’’

डाक्टर उवाच—
‘‘सुन री माई, सुन री माई
यह प्रचण्ड बहुमत ही सचमुच
तेरे शिशु का महारोग है
ये ही इसको ले डूबेगा
नहीं काम का रहने देगा
यह प्रचण्ड बहुमत ही
--इसको ले डूबेगा
यही गले का ढोल बनेगा
इस गुब्बारे की छाया में
तस्कर-मेला जमा करेगा
मतपत्रों का यह अति-वर्षण
प्रजातन्त्र की पीर हरेगा
कौन करेगा, कौन भरेगा
अगला युग ही बतलायेगा
सच बतला बबुआ की माई
हालीवुड का नाम सुना क्या ?
अमिताभों का मक्का है वो
वो सुनील दत्तों का काबा
अरी वही वैकुंठ-लोक है
निखिल
भुवनमोहिनी फिलिम-सुन्दरी
हालीवुड का देखे सपना
हम क्या बोलें कैसा भी हो
जी, बच्चन तो ठहरा अपना
धन्य हो गईं गंगा-यमुना
धन्य हुए अक्षयवट-संगम
तीस साल पर वहाँ जमा फिर रंगारंगम्’’

‘‘डाक्टर साहब, इसका मत्था छोटा कर दो
अभी चार दिन नहीं हुए हैं
जाने कैसा रोग ढक गया
यह क्या तो माथा लगता है
यह क्या तो सिर-सा दिखता है
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
गर्दन-कंधे भी जँचते हैं
लेकिन देखो डाक्टर साहब
माथा कैसा भद्दा लगता है
देखा नहीं जा रहा सचमुच
क्या तो गड़बड़ घटी ‘गरभ’ में
रोग भर गए माथे में ही
जाने यह कैसा था, क्या था
पुरुब जनम में जाने कैसा पाप किया था !
पानी भरा अभी से सिर में
इसमें से पानी निकाल दो
डाक्टर, यह भद्दा दिखता है
देखा नहीं जा रहा हमसे
तुम यह मत्था छोटा कर दो
इन्जक्शन दो, सुई लगाओ
जैसे भी हो, इसका माथा छोटा कर दो’’

‘‘नहीं, नहीं, री माई यह तो
ठीक न होगा, ठीक न होगा
गुब्बारे-सा फूला-फूला
यह आगे भी दिखा करेगा
खुद ही यह अपने लिलार में
अपनी किस्मत लिखा करेगा
लम्बा-लम्बा भाषण देना भी सीखेगा
शा शाहों के लिबास में भी दीखेगा
बुद्धू होगा, साथी इसमें अकल भरेंगे
कुछ तो इसकी नकल करेंगे...’’

रोती-रोती
माई लेकिन रही बोलती
रही पूछती डाक्टर से वो...
‘‘लेकिन
गुब्बारे-सा भारी-भड़कम यह माथा
ऐसा ही क्या रह जाएगा ?’’
‘‘शुकुर मनाओ,
इसका बढ़ना यहीं रुक गया !
बंग और तैलंग हवा कुछ और लगे तो
दम न घुटेगा
साँस खुली की खुली रहेगी
शुकुर मनाओ
माता जी तुम शुकुर मनाओ
जान बची तो लाखों पाए
फिर तो क्यों कोई घबराए
शुकुर मनाओ, माता जी तुम शुकुर मनाओ
आपोआप रुक गया बढ़ना
गुब्बारे-सा अब यह माथा
ऐसा ही दिखेगा सबको
वो मसूर सी-नन्हीं आँखें
नजर आ रहीं भारी सिर में !
जाओ, जाओ !
उन नन्ही नन्ही आँखों में
अंजन कर दो !
जाओ, जाओ सोहर गाओ
दिल्ली पहुँचो, नेग-जोग की जुगत भिड़ाओ
जाओ, जाओ,
दिल्ली पहुँचो !
राज-तिलक होने वाला है
जो भी छींके, वो साला है
जाओ, जाओ, दिल्ली पहुँचो ;
थाप पड़ गई, ढोलक गूँजे
‘रस बरसे री, रस बरसे

 

1985

 

 

हमें वापस दे दो

 

 

हमारी लंगोटी
हमें वापस दे दो
तुमने हमारी धरती को
सितुआ-जितना छोटी आकार का
बना दिया
-हमारी धरती हमें वापस दे दो
हमें झंडे वाली आजादी नहीं चाहिए

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