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हयवदन

गिरीश कारनाड

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3102
आईएसबीएन :81-7119-361-7

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स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासदी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली....

Hayvadan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासदी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटक तो समकालीन भारतीय रंग-परिदृश्य में और भी हैं, लेकिन जहाँ तक सम्पूर्णता की अंतहीन तलाश की असह्य यातनापूर्ण परिणति तथा बुद्धि (मन-आत्मा) और देह के सनातन महत्ता-संघर्ष के परिणाम का प्रश्न है-गिरीश कारनाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही एक अनूठा नाट्य प्रयोग है। इसमें पारंपरिक अथवा लोक-नाट्य रूपों के कई जीवंत रंग-तत्वों का विरल रचनात्मक इस्तेमाल किया गया है। बेताल-पच्चीसी की सिरों और धड़ों की अदला-बदली की असमंजस-भरी प्राचीन कथा तथा टामस मान की ‘ट्रांसपोज्ड हैड्स’ की द्वंद्वपूर्ण आधुनिक कहानी पर आधारित यह नाटक जिस तरह देवदत्त, पद्मिनी और किल के प्रेम-त्रिकोण के समानान्तर हयवदन के उपाख्यान को गणेश-वंदना, भागवत, नट, अर्धपटी, अभिनटन, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत के माध्यम से एक लचीले रंग-शिल्प में पेश करता है, वह अपने-आप में केवल कन्नड़ नाट्य लेखन को ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण आधुनिक भारतीय रंगकर्म की एक उल्लेखनीय उपलब्धि सिद्ध हुआ है। देवदत्त, कपिल, कपिलदेही देवदत्त तथा देवदत्तदेही कपिल-चार-चार पुरुषों के होते हुए भी अतृप्त एवं अधूरी और सुहागिन होकर भी अभागिन रह जाने वाली पद्मिनी इस नाट्य कथा में विलक्षण प्रसंग, रोचक चरित्र, जटिल संबंध तथा रोमांचक नाट्य-मोड़ों के साथ-साथ दर्शन, मनोविज्ञान, हिंसा, हास्य, प्रेम और रहस्य के इतने और ऐसे आयाम मौजूद हैं, जो प्रत्येक प्रतिभावान रंगकर्मी को हमेशा नई चुनौतियों से चमत्कृत करते हैं। यह नाटक मानव जीवन के बुनियादी अंतर्विरोधों, संकटों और दबावों-तनावों को अत्यन्त नाटकीय एवं कल्पनाशील रूप में अभिव्यक्त करता है। प्रासंगिक-आकर्षक कथ्य और सम्मोहक शिल्प की प्रभावशाली संगति ही हयवदन की वह मूल विशेषता है जो प्रत्येक सृजन धर्मी और रंगकर्मी और बुद्धिजीवी पाठक को दुर्निवार शक्ति से अपनी ओर खींचती है।

पिछले एक दशक में अनेक भाषाओं में कई निर्देशकों द्वारा सफलतापूर्वक अभिमंचित और राष्ट्रीय स्तर पर बहुप्रशंसित नाटक।


नाट्य-समीक्षक का वक्तव्य


रामगोपाल बजाज


संस्कारों तक को प्रभावित करने वाली कथाएँ हमें बालक जैसी सरस और अपूर्वग्रही मनःस्थिति में ले जाती हैं-ग्रहणशील बनाती हैं। ऐसी कथाएँ दादी-नानी की कहानी या परियों की कहानी या लोकरंजक तत्वों की अतिरंजना लिये होती हैं। दूर से जैसे कोई दृश्य बिन्दु बढ़ता आता है, हमें छा लेता है-फिर दूर चला जाता है। अनुभूति का क्षण वही छा लिये जाने का क्षण है (साधारणीयकरण का सिद्धान्त) किन्तु उन क्षण क्रमों के पहले और बाद की प्रक्रिया और शैली उसकी निष्पत्ति के लिए अनिवार्य है। यद्यपि रस परिपाक के बाद उसका स्वतः कोई महत्त्व रह नहीं जाता।
हयवदन पहले पढ़ा, दिशान्तर के लिए कारन्त के निर्देशन में अभिनय किया। सत्यदेव दुबे के निर्देशन में हुआ प्रदर्शन देखा। प्रस्तुतियों की विभिन्न समीक्षाएँ पढ़ीं। दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ सुनीं। नाटक के बारे में पत्र-पत्रिकाओं के मत भी पढ़े और पिछले दशक में हुए नाटकों पर विषय और स्वरूप को लेकर अपनाये गये रुखों को जान कर मैंने सोचा तो लगा, ऊपर की बात जो नयी नहीं है मैं बड़े भरोसे से बढ़ा सकता हूँ।

पुरुष की अपूर्णता (मनुष्य की अपूर्णता) को विभिन्न काल खंड़ों में रख कर अनेक नाटक लिखे गये हैं-‘आधे अधूरे’, ‘द्रोपदी’, ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक आदि में भी यह ध्वनि है। इन सभी नाटकों में स्त्री-पुरुष-संबंध को लेकर किसी या किन्हीं बिन्दुओं से त्रिकोण बनते हैं। हयवदन की उपकथा में मनुष्य के पूर्ण मनुष्य होने से आरंभ होकर शरीर और मस्तिष्क दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है।
अन्य नाटकों में सीधे हमारे घरों में नाटककार पैठता है-बिंब चरित्र लेता है और हम स्वीकारते, देखते संकोच करते हैं-‘आधे अधूरे’ के लिए कम अपवाद नहीं मिले।

साथ ही, और भी आदि स्तर पर उतर कर शरीर और मस्तिष्क के बीच जब नारी झूलती है तो क्या स्वयं मानव-कामना को इंगित नहीं करती ? प्रकृति में जीव-क्रम के संपूर्ण विकास की सर्वोत्तम उपलब्धि इकाई मानव है-वह भी अपूर्ण है। यह त्रासदी बड़ी दंशकारी है। इसे जब आज के दैनन्दिन जीवन से दूर परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का अवसर मिलता है, तो वह दूरी ही उसे समग्र रूप में देख पाने की सुविधा देती है-तत्काल वर्तमान में सद्य: हो रही चेतना की झुरझुरी से जोड़ देती है। आग्रह और संकोच टूट जाते हैं। कथा गाथा का रूप लेती है, क्योंकि जो कुछ उस प्रक्रिया द्वारा उस क्षण सहभोगा जा रहा है उसमें एक गरिमा है। गाथा गायी जाती है या कही जाती है, इसी के अन्तर में गाथा और कथा का अंतर अनुभूति क्षमता के अंतर का द्योतक बन जाता है।

‘हयवदन’ के आरंभ में भागवत, नट और हयवदन का उपकथा-प्रसंग जिस कम से मूल कथा से सिर और शरीर के विपर्यय की ओर हमें ले जाता है, वह अपने में अनोखा है। देवदत्त, कपिल और पद्मिनी की कहानी आरंभ होने के पहले हयवदन द्वारा पूर्ण मनुष्य होने, पूर्णांग होना चाहने का दर्द हास्य बनकर आता है, किन्तु जब समस्या सुरसा सी विकसित होती है तब स्थिति की वास्तविकता काल खंडों को पार कर हमारे मनों में घर करने लग जाती है। यहाँ संगीत द्वारा उसे आनुभूतिक तीव्रता और सूक्ष्मता दी जाती है। अतएव हास्य और संगीत अनुभूति-पक्ष के लिए अनिवार्य अंग बन कर आता है-ऐसे नाटक में।
कारन्त ने सारे नाटक की लोकधर्मिता का पूर्ण उपयोग इस दृष्टि से किया और पात्र कल्पना के फलक पर टँगे चित्रों से उतर कर जैसे क्रियाशील होने लगे मुखौटों जैसी रूप सज्जा, मंच पर उत्सवी रंग जैसी मांगलिक क्रियाएं, वेश भूषा में लोक पक्षीय शैली और पौराणिकता।

संगीत की धुनें लोक-धुनें थीं और ऐसा लग सकता था। कि किसी पुराने जमाने की कथा है जिसे नाच- गा कर नट बता रहे हैं। व्यभिचारी भावों की सूक्ष्म आवा-जाई से बच कर बड़ी संकट-रेखा को उभारा गया। इससे पात्रों की स्वरूप गत दूरी निभती गयी, मात्र भाव और अनुभूति के स्तर पर दर्शक की भाषा से तादात्म्य किया गया। मैंने जो आपत्तियाँ, पढ़ीं, उनमें आग्रह इन्हीं लोक-तत्त्वों को लेकर है। इतनी आधुनिक ‘थीम’ को इस वाने में ढालने की आवश्यकता क्या है यह आरोपित लगा कई सुधी जनों को। कुछ निर्देशकों ने इससे आजादी लेने के प्रयत्न में कलेवर का रंग सिर्फ फीका किया। यदि किसी तर्क से काली खम्भ ठोक कर मंच पर आकर दर्शकों का मनोरंजन कर सकती है तो उसी तर्क से शेष लोक पात्रों को भी जीवंत और सम्बद्ध सम्यक शैली होना चाहिए था। ऐसे में मुख्य कथा के पात्रों को शैली की दृष्टि से सारे ताने-बाने से हटाना आंशिक दृष्टि या सौन्दर्यानुशासन की कमी के अतिरिक्त कुछ नहीं।

निजी रूप से अभिनेता से अधिक मेरी रुचि इस नाटक की समग्र अनुभूति में रही, जहाँ पहली बार भारतीय नाट्य स्वरूप की शक्ति लोक तत्वों से ऊर्जा लेकर चमक पड़ी थी।
अभिनय या उसकी तकनीक तथा लयात्मक गतियों को लेकर जो समस्याएँ आयीं, अभिनेता के रूप में हुई मेरी उन समस्याओं और अन्य लेखे-जोखे से मैं बच कर निकलता हूँ।


निदेशक का वक्तव्य


राजिन्दर नाथ


बात दिसम्बर 1970 की है, जब हम अपना नाटक ‘बाकी इतिहास’ खेलने के लिए केरल गये थे। त्रिचूर के होटल के कमरे में गिरीश ने ‘हयवदन’ के बारे में विस्तार से बात की थी। नाटक वे लिख चुके थे, लेकिन उसका अनुवाद अभी नहीं हुआ था। नाटक की कथावस्तु बहुत आकर्षक लगी और मैंने नाटक को प्रस्तुत करने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन तब तक यह तय हो चुका था कि कारंत ही इस नाटक का अनुवाद करेंगे और वे ही दिल्ली में इसको प्रस्तुत भी करेंगे। फिर भी नाटक को खेलने का मोह बना रहा।

कुछ महीनों बाद संगीत अकादमी की ओर से एक गोष्ठी हुई जिसमें परिचर्चा का विषय था-‘पारंपरिक रंगमंच की आधुनिक प्रासंगिकता’। इस गोष्ठी में ‘हयवदन’ की बहुत चर्चा रही, बार-बार इस नाटक का उदाहरण दिया गया। कहा गया कि यह नाटक यक्षगान शैली में लिखा गया है। बात बहुत हास्यप्रद थी, क्योंकि तब तक नाटक का अनुवाद ही नहीं हुआ था और स्पष्ट था, वे लोग जो इसका उदाहरण दे रहे थे उन्होंने सरसरी तौर पर ही नाटक के बारे में सुन रखा था। गोष्ठी के बाहर जो मित्रों की गोष्ठियाँ हुईं उनमें मैंने गिरीश से यह पूछा-क्या वाकई ‘हयवदन’ यक्षगान की शैली में लिखा गया है ? तो उन्होंने उसकी शैली के बारे में विस्तार से बात की। यक्षगान के दो तत्व इस नाटक में जरूर इस्तेमाल किये गये हैं-एक भागवत का चरित्र; और दूसरा, अर्धपटी (हाफ कर्टेन) का इस्तेमाल।

जहाँ तक भागवत का प्रश्न है, वह सूत्रधार का एक और नाम है और सूत्र धार सिर्फ यक्षगान में ही नहीं बल्कि हमारी अनेक नाटक शैलियों में होता है। और, जहाँ तक अर्धपटी के इस्तेमाल की बात है तो उसका यक्षगान से अधिक प्रभावशाली प्रयोग कथकली में होता है। वे लोग जो सिर्फ इस कारण ‘हयवदन’ को (बिना पढ़े) यक्षगान की शैली में लिखा नाटक मान रहे थे, वे अगर इसको कथकली की शैली में लिखा गया नाटक मानते, तो कोई उनका क्या बिगाड़ लेता ?
उन्हीं दिनों से यह बात मन में घर करती गयी कि अगर इस नाटक को कभी प्रस्तुत करने का मौका मिला तो चाहे जिद में ही सही, इसे अर्धपटी के इस्तेमाल के बिना प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगा।

एक साल और बीत गया। दिल्ली में ‘दिशांतर’ की ओर से कांरत के निर्देशन में नाटक खेला गया। उनकी प्रस्तुति में लोक नाटकीय तत्वों पर काफी बल दिया गया था, जिससे प्रस्तुति बहुत ही सजीव और दृश्य रूप से सुखद बन पड़ी। लेकिन मेरा निजी मत यह था कि इस सारे लोक नाटक के वातावरण में नाटक की सूक्ष्मता खो जाती है। इसी कारण से जो धारणा पहले जिद की वजह से बनी थी अब विचार के स्तर पर पक्की हो गयी। और, वह यह कि अगर इस नाटक के मूल तत्व को उभारना है तो इस प्रस्तुति में लोक तत्वों पर बल नहीं देना चाहिए, क्योंकि लोक तत्वों के होते हुए भी नाटक की सारी संवेदनशीलता वास्तव में बहुत सूक्ष्म और परिष्कृत है।

यह विचार तो पक्का हुआ, लेकिन इसके साथ ही इस नाटक को प्रस्तुत करने की आशा भी जाती रही, क्योंकि दिल्ली के थियेटर का (या शायद सारे देश केथियेटर का) एक दुर्भाग्य यह है कि जब एक नाटक एक बार हो जाता है तो बहुत वर्षों तक उसी शहर में उसको कोई दूसरी नाटक मंडली या निर्देशक नहीं कर सकता/ करता। इस स्थिति के कारणों पर बहस करना यहाँ उचित नहीं है, फिर भी इतना तो कह ही दूँ कि इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।

जब मैं इस नाटक को खेलने की उम्मीद लगभग खो चुका था तो एक दिन अचानक प्रतिभा जी का कलकत्ते से खत मिला कि मैं अनामिका के लिए कलकत्ते में एक नाटक प्रस्तुत करूँ। कलकत्ते में ‘हयवदन’ तब तक नहीं हुआ था। उस मन स्थिति में नाटक के चुनाव के बारे में सोचने की जरूरत नहीं हुई। फौरन सुझाव दिया कि ‘हयवदन’ किया जाये, हालाँकि मन में एक-दो उलझनें थीं। पहली यह कि एक दूसरे शहर में अनजान अभिनेताओं के साथ नाटक करना होगा; और दूसरी, इस नाटक के संगीत को लेकर, क्योंकि इससे पहले मैंने किसी भी नाटक में गीतों का प्रयोग नहीं किया था। बहरहाल, नाटक शुरू करने से पहले यह तय हो गया कि रवि किचलू जैसे अच्छे संगीतज्ञ का सहयोग मुझे प्राप्त होगा। साथ ही सान्त्वना ने गिरीश के अंगरेजी-अनुवाद के आधार पर विशेष रूप से इस प्रस्तुति के लिए गीत लिखे।

जून 1972 में कलकत्ते पहुँचा। वहाँ पहुँचने से पहले प्रस्तुति की रूपरेखा तैयार कर चुका था और उसका आधार वही विचार था कि नाटक को इस तरह से प्रस्तुत करना है कि उसमें लोक-तत्वों पर कम से कम बल दिया जाये। इस लिए दृश्यबंध की जो कल्पना की वह ऐसी थी जिसमें अर्धपटी के इस्तेमाल की बिलकुल जरूरत नहीं रही। दृश्यबंध कुछ इस प्रकार था-तीन गतिशील स्तंभों का मुख्य रूप से प्रयोग किया गया। हर दृश्य के बाद दो अभिनेता ही संगीत और रीतिबद्ध गतियों के साथ इनके स्थान को बदलते थे और हर दृश्य में मंच एक नया रूप धारण कर लेता था और जब इनको एक कतार में रखा जाता जो इनसे बिलकुल वही काम लिया जा सकता था जो नाटककार ने नाटक में अर्धपटी से लिया था।

प्रस्तुति की दृष्टि से नाटक की एक समस्या देवदत्त और कपिल के मुखौटों के संबंध में है। गिरीश ने नाटक में इस बात की कल्पना की है कि जब देवदत्त और कपिल के सिरों की अदला-बदली होती है तो इनके मुखौटे बदल दिये जायें। मालूम नहीं, उनको यह क्यों नहीं सूझा कि मुखौटे बदलने पर भी आवाज नहीं बदली जा सकती और शायद यही एक कारण रहा होगा कि हम तीनों कारंत, दुबे और मैं-ने इस समस्या को एक ही ढंग से सुलझाया। मुखौटे बदलने के बजाय देवदत्त और कपिल वेशभूषा बदल लेते हैं। उससे बिलकुल वही प्रभाव पैदा होता है जो नाटक की माँग है। जब इस समस्या का यह हल हो गया तो इन दो चरित्रों के लिए मैंने मुखौटे इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं समझी। हाँ, काली गुड़िया और हयवदन के चरित्रों के लिए मुखौटों का इस्तेमाल किया गया।

 

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