कविता संग्रह >> मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ानागार्जुन
|
9 पाठकों को प्रिय 31 पाठक हैं |
नागार्जुन की बंगला कविताओं का देवनागरी रूप और हिन्दी अनुवाद साथ-साथ दिये जा रहे हैं।
Main militarya ka booda ghoda
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नागार्जुन उन थोड़े-से कवियों में हैं, जो अपनी कविताओं से यह चुनौती पेश करते हैं। उनके साथ सबसे मज़ेदार बात यह है कि साहित्य मर्मज्ञों के लिए अपनी कविताओं के जरिए वे चुनौती भले पेश करते हों, लेकिन खुद साहित्य में नहीं जीते। कविता लिखते समय उनके सामने श्रोता के रूप में बड़े-बड़े कलावंत उतना नहीं रहते, जितना साधारण लोग रहते हैं। इसलिए वे अनुभूतियों और अनुभवों के लिए इन लोगों के बीच इनका हिस्सा बनकर रहते हैं, और कविता लिखते समय अपनी अभिव्यंजना को इन लोगों की स्थिति, जरूरत और समझ के स्तर के अनुरूप ढालकर पेश करते हैं। कैसी भी उतार-चढ़ाव की स्थिति हो, कवि नागार्जुन कविता के साथ अपनी इस हिस्सेदारी में कटौती नहीं करते। इसलिए साहित्य के मर्मज्ञों के लिए उनकी चुनौती बड़ी सताऊ जान पड़ती है।
यह संग्रह
नागार्जुन बहुभाषी रचनाकार हैं। हिन्दी, मैथिली, बंगला और संस्कृत–इन चार भाषाओं में समान अधिकार के साथ रचनाएँ सृजित करते रहे हैं। जहाँ वे हिन्दी के सबसे महत्त्वपूर्ण जनकवि वहीं मैथिली के महाकवि।
रचनाकर्म की शुरूआत काल से संस्कृत, हिन्दी और मैथिली में लिखते रहे। हिन्दी और मैथिली की रचनाएँ संकलन के रूप में मौजूद हैं। संस्कृत और बंगला की रचनाओं के संग्रह अब तक तैयार नहीं हो पाए थे।
बंगला भाषा और बंग भूमि उन्हें जीवन के सन् 34-35 से ही आकर्षित करती है। हिन्दी के उपन्यासकार होने के पूर्व नागार्जुन ने शरतचन्द्र के कई उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद किया था। बंगला दैनिक, साप्ताहिक के अतिरिक्त बंगला के तमाम शारदीय अंकों को एक सजग पाठक की तरह पढ़ते रहते हैं अब भी। चार महानगरों में कलकत्ता सबसे प्रिय महानगर लगता है।
सन् 1978 के पूर्व नागार्जुन बंगला भाषा साहित्य के अच्छे जानकार रहे- रचनाकार नहीं। फरवरी’ 78 से सितम्बर’ 79 की अवधि में हिन्दी, मैथिली, संस्कृत के अलावे बंगला में भी कविताएँ लिखने लगे। यह दौड़ एक वर्ष सात माह तक ही रही। बाद में एकाध ही कविता लिखी।
इन रचनाओं का पाठ गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में होता रहा है। कुछ रचनाएं हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिप्यन्तरित और अनूदित होकर छपती रही हैं। कुछ बंगला के लघुपत्रों में भी। पर अब इन बंगला रचनाओं का संकलित रूप मूल बंगला में भी नहीं आ पाया है। मेरी जानकारी के अनुसार नागार्जुन के शुरू में संकलन की ओर ध्यान नहीं दिया। फिर कविताएँ कापी समेत यहाँ-वहाँ हो गयीं।
एक खास बात यह भी है कि ‘प्यासी पथराई आँखों’ (1963) के बाद नागार्जुन ने किसी भी संग्रह को संकलित नहीं किया है। यह काम मुझे सम्भालना पड़ा।
बंगला की इन रचनाओं तक मेरी पहुँच नहीं हो पा रही थी। इन कविताओं को एकत्रित करने में एक लम्बा समय लगा। फिर देवनगरी लिप्यान्तर और अनुवाद ने भी काफी समय लिया।
अच्छा होता कि नागार्जुन स्वयं ही इन रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते। पर बहुभाषी सृजन क्षमता होते हुए भी उन्होंने शायद तय कर रखा है। कि अपने कविताओं का अनुवाद खुद नहीं करेंगे। अनुवाद की अपेक्षा मूल भाषा में ही लिखने में रास आता है उन्हें। मैथिली कविताओं का अनुवाद भी सोमदेव और मुझे करना पड़ा। इस संग्रह की एक कविता ‘शिंगटिंग नेई’ का अनुवाद नागार्जुन ने भाई राजकुमार कृषक के लिए किया था।
इन बंगला कविताओं का द्विभाषी (बंगला-हिन्दी) संकलन तैयार करने में मैथिली रचनाकार सोमदेव, हिन्दी, बंगाल के कवि उज्जवल सेन और कवियित्री मौसमी बनर्जी ने पूरे मनोयोग से रचनात्मक स्तर पर सहयोग दिया है। यदि इन तीनों का साथ-संग न होता मुझसे यह काम नहीं हो पाता। इन सिलसले में शुभकर बनर्जी और मोनादत्त को भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं।
बंगला कविता का देवनागरी रूप और हिन्दी अनुवाद साथ-साथ दिये जा रहे हैं।
रचनाकर्म की शुरूआत काल से संस्कृत, हिन्दी और मैथिली में लिखते रहे। हिन्दी और मैथिली की रचनाएँ संकलन के रूप में मौजूद हैं। संस्कृत और बंगला की रचनाओं के संग्रह अब तक तैयार नहीं हो पाए थे।
बंगला भाषा और बंग भूमि उन्हें जीवन के सन् 34-35 से ही आकर्षित करती है। हिन्दी के उपन्यासकार होने के पूर्व नागार्जुन ने शरतचन्द्र के कई उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद किया था। बंगला दैनिक, साप्ताहिक के अतिरिक्त बंगला के तमाम शारदीय अंकों को एक सजग पाठक की तरह पढ़ते रहते हैं अब भी। चार महानगरों में कलकत्ता सबसे प्रिय महानगर लगता है।
सन् 1978 के पूर्व नागार्जुन बंगला भाषा साहित्य के अच्छे जानकार रहे- रचनाकार नहीं। फरवरी’ 78 से सितम्बर’ 79 की अवधि में हिन्दी, मैथिली, संस्कृत के अलावे बंगला में भी कविताएँ लिखने लगे। यह दौड़ एक वर्ष सात माह तक ही रही। बाद में एकाध ही कविता लिखी।
इन रचनाओं का पाठ गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में होता रहा है। कुछ रचनाएं हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिप्यन्तरित और अनूदित होकर छपती रही हैं। कुछ बंगला के लघुपत्रों में भी। पर अब इन बंगला रचनाओं का संकलित रूप मूल बंगला में भी नहीं आ पाया है। मेरी जानकारी के अनुसार नागार्जुन के शुरू में संकलन की ओर ध्यान नहीं दिया। फिर कविताएँ कापी समेत यहाँ-वहाँ हो गयीं।
एक खास बात यह भी है कि ‘प्यासी पथराई आँखों’ (1963) के बाद नागार्जुन ने किसी भी संग्रह को संकलित नहीं किया है। यह काम मुझे सम्भालना पड़ा।
बंगला की इन रचनाओं तक मेरी पहुँच नहीं हो पा रही थी। इन कविताओं को एकत्रित करने में एक लम्बा समय लगा। फिर देवनगरी लिप्यान्तर और अनुवाद ने भी काफी समय लिया।
अच्छा होता कि नागार्जुन स्वयं ही इन रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते। पर बहुभाषी सृजन क्षमता होते हुए भी उन्होंने शायद तय कर रखा है। कि अपने कविताओं का अनुवाद खुद नहीं करेंगे। अनुवाद की अपेक्षा मूल भाषा में ही लिखने में रास आता है उन्हें। मैथिली कविताओं का अनुवाद भी सोमदेव और मुझे करना पड़ा। इस संग्रह की एक कविता ‘शिंगटिंग नेई’ का अनुवाद नागार्जुन ने भाई राजकुमार कृषक के लिए किया था।
इन बंगला कविताओं का द्विभाषी (बंगला-हिन्दी) संकलन तैयार करने में मैथिली रचनाकार सोमदेव, हिन्दी, बंगाल के कवि उज्जवल सेन और कवियित्री मौसमी बनर्जी ने पूरे मनोयोग से रचनात्मक स्तर पर सहयोग दिया है। यदि इन तीनों का साथ-संग न होता मुझसे यह काम नहीं हो पाता। इन सिलसले में शुभकर बनर्जी और मोनादत्त को भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं।
बंगला कविता का देवनागरी रूप और हिन्दी अनुवाद साथ-साथ दिये जा रहे हैं।
अगस्त 1996
दिल्ली
दिल्ली
-शोभाकान्त
आचमका होलो भाग्योदय
काल नाकि परशु
आचमका होलो भाग्योदय
धोरो फेललुम मक्का-ए-तारन्नुम
नूरजहॉन के
रेडियों पाकिस्तान प्रसारित प्रोग्रामे
शुना गेला ओइ सुकण्ठिर स्वर लहरी-
‘कजरारि अँखियाँ में निंदिया न आये
जिया घबराए
पिया नहिं आए
कजरारि अंखियाँ में......,
सारा दिन सारा रात्रि
अनुरणित होते थाकलो
कर्णें-कुहरे आमार
ओर गानेर ओइ कोलिगुलि
आचमका होए गेलो भाग्योदय
अनेक बछरेर परे
काल नाकि परशु !
आचमका होलो भाग्योदय
धोरो फेललुम मक्का-ए-तारन्नुम
नूरजहॉन के
रेडियों पाकिस्तान प्रसारित प्रोग्रामे
शुना गेला ओइ सुकण्ठिर स्वर लहरी-
‘कजरारि अँखियाँ में निंदिया न आये
जिया घबराए
पिया नहिं आए
कजरारि अंखियाँ में......,
सारा दिन सारा रात्रि
अनुरणित होते थाकलो
कर्णें-कुहरे आमार
ओर गानेर ओइ कोलिगुलि
आचमका होए गेलो भाग्योदय
अनेक बछरेर परे
काल नाकि परशु !
19-2-78
अचानक हुआ भाग्योदय
कल या कि परसों
हुआ एकाएक भाग्योदय
पकड़ लिया मल्का-ए-तरन्नुम
नूरजहाँ को
रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित प्रोग्राम में
सुनाई पड़ी उस सुकण्ठी की स्वर लहरी
‘कजरारी अँखियों में निदिया न आए
जिया घबराए
पिया नहिं आए
कजरारी अँखियाँ में ......’
सारा दिन सारी रात
गूँजती रहीं
मेरे कर्ण-कुहरों में
गीत की कड़ियाँ
हुआ अचानक भाग्योदय
कई वर्षों बाद
कल या कि परसों !
हुआ एकाएक भाग्योदय
पकड़ लिया मल्का-ए-तरन्नुम
नूरजहाँ को
रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित प्रोग्राम में
सुनाई पड़ी उस सुकण्ठी की स्वर लहरी
‘कजरारी अँखियों में निदिया न आए
जिया घबराए
पिया नहिं आए
कजरारी अँखियाँ में ......’
सारा दिन सारी रात
गूँजती रहीं
मेरे कर्ण-कुहरों में
गीत की कड़ियाँ
हुआ अचानक भाग्योदय
कई वर्षों बाद
कल या कि परसों !
19-2-78
सकाले-सकाल
‘‘विक्टोरिया गिरे छेन
बेड़ाते बाबू.....
कोथाय थाकेन आपनि
नागाद आटेटार परे
धाख्या पाबेन परे
धाख्या पाबेन बाबूर संगे ......’’
-बोललेन दरोयान जी
अमार समबयती इनिओ
अन्ततः ताइ मोने होलो
जेखन आमि
सकाले सकाले
गिये दड़ालम
सेठेर दर जाये
निये हाथे नोतून काव्यो संकलन
बूड़ो दरोयन जी पाका चोखे
जिज्ञासा एवं आकुति
लोक्षितो होलो !
बेड़ाते बाबू.....
कोथाय थाकेन आपनि
नागाद आटेटार परे
धाख्या पाबेन परे
धाख्या पाबेन बाबूर संगे ......’’
-बोललेन दरोयान जी
अमार समबयती इनिओ
अन्ततः ताइ मोने होलो
जेखन आमि
सकाले सकाले
गिये दड़ालम
सेठेर दर जाये
निये हाथे नोतून काव्यो संकलन
बूड़ो दरोयन जी पाका चोखे
जिज्ञासा एवं आकुति
लोक्षितो होलो !
16-7-78
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book