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निर्मोही

ममता कालिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :117
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2896
आईएसबीएन :81-8143-105-7

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ममता कालिया की पाँच कहानियों का संग्रह

Nirmohi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कहानी-संकलन में ममता कालिया की पाँच कहानी-संग्रह सम्मिलित हैं। इनके शीर्षक हैं-छुटकारा, सीट नम्बर छह, एक अदद औरत, प्रतिदिन और उसका यौवन। वर्तमान समय में ये सभी पुस्तकें अनुपलब्ध हैं। इस रचनाकार पर शोध कर रहे विद्यार्थियों और रचना-प्रेमियों के लिए इन पुस्तकों को ढूँढ़ पाना दिन पर दिन दुर्लभ और दुसाध्य होता गया है।

सन् 1960 से निरंतर कहानी लिख रही ममता कालिया के इन कथा-संग्रहों के प्रकाशन का काल 1970 से 1985 रहा है। ये वर्ष हिन्दी कहानी की प्रयोगधर्मिता के उत्कर्ष वर्ष रहे हैं। ममता अपने समय और समाज को परिभाषित करने का सृजनात्मक जोखिम भरपूर उठाया है, यह उनकी हर कहानी से स्पष्ट होता है। कभी वे समूचे परिवेश में नये सरोकार ढूँढती हैं तो कभी वे इस परिवेश में नयी, स्वातंत्र्योत्तर स्त्री की अस्मिता और संघर्ष का वाचा देती हैं। ममता कालिया के लेखन में ये सरोकार आरम्भ से उपस्थित रहे हैं जब स्त्री-विमर्श की लाठी पटक धमक का दूर-दूर तक पता न था। इन सभी कहानियों में समकालीन, संवेदनशीलता की सहधर्मी है। ‘उसका यौवन’, ‘लड़के’, ‘आपकी छोटी लड़की’, ‘मनोविज्ञान’ और ‘वसंत-सिर्फ एक तारीख’ पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की संघर्षधर्मिता रेखांकित करती हैं। ममता कालिया की कहानियों में जिस संवेदनशील, संतुलित, समझदार लेकिन चुलबुले, मानवीय सहानुभूति से आलोकित व्यक्तित्व की झलक मिलती है वह उनके दृष्टिकोण की मौलिकता से दुगनी दमक पाती है। उनकी रचनाओं में कलावादी कसीदाकारी न होकर जीवनवादी यथार्थ का सौन्दर्य-बोध है।

समकालीन कथा-जगत में इस प्रकार सहज, मेधावी, प्रफुल्ल नारी व्यक्तित्व दुर्लभ है जो सामान्य और व्यापक मानव जीवन के प्रति इतना बेबाक हो। सम्बन्धों का खुला और आत्मीय स्वीकार इन कहानियों की अपनी विशेषता है। इन कहानियों से ऐसा महसूस होता है जैसे रचनाकार, जीवन की ओर खुलने वाली खिड़की से प्राणवायु लेकर अपनी रचनाओं को स्पंदित कर रही है। इनमें एक खुलापन मित्र-भाव, सहृदयता और संवेदना की सघनता और ज़िंदगी के सर्द-गर्म लम्हे अंकित हैं। प्रतिदिन की प्रिय/अप्रिय स्थितियों की अभिव्यक्ति और उनसे भिड़न्त के अंदाज़ में संघर्ष ममता के रचना-संसार का मर्म है।

ममता कालिया का रचना संसार महज़ नारी की पक्षधरता का ही नहीं वरन् जीवन और समय की पक्षधरता का संसार है।

 

निर्मोही

 

 

बाबा की पुरानी कोठी। लम्बे-लम्बे किवाड़ों वाला फाटक, जहाँ पहुँच रेल की पटरी ट्राम की पटरी जैसी चौड़ी हो जाती। जब बन्द होता, ताँगों की कतार लग जाती कोठी के सामने। रेल क्रॉसिंग के पार झाड़बिरिख और कुछ दूर पर सौंताल। कभी इसका नाम शिवताल रहा होगा पर सब उसे अब सौंताल कहते। उसके पार जंगम जंगल। बीच बीच से जर्जर टूटी दीवारें। कहते हैं वहाँ राजा सूरसेन की कोठी थी कभी। घर की छत पर मोरों की आवाज उठतीं-मेहाओ मेहाओ। जब तक हम दौड़ दौड़े छतपर पहुँचे मोर उड़ जाते। लम्बी उड़ान नहीं भरते। बस सौंताल के पास कभी कदम पर या कटहल पर बैठ जाते। सौंताल से हमारी छुट्टियों का गाथा-लोक बँधा हुआ था। शाम को ठंडी बयार चलती। दादी हाथ का पंखा रोक कर कहतीं-जे देखो सौंताल से आया सीत समीरन। कभी आकाश में बड़ी देर से टिका एक बादल थोड़ी देर के लिए बरस जाता। दादी का आह्लाद देखने वाला होता, ‘आज सिदौसी से मोर-पपीहा मल्हार गा रहे थे। मैं जानू मेह परेगौ।’
दादी दिन-रात सौंताल की रागिनी से बँधी रहतीं। बाजार में पहली पहली कटहरी आई, हरी कच्च। दादी कुँजड़िन से पूछें-सौंताल की है न।

कुँजड़िन को गहकी करनी है, सत्त कमाने नहीं निकली है।
‘हम्बै मैया’।
‘और जे कचनार, जे लाली सेम ? सब सौंताल की है न !
‘हम्बे मैया। सारा इउआ उँहई भरायौ ए।’
दादी तरकारी लेकर आँगन में बैठ जातीं तख्त पर। एक एक तरकारी छाँटतीं-छीलतीं। उनकी पोथी का एक एक पन्ना खुलता जाता।
‘जे कचनार राजाजी ने लगवायौ हौ। उनकी रसोई में एक दिन पूरी ब्यालू कचनार की रँधे ही। कचनार की भुजिया, कचनार का रायता, कचनार का अचार, बाजरे की बेड़मी। एक दिन शकरकन्दी का राज रहतौ। शकरकन्दी का हलवा, शकरकन्दी की खीर, शकरकन्दी की चाट, शकरकन्दी की पूड़ियाँ।’

दादी की निगाह में यह राजाजी की वैभवगाथा थी पर हम तीनों बहन इस विवरण से ज़रा भी प्रभावित न होतीं।
‘बड़ा इकरंगा जीवन था राजाजी का। उनकी रानी तो ऊब से अधमुई हो जाती होगी। हम कहते।
‘जे लो छोरियों, तुम्हें सुख में दुख दिखे, दुख में सुख दिखे। कौन चाल मेल की हो तुम ?’
रात को हम छत पर छिड़काव करतीं। एक-एक कर सबके बिस्तर बिछातीं। एक ऊँची पटिया पर सुराही रखतीं, सुराही पर गिलास मूँदा मारतीं। भग्गो बुआ काले उदले में आलू की रसेदार तरकारी लाकर रखती। दादी कठौते में परांठे। मैं कचनार के रायते पर भुना हुआ पिसा जीरा छिड़कती। कटोरियाँ गिनती, एक दो तीन चार पाँच छः सात आठ। धत्त तेरे की। कटोरी थाली तो बस छः ले जानी है। मम्मी पापा तो आए नहीं हैं। तभी तो रोज़ खाट पर पड़ जाने के बाद दादी जागती रहतीं। जब फ्रंटियर मेल का इंजन अपनी भट्टा जैसी एक आँख चमकाता, चिंघाड़ता गुज़र जाता, उसके दो तीन मिनट बाद दादी जम्हाई लेतीं ‘सो जा री छोरी ! लगै आज भी बिद्दाभूसण नायं आयौ।’

बाबा अपनी खाट से कहते, ‘ससुरे में छटांक भर भी ममता नहीं है माई बाप की। दिल्लीवारौ बनौ बैठो ए।’
दादी बमक पड़तीं, ‘जे बताओ, तुमने कभी नेक ममता करी लड़कन की। कान खींचे, गेटुआ दबाये, कभी तराजू दे मारें, कभी बाँट फेंके। कौन करम नायं किए। मेरे दोनों लालाए देस निकारा दे डारौ।’
बाबा आग बबूला हो जाते, ‘बिरचो समझै नायं। तेरे छोरन पे बाबूसाहबी छाई रही। पैंट बुशकोट पहरें, गिटपिट बोलें, कुर्सी तोड़े। गद्दी पे बैठ बूरा तोलने में उनकी मैया मरै थी। एक कबिताई करे लगौ, दूसरे को साहबियत चाट गई।’
दादी बिखरा दूध समेटतीं, ‘अच्छा अच्छा बस करौ। तुम तो बर्र के छत्ते से छिड़ परौ हौ। नतनियाँ सुनेंगी, सरम करौ।’
जब बेटे सगे नायँ निकरै तो नाती धेवते कौन किरिया करेंगे। कोऊ काम नायँ आयेगौ, समझी रहौ।’
बाबा तो पड़ी लगाकर सो जाते, दादी रात भर घुट घुट कर उमड़तीं-घुमड़तीं। ‘जेईमारे निकर गए दौऊ भइया। न कभी उन्हें दुलराया न पुचकारा। बस दुर दुर करते रहे। जिन्दगी भर हर चीज़ बाँट तराजू से तोली। मैं कहूँ अजी प्यार को मोल और तोल बतावै, ऐसी तराग कहाँ पाओगे। पर नायं, जे तो छोटे के कागज पत्तर कापी उठा उठा के चूल्हे में झोंके। बड़े की किताबें रद्दीवाले को बेच आये। दो दिन रोटी नहीं खाई मेरे लालों ने।’

मैं दादी के पैर दबाती। उन्हें थपकती कि किसी तरह वे सो जायं। सुबह सौंताल की तरफ दादी के साथ जाती हुई कहती, ‘दादी इस बार तुम हमारे साथ दिल्ली चलो।’
दादी निहाल हो जातीं। मुझे कमर से चिपका कर, मेरे बिखरे बालों पर हाथ फेरतीं ‘बिल्कुल बाप पे गयौ है मेरो लूटरबाबा। मैं जानूँ बिद्दाभूसण भी मुझे हुड़कता होगौ। जब बारहवीं में आगरे पढ़ै था, रात में मेरी पाटी पर आकर पूछै, ‘जीजी च्यौं रो रई हों ?’ मैं चुप।
‘कान में दरद है ?’ मैं चुप। ‘दाँत में दरद है ?’ मैं चुप की चुप।
‘पैर दबा दूँ ?’ नई।
‘जीजी सुबह तुम्हें डाक्टर के लै चलूँगौ, चुप हो जाओ।’
तभी तेरे बाबा अपने तखत पे से किल्ला उठें ‘याके लिये तेरे पास डागडर की फीस है तो मेरे को दे दीजौ। कातिक में आढ़त भरनी है काम आयेगी।’ बिद्दाभूसण में ऐसी खटास भर जाती अगले ही रोज वह अपना बिस्तरा गोल कर लेतौ।’
हमें बाबा से डर लगने लगता। शाम की सैर के बाद घर लौटने में दहशत होती। हम कहतीं ‘दादी आज यहीं रह जायं, घर ना जायं।’

दादी कहतीं, ‘घर तो जानौ ही परैगो। अपने द्वारे से हट के तो फूलमती भी नायँ जी, हम तुम कौन गिनत में।’
अन्नो कहती, ‘देखो ये अर्जुन और कदम के नीचे कैसी पत्तों की छैयाँ है, पीने को बावड़ी का मीठा पानी और खाने को झरबेरी के लाल लाल बेर।’
दादी तड़प जातीं, ‘ऐ री अन्नो ! अब की तो कह दिया, फिर कभी न कहियो जे बात।’
‘क्यों दादी’ मैं ज़िद करती।
‘तुझे नायं पतौ ! बहू ने नायं सुनायौ वा किस्सौ ?’
हम वापसी के लिए चल पड़ते। दादी अपनी एक टाँग पर उचक उचक कर चलतीं। और किस्सा भी उचक उचक कर आगे बढ़ता।

‘एक थी फूलमती। बाके ये बड़ी बड़ी आँखें, कोई कहे मिरगनैनी कोई कहै डाबरनैनी। एक बाकी ननद लब्बावती। जेई सौंताल से लगी हवेली राजा सूरसेन की। राजाजी के सन्तरी मन्तरी ने भतेरा समझायो ‘या बावड़ी ठीक नईं, नेक परे नींव धरो’ पर राजाजी अड़े सो अड़े रहे ‘मैं तो यई बनवाऊंगौ महल। एम्मे का बुरौ है।’
‘राजाजी पीपल के पेड़ पर भूत पिसाच और परेत तीनों का बसेरौ ए। जैसे भी भीत उठवाओगे, पीपल की छैयाँ जरूर छू जाएगी, जनै उगती जनै डूबती।’ सन्तरी बोले।
बस इत्ती सी बात।
ये लो। राजाओं ने पीपल समूल उखड़वा दियौ।

राजा सूरसेन को अपनी रानी से बड़ी परेम हौ। रानी फूलमती बोली, ‘राजा ऐसौ बाग बनाओ कि मैं पूरब करवट लूँ तो मौलसिरी महके, पच्छिम घूम जाऊं तो बेला चमेली।’ राजा ने ऐसौ ही कर्यौ। हैरानी देखो बेलों की जड़ सौंताल की मिट्टी में और फूल खिलें रानी के चौबारे।
राजकुमारी लब्बावती का विवाह हाथरस के कुँअर वृषभानलला के पोते से हो गया। अभी गौना नहीं हुआ था। नन्द भाभी घर में जोड़े से डोलें, सास बलैयाँ लेती, ‘मेरी बहू बेटी दोनों सुमतिया।’
‘पर तुम जानो जहाँ सौ सुख हों, वहाँ एक दुख आके कोने में दुबक कर बैठ जाय तो सारे सुख नास हो जायं। सोई हुआ राजा की हवेली में।’
‘कैसे ?’ अन्नो ने कहा।
‘अरे विवाह को एक साल बीता, दो साल बीते, साल पे साल बीते, फूलमती की कोख हरी न भई।
‘सास लाख झाड़-फूँक करावै, राजाजी ओझा-बैद बुलावें, नन्द किशन कन्हाई की बाललीला सुनावौ पर कोई उपाय नायं फलै।’

‘एक दिन लब्बावती को सुपनौ आयौ कि तेरे भैया ने पीपर समूल उपारौ, येई मारे महल अटारी निचाट परै हैं। एकास्सी के दिन सौंताल के किनारे फिर से तैरी भाभी पीपर लगायं, रोज ताल में नहायं, पीपर पूजै अन जल लें तब जाके जे कलंक मिटै। फिर तू नौ महीनन में जौले जौले दो भतीजे खिलइयौ।’
लब्बावती ने सुबह सबको सपना बखानौ। अगले ही दिन एकास्सी थी। सो सात सुहागनें पूजा की थाली सजाए, सोलहों सिंगार किये, सोने का कूजा डाबरनैनी फूलमती के सिर पर धरा कर पीपल रोपने चलीं। महल की मालिन का इकलौता बेटा सबके आगे आगे रास्ता सुझाये। बाके हाथ में फड़वा खुरपी।
राजा महलन में से देकते रहे। रानी फूलमती ने लोट लोटकर पूजाकी। आपै। आप बावड़ी में उतर सोने की कुजा भरयौ और पपर-मूर पे जल चढ़ायौ। फिर सातों सुहागनों ने असीसें उचारीं। सब की सब राजी खुशी घर लौटीं।
रोज सबेरे पंछी-पंखेरू के जगते-मुसकते फूलमती, लब्बावती दोनों जाग जातीं और सौंताल नहाने, पीपर पूजने निकल पड़तीं। कभी राजाजी जाग जाते, कभी करवट बदल कर सो जाते।

फूलमती भायली ननद से कहती, ‘तेरे भइया तो पलिका से लगते ही सोय जायं। इनकी ऐसी नींद तो न कभी देखी न सुनीं।
लब्बावती कहतीं, ‘मेरे भइया की नींद को नजर न लगा भाभी। जे भी तो सोच जित्ती देर जागेंगे तुम्हें भी जगाएँगे कि नायं।’
डाबरनैनी फूलमती उलटी साँस भरती, ‘हम तो सारी रात जगें, भला हमें जगाबे बारो कौन ?’
लब्बावती को काटो तो खून नहीं। बोली-‘क्या बात है ?’
फूलमती बोली-अभी तुम गौनियाई नायं, तुम्हें का बतायं का सुनायं। तोरे भैया तो जाने कौन सी पाटी पढ़े हैं कि मन लेहु पे देहु छटांक नहीं।’ फिर फूलमती ने बात पलटी-‘तुम्हारी ससुराल से संदेसो आया है अबकी पूरनमासी को लिवाने आयेंगे।’
लब्बावती ने भाभी की गटई से झूल कर लाड़ लड़ाया-‘कह दो बिन से, पहले हम अपने भतीजे की काजल लगाई का नैग तो ले लें तब गौना जायं।’’

माँ ने सुना तो बरज दिया, ‘समधी जमाई राजी रहें। इस बारगौनाकर दें, फिर तू सौ बार अइयौ, सौ बार जइयो, घर दुआर तेरौ।’ बड़े सरंजाम से लब्बावती कि बिदाई भई। गौने में माँ और भैया ने इत्तौ दियौ कि समधी की दस गाड़ी और राजाजी की दस गाड़ी ठसाठस भर गईं। डोली में बैठते लब्बावती ने भाभी को घपची में भर लीनो ‘भाभी मेरी, मेरे भैया को पत रखना पीपल पूजा, वावड़ी नहान का नेम निभाना। मोय जल्दी बुलौआ भेजना।’
फूलमती ननद के जाने से उदास भई। राजाजी ने कठपुतली का तमाशा करायौ, नन्द-गाँव का मेला दिखायौ पर रानी का जी भारी सो भारी।

सुबह-सबेरे अभी भी वह रोज सौंताल नहाये, पीपल पूजे तब जाकर अनजल छुए। अब इस काम में संगी साथी कोई न रह्यौ। एक दिन रानी भोर होते उठी। एक हाथ पे धोती जम्पर धर्यौ दूसरे पे पूजा की थाली और चल दी नहाने।
उस दिन गर्मी कछू ज्यादा रही कि फूलमती की अगिन। गले गले पानी में फूलमती खूब नहाई। अबेरी होते देख फूलमती पानी से निकरी। अभी वह कपड़े बदल ही रही थी कि बाकी नजर झरबेरी पे परी। गर्म में झरबेरी लाल लाल बेरों से वौरानी रही।’
इत्ते में घर आ गया। अन्नो बोली, ‘दादी तुम्हारी कहानी बहुत लम्बी होती है।’
दादी अपनी छोटी टाँग पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘जे कहानी नहीं जिनगानी है लाली ! देर तो लगैगी ही।’
दादी घर पहुँच कर काम काज में लग गईं। मुझे लगता रहा लो डाबरनैनी को दादी ने सौंताल पर गीला नंगा छोड़ दिया, जाने वह कब घर पहुँची। पर दादी को कहाँ वक्त। कभी बटलोई चूल्हे पर धरें, कभी उतारें। कभी रोटी तवे पर कभी थाली में। हम तीनों उनकी भरसक मदद करतीं पर चौके में दादी के बिना कुछ होय ही ना।
दिन में दो बार मैंने और अन्नो ने याद दिलाई, ‘दादी कहानी ?’

दादी ने बरज दिया, ‘ना दिन में ना सुनी जाती कहानी, मामा गैल भूल जायेगौ।’ मैं चुप। मेरे चार मामा थे और अन्नो-शन्नो के तीन। सात लोग रास्ता भूल जायं, यह कैसे हो सकता है।
रात की ब्यालू निपटते ही हम दादी को घेर कर बैठ गए। अन्नो उनकी टाँगे दबाने लगी। मैंने सिर दबाना शुरू किया। ‘दादी फिर क्या हुआ ?’
‘अज्जे राम रे, मैं तो बहौत थक गई। देखो, हुंकारा भरती रहना। कहीं भटक-भूल जाऊं तो टोक देना नहीं फूलमती को न्याव नायं मिलगौ।’
‘हाँ तो फिर क्या था। भूलमती ने न आगा सोचा न पीछा, बस बेर तोड़ने ठाड़ी हो गई उचक उचक कर बेर तोड़े और पल्ले में डारौ। वहीं थोड़ी दूर पर मालिन का लड़का पूजा के लिए फूल तोड़ रहौ थौ। तभी रानी की उंगरी मा बेरी का काँटा चुभ गयौ। फूलमती तो फूलमती ही, बाने काँटा कब देखो। उंगरी में ऐसी पीर भई कि आहें भरती वह दोहरी हो गई। मालिन के छोरे कन्हाई ने रानीजी की आह सुनी तो दौड़ा आयौ।

काँटा झाड़ी से टूट कर उंगरी की पोर में धँस गयौ। मालिन का छोरा कांटे से कांटा निकारनौ जानतौ रहौ। सो बाने झरबेरी से एक और काँटा तोड़ रानी की उंगरी कुरेद काँटा काढ़ दियौ। कांटे के कढ़ते ही लौहू की एक बूँद पोर पे छलछलाई। कन्हाई ने झट से झुक कर रानी की उंगरी अपने मुँह में दाब ली और चूस चूस कर उनकी सारी पीर पी गयौ। छोरे की जीभ का भभकारा ऐसा किरानी पसीने पसीने हो गई।

उधर राजा सूरसेन की आँख वा दिना जल्दी खुल गई। सेज पे हाथ बढ़ाया तो सेज खाली। थोड़ी देर राजाजी अलसाते, अंगड़ाई लेते लेटे रहे। उन्हें लगा आज रानी को नहाने पूजने में बड़ी अबेर है रही है। राजाजी ने वातायन खोला। सौंताल में न रानी न वाकी छाया। पीपल पे पूजा अर्चन का कोई निशान नहीं। रानी गईं तो कहाँ गई। सूरसेन अल्ली पार देखें, पल्ली का छोरा कन्हाई दिखे। फूलमती की उंगरी कन्हाई के मुँह में परी ही और रानी फूलों की डाली सी लचकती वाके ऊपर झुकी खड़ी।

राजा सूरसेन को काटो तो खून नहीं। थोड़ी देर में सुध-बुध लौटी तो मार गुस्से के अपनी तलवार उठाई। पर जे का तलवार मियान में परे परे इत्ती जंग खा गई कि बामें ते निकरेंई नायं। राजा ने पोर मालिन के छोरे के मुँह में परी सो परी।
राजा, परजा की तरह अपनी रानी को घसीट कर महलन में लावै तो कैसे लावै, बस खड़ा खड़ा किल्लावै। उसने अपने सारे ताबेदारों को फरमान सुनायौ कि महल के सारे दुआर मूँद लो, रानी घुसने न पाय। कोई उदूली करै तो सिर कटाय।
रानी फूलमती नित्त की भाँति खम्म खम्म जीना चढ़ के रनिवास तक आई। जे का। बारह हाथ ऊंचा किवार अन्दर से बन्द। अर्गला चढ़ी भई। रानी दूसरे किवार पर गई। वह भी बन्द। इस तरह डाबरनैनी ने एक एक कर सातों किवार खड़काये पर वहाँ कोई हो तो बोले।
सूरसेन की माता ने पूछा, ‘क्यों लाला आज बहू पे रिसाने च्यों हो ?’
सूरसेन मुँह फेर कर बोले, ‘माँ तुम्हारी बहू कुलच्छनी निकरी। अब या अटा पे मैं रहूँगो या वो।’
माँ ने माली से पूछा, मालिन से पूछा, महाराज से पूछा, महाराजिन से पूछा, चौकीदार से पूछा, चोबदार से पूछा। सबका बस एकैई जवाब राजाजी का हुकुम मिला है जो दरवज्जा खोले सो सिर कटाय।
सात दिना रानी फूलमती अपनी सिर सातों दरब्बजों पे पटकती रही। माथा फूट कर खून खच्चर हो गयौ। सूरसेन नायं पसीजौ...’

अन्नो ने भड़क कर कहा, ‘ये क्या दादी, तुम्हारी कहानी में औरत हमेशा हारती है, ऐसे थोड़ी होती है कहानी।’
दादी ने कहा, ‘अरे जे कहानी हम तुम नईं बना रहे, जे तो सुनी भई सच्ची कहानी है।’
मैंने कहा, ‘आगे की कहानी मैं बोलूँ दादी ?’
‘नईं तेरे से अच्छी तो अन्नो बोल लेवे। चल अन्नो तू पूरी कर। मेरो तो म्हौंडो, सूख गयो। एक पान का बीरा लगा दे।’
मैं भागमभाग दादी के लिए पान का बीड़ा लगा लाई। उस वक्त अन्नो बिस्तर पर अपने दोनों हाथ सिर के पीछे कैंची बना कर लेटी हुई थी और कहानी चल रही थी।
‘दादी फिर यह हुआ कि जैसे ही डाबरनैनी फूलमती को घर-दुआर पे दुतकार पड़ी, वह खम्म खम्म जीना उतर गई। सौंताल पर कन्हाई उसकी राह देख रहा था। उसने रानी का हाथ पकड़ा और अपनी कुटिया में ले गया। सात दिन में रानी अच्छी बिच्छी हो गई। मालिन ने दोनों की परितिया देखी तो बोली ‘रे कन्हाई, राधा भी किशन से बड़ी ही, जे तेरी राधारानी ही दीखै।’ डाबरनैनी वहीं रहने लगी। रोज सुबह मालिन और कन्हाई फूल तोड़ कर लाते, फूलमती उनकी मालायें बनाती।
इधर राजा सूरसेन उदास रहने लगे। माँ ने लब्बावती को बुला भेजा। लब्बावती ने भाई से पूछा, ‘प्यारे भैया, मेरी राजरानी भाभी में कौन खोट देखा जो उसे वनवास भेज दिया।’

सूरसेन ने कहा, ‘तेरी भौजाई हरजाई निकली। वह मालिन के बेटे के साथ खड़ी थी। दोनों हँस रहे थे।’
बहन बोली ‘ये तो अनर्थ हुआ। अरे हँसना तो उसका स्वभाव था। अरे सूरज का उगना नदिया का बहना और चिड़िया का चूँ चूँ करना कभी किसी ने रोका है ?’
राजा सूरसेन को लगा उन्होंने अपनी पत्नी को ज्यादा ही सजा दे दी।
सात दिन राजा ने अधेड़बुन में बिता दिये। आठवें दिन लब्बावती की विदा थी। लब्बावती जाते जाते बोली, ‘भैया अगली बार मैं हँसते बोलते घर में आऊँ, भाभी को ले कर आओ।’

कई साल बीत गये। राजा रोज सोचते आज जाऊँ कल जाऊँ। आखिर एक दिन वे घोड़े पर सवार होकर निकले। साथ में कारिन्देमन्तरी और सन्तरी। जंगम जंगल में चलते चलते राजाजी का गला चटक गया। घोड़ा अलग पियासा। एक जगह पेड़ों की छैयाँ और बावड़ी दिखी। राजा ने वहीं विश्राम की सोची। बावड़ी में ओके से लेके ज्योंही राजा पानी पीने झुके, किसी ने ऐसा तीर चलाया कि राजा के कान के पास से सन्नाता हुआ निकल गया। मन्तरी सन्तरी चौकन्ने हो गये। तभी सब ने देखा, थोड़ी दूर पर एक छोटा सा लड़का साच्छात कन्हैया बना, पीताम्बर पहने खड़ा है और दनादन तीर चला रहा है। राजा कच्ची डोर में खिंचे उसके पास पहुँचे। छोरा बूझे राजा-वजीर। वह चुपचाप अपने काम में लगा रहा।

राजा ने बेबस मोह से पूछा ‘तुम्हारा गाम क्या है, तुम्हारा नाम क्या है ?’ नन्हें बनवारी ने आधी नज़र राजा के लाव लश्कर पे डाली और कुटिया की तरफ जाते जाते पुकारा ‘मैया मोरी जे लोगन से बचइयो री।’ लरिका की मैया दौड़ी-दौड़ी आई। बिना किनारे का रंगीन मोटी धोती, मोटा ढीला जम्पर, नंगे पाँव पर लगती थी एकदम राजरानी। उसके मुख पर सात रंग झिलमिल झिलमिल नाचें।

राजा ने ध्यान से देखा। अरे ये तो उसकी डाबरनैनी फूलमती थी।
सूरसेन को अपनी सारी मान मरयादा बिसर गई। सबके सामने बोला, ‘परानपियारी तुम यहाँ कैसे ?’
फूलमती ने एक हाथ लम्बा घूँघट काढ़ा और पीठ फेर कर खड़ी हो गई।

तब तक बनवारी का बाप कन्हाई आ गया। राजा ने कारिन्दों से कहा, ‘पकड़ लो इसे, जाने न पाये।’
कन्हाई बोला, ‘जाओ राजाजी तुम क्या प्रीत निभाओगे। महलन में बैठके राज करो।’
मन्तरी बोले, ‘बावला है, राजा की रानी को कौन सुख देगा। क्या खिलाएगा, क्या पिलायेगा ?’
कन्हाई ने छाती ठोंक कर कहा, ‘पिरितिया खवाऊंगौ, पिरितिया पिलाऊंगौ। तुमने तो जाकेपिरान निकारै, मैंने जामें वापस जान डारी। तो जे हुई मेरी परानपियारी।’
‘और जे चिरौंटा ?’ मन्तरी ने पूछा।

‘जे हमारी डाली का फूल है।’
राजा के कलेजे में आग लगी। मालिन के बेटे की यह मजाल कि उसी की रानी को अपनी पत्नी बनाया वह भी डंके की चोट पर। उसने घुड़सवार सिपहिये दौड़ा दिये।’

दादी की ऊंघ हवा हो गई, ‘अन्नो तू ऐंचातानी बहौत कर रई ए। आगे मैं सुनाऊं।’
अन्नो की समझ में नहीं आ रहा था कि कहानी को कैसे समेटे। उसने हारी मान ली, ‘अच्छा दादी तुम्हें करो खतम।’
दादी बोली ‘हाँ तो कन्हाई और फूलमती बिसात भर लड़े। नन्हा बनवारी भी तान तान कर तीर चलायौ। पर तलवारों के आगे तीर और डंडा का चीज। सौंताल के पल्ली पार की धरती लाल चक्क हो गई। थोड़ी देर में राजा के सिपहिया तलवारों की नोक पे तीन सिर उठाये लौट आये।’

मैंने कहा, ‘दादी तीनों मर गये ?’
दादी ने उसांस भरी, ‘हम्बै लाली। तीनोंई ने बीरगति पाई। येईमारे आज तक सौंताल की धरती लाल दीखै। वहां पे सेम उगाओ तो हरी नहीं लाल ऊगे। अनार उगाओ तो कन्धारी को मात देवै। और तो और वहाँ के पंछी पखैरू के गेटुए पे भी लाल धारी जरूर होवै। ना रानी घर-दुआर छोड़ती ना बाकी ऐसी गत्त होती।’
अन्नो और मैं एक साथ बोले, ‘गलत, एकदम गलत। निर्मोही के साथ उमर काटने से अच्छा था वह जो उसने किया।’




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