पौराणिक >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास...
अहल्या तब तक काफी सहज हो चुकी थी और शत भी दूध पी, मां का दुलार पा, कुछ स्वस्थ हो, खेलने के लिए कुटिया से बाहर निकल गया था।
अहल्या ने ध्यान से गौतम को देखा। उनकी आंखों में अब वह शून्य नहीं था, जो उसने यज्ञशाला में देखा था। आकृति से वह पर्याप्त सहज लग रहे थे, किंतु शरीर काफी थका हुआ था, जैसे कहीं क्षमता से अधिक श्रम करके आए हों।
''कहां चले गए थे आप?'' अहल्या ने बड़े ही कोमल स्वर में पूछा कि कहीं गौतम के दुखते मन को यह प्रश्न, मात्र, जिज्ञासा के स्थान पर, उसकी ओर से उन पर नियंत्रण का प्रयत्न न लगे।
गौतम बैठ गए। उन्होंने अपने उत्तरीय की बनी गठरी, पीठ पर से उतार कर, अहल्या के सम्मुख रख दी, ''कुछ फल लाने चला गया था। अब ब्रह्मचारी अथवा कर्मकार तो हैं नहीं, अतः यह काम भी मुझे ही करना पड़ेगा।'' बहुत नियंत्रण करने पर भी गौतम की आंखें भीग ही गईं, ''मैं कुलपति बनकर भूल ही गया था कि एक साधारण वनवासी संन्यासी भी हूं। अध्ययन-अध्यापन और चिंतन-मनन में मैं व्यावहारिक जीवन से ऊंचा उठ जाने का प्रयत्न कर रहा था; और शारीरिक श्रम की महत्ता भूल गया था...।''
''स्वामि!'' अहल्या ने उनके घुटने पर हाथ रखा।
एक सिसकारी के साथ, गौतम ने अपनी टांग हटा ली।
और तब पहली बार अहल्या का ध्यान, गौतम के घुटने की ओर गया। उनका घुटना छिला हुआ था।
''यह कैसे हुआ? क्या अधिक चोट आ गई स्वामी?'' अहल्या की विह्वलता बढ़ गई।
''नहीं अहल्या!'' गौतम निर्विकार हो उठे, ''पेड़ से कूदते हुए गिर पड़ा। अब वृक्षों पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास नहीं रहा देवि!'' और सहसा वे ऐसी मुद्रा में अहल्या की ओर घूमे, जैसे आंसू पोंछ कर हंसने का प्रयत्न कर रहे हों, ''तुम चिंता न करो देवि! बस दो-एक दिन की बात है। फिर मैं पहले जैसा अभ्यास कर लूंगा। एक रोज घाव खा जाने का अर्थ यह तो नहीं कि रोज-रोज हाथ-पांव छिलते रहेंगे।''
गौतम सायास, असहज ढंग से हंस रहे थे।
अहल्या का मन, गौतम को हंसते देख रो पड़ा। बहुत चाहने पर भी वह स्वयं को रोक नहीं पाई। उसने अपना सिर गौतम के कंधे पर टिका दिया, ''स्वामि! मुझे लगता है, मैं आपकी पत्नी नहीं हूं, शत की मां नहीं हूं-मैं एक भयंकर कृत्या हूं, जो आपके और शत के विकास को खा रही हूं, आप दोनों के भविष्य का भक्षण कर रही हूं...।''
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- प्रधम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- वारह
- तेरह