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दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

अहल्या को सोई जानकर, गौतम को कुछ संतोष हुआ। शत को पिछले दिन का बचा हुआ दूध पिलाकर वे पहले ही सुला चुके थे। दोनों के सो जाने के पश्चात्, उनसे निवृत्त हुए से गौतम का ध्यान अपनी ओर लौटा...उनके मन में पीड़ा थी, हताशा थी, अपमान था, पर साथ ही देर सारा आक्रोश और उत्साह भी था। किंतु, उस आक्रोश और उत्साह से क्या हो सकेगा? क्या कर सकते थे गौतम?

वे अपने आपको कितना सम्मानित और सुरक्षित समझते थे। वे एक प्रमुख आर्य-सम्राट् सीरध्वज के राज्य, मिथिला के प्रमुखतम आश्रम के कुलपति थे। पूरे प्रदेश के, और कई बार उसके बाहर से आकर, अपने-अपने विषयों के प्रकांड विद्वान उनके समुख अपना मस्तक झुकाते थे। जंबू-द्वीप के इस क्षेत्र के वे प्रमुख ऋषि थे। स्वयं सम्राट् सीरध्वज और उनके मंत्री गौतम के सम्मुख ऊंचे स्वर में बोलने का साहस नहीं करते थे। यह एक सर्वविदित तथ्य था कि वे किसी भी दिन जनकपुरी में राजगुरु और राजपुरोहित के संयुक्त पद पर नियुक्त हो, आर्यावर्त के अनन्य ऋषि वसिष्ठ से स्पर्धा करेंगे...।

कितना सुरक्षित, सम्मानित और शक्तिशाली समझा था उन्होंने अपने आपको। किंतु भाग्य के एक ही धक्के ने, इन्द्र के एक ही कुकृत्य ने, उनकी आंखें खोलकर, सत्य को उनकी हथेली पर रख दिया था। उन्होंने तपस्या की शक्ति को, चरित्र और ज्ञान की शक्ति को सर्वोपरि माना था; पर आज की दुर्घटना ने सिद्ध कर दिया था कि पद की शक्ति, धन की शक्ति, सत्ता की शक्ति ही सर्वोपरि थी। आज किसी भी ऋषि ने, सत्ताधारी इन्द्र के विरुद्ध, उनका पक्ष ग्रहण नहीं किया था। तो फिर सीरध्वज ही क्यों उनका समर्थन करते? वास्तविक शक्ति यह नहीं थी, वास्तविक शक्ति तो...।

तो क्या वे व्यक्तिगत धरातल पर इन्द्र से प्रतिशोध लें? वे इन्द्र का द्वन्द्व-युद्ध के लिए आह्वान करें?...पर दूसरे ही क्षण, उन्होंने अपना यह विचार स्थगित कर दिया। इन्द्र उनके आह्वान पर क्यों आएगा? और यदि आ भी गया, तो गौतम अच्छी तरह जानते हैं कि उन्होंने आज तक अपने शरीर को प्रहार सहन करने के लिए साधा है; और इन्द्र ने सदा पहार करने का अभ्यास किया है। शारीरिक शक्ति में भी इन्द्र उन पर भारी पड़ सकता है। शस्त्र-विद्या का कुछ थोड़ा-सा अभ्यास गौतम ने भी किया है, किंतु वह इन्द्र के अभ्यास के सम्मुख कुछ भी नहीं है; और फिर दिव्यास्त्र तो उनके पास एक भी नहीं है...।

तो फिर क्या करें गौतम?

इन्द्र को शाप दें?

पर शाप को कार्यान्वित कौन करेगा? वे इन्द्र को यज्ञ में अपूजित होने का शाप दे सकते हैं, पर उस शाप का प्रचार कौन करेगा? और यदि इस काण्ड के पश्चात् अहल्या को पत्नी की मान-मर्यादा देने के कारण, जन सामान्य ने, ऋषियों-तपस्वियों ने, आर्य शासकसम्राटों ने गौतम को ही ऋत्रि मानने से इनकार कर दिया तो?

गौतम का सारा अस्तित्व समूल झनझना उठा।

तब गौतम का क्या होगा?

क्या ऋषि बने रहने के लिए उन्हें अहल्या का त्याग करना पडेगा? पर अहल्या निर्दोष है। पूर्णतः पवित्र है। वह उनकी पत्नी है, उनके पुत्र की मां है। वे उससे प्रेम करते हैं-वे उसका त्याग कैसे कर सकते हैं?

किंतु यदि वे उसका त्याग नहीं करते, तो उन्हें ऋषि के पद से भ्रष्ट कर दिया जाएगा। जो ऋषि-समुदाय, अपनीं आंखों से, इन्द्र की दुष्टता देखकर भी, अहल्या को निर्दोष घोषित नहीं कर सका; वह अहल्या को पत्नी-रूप में ग्रहण किए रहने पर, उन्हें ऋषि की मान्यता कैसे देगा...और यदि वे ऋषि नहीं रहे, तो इन्द्र को शाप कैसे देंगे...क्या वे इन्द्र को शाप देने का विचार छोड दें...नहीं...उनकी आत्मा से भयंकर चीत्कार उठा। वे इन्द्र को इस प्रकार अदंडित नहीं छोड़ सकते। भरसक वे उसे दंड देंगे।...उन्हें उसे दंडित करने के लिए, ऋषि की मर्यादा पानी ही होगी।


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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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