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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

'मैं जानता है देवि!'' गौतम की आंखों में पानी भर आया, "मैं अच्छी तरह जानता हूं अहल्या। स्वयं को दोषी मान, अपनी सफाई देने की तुम्हें तनिक भी आवश्यकता नहीं है। उस दुष्ट इन्द्र ने हमारे प्रति जो अत्याचार किया है, उसका प्रतिकार करना ही होगा।''

अहल्या मौन रही। वह फटी-फटी आंखों से अपने पति के तेजस्वी चेहरे को देख रही थी। उसके स्वामी इन्द्र के अत्याचार का प्रतिकार कैसे करेंगे? इन्द्र तो देवराज है, समस्त देव-जातियां उसके प्रति पूज्य भाव रखती हैं, समस्त आर्य सम्राट् उसे अपना संरक्षक मानते हैं। वह जिससे बात कर लेता है, वही सम्राट् कृत-कृत्य हो जाता है। ऐसे देवराज इन्द्र से उसके पति गौतम, कैसे प्रतिशोध लेंगे? वे एक साधारण ऋषि हैं। सीरध्वज का उनके प्रति किंचित् मैत्री भाव अवश्य है, किंतु ऐसा संबंध तो उनका किसी भी शासक के साथ नहीं, कि कोई शासक उनका पक्ष लेकर इन्द्र के विरुद्ध खड़ा होगा। और यदि कोई उठ भी खड़ा हो, तो उससे क्या? किसके पास इतनी शक्ति है कि वह युद्ध में इन्द्र को ललकार सके...।

पुत्र को गोद में लिए, पत्नी को वक्ष से लगाए, गौतम मौन खड़े थे, किंतु उनका मन वहां नहीं था। पहले झटके में, वे मात्र स्तंभित हुए थे, अब क्रमशः स्तंभन क्षीण हो रहा था। जड़ावस्था समाप्त हो रही थी और उनके मन में एक पीड़ा उभर आई थी। क्रमशः वे अनुभव कर रहे थे कि इन्द्र ने उनको कितना अपमानित किया था, कितना पीड़ित किया था, कितना प्रवंचित किया था...अहल्या, जो उनकी संपूर्ण कोमल भावनाओं, प्रेम तथा संवेदनाओं की पुंजीभूत मूर्ति थी, उसके साथ इन्द्र ने बलात्कार किया था...अहल्या के मन में कितनी पीड़ा होगी! उसकी इच्छा के सर्वथा विरुद्ध, अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ विरोध करते रहने पर भी, एक पुरुष ने, केवल अपने पशुबल के आधार पर उसका भोग किया था। क्या सोचती होगी अहल्या? सतीत्व की रक्षा के जो संस्कार पीढ़ियों से उसे दिए गए हैं, और जो इस समय उसके जीवन-मरण का प्रश्न है, वह सतीत्व भंग किया है इन्द्र ने...।

और सहसा गौतम का तेज जागा...उनकी भृकुटियां वक्र हो उठीं, मुख लाल हो गया, आंखों में अग्नि जल उठी...इन्द्र से प्रतिशोध लिया जाएगा...प्रतिशोध...।

''चलो अहल्या! बाहर चलें।'' गौतम ने विशेष कोमल तथा स्नेहमयी वाणी में कहा, ताकि अहल्या का आहत मन कुछ शांति पा सके, ''हम ऋषि समाज के सम्मुख चलें।''

पुत्र को गोद में लिए, अहल्या को सहारा देते हुए, गौतम धीरे-धीरे कुटिया से निकलकर बाहर आए। द्वार से निकल, एक बार रुककर उन्होंने देखा, सारा ऋषि-समाज वहां एकत्रित था, उसी प्रकार, जिस प्रकार छोड़कर वे कुटिया के भीतर गये थे। कदाचित् तब जिन लोगों को सूचना नहीं मिली थी, और जो लोग नहीं आ सके थे...वे लोग भी अब वहां उपस्थित थे।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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