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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

किंतु ये ऋषि अब शासन से भी स्वतंत्र होना चाहते हैं। स्वयं को शासक की सत्ता से मुक्त करना चाहते हैं। अपने शापों के भय से सत्ता को भी भयभीत करना चाहते हैं...इंद्र ऐसे दंभी लोगों से न तो डरता है, और न उनका सम्मान करता है। ऊंची उड़ान भरने के आकांक्षी इन गरुड़ों के पर कतरकर वह चींटियां बना देगा...।

और यदि वे समझते हैं कि मिथिला में इंद्र की नहीं सीरध्वज की सत्ता है, तो इंद्र उनका यह भ्रम भी दूर कर देगा। इंद्र जितने सैनिक अपने साथ लाया है, वे सीरध्वज की पूरी सेना को कई दिनों तक अटकाए रखने के लिए पर्याप्त हैं...। यदि सीरध्वज ने उसके विरुद्ध ऋषियों का पक्ष लेने का प्रयत्न किया, तो वह आर्य राजाओं से संधि की चिंता किए बिना, सीरध्वज को धूल चटा देगा...।

इस कुटीर में विलास के साधन उपलब्ध नहीं थे, जिनका इंद्र अभ्यस्त था; किंतु मदिरा का प्रबंध गौतम ने कर दिया था। यही बहुत था, नहीं तो सामान्यतः आश्रमों में पीने के लिए केवल दूध ही मिलता था। और इंद्र को सदा लगता था, कि जब कभी इन आश्रमों में वह गया है, वहां दूध पी-पीकर वह बीमार हो गया है। कहां मदिरा और कहां दूध! पर इन आश्रमों से इंद्र अपना संबंध तोड़ भी नहीं सकता था। आर्य-संस्कृति के प्रचारक ये आश्रम देव-सत्ता के पोषक थे। इनके निमंत्रण अस्वीकार कर, इनसे संबंध तोड़कर, इंद्र अपनी शक्ति क्षीण नहीं कर सकता था...। फिर इंद्र अपने मन से भी बाध्य था। इन आश्रमों में रहने वाली देव-बालाओं से भी सुंदर ऋषि-कन्याएं और ऋषि-पत्नियां, दर्शन मात्र से इंद्र के उष्ण रक्त का संचार तीव्रतर कर देती थीं। इंद्र सब कुछ छोड़ सकता था, किंतु इन ऋषि-पत्नियों तथा ऋषि-कन्याओं का आकर्षण नहीं छोड़ सकता था...

और इंद्र के मस्तिष्क में अहल्या का अलौकिक सौंदर्य जागा। इंद्र मदिरा के पात्र पर पात्र पीता जा रहा था। उसका रक्त और और उष्ण होता जा रहा था...मन आतुर। उसका शरीर काम के तनाब से खिंचता जा रहा था...। इंद्र अहल्या को प्राप्त करेगा ही, जैसे भी हो, वह अहल्या को प्राप्त करेगा...

आश्रम में आकर पहली संध्या, इंद्र ने बड़ी व्याकुलता में काटी थी। उसे लगता था कि जैसे समय कट ही नहीं रहा हो, और मदिरा क्रमशः कम होती जा रही हो।...अहल्या ने इंद्र के देव-रूप, उसके पद, वैभव तथा उसकी सत्ता के प्रति किसी प्रकार के सम्मोहन का संकेत तो नहीं ही दिया, वह तो एक बार अपनी कुटिया में जो समाई, तो फिर दिखाई ही नहीं पड़ी।...गौतम ने बड़ा अच्छा किया था कि अपनी कुटिया के साथ वाले कुटीर में इंद्र को ठहराया था। इंद्र अपने गवाक्ष में से, प्रतिक्षण गौतम की कुटिया पर दृष्टि रख सकता था, और उस कुटिया के भीतर अहल्या थी...अहल्या..यदि कहीं गौतम की कुटिया का गवाक्ष भी उसी प्रकार खुला होता, जिस प्रकार इंद्र ने अपने कुटीर का गवाक्ष खोल रखा था, तो इंद्र यह भी देख पाता कि अहल्या क्या कर रही है। वह उसे कोई इंगित भी कर सकता था, बुलाने का कोई प्रयत्न भी कर सकता था...

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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