पौराणिक >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास...
सीता का मन कहता है, राम से विवाह का अर्थ केवल लांछन से मुक्ति ही नहीं है। राम को पति-रूप में पाकर सीता के जीवन को एक दिशा मिलेगी, अन्याय के विरुद्ध चिर-संघर्षरत एक साथी मिलेगा, सीता का जन्म चरितार्थ होगा...सीता किसी राजभवन में पलंग पर बैठकर, दास-दासियों से सेवा करवा, दिन-रात पान चबाना अपने जीवन का लक्ष्य नहीं मानतीं...सीता संतान उत्पन्न करने के यंत्र के रूप में किसी राज-परिवार में उपयोगी सिद्ध होना नहीं चाहतीं...सीता के जन्म का भी एक उद्देश्य है, नहीं तो यह अज्ञातकुशीलता का कलंक लेकर संसार में
क्यों आतीं? नहीं तो उन्हें सीरध्वज के उदार मानवतावादी संस्कार क्यों प्राप्त होते?
सीते! सीते!! तेरे लिए एक ही उपयुक्त जीवन-संगी है...राम!
सीता लजा गईं। क्या सोच रही हैं वह...
पिता आज राम से मिलकर आए थे, तो कह रहे थे, "यदि मुझसे पूछती हो सीते! तो मैं कहूंगा, संसार में आदर्श जोड़ी ही एक हो सकती है-राम और सीता की।''
'अच्छा! अच्छा!' सीता ने अपने मन को डांटा, कल प्रातः आ तो रहे हैं। मैं भी देखूंगी तेरे राम को, कौन-से लाल जड़े हैं उनमें।
प्रातः, उषा-काल में ही, सीरध्वज का राजप्रासाद, राम का स्वागत करने के लिए, अपना प्रसाधन करने बैठ गया।
अभ्यागतों को बैठाए जाने का प्रबंध किसी कक्ष में नहीं हुआ था; प्रासाद के सबसे बड़े प्रांगण में उनके स्वागत की व्यवस्था हो रही थी। इसी प्रांगण में अनेक बार, प्रार्थियों को अजगव-संचालन की परीक्षा का अवसर दिया गया था। इसी से यह प्रांगण, अजगव-प्रागण कहलाने लगा था। किसी कक्ष में, परीक्षार्थ अजगव प्रस्तुत करना तो संभव नहीं ही था, अन्य किसी प्रांगण में भी उतना स्थान नहीं था। अभ्यागतों को यहां बैठाने की व्यवस्था के पीछे, विश्वामित्र द्वारा अजगब-चर्चा और सीरध्वज की धारणा कि राम अजगव-संचालन का प्रयत्न अवश्य करेंगे-दोनों ही बातें थीं।
सीता ने राम के स्वागत का समारोह देखा, तो मुस्करा दी। पिता कितने आतुर थे, राम के लिए। उन्होंने अपनी इच्छा तथा राम-सबंधी अपनी धारणा में कोई अस्पष्टता था द्वन्द्व नहीं रखा था। निर्द्वन्द्व, स्पष्ट ढंग से अपने मन की बात प्रकट कर दी थी, किंतु सीता की इच्छा जाने बिना, वे कोई निर्णय करना नहीं चाहते थे...सीता को कहीं यह भी लगा था कि पिता को, अजगव-संबंधी अपने प्रण को लेकर, एक हल्का-सा पश्चाताप भी है।...यदि कहीं उन्होंने वह प्रण न किया होता, तो कदाचित् कल संध्या समय ही वह राम को, अथवा उनके अभिभावक के रूप में ऋषि विश्वामित्र को वचन दे आते। पर पिता के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्मान होते हुए भी, पिता की बुद्धि और उनके निर्णयों पर पूर्ण विश्वास होते हुए भी, राम को देखे बिना सीता कोई निर्णय नहीं लेना चाहतीं...।
अपने कक्ष के झरोखे से सीता ने नीचे प्रांगण में ब्रह्मचारियों की टोली को आते देखा। सीता सतर्क होकर बैठ गईं। ये लोग, ऋषि विश्वामित्र तथा राम-लक्ष्मण के आगमन की पूर्व सूचना के रूप में आए होंगे। कुछ ही क्षणों में राम भी यहां पहुंच जाएंगे।
तभी द्वार पर आहट हुई।
सीता ने मुड़कर देखा, माता सुनयना, कक्ष के भीतर आ चुकी थी। उनके साथ कोई दासी नहीं थी। यह असाधारण बात थी। किंतु कल से इस प्रासाद में अनेक असाधारण बातें हो रही हैं। छायावत् चुपचाप अपने पति का अनुसरण करने वाली माता सुनयना कुछ अधिक सक्रिय हो उठी हैं। पति के चेहरे पर आशा देखकर, उनका मन भी उल्लसित हो उठा है।
"पुत्रि! सम्राट् चाहते हैं कि ऋषि विश्वामित्र के स्वागत के लिए तुम भी उपस्थित रहो!''
''अच्छा मां!''
सीता, मां के साथ चल पड़ी।
पिता ऐसा क्यों चाहते हैं-सीता समझती हैं-कल संध्या से ही पिता इस विषय में सीता का निर्णय जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं।...और सीता, बिना राम को देखे, निर्णय बताना नहीं चाहती।...तो पिता चाहेंगे ही कि सीता, गुरु के स्वागत के लिए उपस्थित रहें...।
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- प्रधम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- वारह
- तेरह