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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

शिलाओं को पिघला देने वाली राम की मुस्कान, अधरों पर आई, ''देवि! आप मुझे इतना महत्व न दें। मुझे ही अपनी ओर से कुछ कहने दें। मैं उन संपूर्ण लोगों की ओर से आपसे क्षमा-याचना करता हूं, जिन्होंने आपका अपराध किया है, और प्रतिज्ञा करता हूं कि जीवन में जब कभी इन्द्र से साक्षात्कार हुआ, उसे प्राण-दंड दूंगा...मेरी आयु अभी इतनी नहीं, मेरा ज्ञान भी अभी इतना नहीं, जितना इन ऋषियों, तपस्वियों, मुनियों और साधकों का है। मेरे सम्मुख तो अपना मार्ग भी स्पष्ट नहीं है। परन्तु मैं अत्यन्त चकित और पीड़ित हूं। ये लोग जानते हैं कि सत्य क्या है, उचित क्या है, न्याय क्या है। किंतु फिर भी ये सबके सब, किस भय से निष्क्रिय और जड़ पड़े हुए हैं। आपने कहा है देवि! इन सबको युग-पुरुष की प्रतीक्षा है, जो इन्हें इस जड़ता से उबार, नवजीवन दे सके: किन्तु वह पुरुष मैं ही हूं-यह कोई कैसे कह सकता है-मैं स्वयं भी कैसे कह सकता हूँ। पर हां, मैं प्रयत्न करूंगा कि इस जड़ता को यथाशक्ति तोडूं। आपने वर्षों की प्रतीक्षा की है देवि! आपकी प्रतीक्षा समाप्त हुई। जाइए, अपने पति के आश्रम में पधारिए। अब कोई आपको परित्यक्ता, पतित, हीन तथा सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से हेय कहने का साहस नहीं करेगा। मैं कौसल्या-पुत्र राम, वचन देता हूं कि यदि समाज ने आपको स्वीकार नहीं किया तो मैं या तो आपको प्रतिष्ठा दिलाऊंगा या इस दलित समाज का नाश कर नया समाज बनाऊंगा। देवि! मैं तो आज तक अपनी मां को ही बहुत पीड़ित मानता था, पर आपने तो उससे भी कहीं अधिक सहा है।''

''धन्य राम!'' विश्वामित्र का उल्लसित स्वर गूंजा, ''पुत्र! तुम मेरी अपेक्षाओं से भी उच्च हो, परे हो।...जाओ देवि! तुम्हें कौसल्या के पुत्र राम का संरक्षण प्राप्त है। अब कोई भी जड़ चिंतक, ऋषि, मुनि, पुरोहित, बाह्मण, समाज-नियंता तुम्हें सामाजिक और नैतिक दृष्टि से अपराधी नहीं ठहराएगा।''

अहल्या समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे। उसके हृदय में कितनी उथल-पुथल थी। उस सबको वाणी देने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे। उसके हाथ, आयु में स्वयं से बहुत छोटे, राम के सम्मुख जुड़ गए। उसकी आंखों से धारा-प्रवाह अश्रु बह रहे थे। उसने ऐसे आनन्द का अनुभव पहले कभी नहीं किया था।...शब्दों में कुछ न कह सकी, तो उसने अपना माथा झुकाकर, अपने जुड़े हाथों पर टिका दिया...

अहल्या की कातरता देखकर नवयुवक राम अपने भीतर अत्यन्त परिपक्व और प्रौढ़ पुरुष, मनोवृद्ध व्यक्ति का-सा अनुभव करने लगे। बोले, ''कातरता छोड़ो देवि! प्रफुल्ल और प्रसन्न होओ।''

अहल्या अपनी विह्वलता से उबरी। स्वयं को संतुलित किया और बोली, ''मेरी भूल क्षमा करो। मैं अपने पाप में ही भूली रही। आप लोगों को बैठने को नहीं कहा। आसन ग्रहण करें। मैं कुछ फल-फूल ले आऊं...'' सहसा उसकी वाणी उत्साहशून्य हो गई, ''...मेरे हाथ का भोजन ग्रहण कर...।''

''अहल्या!'' विश्वामित्र ने स्नेह सधे कठोर स्वर में डांटा।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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