पौराणिक >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास...
राम ने बाड़े का फाटक खोला और भीतर चले गए। कुटिया के द्वार पर क्षण-भर के लिए रुक, खटखटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो द्वार अपने आप ही खुल गया-वह भीतर से बंद नहीं था। राम ने द्वार पूरी तरह खोल दिया, कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा की और भीतर प्रवेश किया।
विश्वामित्र उनके पीछे-पीछे आकर कुटिया के द्वार पर खड़े हो गए। वह इसी क्षण की प्रतीक्षा पिछले पच्चीस वर्षों से कर रहे थे...आज संपूर्ण आर्यावर्त में सर्वाधिक सम्मानित सम्राट् दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण, स्वयं अपनी इच्छा से, अहल्या की कुटिया में प्रवेश कर, उसके सम्मुख जा खड़े हुए थे। राम अहल्या के सामाजिक बहिष्कार का अन्त करने के लिए उद्यत थे; और एक बार राम द्वारा अहल्या को सम्मान
मिल गया तो फिर कोई अन्य जन अहल्या के साथ दुर्व्यवहार नहीं कर सकेगा।...
अस्पष्ट-सी आहट से अहल्या का ध्यान भंग हो गया। उसने अचकचाकर आंखें खोल दीं। सिर उठाकर देखा...आकृतियों को पहचानने में उसे थोड़ा-सा समय लगा। वर्षों से उसने किसी मानव-आकृति को इतने समीप नहीं देखा था। वह तो प्रायः भूल ही गई थी कि किसी और मानव का भी इस लोक में अस्तित्व है।...धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क में, उसके कल्पना-लोक में, उसके विचारों में आकृतियां लौट रही थीं। जीवित प्राणियों की...मानवों की।...उसने पहचानना आरम्भ किया...उसके सम्मुख एक नवयुवक और एक किशोर-दो सुंदर राजसी पुरुष खड़े थे... कौन? विश्वामित्र...हां वह ही थे। पिछले वर्षों में वह कितने बदल गए थे। उन्हें पहचानना कठिन नहीं था।
अहल्या समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। वर्षों का अंतराल बीत गया। कभी कोई उसकी कुटिया में नहीं आया, उसके आश्रम में नहीं आया।...और आज ऐसा क्या हो गया कि स्वयं ऋषि विश्वामित्र इन दो राजपुरुषों के साथ, उसकी कुटिया में आ गए हैं। क्या अब वह पतिता नहीं रही? क्या अब वह मानव-समाज को स्वीकार्य है? क्या अब वह अपने पति और पुत्र से मिल पाएगी? उसके कारण, लोग उन्हें अपमानित नहीं करेंगे? ये ऐसे कौन पुरुष हैं, जिन्होंने इतने भयंकर सामाजिक विरोध की चिंता नहीं की है...
वर्षों से रुद्ध कंठ से वाणी फूटी। अहल्या स्वयं ही अपना स्वर पहचान नहीं पा रही थी। उसके अपने कानों को ही अपना स्वर अपरिचित लग रहा था। अपने एकांत-जीवन के आरंभिक दिनों में कभी-कभी परेशान होकर वह अपने-आप से बातें करने लगती थी-जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी। पर, अब तो उस बात को भी बहुत समय बीत चुका है।
''ऋषि विश्वामित्र! इतने लम्बे अन्तराल के पश्चात् आपको अपनी कुटिया में आया देख, मेरे मन में क्या हो रहा है-उन भावों को अभिव्यक्त नहीं कर सकती! ऋषिवर! आप अपने साथ किन को लाए हैं? ये दो राजकुमार-से नवयुवक कौन हैं?''
''देवि अहल्या! मैं इन्हें नहीं लाया हूं। ये लोग मुझे लाए हैं। इनके बिना, मैं स्वयं भी यहां तक आने का साहस, कभी नहीं कर पाया था।''
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- प्रधम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- वारह
- तेरह