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मर्डरर की माँ

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2877
आईएसबीएन :81-8143-102-2

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इसमें एक अपराधी की माँ की कहानी का वर्णन है...

mardarar ki maa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मेरे बेटे के हाथ में छुरा थमाया भवानी बाबू ने ! ये लोग मर गये ! तपन भी मर जाएगा। लेकिन वे लोग और-और मर्डरर ले आएंगे जो ख़ून करता है वह ज़रूर मुजरिम होता है। मेरे बेटे ने जो ख़ून किया, वह ख़रीद फ़रोख़्त की मंडी में एक लड़की को वेश्या-जीवन से बचाने के लिये किया। इस टाउन में, चिरकाल मैं सिर झुकाए जीती रही। लेकिन आज के लिए मुझे कोई लज्जा कोई शर्मिन्दगी नहीं है। लेकिन दारोगा बाबू, जो लोग मर्डरर कराते हैं। वे लोग तो खुले ही छूट गए। आज़ाद ही रहे ! यह कैसा फैसला है ?  तपन क्या अकेला ही मर्डरर है ?  भवानी बाबू क्या है ?
‘आप जाइये-’

‘कोई जवाब है ?’
तपन की मां की सूखी-सूखी आँखों में सूखा-सूखा हाहाकार !
भवानी बाबू जैसे लोग तो भी तो मर्डरर हैं, लेकिन उन लोगों को कोई पकड़ेगा; कोई गिरफ्तार नहीं करेगा।
समवेत जनता में खुसफुस शुरू हो गयी।
अभीक ने पूछा, ‘आप जा रही हैं ?’
‘हाँ, उसे तो घर पर ही लाएंगे, मैं चलूँ ?
राधा आगे बढ़ आयी।

बीरू, कुश और क्षिति उनके साथ-साथ चल पड़े।
तपन की मां सिर ऊँचा किये आगे बढ़ गयी।
दारोगा साहब देखते रहे, एक अदद मर्डरर की मौत पर क्रुद्ध आवाक् जनता का चेहरा !
दरोगा सहाब देखते रहे, मर्डरर की माँ शान से सिर ऊंचा किये, आगे बढ़ती जा रही थी।


एक

 


रात के ग्यारह बजते ही रानी अपनी आँखें खुली नहीं रख पाती थी। उसकी पलकें मुंदने लगती थीं। उसे बस नींद आने लगती थी। लेकिन इस बैरक के घरों में रानी जैसी औरतों को, कोई इतनी जल्दी सोने नहीं देता था। झलमल मैक्सी या कुर्ता-पायजामा या बम्बइया हीरोइनों के अन्दाज़ में ड्रेस पहनकर बैठे रहना पड़ता था। यूं बैठे रहना, उनकी लाचारी थी। उसके बाद, वे कपड़े उतारने होते थे। अर्से से उन औरतों को यही करना पड़ता था ! बार-बार अपने कपड़े उतारने पड़ते थे। अनादि काल से रानी जैसी औरतों को ऐसा क्यों करना पड़ता था; उन लोगों को बार-बार नंगी क्यों होना पड़ता था, रानी नहीं जानती थी। फिर कौन जानता है ?

उत्तर चौबीस परगना का यह शहर, कलकत्ता से काफी करीब था। बैरेक में गिरे ये घर, शहर में ऐसी जगह पर थे, जहाँ से अन्दर तो दाखिल हुआ जा सकता था, मगर बाहर नहीं निकल सकते थे। बाकी शहर जब गहरी नींद में सो जाता था, ये घर बेतरह जाग उठते थे। पांच-पांच जगहों पर सारी रात वीडियो चलता रहता था। इस बैरेक अहाते में ताड़ी का एक ठेका था और ड्रग का भी एक ठेका मौजूद था। इसके अलावा, ढेरों रानी जैसी औरतें भी थीं।

यह एक वृहद साम्राज्य था, जहां से मोटे राजस्व का मुनाफा होता था। इस साम्राज्य का सम्राट था—टाइगर ! यहां अगर कोई सम्राट मर जाये, तो उसका बेटा सम्राट नहीं होता। कोई दूसरा बंदा और ज़्यादा जबरजंग हो उठता था। वह पुराने सम्राट से बाक़ायदा जंग करता था और साम्राज्य दखल कर लेता था। यह साम्राज्य हथकट्टे दीनू ने कांग्रेस के जमाने में रचा-बढ़ा था। अभी तक दीनू के बारे में सैकड़ों किस्से-कहानियां प्रचलित थे। कहते हैं, नेता जी दिवस के दिन वह बस्ती के बच्चों के साथ धूमधाम से जश्न मनाता था। मोटर सायकिल, एम्बेसडर वगैरह होने के बावजूद, वह हमेशा सायकिल रिक्शे में ही घूमता था। यह बैरक के सारे घर उसी के थे। औरतों का मालिक भी वह खुद था। इसके बावजूद, उसने छवि को रिहा कर दिया था।
कभी-कभी रानी और उसकी सहेलियां, मौसी के साथ गपशप भी किया करती थीं। रानी को छवि की कहानियां सुनना बेहद प्रिय था।
छवि बिल्कुल नई-नकोर लड़की थी। तब तक इस धंधे में पुख्ता नहीं हुई थी। मौसी ने कहा, ‘‘छवि के तन-बदन से सड़क-घाट की खुशबू आती थी। लेकिन वह हद रोती-धोती थी।’
‘लेकिन वह छूट कैसे गयी ?’

‘वह तो गजब कांड था।’
‘क्या हुआ था, मौसी बताओ न !’
उन दिनों दीनू, रात दस बजे मौसी के कमरे में बैठकर दारू पीया करता था। लेकिन यहां वह एक रात भी नहीं गुज़ारता था। चाहे जितनी भी रात हो जाती, अगर वह शहर में होता, तो अपने घर ज़रूर लौट जाता। दीनू का घर भी शहर में ही था। ऐन लाइन के ऊपर ! पुश्तैनी घर था; सुनदर बीवी थी; बेटा था। दीनू बाडीगॉर्ड रखता था; रखना ज़रूरी था। ईरानी उसका बॉडीगार्ड था। हर दिन की तरह, उस रात भी दारू-वारू चढ़ाकर, करीब ग्यारह बजे अपने घर लौटने को उठ खड़ा हुआ।

छवि अपना ग्राहक विदा करके, अपने कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी।
बाहर जाते-जाते उसका जूता, छवि के बदन से टकरा गया।
 अचानक उसकी जुबान से निकला, ‘कौन हो, मां ? मैंने देखा नहीं, कहीं तुम्हें चोट तो नहीं लग गयी ?
मासी हंस पड़ी, ‘आप किसको ‘मां’ कह रहे हैं बाबू ? वह तो छवि है। चांपबेड़े वाली छोकरी। जिसको लेकर बैशाख में इतना हंगामा हुआ मचा था। जो बार-बार भाग जावे को अमादा रहती है।’
छवि खड़ी-खड़ी दहशत से थरथरा उठी।

‘दीनू बाबू’—नाम सुनते ही चारों तरफ खौफ़ छा जाता था। सुना था, दीनू की हुंकार सुनते ही, गर्भवती को अकाल-प्रसव हो जाता था। वह आदमी को सामने खड़ा करके, चेम्बर लगा देता था। छवि डर के मारे कांपती रही। उसकी आंखों में धार-धार आंसू बहने लगे। दो-तीन बार सिर को झटका देकर दीनू ने अपना दिमाग साफ किया। वह दिन उसके लिए बेहद शुभ था। जिद में आकर, उसने लक्जरी-टैक्सी का एक गैरेज खरीद डाला था। उस दिन वह गैरेज उसने काफी मुनाफे में बेच दिया था। आज वह बेहद खुश-खुश था।

दीनू ने कहा, बेटी कहां है ! मेरी जुबान पर ‘बेटी’ शब्द आया कैसे ? ज़रूर यह देवी मइया की इच्छा है। पूजा के समय हम देवी मइया को सच्चे मन से पुकारे थे—दीनू का कोई नाहीं है, मइया ! दीनू बड़ा पापी-तापी है। हम खानदान के मुंह पर कालिख पोत दिये हैं। मइया, तुम तो देखत हो, कितने दुःख तकलीफ से ऊपर उठे पड़त है। मोरी पूजा ‘सविकार’ करो, मां, हमारी पूजा ग्रहण करो। हम पूजा किए, मइया ने मोरा फूल लै लिया। भगवान की किरपा बिना, यह कहां संभव था ? मेरी अपनी सग्गी मां कुपुत्तर का मुंह नाहीं देखेगी, इसलिए बड़े बेटे के पास रहती है और बेटे बहुरिया के लात जुते खाय रही है। हम उसको कब्भी देखने भी नाहीं जाते। मन आकुल-व्याकुल होता है, मगर हम मन ही मन पी जाता हूँ। हम उनको कब्भी देखन नाहीं गये। हम मन ही मन मानता हूँ-हे मइया ! हे मोरी मइया ! सो मोरी जुबान से, इत्तनी बड़ी-बड़ी बात निकल गयी ?... क्या कह रही थी तुम ? इ लड़की भाग गयी थी ?’
‘हाँ, जी, बाबू दो-दो बार भाग गयी थी।’

‘खैर छोड़ो, जुबान से बोल दिया...
‘मां’ नाम की महिमा, तू क्या समझेगी, छिनाल औरत ? भतार छोड़कर, ई लाइन में उतर गयी। जब देह-गतर जवाब दे गयी तो ‘मासी’ बन गयी। ‘मां’ कहते हैं, देवी को, जनम देने वाली मां को और बेटी को। जब उस लड़की को मां कहा है, तो उसको हाम छोड़ दूँगा।’
छवि फफक-फफककर रो पड़ी।
‘छोड़ देंगे ? मगर वह जायेगी कहां ? इत्तने दिनों में उसका विषदांत मरने वाला है, पोस मानने लगी है।’
‘तू चुप कर-’
‘लेकिन जायेगी कहां ? मां-बाप उसको कबूल करेंगे ?’
‘यह सब वह समझेगी। देख लड़की, हम तुमको छोड़ दूँगा। कल तुमको रेल में बैठा दूँगा। लेकिन, ख़बर, थाना-पुलिस करने की सोचना भी मत।’

दीनू ने छवि को सच ही रिहा कर दिया। साथ ही यह हुक्म भी जारी कर दिया गया कि दीनू बाबू जब घर में दाखिल हों या बाहर निकलें, कोई अपने दरवाजे पर खड़ी न रहे। बाबू के पांव फिर लड़खड़ा सकते हैं। वे फिर किसी को ‘मां’ कह सकते हैं। जिसके लिए जुबान से ‘मां’ निकल जाये, उसे रिहा करना ही पड़ेगा, क्योंकि ‘मां’ बुलाने के बाद, उसकी देह बेचकर, पैसा कमाना महापाप है। ‘मां’ शब्द की विराट महिमा है। ऐसी दुर्घटना एकाध बार ही श्रेयस्कर है। बार-बार ऐसे हादसे होते रहे, तो कारोबार में लाल बत्ती जल जायेगी।
मासी ने उसे किस्सा सुनाते हुए कहा, ‘इसके अलावा यह तो कारोबार है। ऐसा बार-बार होता तो नुकसान हो जाता न ?’
‘‘उसको सच्ची-सच्ची छोड़ दिया ?’
‘मैं खुद गयी, सियालदह से टिकट कटाकर, उसे रेल में बिठा आयी।’
‘उसके बाद क्या हुआ, जी ?’

‘इसकी खबर कौन रखता ? पान की दुकान के विलास ने बताया, उसे कोले बाज़ार की फुटपाथ पर केला-खीरा बेचते हुए देखा है। पता नहीं, किसको देख आया। निकल भागने को सभी मचलती हैं, लेकिन जायेंगी कहाँ ? मां-बाप कुबूल करेंगे ? शादी-ब्याह होवेगा ? अगर यहां से भाग भी गयीं, तो ज़्यादातर हां-वहां, इसी लाइन में उतरेंगी। अरे, सब्ब जगह दल्लाल घूमते हैं। वे लोग ही उन्हें ले जाते हैं और फिर इसी लाइन में डाल देते हैं।’
‘उसके बाद ?’
‘उसके बाद, और क्या ? क़िस्मत बुलंद हो तो मेरी तरह ‘मासी’ बन जाती है, वर्ना चूल्हे में जा पड़ती हैं। अच्छा, चल अब सोने जा ! मैं भी, टुक कमर सीधी कर लूं। तू क्यों फ़िक्र करती है ? जब तक देह सलामत है, तुझे फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है।’

जितने दिनों कांग्रेस का राज था, उतने दिनों दीनू की भी शान-शौकत, रौब-दाब था। बम बनाते हुए उसका दाहिना हाथ उड़ गया। लेकिन उसकी ख़ैर-ख़बर लेने के लिए, अस्पताल तक में नेता लोग आये थे; ‘दीनू बाबू’ कहकर आदर से बात की थी। पुलिस के बड़े-बड़े कर्ता दीनू को केस देते थे। उसे कभी भी पकड़ नहीं पाये।

कांग्रेस गयी, दीनू भी गया। दीनू को तपन ने हटाया। दीनू या तपन या जो भी कोई, सब अपने-अपने समय के रंग-रूट थे। तत्कालीन समय और इतिहास उन लोगों का चुनाव करता है, जैसे युद्ध की ज़रूरत पर सिपाही तैनात किए जाते हैं। युद्ध भी तो इतिहास रचता है, जैसे इतिहास युद्ध तैयार करता है। पश्चिम बंगाल में, किसी ज़माने में गोपाल पांठा, उसके बाद, कल का रमेन मंडल और उनके परवर्ती समय से लेकर, आज तक, तत्कालीन राजनीति का इतिहास ही तो ऐसे लोगों को चुनकर, तैनात करता रहा है। उनके हाथों में हथियार थमाता रहा है। वैसे आजकल ऐसे लोगों की ज़रूरत बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है। राजनीति अब समाज-विरोधियों को नियंत्रित नहीं करती। राजनीति और अपराध-उद्योग एक-दूसरे को थामे रहते हैं। भारत के नक्शे में अनगिनत जगहें, इन्हीं लोगों की दखल में होती हैं। समाज-दुश्मन अब वोट में खड़े होते हैं। जननेता बन जाते हैं। जनता क्या सोचती है। इसका हिसाब कोई नहीं रखता। ये बातें कागज-कलम में दर्ज नहीं होतीं। किसी ज़माने में जब राजनीति इन्हें नियंत्रित करती थी, समय नामक, इतिहास रचयिताओं ने इन लोगों के हाथ में छुरा, रिवाल्वर, पिस्तौल और बम थमा दिये। आज भी उन्होंने ऐसे लोगों के हाथों में एक से एक आधुनिक हाथियारों अग्नि-अस्त्र और अधिक शक्तिशाली बम सौंप दिये हैं, लेकिन इस वजह से पुराने ज़माने की छुरी-छूरे खारिज़ नहीं हुए। निर्जन एकान्त में घातक की तौर पर छुरी आज भी बेहद प्रसिद्ध है। एकदम से ख़ारिज नहीं हो गयी।

तपन अपने ज़माने का रंगरूट था। जिन दिनों तरुण समाज को बहुत बड़ा हिस्सा नक्सल आंदोलन में उत्ताल हो उठा था। उसके ठीक बाद ही महानगर और अन्यान्य गांव-शहरों में नक्सलपंथी नौजवानों के ख़ून की होली खेली गयी और उसके फौरन बाद, जब कांग्रेस का राज हुआ, उससे पहले ही शहरों में, बेरोजगारी हताशा झेलते हुए अर्ध-शिक्षित, शिक्षित में से काफी सारे नौजवानों को हत्यारे मर्डरर और घातक तैयार कर लिया गया था। काफी सारे समाज-विरोधी लोग, पुलिस के दुश्मन नहीं, दोस्त बन गये थे।
कीमत के विनिमय में।
पुलिस ने दिए रुपये और इन लोगों ने दिया, जीवन, सम्मान, इन्सान के नाम पर जीने का हक़ ! लेकिन खुद इन्सान नहीं रह पाये।

सन् 1972 और 1975 में, जब अनगिनत नक्सलपंथी बाहर भी थे और जेल के अन्दर भी, तब कांग्रेस सरकार और पुलिस ने मिलकर अनगिनत अर्ध-शिक्षित, ट्रिगर-हैपी नौजवानों को तैनात किया। ये लोग कंगसल थे। ये लोग जुबान से तो नक्सल-समर्थक बने हुए, नक्सल दल में घुस गये, जबकि ये लोग कांग्रेस के आदमी थे। इन लोगों को निर्देश दिया गया कि मौके-बेमौके ख़ूनखराबी करते चलो, बेकसूर लोगों की जान लेते रहो, जिन हत्याओं के पीछे किसी वजह का पता न चलेगा और जिन्हें नक्सल लोगों की करतूत कहकर प्रचारित किया जायेगा। यह सिलसिला अगर लगातार चलाते रहे, तो नक्सलपंथियों के प्रति आम लोगों की जो श्रद्धा है, वह खत्म हो जायेगी। उन लोगों को नृशंस ख़ूनी, क्रूर हत्यारों के तौर पर प्रचारित कर दिया जायेगा।

इसके साथ एक निर्देश और भी था। कसूरवार नक्सल के तौर पर तुम लोगों को भी धरा जायेगा और उन लोगों के साथ एक ही जेल में रखा जायेगा। वहां उन बागियों के दोस्त बनकर, तुम लोग उनके गुप्त रहस्य, गोपन बातें जान लेना। जोल तोड़कर उनके निकल भागने की योजना, कौन, कहाँ छिपकर बैठा है—ये सारी बातें उनके पेट से निकाल लेना।
तपन भी कंगसल था। जेल के अन्दर नक्सल लोगों पर चाहे जितनी भी मार-पीट, ज़ोर-जुल्म बरसाए जाते, कंगसल लोगों को पहचानने में भूल नहीं की। उन लोगों ने कंगसल लोगों को अहमियत नहीं दी। इसलिए जेलों में ये कंगसल थोड़ा-बहुत अलग-थलग हो गए। सन् सतहत्तर के बाद, इन कंगसलों में विश्वस्त सेवाओं को पुरस्कृत किया गया और उन्हें जगह-जगह अहम् पदों पर आसीन कर दिया गया। जिसकी जैसी योग्यता थी, उसे वैसा काम मिल गया।

जन्म से ही हाथ गंवा देने वाला, छन्नू किसी ज़माने में ‘राजनीति करने गये पुलुस का लाठी खाकर, ‘ई दशा भयी’ कहते हुए, अपना लूला हाथ दिखाता फिरता था। बाद में, उसने देखा, उसकी यह दुहाई, धोबी के पाटे पर नहीं टिकती। इसके बाद, छन्नू, चुप्प मार गया। एकदम गूंगा हो आया। अपना स्वास्थ्य-सेहत चुस्त-दुरुस्त करके, जब वह जेल से बाहर आया, वह बाजार में मुर्गी जिबह करते और बेचते देखा गया।

तपन किसी और तबके का इन्सान था। सूरत-शक्ल से ख़ूबसूरत, हंसी ख़ूबसूरत, धाकड़, चाकू-छुराबाज़ के तौर पर उसकी काफ़ी कद्र थी। नेता लोगों की हिदायत पर, वह जेल गया था। नेता लोगों ने ही उसे शहर के मलय से भिड़ा दिया था। मलय दीनू के दल में थे। लेकिन महज एक चुल्लू का ठेका पीकर, उसका मन नहीं भरा। उसने अपने को ‘शोषित और वंचित’ महसूस करता था।


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