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हास्य-व्यंग्य >> रानी नागफनी की कहानी

रानी नागफनी की कहानी

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2875
आईएसबीएन :9788170551997

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हरिशंकर परसाई द्वारा हास्य-व्यंग्य पर आधारित पुस्तक...

Rani nagfani ki kahani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह एक व्यंग्य कथा है। ‘फेंटजी’ के माध्यम से मैंने आज की वास्तविकता के कुछ पहलुओं की आलोचना की है। ‘फेंटेजी’ का माध्यम कुछ सुविधाओं के कारण चुना है। लोक-मानस से परंपरागत संगति के कारण ‘फेंटेजी’ की व्यंजना प्रभावकारी होती है इसमें स्वतंत्रता भी काफी होती है और कार्यकारण संबंध का शिकंजा ढीला होता है। यों इनकी सीमाएं भी बहुत हैं।

मैं ‘शाश्वत-साहित्य’ रचने का संकल्प करके लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंतकाल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।

मुझ पर ‘शिष्ट हास्य’ का रिमार्क चिपक रहा है। यह मुझे हास्यापद लगता है। महज हँसाने के लिए मैंने शायद ही कभी कुछ लिखा हो और शिष्ट तो मैं हूँ ही नहीं। कभी ‘शिष्ट हास्य’ कहकर पीठ दिखाने में भी सुभीता होता है। मैंने देखा है-जिस पर तेजाब की बूँद पड़ती है, वह भी दर्द दबाकर, मिथ्या अट्ठहास कर, कहता है, ‘वाह, शिष्ट हास्य है।’ मुझे यह गाली लगती है।

खैर, अब ‘रानी नागफनी की कहानी पढ़िए’।


लेखक


सात-आठ साल पहले मुंशी इंशाअल्लाखां की ‘रानी केतकी की कहानी’ पढ़ते हुए मेरे मन में भी एक ‘फेंटजी’ जन्मी थी। वह मन में पड़ी रही और उसमें परिवर्तन भी होते रहे। अब वह ‘रानी नागफनी की कहानी’ के रूप में लिखी गयी।
यह एक व्यंग्य-कथा है। ‘फेंटजी’ के माध्यम से मैंने आज की वास्तविकता के कुछ पहलुओं की आलोचना की है। ‘फेंटजी’ का माध्यम कुछ सुविधाओं के कारण चुना है। लोक-कल्पना से दीर्घकालीन संपर्क और लोक-मानस से परंपरागत संगति के कारण ‘फेंटजी’ की व्यंजना प्रभावकारी होती है। इसमें स्वतंत्रता भी काफी होती है और कार्यकारण संबंध का शिकंजा ढीला होता है। यों इसकी सीमाएं भी बहुत हैं।
मैं ‘शाश्वत साहित्य’ रचने का संकल्प करके लिखने नहीं बैठता। जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंत काल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।
मुझ पर ‘शिष्ट हास्य’ का रिमार्क चिपक रहा है। यह मुझे हास्यास्पद लगता है। महज हँसाने के लिए मैंने शायद ही कभी कुछ लिखा हो और शिष्ट तो मैं हूँ ही नहीं। मगर मुश्किल यह है कि रस नौ ही हैं और उनमें ‘हास्य’ भी एक है। कभी ‘शिष्ट हास्य’ कहकर पीठ दिखाने में भी सुभीता होता है। मैंने देखा है-जिस पर तेजाब की बूँद पड़ती है, वह भी दर्द दबाकर मिथ्या अट्ठहास कर, कहता है, ‘वाह, शिष्ट हास्य है।’ मझे यह गाली लगती है।

खैर, अब ’रानी नागफनी की कहानी’ पढ़िए।

 

-लेखक


फेल होना कुँअर अस्तभान का और करना आत्महत्या की तैयारी

 


किसी राजा का एक बेटा था जिसे लोग अस्तभान नाम से पुकारते थे। उसने अट्ठाइसवाँ वर्ष पार किया था और वह उन्तीसवें में लगा था। पर राजा ने स्कूल में उसकी उम्र चार साल कम लिखाई थी, इसलिए स्कूल रजिस्टर के मुताबिक उसकी उम्र चौबीस साल ही होती थी।

कुँअर अस्तभान का एक मित्र था जिसका नाम मुफतलाल था। मुफतलाल उस युग में बड़ा प्रसिद्ध आदमी हो गया है। जब लोगों को ‘जैसा नाम वैसा काम’ का उदाहरण देना होता, तो वे मुफतलाल का नाम लेते थे। कुँअर अस्तभान और मुफतलाल दोनों बचपन के साथी थे। दोनों साथ स्कूल जाते और एक ही बेंच पर बैठते। दोनों कक्षा में बैठे-बैठे साथ मूँगफली खाते; पर पिटता मुफतलाल था। अस्तभान बच जाता, क्योंकि वह राजा का लड़का था। दोनों पुस्तकें बेचकर मेटिनी शो सिनेमा देखते। परीक्षा में दोनों एक दूसरे की नकल करते, इसलिए अक्सर दोनों ही फेल हो जाते। बकरे की बोली बोलना दोनों ने एक साथ ही सीखा था और दोनों लड़कियों के कालेज के चौराहे पर साथ-साथ बकरे की बोली बोलते थे। इस प्रकार दोनों की शिक्षा-दीक्षा एक-सी अच्छी हुई थी। पर एक राजकुमार था और दूसरा उसका मुसाहिब। इसी को लक्ष्य करके किसी ने कहा है-दो फूल साथ फूले किस्मत जुदा-जुदा।’

मई का महीना है। यह परीक्षाओं के रिजल्ट खुलने का मौसम है। दोनों मित्र इस वर्ष बी.ए. की परीक्षा में बैठे हैं।
प्रभात का सुहावना समय है। अस्तभान अपने कमरे में बैठा है। पास ही मुफतलाल है। अस्तभान की गोद में चार-पाँच अखबार पड़े हैं। वह एक अखबार उठाता है और उसमें छपे सब नाम पढ़ता है। फिर आह भरकर रख देता है। तब दूसरा अखबार उठाता है। उसमें छपे हुए नाम पढ़कर एक आह के साथ उसे भी रख देता है। इस प्रकार वह सब अखबार पढ़कर रख देता है और खिड़की के बाहर देखने लगता है। मुफतलाल छत पर टकटकी लगाये बैठा है।
कमरे में बड़ी भयानक शान्ति है। शान्ति को अस्तभान भंग करता है। मुफललाल की तरफ नजर घुमाकर कहने लगा, मित्र तुम पास हो गए और मैं इस बार भी फेल हो गया।

मुफतलाल की आँखों से टपटप आँसू चूने लगे। वह बोला, ‘कुमार मैं पास हो गया, इस ग्लानि से मैं मरा जा रहा हूँ। आपके फेल होते हुए मेरा पास हो जाना इतना बड़ा अपराध है कि इसके लिए मेरा सिर भी काटा जा सकता है। मैं अपना यह काला मुँह कहाँ छिपाऊँ ? यदि हम दूसरी मंजिल पर न होते, जमीन पर होते, तो मैं कहता-हे माँ पृथ्वी, तू फट जा और मैं समा जाऊँ।’

मित्र के सच्चे पश्चात्ताप से अस्तभान का मन पिघल गया। वह अपना दुख भूल गया और उसे समझाने लगा, ‘मित्र, दुखी मत होवो। होनी पर किसी का वश नहीं। तुम्हारा वश चलता तो तुम मुझे छोड़कर कभी पास न होते।’
मुफतलाल कुछ स्वस्थ हुआ। अस्तभान ने अखबारों को देखा और क्रोध से उसका मुँह लाल हो गया। उसने सब अखबारों को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। फिर पसीना पोंछकर बोला, ‘किसी अखबार में हमारा नाम नहीं छपा। ये अखबार वाले मेरे पीछे पड़े हैं ये मेरा नाम कभी नहीं छापेंगे। भला यह भी कोई बात है कि जिसका नाम अखबार वाले छापें, वह पास हो जाए और जिसका नाम न छापें, वह फेल हो जाए। अब तो पास होने के लिए मुझे अपना ही अखबार निकालना पड़ेगा। तुम्हें मैं उसका सम्पादक बनाऊँगा और अब तुम मेरा नाम पहले दर्जे में छापना।’

मुफतलाल ने विनम्रता से कहा, ‘सो तो ठीक है, पर मेरे छाप देने से विश्वविद्यालय कैसे मानेगा ?’
कुँअर ने कहा, ‘और इन अखबारों की बात क्यों मान लेता है ?’
मुफतलाल का हँसने का मन हुआ। पर राजकुमार की बेवकूफी पर हँसना, कानूनन जुर्म है, यह सोचकर उसने गम्भीरता से कहा, कुमार पास फेल तो विश्वविद्यालय करता है। अखबार तो इसकी सूचना मात्र छापते हैं।’

अस्तभान अब विचार में पड़ गया। हाथों की उँगलियाँ आपस में फँस गयीं और सिर लटक गया। बड़ी देर वह इस तरह बैठा रहा। फिर एकाएक उठा और निश्चय के स्वर में बोला, ‘सखा, हम आत्महत्या करेंगे। चार बार हम बी.ए. में फेल हो चुके। फेल होने के बाद आत्महत्या करना वीरों का कार्य है। हम वीर-कुल के हैं। हम क्षत्रिय हैं। हम आन पर मर मिटते हैं। हमें तो पहली बार फेल होने पर ही आत्महत्या कर लेनी थी। पर हमने विश्वविद्यालय को तीन मौके और दिये। अब बहुत हो चुका। हमें आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। जाओ, इसका प्रबन्ध करो।’

मुफतलाल उसके तेज को देखकर सहम गया। वह चाहता था कि अस्तभान कुछ दिन और जिन्दा रहे। उसने डिप्टी कलेक्टरी के लिए दरख्वास्त दी थी और चाहता था अस्तभान सिफारिश कर दे। वह समझाने लगा, कुमार मन को इतना छोटा मत करिये। आप ऊँचे खानदान के आदमी हैं। आपके कुल में विद्या की परंपरा नहीं है। आपके पूज्य पिता जी बारह खड़ी से मुश्किल से आगे बढ़े और आपके प्रातः स्मरणीय पितामह तो अँगूठा लगाते थे। ऐसे कुल में जन्म लेकर आप बी.ए. तक पढ़े, यह कम महत्त्व की बात नहीं है इसी बात पर आपका सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए। कुमार, पढ़ना-लिखना हम छोटे आदमियों का काम है। हमें नौकरी करके पेट जो भरना है। पर आपकी तो पुश्तैनी जायदाद है। आप क्यों विद्या के चक्कर में पड़ते हैं ?’

दुविधा पैदा हो गयी थी। ऐसे मौके पर अस्तभान हमेशा मुफतलाल की सलाह माँगता था। उसे विश्वास था कि वह उसे नेक सलाह देता है।
कहने लगा, ‘मित्र, मैं दुविधा में पड़ गया हूँ। तू जानता है मैं तेरी सलाह मानता हूँ। जो कपड़ा तू बताता है, वह पहनता हूँ। जो फिल्म तू सुझाता है, वही देखता हूँ। तू ही बता मैं क्या करूँ। मैं तो सोचता हूँ कि आत्महत्या कर ही लूँ।’

मुफतलाल ने कहा, ‘जी हाँ, कर लीजिए।’
अस्तभान कुछ सोचकर बोला, या अभी न करूँ ?’
मुफतलाल ने झट कहा, जी हाँ, मत करिए। मेरा भी ऐसा ही ख्याल है।’
कुँअर फिर सोचने लगा। सोचते-सोचते बोला, एक साल और रुकूँ। अगले साल कर लूँगा। क्या कहते हो ?’
मुफतलाल ने कहा, जी हाँ मैं भी सोचता हूँ कि अगले साल ही करिए।
कुँअर फिर बोला, ‘पर फेल तो अगले साल भी होना है। अच्छा है, अभी आत्महत्या कर डालूँ।’
मुफतलाल ने कहा, ‘जी हाँ, जैसे तब वैसे अब। कर ही डालिए।’

कुँअर अस्तभान बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मुफतलाल को गले से लगाकर कहा, ‘मित्र, मैं इसीलिए तो तेरी कद्र करता हूँ कि तू बिलकुल स्वतंत्र और नेक सलाह देता है। तुझ-सा सलाहकार पाकर मैं धन्य हो गया।’
मुफतलाल सकुचा गया। कहने लगा, ‘हैं हैं, यह तो कुमार की कृपा है। मैं तो बहुत छोटा आदमी हूँ। पर इतना अलबत्ता है कि जो बात आपके भले की होगी, वही कहूँगा-आपको बुरा लगे या भला। मुँह देखी बात मैं नहीं करता।’
‘मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ,’ कुँअर ने कहा। तो अब यह तय हो गया कि हम आत्महत्या करेंगे। इसके लिए सारा प्रबंध तुम्हारे जिम्मे है। प्राचीन काल से लेकर अभी तक आत्महत्या के जितने तरीके अपनाए गये हैं, उन सबका अध्ययन करके, ऐसा तरीका चुनो, जो अवसर के अनुकूल हो और हमारी प्रतिष्ठा के योग्य हो।’


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