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संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"आप जा रहे हैं राम?" स्वरों में कितनी आशंका थी।

राम मुस्कराए, "आप बैठिए। थोड़े विचार-विमर्श की आवश्यकता आ पड़ी है।" लोग बैठ गए। वातावरण व्यवस्थित हो गया।

"आप जानते हैं कि हमें किसी एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहना है।" राम बोले, "हमें इस सारे क्षेत्र को राक्षसी आतंक से मुक्त करना है। वस्तुतः यह एक संगठन यात्रा है। संगठन की इस यात्रा में

हमारा मुख्य पड़ाव ऋषि अगस्त्य का आश्रम है। मार्ग में सुतीक्ष्ण आश्रम है। मेरी समस्या इस आश्रम को छोड़ने या नहीं छोड़ने की नहीं है; मेरी समस्या है कि मुनि के पिछले व्यवहार को देखते हुए, अब मुझे वहां जाना चाहिए या नहीं?"

"राम," सबसे पहले भीखन बोला, "कोई और समस्या होती तो कदाचित् मैं कुछ न कहता, अथवा सबके पीछे कहता; किंतु इस विषय में बोलने का मेरा पहला अधिकार है।"

"तुम ही बोलो भीखन!" राम बोले।

"मैंने शरभंग ऋषि के आश्रम से आपके साथ यात्रा की थी। सुतीक्ष्ण आश्रम में भी मैं आपके निकट था। मैं जानता हूं कि उन्होंने आपका स्वागत नहीं किया था; किंतु मेरे अपने गांव में भी तो किसी ने आपका स्वागत नहीं किया था। आपने माना कि ग्रामवासी भीरु तथा राक्षसों से आतंकित थे। आपने धैर्यपूर्वक उचित अवसर की प्रतीक्षा की और ग्रामवासियों के प्रत्यक्ष असहयोग को देखते हुए भी उनकी सहायता की। क्या सुतीक्ष्ण मुनि को भी भीरु मानकर, आप उन्हें क्षमा नहीं कर सकते; और अब, जब वे आपको बुला रहे हैं, तथा राक्षस-विरोधी संगठन में आपके सहायक हो सकते हैं, आप उनका निमंत्रण क्यों स्वीकार नहीं कर रहे?"

"भीखन भैया ठीक कह रहे हैं।" सीता बोलीं, "किसी की भीरुता को उसका दोष तो माना जा सकता है, उसका विरोध नहीं।"

"हां, यदि यह निमंत्रण किसी लोभवश नहीं है तो।" लक्ष्मण ने कहा। "लोभ कैसा?" आनन्द सागर ने पूछा।

"कुछ लोग अपने लाभ और लोभ को देखते हुए प्रत्येक उगती हुई शक्ति की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं।" लक्ष्मण बोले, "जब पहली बार हम उनके आश्रम में गए थे, तब राक्षस शक्तिशाली थे; अब राक्षस-विरोधी लोग प्रबल हो रहे हैं।"

"लक्ष्मण का तर्क मुनि पर लागू नहीं होता।" राम बोले, "मुनि ने राक्षसों का पक्ष-समर्थन कभी नहीं किया। उनका व्यवहार उनकी भीरुता का ही परिचायक था। फिर रावण के जीवित रहते राक्षस-विरोधियों को बलशाली मानने का कोई विशेष कारण मैं नहीं देखता; और राम से किसी को क्या लाभ होगा? मेरे पास न शासन है, न संपत्ति। एक सिद्धांत है...।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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