बहुभागीय पुस्तकें >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
दस
अगला दिन भी बहुत व्यस्तता का था। धर्मभृत्य और अनिन्द्य अपने साथियों के साथ अपने आश्रम लौट गए थे। आनन्द सागर आश्रम स्वयं को नई दिनचर्या में ढाल रहा था। खेतों को उनकी स्थिति के आधार पर चार बड़े भागों में बांटकर, उन्हें कृषकों की टोलियों को दे दिया गया। आज से सारी भूमि ग्रामवासियों की थी। ग्राम का नेतृत्व तोरू कर रहा था।...फिर पच्चीस जनसैनिक चुने गए। उनका नेतृत्व भीखन ने ग्रहण किया। शेष लोगों को उनके वय तथा सामर्थ्य के अनुसार, टोलियों में बांटकर, शस्त्रशिक्षा के लिए प्रशिक्षकों को सौंपा गया। शस्त्रागार की पुनर्व्यवस्था हुई। गांव के बच्चों के लिए उनके वय के अनुसार पाठशालाओं का भी नया प्रबंध किया गया। लक्ष्मण तथा मुखर मुनि आनन्द सागर के साथ-साथ निर्माण कार्य की आवश्यकताओं को देखते रहे और उसके लिए प्रबंध करते रहे। सीता सारा दिन महिलाओं के साथ, गांव में ही रहीं। गांव की महिलाएं, अनिन्द्य की बस्ती की महिलाओं से भिन्न थीं।
वे अपने पतियों के साथ खुले खेतों में काम करने की अभ्यस्त थीं।
उनमें आत्मविश्वास तथा आत्मबल कुछ अधिक था। विचारों और मान्यताओं को लेकर वे भी बहुत पिछड़ी हुई थीं; किंतु उनकी नया सीखने की प्रबल इच्छा को देखते हुए, सीता को अपना कार्य कठिन नहीं लग रहा था।
कुछ ही दिनों में राम ने अनुभव किया कि भीखन का ग्राम भी तीव्र गति से अपना रूप बदल रहा था। लोगों में आत्मबल के साथ-साथ आत्मसम्मान भी लौट आया था। उनकी बौद्धिक जिज्ञासा भी जाग उठी थी। वे पूछना और जानना सीख गए थे। वे अपनी रक्षा में समर्थ हो चुके थे और आर्थिक स्थिति को सुधारने की ओर बढ रहे थे। ग्राम में खेती के साथ-साथ छोटे-मोटे अनेक उद्योग-धंधे खुल गए थे...
ग्राम और आश्रम में सभी लोग व्यस्त थे : और कितनी सार्थक थी वह व्यस्तता। ग्रामवासियों में से ही विभिन्न कार्यों का दायित्व संभालने का नेतृत्व करने वाले क्रमशः आगे बढ़ रहे थे। राम, लक्ष्मण, सीता तथा मुखर अपने कार्य नये आने वाले नेताओं को सौंपते जा रहे थे।
...तभी एक दिन संध्या समय, सुतीक्ष्ण आश्रम से एक युवा ब्रह्मचारी कुलपति का पत्र लेकर आया। पत्र अत्यंत संक्षिप्त था : मात्र एक वाक्य। मुनि ने लिखा था, "उपद्रवी पशु राम के यश की गंध पाकर भाग गए हैं; और सुतीक्ष्ण कस्तूरी मृग के समान राम को खोज रहा है।"
पत्र पढ़ते ही राम को धर्मभृत्य का स्मरण हो आया। ठीक कहा था धर्मभृत्य ने..."तो आर्य! आप सुतीक्ष्ण मुनि के दर्शन अवश्य करें, किंतु उनके आश्रम में आपके लिए अभी स्थान न होगा। हां, आप अन्यत्र रहकर, राक्षसों का आतंक मिटा दें तो उन्हें आपको अपने आश्रम में ठहराकर अबाध आनन्द होगा।"
आश्रम में समाचार प्रचारित हो गया कि सुतीक्ष्ण मुनि ने राम को आमंत्रित किया है।...संध्या का समय था, आश्रमवासी अपने कामों से लौट आए थे।...राम की कुटिया के सम्मुख भीड़ बढ़ने लगी।
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