सामाजिक >> समय सरगम समय सरगमकृष्णा सोबती
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पुरानी और नयी सदी के दो-दो छोरों को समेटता ‘समय सरगम’ जिए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास...
Samay Sargam
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हम हैं तो समय है। हमारी ही चेतना में संचित है हमारा काल-आयाम। हम हैं, क्योंकि धरती है, हवा है, धूप है, जल है, और यह आकाश है। इसलिए हम जीवित हैं। भीतर और बाहर-सब कहीं-सब कुछ को अपने में संजोए। विलीन हो जाने को पल-पल अनंत में...
पुरानी और नयी सदी के दो-दो छोरों को समेटता ‘समय सरगम’ जिए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास है, और फिर भारत की बुजुर्ग पीढ़ियों का एक साथ ही नया-पुराना आख्यान और प्रत्याख्यान। संयुक्त परिवारों के भीतर और बाहर वरिष्ठ नागरिकों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता ‘समय सरगम’ की बंदिश में अन्तर्निहित है। आज के बदलते भारतीय परिदृश्य में यह उपन्यास व्यक्ति की विश्वव्यापी स्वाधीनता, उसके वैचारिक विस्तार और कुछ नये संस्कार-संदर्भों को प्रतिध्वनित करता है। दूसरे शब्दों में, इससे उत्तर आधुनिक काल की सम्भावनाओं को भी चीह्ना जा सकता है, और उन मूल्यों को भी जो मानवीय विकास को सार्थकता प्रदान करते हैं।
ईशान और आरण्या जैसे बुजुर्ग परस्परविरोधी विश्वास और निजी आस्थाओं के बावजूद साथ होने के लिए जिस पर्यावरण की रचना करते हैं, वहाँ न पारिवारिक या सामाजिक उदासीनता है और न किसी प्रकार का मानसिक उत्पीड़न। कृष्णा सोबती की प्रख्यात कलम ने इस कथाकृति में अपने समय और समाज को जिस आंतरिकता से रचा है वह वर्तमान सामाजिक यथार्थ को तात्त्विक ऊँचाइयों तक ले जाता है, और ऐसा करते हुए वे जिस भविष्य की परिकल्पना या उसका संकेत करती है, उसी में निहित है एक उदभास्वर आलोक-पुंज।
पुरानी और नयी सदी के दो-दो छोरों को समेटता ‘समय सरगम’ जिए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास है, और फिर भारत की बुजुर्ग पीढ़ियों का एक साथ ही नया-पुराना आख्यान और प्रत्याख्यान। संयुक्त परिवारों के भीतर और बाहर वरिष्ठ नागरिकों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता ‘समय सरगम’ की बंदिश में अन्तर्निहित है। आज के बदलते भारतीय परिदृश्य में यह उपन्यास व्यक्ति की विश्वव्यापी स्वाधीनता, उसके वैचारिक विस्तार और कुछ नये संस्कार-संदर्भों को प्रतिध्वनित करता है। दूसरे शब्दों में, इससे उत्तर आधुनिक काल की सम्भावनाओं को भी चीह्ना जा सकता है, और उन मूल्यों को भी जो मानवीय विकास को सार्थकता प्रदान करते हैं।
ईशान और आरण्या जैसे बुजुर्ग परस्परविरोधी विश्वास और निजी आस्थाओं के बावजूद साथ होने के लिए जिस पर्यावरण की रचना करते हैं, वहाँ न पारिवारिक या सामाजिक उदासीनता है और न किसी प्रकार का मानसिक उत्पीड़न। कृष्णा सोबती की प्रख्यात कलम ने इस कथाकृति में अपने समय और समाज को जिस आंतरिकता से रचा है वह वर्तमान सामाजिक यथार्थ को तात्त्विक ऊँचाइयों तक ले जाता है, और ऐसा करते हुए वे जिस भविष्य की परिकल्पना या उसका संकेत करती है, उसी में निहित है एक उदभास्वर आलोक-पुंज।
समय सरगम
एक
खिड़की का परदा तेज हवा में लहराने लगा था।
क्या आँधी आने को है !
जाड़े में आँधी !
न...न..नहीं।
हाथ बढ़ा परदा ग्रिल में खोंस दिया। बाहर देखा। दुपहर की चमकीली पतली धूप हवा के झोंकों में लहराती थी।
दूर सामने हुमायूँ का मकबरा अपने गुंबद के गोलार्द्ध में स्थित समय की धूप सेंक रहा है। सरदी की यह धुपैली गरमाहट हल्के-से कपड़ों को छू रही है। जीने की अनंत नाटकीयता—वह भी इतने विशाल मंच पर ! यह धरती, आकाश, सूरज, हवाएँ और हम !
मंच पर अभिनीत होना अभी कुछ बाकी है क्या।
सहसा आरण्या की साँस तेज हो गई। आँखों में रात का सपना घूम गया। क्या दृश्य !
आकाश में कहीं ऊँचा-सा कपाट दीखा। लकड़ी की चौखट में खूब बड़ा दरवाजा जड़ा था। और, उस पर लगी थी आरण्या की नाम-पट्टिका।
दरवाजे में छोटा-सी कपाट खुला और अंदर से दीखा एक जाना-पहचाना चेहरा।
कौन !
यह तो मैं ही हूं। मैं ही अंदर से झाँक रही हूँ।
नहीं...नहीं...ऐसे कैसे ! मैं तो बाहर खड़ी हूँ न !
ठीक से देखो आरण्या, क्या यह झुर्रियोंदार मुखड़ा तुम्हारा नहीं है ? है तो ! पर ऐसा होने से क्या हुआ ! हम तो हर पल बड़े होते रहते हैं न ! हाँ। पर जान रखो—इस चेहरे पर सताई हुई रेखाएँ नहीं। समय के साथ उगी पकी हैं। अपने वक्त को खुद जीया है।
इतना संतोष ! फिर यह प्रश्नोत्तर कैसे ! क्या कपाट को चीन्ह रही हो। तुमने ही तो घड़ा है इसे जीकर !
आरण्या ने अपने दोनों हाथ एक-दूसरे में गूँथ लिये।
अंतराल के बाद खोले, बालों को छुआ कि अपने में अपनी निकटता सरसराने लगी।
कुछ परेशनी है क्या !
नहीं। हवा पी रही हूँ। आत्मा तक खींच रही हूँ ऑक्सीजन ! खुश हूँ कि जीवित हूँ। अपने साथ के तो कब के जा चुके।
वे चेहरे, नहीं, भूल जाओ उन्हें। नमस्कार कर दो उन्हें। जीवित और मृतकों की जातीय स्मृतियाँ बदल गई हैं। वह एक-सी नहीं हैं।
ओह ! संतुष्ट हूँ कि जीवित हूँ।
आरण्या ने कमरे में नजर फिराई। मेज पर पड़े फल रंग-रूप-गंध से अपनी ओर खींचने लगे।
चमत्कृत !
प्लेट और छुरी उठाई और इत्मीनान से फल छीलने लगी। फल की फाँकों के साथ प्याला उमगने लगा। नीबू निचोड़ा, नमक डाला, थोड़ी काली मिर्च भी।
चखा और एक चम्मच-भर चीनी ऊपर से बुरक दी।
भूल जाओ उस सपने को। मजा लो फलों की तरावट का ! अभी सब कुछ कल का-सा ही है। अपनी धुरी पर टिका है। हिल भी जाए तो भी क्या ! वक्त है अंतिम पड़ाव वाली भूमिका कभी भी पास आ खड़ी हो सकती है। होगी। उसे होना है। सबकी होती है।
तुम उसकी चिंता कर रही हो ! जिस डोर की चरखी ऊपरवाले बुलंद दरवाजे पर टँगी है, उसे भला यहाँ क्यों ढूँढ़ रही हो ! क्या डर रही हो ! भयभीत हो !
हाँ और नहीं, दोनों ही।
जब तक हो आराम करो। मौसमों का सुख लो। ऐसी हवाएँ कहीं और नहीं। चाँद पर भी नहीं।
हल्के मन फोन उठा ईशान का नंबर मिलाया। देर तक बजता रहा। घंटे-भर बाद फिर से नंबर मिलाया। बजा और उठा लिया गया।
हैलो !
हैलो, मैं रख देने को थी। सोचा आप आराम में होंगे।
आज टॉयलेट की सफाई का दिन था। वही करके आ रहा हूँ। हाँ, शाम को पार्क चलने का इरादा है क्या !
चल सकूँगी ! कितने बजे ?
ठीक साढ़े चार ! फाटक पर ही मिलेंगे।
आरण्या को कुछ हड़बड़ाहट हुई। सैर को जाने से पहले आराम जरूरी है। थकन-सी हो रही है ! सुबह विटामिन लेना भूल गई थी ! लेटे-लेटे सोचा, घड़ी की सुइयों में से जाने कितना कुछ निकाल पाते हैं हम ! ईशान घड़ी के आतंक में वहीं नजर टिकाए रहते हैं और मैं उससे आँखें चुराए रहती हूँ।
भला तुलना क्यों ! अपने-अपने कदमों की रफ्तार है।
ठीक चार पच्चीस पर आरण्या नीचे पहुँच गई।
कलाई देखी।
बिलकुल वक्त से हूँ। घड़ी के चंगुल में से निकल जाना आसान नहीं। खास तौर पर जब इस सयानी की कभी ताली गुम हो, कभी पर्स, कभी जरसी। कभी यह दुविधा हो कि हल्का पहने या भारी। भारी से चलना मुश्किल होगा। हल्का पहनो सरदी लगने का खतरा।
पुराना जिस्म।
सड़क पर चलते हुए किसी दूसरे की निगाह से अपने पर नजर डाली। चुस्त-दुरुस्त ! कपड़े न ज्यादा गर्म न ठंडे। अपना भार उठाने को सुखकर।
सड़क के किनारे-किनारे कीकरों की लंबी पाँत झिलमिल-सी बनी धूप में लहराती झूल रही है। पक्के बाँध तले सरसों के लंबे-चौड़े ! खेत छोटे मँझोले पौधे धूप और हवा को अपने में खीचने में मस्त।
सड़क का ट्रैफिक इन सबसे बेखबर तेज गति से भागा चला जा रहा है।
ईशान ने गाड़ी पार्क की।
दोनों पार्क के प्रवेश-द्वार की ओर बढ़ चले। कतार में खड़े ऊँचे युक्लिप्टस जाने क्यों अपनी ऊँचाइयों में भी अनमने दीखते थे। पार्क के बाहर खड़े हैं, शायद इसीलिए। दाईं पटरी पर रोड़ी और बजरी की ढेरियाँ। हैज के साथ-साथ पार्क को घेरे हुए कँटीली तार जमीन पर पसरी है। यहीं से दाखिल हो रही है पार्क में एक छोटी-सी सँकरी पगडंडी।
ढलान है, जरा सँभालकर, फाँद लेंगी न !
जी हाँ।
एक साथ दो जोड़ी शू सतर्क हुए और सावधानी से पार्क के अंदर पहुँच गए।
लाल टाईल्स की लंबी रौस। अशोक के हरियाले पेड़ों से घिरी है। किंगरी की तरह साथ-साथ जाती फूलों की क्यारियाँ। छोटे-छोटे नन्हें फ्लॉक्स-लाल, गुलाबी, बैंजनी, सफ़ेद।
सामने लतरों के झुरमुट। बुगनबेलिया की गुच्छीली चटक बेलें। चटख लाल गुलाबी। ब्राजीलियन पाम। जातिमान। पीछेवाले, छोटी जाति के अलग खड़े हैं।
पार्क में भी बाँट ! मंडल राजनीति ही तो !
हरे जाजम का-सा घास ! अपने हरे-भरे की सुरक्षा इसका धर्म है ! रंगों का छिड़काव भी इसे अस्वीकार नहीं !
गोलाकार क्यारियों में कैसे रंग-बिरंगे फूल ! बिना खुशबू के भी इतराते। गुटकने मोरपंखी पौधे अपने परिवार में गुँथे जुड़े। सजीले पत्तों से बुने हुए। इनके सामने तो संगमरमर का चौतरा चाहिए था। इनकी छब-छटा ही कुछ और होती।
ऊँचाई पर छाँह-घर में बैठ बतिया रहे हैं बूढ़े वरिष्ठ नागरिक। घर-परिवार से बाहर हो रहा है उनका सार्वजनिक संवाद। बीती हुई उम्र का अर्जित एकांत ! बस इतना ही।
ईशान और आरण्या मोड़ पर रुके।
यहीं से घूमने के लिए अलग-अलग दिशा को बढ़ जाएँगे।
ठीक छः बजे हम लौटकर यहीं मिलेंगे।
अरण्या पार्क के बाईं ओर बढ़ गई। वीपिंग विल्लो की नीचे लटकती टहनियाँ। बीच में झमकते लाल-लाल ब्रश। आगे सागवान के पेड़ों की लंबी कतारें।
संझाती धूप में पार्क दीख रहा है किसी छवि-संग्रह जैसा। हवा की चक्की धीरे-धीरे घूम रही है। पवन-ऊर्जा ! पेड़ों के पीले मुकुट हवा की लहरों में जगमग-जगमग।
मस्जिद के आगे पेड़ शांत हैं। अपनी-अपनी मनचली शाखाओं से लदे। पाखियों के झुंड जाने क्या-क्या संवाद कर रहे हैं। मालूम नहीं, इस शोर का भुगतान भी कौन करेगा। भला ट्रैफिक-शोर से इसकी क्या प्रतिस्पर्धा। पेट्रोल खर्च होता है तो पहिए गतिमान होते हैं। यहाँ बिना किसी टैक्स के ही चैनल तरंगित हैं।
कहीं यह भी मूक वृक्षों का आंदोलन तो नहीं !
किसके खिलाफ होगा ! क्या लतरों के विरुद्ध जो इनसे लिपट-लिपट जाती है ?
नहीं, यह पेड़ हम दोपायों के विरुद्ध हैं। शायद हमारी मनमानियों से खीझ गए हैं।
पाखियों की टुकड़ियों पर भी कोई अंकुश नहीं।
चिड़ियों को देखो, चुग-चुग करती रहती हैं। सयाने पेड़ों को खूब सताती हैं।
जमकर शोर मचाती हैं। करती हैं पूरी तानबाजी। बूढ़े पेड़ चुप हुए रहते हैं। नहीं बोलते। आत्मिक हैं पूरे। नहीं-नहीं, घुन्ने हैं। चुपचाप जासूसी करते रहते हैं। सहसा सामने से एक नीलकंठ फुर्र से उड़ गया। वाह क्या पंख और क्या उड़ान ! घास की नन्ही-मुन्नी पत्तियाँ हवा में हिलोरें लेने लगीं। आरण्या तेज-तेज कदमों से लगभग दौड़ने लगी। पाँव तले उखड़े पत्थर का खटका लगा। नीचे से टाइल उखड़ी हुई थी। सँभलकर ! गिरेगी। कम पुरानी नहीं हो। दुर्घटना कभी भी हो सकती है।
याद आया। मेडिकल इंश्योरेंसवाला कागज। सँभालकर रखा है न ! रखा कहाँ है, यह याद नहीं। घर लौटते ही ढूँढ़ना होगा।
आरण्या को दौड़ते देख कुछ टहलती आँखें अचरज से देखने लगीं। इस उम्र में यह रफ्तार। चाल अपने-आप धीमी हो गई।
घड़ी देखी।
दूर दीखते खाली बेंच को आँखों से आरक्षित किया। वहीं पहुँचकर सुस्ताएगी। लॉन में पानी लगा है। जूते-मोजे उतार हाथ में ले लिये और गीले लॉन को तिरछे काटते हुए गंतव्य पर पहुंच गई।
क्या आँधी आने को है !
जाड़े में आँधी !
न...न..नहीं।
हाथ बढ़ा परदा ग्रिल में खोंस दिया। बाहर देखा। दुपहर की चमकीली पतली धूप हवा के झोंकों में लहराती थी।
दूर सामने हुमायूँ का मकबरा अपने गुंबद के गोलार्द्ध में स्थित समय की धूप सेंक रहा है। सरदी की यह धुपैली गरमाहट हल्के-से कपड़ों को छू रही है। जीने की अनंत नाटकीयता—वह भी इतने विशाल मंच पर ! यह धरती, आकाश, सूरज, हवाएँ और हम !
मंच पर अभिनीत होना अभी कुछ बाकी है क्या।
सहसा आरण्या की साँस तेज हो गई। आँखों में रात का सपना घूम गया। क्या दृश्य !
आकाश में कहीं ऊँचा-सा कपाट दीखा। लकड़ी की चौखट में खूब बड़ा दरवाजा जड़ा था। और, उस पर लगी थी आरण्या की नाम-पट्टिका।
दरवाजे में छोटा-सी कपाट खुला और अंदर से दीखा एक जाना-पहचाना चेहरा।
कौन !
यह तो मैं ही हूं। मैं ही अंदर से झाँक रही हूँ।
नहीं...नहीं...ऐसे कैसे ! मैं तो बाहर खड़ी हूँ न !
ठीक से देखो आरण्या, क्या यह झुर्रियोंदार मुखड़ा तुम्हारा नहीं है ? है तो ! पर ऐसा होने से क्या हुआ ! हम तो हर पल बड़े होते रहते हैं न ! हाँ। पर जान रखो—इस चेहरे पर सताई हुई रेखाएँ नहीं। समय के साथ उगी पकी हैं। अपने वक्त को खुद जीया है।
इतना संतोष ! फिर यह प्रश्नोत्तर कैसे ! क्या कपाट को चीन्ह रही हो। तुमने ही तो घड़ा है इसे जीकर !
आरण्या ने अपने दोनों हाथ एक-दूसरे में गूँथ लिये।
अंतराल के बाद खोले, बालों को छुआ कि अपने में अपनी निकटता सरसराने लगी।
कुछ परेशनी है क्या !
नहीं। हवा पी रही हूँ। आत्मा तक खींच रही हूँ ऑक्सीजन ! खुश हूँ कि जीवित हूँ। अपने साथ के तो कब के जा चुके।
वे चेहरे, नहीं, भूल जाओ उन्हें। नमस्कार कर दो उन्हें। जीवित और मृतकों की जातीय स्मृतियाँ बदल गई हैं। वह एक-सी नहीं हैं।
ओह ! संतुष्ट हूँ कि जीवित हूँ।
आरण्या ने कमरे में नजर फिराई। मेज पर पड़े फल रंग-रूप-गंध से अपनी ओर खींचने लगे।
चमत्कृत !
प्लेट और छुरी उठाई और इत्मीनान से फल छीलने लगी। फल की फाँकों के साथ प्याला उमगने लगा। नीबू निचोड़ा, नमक डाला, थोड़ी काली मिर्च भी।
चखा और एक चम्मच-भर चीनी ऊपर से बुरक दी।
भूल जाओ उस सपने को। मजा लो फलों की तरावट का ! अभी सब कुछ कल का-सा ही है। अपनी धुरी पर टिका है। हिल भी जाए तो भी क्या ! वक्त है अंतिम पड़ाव वाली भूमिका कभी भी पास आ खड़ी हो सकती है। होगी। उसे होना है। सबकी होती है।
तुम उसकी चिंता कर रही हो ! जिस डोर की चरखी ऊपरवाले बुलंद दरवाजे पर टँगी है, उसे भला यहाँ क्यों ढूँढ़ रही हो ! क्या डर रही हो ! भयभीत हो !
हाँ और नहीं, दोनों ही।
जब तक हो आराम करो। मौसमों का सुख लो। ऐसी हवाएँ कहीं और नहीं। चाँद पर भी नहीं।
हल्के मन फोन उठा ईशान का नंबर मिलाया। देर तक बजता रहा। घंटे-भर बाद फिर से नंबर मिलाया। बजा और उठा लिया गया।
हैलो !
हैलो, मैं रख देने को थी। सोचा आप आराम में होंगे।
आज टॉयलेट की सफाई का दिन था। वही करके आ रहा हूँ। हाँ, शाम को पार्क चलने का इरादा है क्या !
चल सकूँगी ! कितने बजे ?
ठीक साढ़े चार ! फाटक पर ही मिलेंगे।
आरण्या को कुछ हड़बड़ाहट हुई। सैर को जाने से पहले आराम जरूरी है। थकन-सी हो रही है ! सुबह विटामिन लेना भूल गई थी ! लेटे-लेटे सोचा, घड़ी की सुइयों में से जाने कितना कुछ निकाल पाते हैं हम ! ईशान घड़ी के आतंक में वहीं नजर टिकाए रहते हैं और मैं उससे आँखें चुराए रहती हूँ।
भला तुलना क्यों ! अपने-अपने कदमों की रफ्तार है।
ठीक चार पच्चीस पर आरण्या नीचे पहुँच गई।
कलाई देखी।
बिलकुल वक्त से हूँ। घड़ी के चंगुल में से निकल जाना आसान नहीं। खास तौर पर जब इस सयानी की कभी ताली गुम हो, कभी पर्स, कभी जरसी। कभी यह दुविधा हो कि हल्का पहने या भारी। भारी से चलना मुश्किल होगा। हल्का पहनो सरदी लगने का खतरा।
पुराना जिस्म।
सड़क पर चलते हुए किसी दूसरे की निगाह से अपने पर नजर डाली। चुस्त-दुरुस्त ! कपड़े न ज्यादा गर्म न ठंडे। अपना भार उठाने को सुखकर।
सड़क के किनारे-किनारे कीकरों की लंबी पाँत झिलमिल-सी बनी धूप में लहराती झूल रही है। पक्के बाँध तले सरसों के लंबे-चौड़े ! खेत छोटे मँझोले पौधे धूप और हवा को अपने में खीचने में मस्त।
सड़क का ट्रैफिक इन सबसे बेखबर तेज गति से भागा चला जा रहा है।
ईशान ने गाड़ी पार्क की।
दोनों पार्क के प्रवेश-द्वार की ओर बढ़ चले। कतार में खड़े ऊँचे युक्लिप्टस जाने क्यों अपनी ऊँचाइयों में भी अनमने दीखते थे। पार्क के बाहर खड़े हैं, शायद इसीलिए। दाईं पटरी पर रोड़ी और बजरी की ढेरियाँ। हैज के साथ-साथ पार्क को घेरे हुए कँटीली तार जमीन पर पसरी है। यहीं से दाखिल हो रही है पार्क में एक छोटी-सी सँकरी पगडंडी।
ढलान है, जरा सँभालकर, फाँद लेंगी न !
जी हाँ।
एक साथ दो जोड़ी शू सतर्क हुए और सावधानी से पार्क के अंदर पहुँच गए।
लाल टाईल्स की लंबी रौस। अशोक के हरियाले पेड़ों से घिरी है। किंगरी की तरह साथ-साथ जाती फूलों की क्यारियाँ। छोटे-छोटे नन्हें फ्लॉक्स-लाल, गुलाबी, बैंजनी, सफ़ेद।
सामने लतरों के झुरमुट। बुगनबेलिया की गुच्छीली चटक बेलें। चटख लाल गुलाबी। ब्राजीलियन पाम। जातिमान। पीछेवाले, छोटी जाति के अलग खड़े हैं।
पार्क में भी बाँट ! मंडल राजनीति ही तो !
हरे जाजम का-सा घास ! अपने हरे-भरे की सुरक्षा इसका धर्म है ! रंगों का छिड़काव भी इसे अस्वीकार नहीं !
गोलाकार क्यारियों में कैसे रंग-बिरंगे फूल ! बिना खुशबू के भी इतराते। गुटकने मोरपंखी पौधे अपने परिवार में गुँथे जुड़े। सजीले पत्तों से बुने हुए। इनके सामने तो संगमरमर का चौतरा चाहिए था। इनकी छब-छटा ही कुछ और होती।
ऊँचाई पर छाँह-घर में बैठ बतिया रहे हैं बूढ़े वरिष्ठ नागरिक। घर-परिवार से बाहर हो रहा है उनका सार्वजनिक संवाद। बीती हुई उम्र का अर्जित एकांत ! बस इतना ही।
ईशान और आरण्या मोड़ पर रुके।
यहीं से घूमने के लिए अलग-अलग दिशा को बढ़ जाएँगे।
ठीक छः बजे हम लौटकर यहीं मिलेंगे।
अरण्या पार्क के बाईं ओर बढ़ गई। वीपिंग विल्लो की नीचे लटकती टहनियाँ। बीच में झमकते लाल-लाल ब्रश। आगे सागवान के पेड़ों की लंबी कतारें।
संझाती धूप में पार्क दीख रहा है किसी छवि-संग्रह जैसा। हवा की चक्की धीरे-धीरे घूम रही है। पवन-ऊर्जा ! पेड़ों के पीले मुकुट हवा की लहरों में जगमग-जगमग।
मस्जिद के आगे पेड़ शांत हैं। अपनी-अपनी मनचली शाखाओं से लदे। पाखियों के झुंड जाने क्या-क्या संवाद कर रहे हैं। मालूम नहीं, इस शोर का भुगतान भी कौन करेगा। भला ट्रैफिक-शोर से इसकी क्या प्रतिस्पर्धा। पेट्रोल खर्च होता है तो पहिए गतिमान होते हैं। यहाँ बिना किसी टैक्स के ही चैनल तरंगित हैं।
कहीं यह भी मूक वृक्षों का आंदोलन तो नहीं !
किसके खिलाफ होगा ! क्या लतरों के विरुद्ध जो इनसे लिपट-लिपट जाती है ?
नहीं, यह पेड़ हम दोपायों के विरुद्ध हैं। शायद हमारी मनमानियों से खीझ गए हैं।
पाखियों की टुकड़ियों पर भी कोई अंकुश नहीं।
चिड़ियों को देखो, चुग-चुग करती रहती हैं। सयाने पेड़ों को खूब सताती हैं।
जमकर शोर मचाती हैं। करती हैं पूरी तानबाजी। बूढ़े पेड़ चुप हुए रहते हैं। नहीं बोलते। आत्मिक हैं पूरे। नहीं-नहीं, घुन्ने हैं। चुपचाप जासूसी करते रहते हैं। सहसा सामने से एक नीलकंठ फुर्र से उड़ गया। वाह क्या पंख और क्या उड़ान ! घास की नन्ही-मुन्नी पत्तियाँ हवा में हिलोरें लेने लगीं। आरण्या तेज-तेज कदमों से लगभग दौड़ने लगी। पाँव तले उखड़े पत्थर का खटका लगा। नीचे से टाइल उखड़ी हुई थी। सँभलकर ! गिरेगी। कम पुरानी नहीं हो। दुर्घटना कभी भी हो सकती है।
याद आया। मेडिकल इंश्योरेंसवाला कागज। सँभालकर रखा है न ! रखा कहाँ है, यह याद नहीं। घर लौटते ही ढूँढ़ना होगा।
आरण्या को दौड़ते देख कुछ टहलती आँखें अचरज से देखने लगीं। इस उम्र में यह रफ्तार। चाल अपने-आप धीमी हो गई।
घड़ी देखी।
दूर दीखते खाली बेंच को आँखों से आरक्षित किया। वहीं पहुँचकर सुस्ताएगी। लॉन में पानी लगा है। जूते-मोजे उतार हाथ में ले लिये और गीले लॉन को तिरछे काटते हुए गंतव्य पर पहुंच गई।
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