सामाजिक >> जिन्दगीनामा जिन्दगीनामाकृष्णा सोबती
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साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृष्णा सोबती की एक बहुचर्चित कृति...
Jindaginama
लेखन को जिन्दगी का पर्याय मानने वाली कृष्णा सोबती की कलम से उतरा एक ऐसा उपन्यास जो सचमुच जिन्दगी का पर्याय है : जिन्दगीनामा।
जिन्दगीनामा : जिसमें न कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिन्दादिल। जाँबाज। लोग जो हिन्दुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसले उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिन्दगियाँ लुटाते रहे।
जिन्दगीनामा का कालखंड इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है। पीछे इतिहास की बेहिसाब तहें। बेशुमार ताकतें। जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, यही जमीन शाहों की नहीं है मगर उनके हाथों में है। जमीन की मालिकी किसकी है? जमीन में खेती कौन करता है? जमीन का मामला कौन भरता है? मुजारे आसामियाँ। इन्हें जकड़नों में जकड़े हुए शोषण के वे कानून जो लोगों को लोगों से अलग करते हैं। लोगों को लोगों में विभाजित करते हैं।
जिन्दगीनामा : कथ्य और शिल्प का नया प्रतिमान, जिसमें कथ्य और शिल्प हथियार डालकर जिन्दगी को आँकने की कोशिश करते हैं। जिन्दगीनामा के पन्नों में आपको बादशाह और फकीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुँडेरों पर खड़े मिलेंगे। सर्वसाधारण की वह भीड़ भी जो हर काल में, हर गाँव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।
भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिन्दी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। कम लिखने को वे अपना परिचय मानती हैं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ दरअसल ‘विशिष्ट’ लिखना है। किसी युग में किसी भी भाषा में एक-दो लेखक ही होते हैं जिनकी रचनाएँ साहित्य और समाज में घटना की तरह प्रकट होती हैं और अपनी भावात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना के लिए एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग को लगातार आश्वस्त करती हैं।
कृष्णा सोबती ने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में हर नई कृति के साथ अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया है। ‘निकष’ में विशेष कृति के रूप में प्रकाशित ‘डार से बिछुड़ी’ से लेकर ‘मित्रों मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन-पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरज मुखी अँधेरे के’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो-दानिश’, ‘हम हशमत’ और ‘समय सरगम’ तक ने जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य-संसार में पैदा की हैं, उनकी अनुगूँज पाठकों में बराबर बनी रही है।
कृष्णा सोबती ने हिन्दी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। उनके भाषा-संस्कार के घनत्व, जीवन्त प्रांजलता और सम्प्रेषण ने हमारे समय के अनेक पेचीदा सच आलोकित किए हैं। उनके रचना-संसार की गहरी सघन ऐन्द्रियता, तराश और लेखकीय अस्मिता ने एक बड़े पाठक वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया है। निश्चय ही कृष्णा सोबती ने हिन्दी के आधुनिक लेखन के प्रति पाठकों में एक नया भरोसा पैदा किया है। अपने समकालीनों और आगे की पीढ़ियों को मानवीय स्वातंत्र्य और नैतिक उन्मुक्तता के लिए प्रभावित और प्रेरित किया है। निज के प्रति सचेत और समाज के प्रति चैतन्य किया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार और उसकी महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त, अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती साहित्य की समग्रता में अपने को साधारणता की मर्यादा में एक छोटी-सी कलम का पर्याय ही मानती हैं। समय को लाँघ जानेवाला लेखन ऐसे लेखन से कहीं अधिक बड़ा होना चाहिए-साहित्य को जीने और समझनेवाले हर आस्थावान व्यक्ति की तरह यह निर्मल और निर्मम सत्य उनके सामने हमेशा उजागर रहता है।
जिन्दगीनामा : जिसमें न कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिन्दादिल। जाँबाज। लोग जो हिन्दुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसले उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिन्दगियाँ लुटाते रहे।
जिन्दगीनामा का कालखंड इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है। पीछे इतिहास की बेहिसाब तहें। बेशुमार ताकतें। जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, यही जमीन शाहों की नहीं है मगर उनके हाथों में है। जमीन की मालिकी किसकी है? जमीन में खेती कौन करता है? जमीन का मामला कौन भरता है? मुजारे आसामियाँ। इन्हें जकड़नों में जकड़े हुए शोषण के वे कानून जो लोगों को लोगों से अलग करते हैं। लोगों को लोगों में विभाजित करते हैं।
जिन्दगीनामा : कथ्य और शिल्प का नया प्रतिमान, जिसमें कथ्य और शिल्प हथियार डालकर जिन्दगी को आँकने की कोशिश करते हैं। जिन्दगीनामा के पन्नों में आपको बादशाह और फकीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुँडेरों पर खड़े मिलेंगे। सर्वसाधारण की वह भीड़ भी जो हर काल में, हर गाँव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।
भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिन्दी की विश्वसनीय उपस्थिति के साथ कृष्णा सोबती अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। कम लिखने को वे अपना परिचय मानती हैं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ दरअसल ‘विशिष्ट’ लिखना है। किसी युग में किसी भी भाषा में एक-दो लेखक ही होते हैं जिनकी रचनाएँ साहित्य और समाज में घटना की तरह प्रकट होती हैं और अपनी भावात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना के लिए एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग को लगातार आश्वस्त करती हैं।
कृष्णा सोबती ने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में हर नई कृति के साथ अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया है। ‘निकष’ में विशेष कृति के रूप में प्रकाशित ‘डार से बिछुड़ी’ से लेकर ‘मित्रों मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन-पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरज मुखी अँधेरे के’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो-दानिश’, ‘हम हशमत’ और ‘समय सरगम’ तक ने जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य-संसार में पैदा की हैं, उनकी अनुगूँज पाठकों में बराबर बनी रही है।
कृष्णा सोबती ने हिन्दी की कथा-भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है। उनके भाषा-संस्कार के घनत्व, जीवन्त प्रांजलता और सम्प्रेषण ने हमारे समय के अनेक पेचीदा सच आलोकित किए हैं। उनके रचना-संसार की गहरी सघन ऐन्द्रियता, तराश और लेखकीय अस्मिता ने एक बड़े पाठक वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया है। निश्चय ही कृष्णा सोबती ने हिन्दी के आधुनिक लेखन के प्रति पाठकों में एक नया भरोसा पैदा किया है। अपने समकालीनों और आगे की पीढ़ियों को मानवीय स्वातंत्र्य और नैतिक उन्मुक्तता के लिए प्रभावित और प्रेरित किया है। निज के प्रति सचेत और समाज के प्रति चैतन्य किया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार और उसकी महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त, अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती साहित्य की समग्रता में अपने को साधारणता की मर्यादा में एक छोटी-सी कलम का पर्याय ही मानती हैं। समय को लाँघ जानेवाला लेखन ऐसे लेखन से कहीं अधिक बड़ा होना चाहिए-साहित्य को जीने और समझनेवाले हर आस्थावान व्यक्ति की तरह यह निर्मल और निर्मम सत्य उनके सामने हमेशा उजागर रहता है।
आवरणः नरेन्द्र श्रीवास्तव
जन्मः 5 अगस्त, 1931, दिल्ली। डिप्लोमा इन एप्लाइड आर्ट, दिल्ली से। 1971 में जवाहर लाल नेहरू फेलोशिप। एप्लाइड आर्ट में फ्रेंच फेलोशिप के लिए पेरिस में रहे। जर्मनी की कई दीर्द्याओं, पेरिस और दिल्ली की प्रतिष्ठित गैलरियों में प्रदर्शनियाँ।
गलबहियों-सी
उमड़ती, मचलती
दूधभरी छातियों-सी
चनाब और जेहलम की धरती
माँ बनी
कुरते के बन्द खोलती
दूध की बूँदे ढरकाने को।
कनक के
सुनहरी ढेरों पर
चमचम चमकती
मीठी सजरी धूप;
चाँदी के चौंकफूल पहने
बर्फीली चोटियों को छू-छू आतीं
ठंडी सुहानी हवाएँ।
सरसों के पीले खेतों को
हिलाती-डुलाती
कुलाचें भरती
भागीभरे चनाब के
अल्हड़ अनोखें पानियों पर।
जिसकी
अमृत की बूँदों ने
लहू के पेड़ खड़े कर दिए
हरे-भरे खेतों की
मुँडेरों पर।
तने माथे पर अक्खड़ तेवर
गेहुआँ रंग पर नखरीली मूँछोंवाले
भारे गौहरे चेहरों पर
गन्दम की इलाही लाली।
बाँहों के चूड़े खनकाती
मक्का-सी खिली-खिली
शरबती आँखोंवाली
नई ताजी बहूटियाँ।
हँसती-हँसाती
तेवरों से रिझातीं
खुले-डुले पंजाब की हीरें
और उनकी खलंदड़ी सहेलियाँ।
धूप की बरखा में
फुलकारियों की ओट कनखियों से
ख़ुदा बनके खड़े-अड़े अपने गबरूओं को
खेतों की देखती मुँडेरों पर।
ऐसे
अनोखे अलबेले पंजाब के
दूधिया घरों में
राँगली पीढियों पर बैठीं रानियाँ
घूँ-घूँ चरखा काततीं
तकलों पर महीन सूत निकालतीं
भरी-भरी गहराई देहें
मोटे-गाढ़े खद्दर-पट्ट में लिपटीं
मेहनत-महारानियाँ।
तपे तन्दूरों पर झुकी
इलाही गन्ध भरी
घी-रची मोटी वज़नी रोटियाँ।
पेड़े उठा
हथेली से लगातीं
ज़िन्दगी की सोंधी महक को
लहक को
जगातीं
लहकातीं।
तारों की लौ
मुँह अँधेरे उठ
बैलों को हलों में जोत
हर खेत का रखवाला
सदियों ख़ुले आसमान तले
गेहूँ की सुनहली फसलें उगाता रहा।
हर बार
हर पीढ़ी का नौजवान
हर सुबह
मीठी देहों के गुंजल खोल
खेतों को सत्कारता रहा
हर शाम
जिसकी मेहनत पर
माँ-बहनों और साथियों ने
अमृत के कलश वार दिए
न्यौछार दिए।
तस्वीर यह खु़दी रही
मरदाने पंजाब की।
उस सूरमा तासीर और
मिश्री के आब की।
हर धड़कते दिल में
फड़कती बांहो में
दरियाओं की मचलती लहरों में
सब्ज़ जामावर बनी
इतराती-चौंकाती
सजी बनी दुल्हन-सी
धरती पंजाब की।
नज़र परवान होती रही
हज़ार बार
हज़ार बार आसमान झुका
धरती पर।
बार-बार
लाख बार महका मोतिया
सेहरों की लड़ियों में।
लाख बार ढोल बजे
बैसाखी और लोहड़ी के।
पाँव की थिरकन में
गिद्दे और भाँगड़े पड़े।
खेतियों के बीज पड़े
बीज उगे
और सोना रंग फसलों के
अम्बार लगे।
माँएँ
अपने आँचलों में
उगाती रहीं
मजबूत बेटे-बेटियों की पनीरियाँ।
पीर-फकीरों की
मनौतियों से
अपने लापरवाह
लाड़-प्यारों से।
कड़कती सरदी
और तपती लूओं ने
जिनके हाड़-माँस को कमाया
जिसके शुंकारते-फुंकारते
स्वभाव को रचाया-बसाया
जिसके लड़ाकू बच्चे-बच्चियों को
दूध पिलाया
ऐसी बीरबाणियों के कुरतों पर
चमकते रहे कंठे
और लाखे रानी हार।
लदी-भरी बोरियों तले
चहकती रही बच्चों की किलकारियाँ
सुबह-शाम
गुच्छियों से उछलती-लपकती
गुल्ली-डंडे और सौंची की बारियाँ।
आँगनों और पसारों में झिलमिलाते
सगुणों के बाग और फुलकारियाँ।
भंडार-घरों में
मक्का और बाजरे की
महक से सराबोर
हर घर का अन्दर और बाहर।
वह
ख़ुशहाल धरती का ख़ुशहाल लिशकारा
आँखों की प्यास बनकर
हर चौके के चंगेरों के
सगुण मनाता रहा।
भर-भर मूठें
बरतन-भाँड़ों में उँडेलता रहा।
खाने-पहनने और
जी भर-भर जी लेने की रीझें।
जहाँ का हर मेहनतकश बादशाह
अपने सिर के साफ़े को
अपना ताज समझ सँभालता रहा
और अपने खेतों को
अपना रिजक समझ
सत्कारता रहा।
ऐसे भागीभरे
भरे पूरे पंजाब की धरती पर
ज़हर की काँगें घिर आईं।
देखते-देखते
लाखों कदमों के हुजूम उठ धाए।
चढ़ाइयाँ
बहुत बार हुईं
बहुत बार हमलावरों के सामने।
बहुत बार राज-पाट बदले
पर चौड़े सीनेवालों ने
कड़े जिगरेवालों ने
कभी हौसले नहीं गँवाए
मरने और मारने से
खौफ़ नहीं खाए
पर आज ?...
क्या सूरमाओं के सिक्के बदल गए ?
बाजुओं के हथियार लटक गए ?
कन्धे धचक गए ?
हाथ मूठों से उठे नहीं।
एक आवाज़ पर
उठ खड़े होनेवालों की
शोख-गुस्ताख़ लहरें गुस्से की
कहाँ गुम हो गईं ?
क्या कहर भरी छातियों में ?
रब्बी हुक्म की तरह
क्या ये फ़ैसले भी आख़िरी हैं ?
मुँह मोड़ लो
अपने घर-आँगन से
हरी-भरी
पकी-जड़ी अपनी फ़सलों से।
पीठ दे दो
इस हरियाली
इस जड़त और
इस नीलाहटों को।
इस धरती पर
अब हमारे पुण्य
शेष हो गए हैं।
अब हमें बिछुड़ जाना है
अपनी धरती से
अपनी माँ से
माँ की माँ से
और हम सबकी माँ से !
इसकी मिट्ठड़ी ओट से
छाँह से।
इसकी
दूध-भरी छातियों से
अब दूध नहीं
खून टपकता है।
देखो पलटकर
मत देखो
दौड़ चलो
छोड़ चलो
इस पानी को
इस धरती को
जिसने हर मौसम
हर बहार में
सूरमाओं की पनीरी उगाई थी
जिसने
हाड़-माँस के इन्सानों में
मेहनत करने
और ज़िन्दगी को
जी भर-भर प्यार करने की
ललक जगाई थी
लौ लगाई थी
अलविदा
आबों के आब को
पंज दरियाओं के पंजाब को
जेहलम और चनाब को।
अलविदा
अपने पुरखों की याद को
जिनके खून और
दूध से बने बच्चे
अब फिर कभी इस दूध में
इस मिट्टी में
कभी नहीं खेलेंगे
कभी नहीं खेलेंगे
इन ज़िन्दा रूहों की छाँव में
जहाँ दूर तक
जमें थे
ख़ुबे थे जड़ों समेत
इनके छाँहदार कबीले।
बेरियों और टालियों तले
दुल्हनों की पालकियाँ
अब कभी नहीं उतरेंगी
कभी नहीं ठिठकेंगी
दूल्हों की
साज़-बाजवाली घोड़ियाँ
गाँव की सीमाओं पर।
गोटा लगी
चूनरों की टोलों से
उठते-खिंचते
लाड़लों की ‘घोड़ियों’ के
ममताले सुर।
फिर कभी नहीं पुकारेंगी
कच्चे कोठों से
चिट्ठी दूध शोख़
पंजाब की बे़टियाँ।
टप्पों के बन्द जोड़
अपने माहियों को
अपने दिलग़ीरों को।
कौन जानेगा
कौन समझेगा
अपने वतनों को छोड़ने
और उनसे मुँह मोंड़ने के दर्दों को
पीड़ों को !
जेहलम और चनाब
बहते रहेंगे इसी धरती पर।
लहराते रहेंगे
ख़ुली-डुली हवाओं के झोंके
इसी धरती पर
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में
इसी तरह
बिलकुल इसी तरह
सिर्फ़
हम यहाँ नहीं होंगे।
नहीं होंगे,
फिर कभी नहीं होंगे,
नहीं।
उमड़ती, मचलती
दूधभरी छातियों-सी
चनाब और जेहलम की धरती
माँ बनी
कुरते के बन्द खोलती
दूध की बूँदे ढरकाने को।
कनक के
सुनहरी ढेरों पर
चमचम चमकती
मीठी सजरी धूप;
चाँदी के चौंकफूल पहने
बर्फीली चोटियों को छू-छू आतीं
ठंडी सुहानी हवाएँ।
सरसों के पीले खेतों को
हिलाती-डुलाती
कुलाचें भरती
भागीभरे चनाब के
अल्हड़ अनोखें पानियों पर।
जिसकी
अमृत की बूँदों ने
लहू के पेड़ खड़े कर दिए
हरे-भरे खेतों की
मुँडेरों पर।
तने माथे पर अक्खड़ तेवर
गेहुआँ रंग पर नखरीली मूँछोंवाले
भारे गौहरे चेहरों पर
गन्दम की इलाही लाली।
बाँहों के चूड़े खनकाती
मक्का-सी खिली-खिली
शरबती आँखोंवाली
नई ताजी बहूटियाँ।
हँसती-हँसाती
तेवरों से रिझातीं
खुले-डुले पंजाब की हीरें
और उनकी खलंदड़ी सहेलियाँ।
धूप की बरखा में
फुलकारियों की ओट कनखियों से
ख़ुदा बनके खड़े-अड़े अपने गबरूओं को
खेतों की देखती मुँडेरों पर।
ऐसे
अनोखे अलबेले पंजाब के
दूधिया घरों में
राँगली पीढियों पर बैठीं रानियाँ
घूँ-घूँ चरखा काततीं
तकलों पर महीन सूत निकालतीं
भरी-भरी गहराई देहें
मोटे-गाढ़े खद्दर-पट्ट में लिपटीं
मेहनत-महारानियाँ।
तपे तन्दूरों पर झुकी
इलाही गन्ध भरी
घी-रची मोटी वज़नी रोटियाँ।
पेड़े उठा
हथेली से लगातीं
ज़िन्दगी की सोंधी महक को
लहक को
जगातीं
लहकातीं।
तारों की लौ
मुँह अँधेरे उठ
बैलों को हलों में जोत
हर खेत का रखवाला
सदियों ख़ुले आसमान तले
गेहूँ की सुनहली फसलें उगाता रहा।
हर बार
हर पीढ़ी का नौजवान
हर सुबह
मीठी देहों के गुंजल खोल
खेतों को सत्कारता रहा
हर शाम
जिसकी मेहनत पर
माँ-बहनों और साथियों ने
अमृत के कलश वार दिए
न्यौछार दिए।
तस्वीर यह खु़दी रही
मरदाने पंजाब की।
उस सूरमा तासीर और
मिश्री के आब की।
हर धड़कते दिल में
फड़कती बांहो में
दरियाओं की मचलती लहरों में
सब्ज़ जामावर बनी
इतराती-चौंकाती
सजी बनी दुल्हन-सी
धरती पंजाब की।
नज़र परवान होती रही
हज़ार बार
हज़ार बार आसमान झुका
धरती पर।
बार-बार
लाख बार महका मोतिया
सेहरों की लड़ियों में।
लाख बार ढोल बजे
बैसाखी और लोहड़ी के।
पाँव की थिरकन में
गिद्दे और भाँगड़े पड़े।
खेतियों के बीज पड़े
बीज उगे
और सोना रंग फसलों के
अम्बार लगे।
माँएँ
अपने आँचलों में
उगाती रहीं
मजबूत बेटे-बेटियों की पनीरियाँ।
पीर-फकीरों की
मनौतियों से
अपने लापरवाह
लाड़-प्यारों से।
कड़कती सरदी
और तपती लूओं ने
जिनके हाड़-माँस को कमाया
जिसके शुंकारते-फुंकारते
स्वभाव को रचाया-बसाया
जिसके लड़ाकू बच्चे-बच्चियों को
दूध पिलाया
ऐसी बीरबाणियों के कुरतों पर
चमकते रहे कंठे
और लाखे रानी हार।
लदी-भरी बोरियों तले
चहकती रही बच्चों की किलकारियाँ
सुबह-शाम
गुच्छियों से उछलती-लपकती
गुल्ली-डंडे और सौंची की बारियाँ।
आँगनों और पसारों में झिलमिलाते
सगुणों के बाग और फुलकारियाँ।
भंडार-घरों में
मक्का और बाजरे की
महक से सराबोर
हर घर का अन्दर और बाहर।
वह
ख़ुशहाल धरती का ख़ुशहाल लिशकारा
आँखों की प्यास बनकर
हर चौके के चंगेरों के
सगुण मनाता रहा।
भर-भर मूठें
बरतन-भाँड़ों में उँडेलता रहा।
खाने-पहनने और
जी भर-भर जी लेने की रीझें।
जहाँ का हर मेहनतकश बादशाह
अपने सिर के साफ़े को
अपना ताज समझ सँभालता रहा
और अपने खेतों को
अपना रिजक समझ
सत्कारता रहा।
ऐसे भागीभरे
भरे पूरे पंजाब की धरती पर
ज़हर की काँगें घिर आईं।
देखते-देखते
लाखों कदमों के हुजूम उठ धाए।
चढ़ाइयाँ
बहुत बार हुईं
बहुत बार हमलावरों के सामने।
बहुत बार राज-पाट बदले
पर चौड़े सीनेवालों ने
कड़े जिगरेवालों ने
कभी हौसले नहीं गँवाए
मरने और मारने से
खौफ़ नहीं खाए
पर आज ?...
क्या सूरमाओं के सिक्के बदल गए ?
बाजुओं के हथियार लटक गए ?
कन्धे धचक गए ?
हाथ मूठों से उठे नहीं।
एक आवाज़ पर
उठ खड़े होनेवालों की
शोख-गुस्ताख़ लहरें गुस्से की
कहाँ गुम हो गईं ?
क्या कहर भरी छातियों में ?
रब्बी हुक्म की तरह
क्या ये फ़ैसले भी आख़िरी हैं ?
मुँह मोड़ लो
अपने घर-आँगन से
हरी-भरी
पकी-जड़ी अपनी फ़सलों से।
पीठ दे दो
इस हरियाली
इस जड़त और
इस नीलाहटों को।
इस धरती पर
अब हमारे पुण्य
शेष हो गए हैं।
अब हमें बिछुड़ जाना है
अपनी धरती से
अपनी माँ से
माँ की माँ से
और हम सबकी माँ से !
इसकी मिट्ठड़ी ओट से
छाँह से।
इसकी
दूध-भरी छातियों से
अब दूध नहीं
खून टपकता है।
देखो पलटकर
मत देखो
दौड़ चलो
छोड़ चलो
इस पानी को
इस धरती को
जिसने हर मौसम
हर बहार में
सूरमाओं की पनीरी उगाई थी
जिसने
हाड़-माँस के इन्सानों में
मेहनत करने
और ज़िन्दगी को
जी भर-भर प्यार करने की
ललक जगाई थी
लौ लगाई थी
अलविदा
आबों के आब को
पंज दरियाओं के पंजाब को
जेहलम और चनाब को।
अलविदा
अपने पुरखों की याद को
जिनके खून और
दूध से बने बच्चे
अब फिर कभी इस दूध में
इस मिट्टी में
कभी नहीं खेलेंगे
कभी नहीं खेलेंगे
इन ज़िन्दा रूहों की छाँव में
जहाँ दूर तक
जमें थे
ख़ुबे थे जड़ों समेत
इनके छाँहदार कबीले।
बेरियों और टालियों तले
दुल्हनों की पालकियाँ
अब कभी नहीं उतरेंगी
कभी नहीं ठिठकेंगी
दूल्हों की
साज़-बाजवाली घोड़ियाँ
गाँव की सीमाओं पर।
गोटा लगी
चूनरों की टोलों से
उठते-खिंचते
लाड़लों की ‘घोड़ियों’ के
ममताले सुर।
फिर कभी नहीं पुकारेंगी
कच्चे कोठों से
चिट्ठी दूध शोख़
पंजाब की बे़टियाँ।
टप्पों के बन्द जोड़
अपने माहियों को
अपने दिलग़ीरों को।
कौन जानेगा
कौन समझेगा
अपने वतनों को छोड़ने
और उनसे मुँह मोंड़ने के दर्दों को
पीड़ों को !
जेहलम और चनाब
बहते रहेंगे इसी धरती पर।
लहराते रहेंगे
ख़ुली-डुली हवाओं के झोंके
इसी धरती पर
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में
इसी तरह
बिलकुल इसी तरह
सिर्फ़
हम यहाँ नहीं होंगे।
नहीं होंगे,
फिर कभी नहीं होंगे,
नहीं।
शरद पुण्या की रात।
पिंड के कच्चे कोठे चम्मचम्म चमकने लगे। दमकने लगे। चान्ननी ने सजरी लिपाई से खेत-खलियान रूख-वृख सब उजरा-उजला दिए।
कुओं के मिट्ठड़े सुर झलमल-झलमल हियरों को हुलसाने लगे।
बेटों-बच्चड़ों के साथ घरों को लौटती बलदों की जोड़ियाँ जी की तृखा-प्यास जगाने लगीं।
चूल्हों से उठती उपलों की कच्ची गन्ध हर कोठे हर चौके को महकाने-लहकाने लगी !
रब्बा, ये सोहणे समय मनुक्खों के साथ लगे रहें। सजे रहें।
चिट्टी दूध चाँदनी में तुरकी बुलबुलों की डार पंख फैलाए अपनी लम्बी उडारियों पर।
‘‘लो, एक और आया झुंड !’’
‘‘बग्ग है कि टोका ?’’
‘‘टोका है।’’
‘‘न, बग्ग है।’’
‘‘वीरजी ये कहाँ जा रही हैं उड़कर ?’’
मिट्ठी के भाई मेहरबान ने बहन के सिर लाड़ से दो धप्पे दिए-‘‘सुन न, ये चोग के लिए आई थीं हमारे पिंड। चुग्गा जुटा कर अब जा रही हैं तेरी ससुराल।’’
‘‘हट परे वीरा ?’’
मींडियों गुँथे सिर पर चौंकफूल डाले मिट्ठी ने भाई की बाँह पर चूँड़ी भर ली। फिर दन्दियाँ झकाकर कहा-‘‘मँगनी मेरी हुई है कि तुम्हारी ? बताऊँ तुम्हारी लाड़ीजी का नाम ? डोडो...डोडो...’’
‘‘चल मरजानी !’’
पिंड के कच्चे कोठे चम्मचम्म चमकने लगे। दमकने लगे। चान्ननी ने सजरी लिपाई से खेत-खलियान रूख-वृख सब उजरा-उजला दिए।
कुओं के मिट्ठड़े सुर झलमल-झलमल हियरों को हुलसाने लगे।
बेटों-बच्चड़ों के साथ घरों को लौटती बलदों की जोड़ियाँ जी की तृखा-प्यास जगाने लगीं।
चूल्हों से उठती उपलों की कच्ची गन्ध हर कोठे हर चौके को महकाने-लहकाने लगी !
रब्बा, ये सोहणे समय मनुक्खों के साथ लगे रहें। सजे रहें।
चिट्टी दूध चाँदनी में तुरकी बुलबुलों की डार पंख फैलाए अपनी लम्बी उडारियों पर।
‘‘लो, एक और आया झुंड !’’
‘‘बग्ग है कि टोका ?’’
‘‘टोका है।’’
‘‘न, बग्ग है।’’
‘‘वीरजी ये कहाँ जा रही हैं उड़कर ?’’
मिट्ठी के भाई मेहरबान ने बहन के सिर लाड़ से दो धप्पे दिए-‘‘सुन न, ये चोग के लिए आई थीं हमारे पिंड। चुग्गा जुटा कर अब जा रही हैं तेरी ससुराल।’’
‘‘हट परे वीरा ?’’
मींडियों गुँथे सिर पर चौंकफूल डाले मिट्ठी ने भाई की बाँह पर चूँड़ी भर ली। फिर दन्दियाँ झकाकर कहा-‘‘मँगनी मेरी हुई है कि तुम्हारी ? बताऊँ तुम्हारी लाड़ीजी का नाम ? डोडो...डोडो...’’
‘‘चल मरजानी !’’
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