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झाँसी की रानी

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :318
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2827
आईएसबीएन :9788171195398

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित यह उपन्यास, जीवनी के साथ-साथ इतिहास का आनन्द भी प्रदान करता है...

Jhasi Ki Rani-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, इसी को लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी। इस उपन्यास को लिखने के लिए महाश्वेता जी ने अथक अध्ययन किया और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के विषय में व्याप्त तरह-तरह की किंवदंतियों के घटाटोप को पार कर तथ्यों और प्रामाणिक सूचनाओं पर आधारित एक जीवन पूरक उपन्यास की तलाश है।

इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है।

इस कृति में तमाम ऐसी सामाग्री का पहली बार उद्घाटन किया गया है जिससे हिन्दी के पाठक सामान्यतः परिचित नहीं हैं। झाँसी की रानी पर अब तक लिखी गयी अन्य औपन्यासिक रचनाओं से यह उपन्यास इस अर्थ में भी अलग है कि इसमें कथा का प्रवाह कल्पना के सहारे नहीं बल्कि तथ्यों और दस्तावेजों के सहारे निर्मित किया गया है, जिसके कारण यह उपन्यास जीवनी के साथ-साथ इतिहास का आनन्द भी प्रदान करता है।

 

रानी ने दामोदर को अपने घोड़े की पीठ से बाँध लिया। सारा झाँसी शहर इस समय जल रहा है मृत्यु के हाहाकार और अग्नि-तांडव के बीच अंग्रेज सैनिक इस समय साक्षात यमदूत की तरह विराजमान हैं। उन्हीं के बीच से निकल गई रानी। पश्चिम में भाँडेर फाटक पर प्रतीक्षा कर रहा था एक कोरी। उसने फाटक खोल दिया। रानी निकल आई। सामने एक के बाद एक तीन कतारों में अंग्रेजों का पहरा था। ओरछा के कुछ सैनिक भी वहाँ थे। उन लोगों ने जानना चाहा-कौन जाता है ? अकंपित स्वर में बुंदेलखंडी भाषा में रानी ने जवाब दिया, हम लोग ओरछा से आ रहे हैं।–ओरछा की फौज है ! उनकी आवाज थोड़ी भारी थी।

 

-इसी पुस्तक से

 

झांसी की रानी

 

 

सन् 1857। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतवासियों के पहले स्वत:स्फूर्त विद्रोह का वर्ष। उस विद्रोह के दिन सबसे आगे की पंक्ति में खड़े होकर जिस वीरांगना नारी ने प्राण दिए थे वही है झाँसी की रानी। विपुल धन और अतुल वैभव उसे महल में बंद कर नहीं रख सका-वरन वैयक्तिक स्वार्थ को तुच्छ मानते हुए बिना क्लेश के वह रणक्षेत्र में कूद पड़ी थी। क्षुद्र स्वार्थ से व्याकुल देशवासियों के समक्ष यह जो एकमहत् उदाहरण है इसमें क्या संदेह। इसीलिए भाँड़ेर से झांसी, झाँसी से कालपी, कालपी से ग्वालियर सभी जगह कानों में पड़ती हुई लोककथाओं के सुर में आज भी सुनाई देती हैं रानी की वीरता की गाथाएँ। क्यों नहीं सुनाई देगीं। रानी जो अमर है-बाई साहिबा जरूर जिंदा हैं। अथच अवशिष्ट स्वाधीन भारत आज अपनी स्वाधीनता की अर्ध शताब्दी में विभोर है। अथवा कौन याद करेगा आज इस वीर नारी की कहानी ! सत्य है सैलुकस कितना विचित्र है यह देश !

 

बहुत दिन की इच्छा पूरी हुई.....

 

 

बाङ्ला में ‘झांसी की रानी’ का धारावाहिक प्रकाशन साप्ताहिक पत्रिका ‘देश’ में हुआ था। पुस्तकाकार रूप में इसका प्रकाशन निउ एज पब्लिशर्स ने 1956 ईस्वी में किया था। आज इस पुस्तक के संबध में कुछ बातें याद आ रही हैं।
यह मेरी पहली पुस्तक है। इसके लिखने के पीछे का इतिहास इतना ही है कि इसके पहले मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं किसी दिन लेखिका बनूँगी और लेखन ही मेरी जीविका हो जाएगी।

उस समय पचास के दशक में मैं, विजन (भट्टाचार्य, एक नाट्यकर्मी और महाश्वेताजी के पति-अनु.) और मेरा बच्चा नवारुण सभी लोग बंबई में रहते थे। कुछ दिन बड़े मामा शचीन चौधुरी (इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संस्थापक संपादक) के घर में भी थी। पुस्तक पढ़ने के अभ्यास के कारण इतिहास में अनुरक्ति, उसी बाध्यता के कारण बड़े मामा के पास एक सुंदर पुस्तकालय था-खूब बड़ा नहीं पर मूल्यवान जरूर था। वहीं पर वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पढ़ती हूं। उसी को पढ़कर लक्ष्मीबाई के संबंध में एक आग्रह उत्पन्न हो जाता है।

कलकत्ता लौटने के बाद 1857 से संबद्ध जितनी भी पुस्तकें मिलीं, सभी पढ़ डालीं। ये सब बातें आज पुनरावृत्ति मात्र हो गई हैं। जो कहने की बात है वह यह है कि पुस्तकें तो सब पढ़ीं ही, रानी के भाई के पुत्र स्वर्गीय गोविन्द राम चिन्तामणि ताम्बे के साथ संपर्क-सूत्र भी स्थापित किया और झाँसी की रानी के विषय में लिखने को प्रस्तुत हुई।

जो कुछ लिखने के लिए कलम पकड़ी वे हो गए 300 पृष्ठ, 300 पृष्ठ लिखने के बाद उन्हें स्वयं पढ़ा और पूरे 300 पृष्ठ फाड़कर फेंक दिए। उसके बाद झाँसी की यात्रा करती हूँ। अहमदाबाद में इतिहास-कांग्रेस थी, बड़ौदा में विज्ञान-कांग्रेस। ट्रेन थी हावड़ा-आगरा-फोर्ट-अहमदाबाद। लौटते समय आगरा फोर्ट से ग्वालियर, झांसी गई थी, या कानपुर से यह आज याद नहीं है।

26 की उम्र थी, क्या अहमदाबाद, क्या बड़ौदा, क्या झांसी, सभी स्थान अजाने और अनपहचाने थे। जैसी गँवार, वैसी ही मूर्ख थी। न होती तो क्या इस तरह चली जाती ? सौभाग्य से 26 वर्ष की उम्र में जो किया 73 वर्ष की उम्र में भी वही करती आ रही हूँ अर्थात् किसी काम को करने की ठान लेती हूँ तो फिर उसी को करती चली जाती हूँ। इस काम को करने से क्या होगा, शरीर सहन कर पाएगा या नहीं सफलता मिलेगी या नहीं-फिर यह सबकुछ नहीं सोचती। जिसे मनुष्य नहीं समझ सकता, ऐसे सब कामों, सभा-सेमिनारों में मेरा जाना भी नहीं है। मेरी दुनिया Needfull (जरूरी) और Needless (गैर जरूरी) इन दो भागों में बँटी हुई है। जो मेरे लिए जरूरी (Needfull) है सौभाग्य से, उस दुर्गम पथ पर, कठिन काम में कम ही लोग मेरे साथ रह पाते हैं। जो रहते हैं, वही लोग मेरे अपने जन हैं।

‘झाँसी की रानी’ पुस्तक छपने के बाद मुझे प्रशंसा मिली है, पुस्तक ने भी श्रद्धापूर्ण अभ्यर्थना पाई है। आज भी अनेक लोग पुस्तक को जीवनीमूलक उपन्यास कहते हैं। जिस ढंग से मैंने पुस्तक लिखी है, उससे मेरा रोमांटिक आवेग, रानी के जीवन की घटनाओं की नाटकीयता-यह सब उसमें झलक उठी है। संभवत: ‘झांसी की रानी’ पुस्तक लिखने के बाद ही मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी। कुछ निरा गद्य जो उपन्यास की सीमा से बाहर है, कितना कुछ नहीं लिखा है। लूशुन जीवन ओ साहित्य-जिम कारबेट अमानिवास’, ‘भारत में बँधुआ मजदूर’ आदि कितना कुछ नहीं लिखा है।

इस पुस्तक को लिखते समय लोकगीत, लोककथा, ‘बुदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास’ लोगों में प्रचलित रासो नामक लोकगाथाएँ लोगों के मुख से सुने गान, यही सब मेरी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। उस दिन एक 26 वर्ष की अंग्रेजी ऑनर्स की ग्रेजुएट लड़की ने आविष्कार किया था कि लोकवृत्त के उपादान, लक्ष्मीबाई के संबंध में जन-सामान्य की उक्तियाँ ( Peoples version of Laxmi Bai) ही इस मूल्यवान इतिहास के आधारभूत उपादान है। भारत का कोई भी इतिहास लिखने बैठने पर लोगों के पास जाकर, मौखिक परंपरा (Oral Tradition) क्या कह रही है इसे जानना होगा। विद्वान लोगों की लिखी हुई पुस्तकें, दस्तावेज, गजेटियर इन्हीं के साथ लोक उपदानों को भी लेना पड़ेगा। तथ्य रहेंगे, सरकारी रिपोर्टें और गजट भी रहेंगे, इसी के साथ लोकवृत्त के उपादान भी रहेंगे। इसी नीति के आधार पर मैंने 23 वर्ष बाद ‘अरण्येर अधिकार’ (जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने ‘जंगल के दावेदार’ शीर्षक से छापा है-अनु.) लिखा है। उस दिन 1956 में मैं शायद अकेली थी। बाद में तो सुना था कि यह लोकायती (Subaltern) दृष्टिभंगी है। सौभाग्य से उस दिन मुझे यह पता नहीं था कि भविष्य में मेरी इस विचारधारा को समर्थन मिलेगा। उस दिन Subalternist School (लोकायती विचारधारा) ने ‘झाँसी की रानी’ को उतना महत्व नहीं दिया था।

नहीं, नए तथ्य खोजने मैं नहीं गई। मेरे आग्रह का मूल कारण झाँसी की रानी के दृष्टांत से प्रेरित होकर मध्यभारत में एक जन-विद्रोह का गढ़ उठना है। रानी की इस भूमिका को कभी छोटा नहीं किया जा सकेगा। युद्ध में कूद पड़ने पर रानी ने भी समझ लिया था, सिर्फ झांसी के लिए ही नहीं, इस युद्ध के पीछे उसका कोई क्षुद्र स्वार्थ नहीं था। समय और युग की सभी रूढ़ियों (Conventions ) को तोड़ उसने अपने आपको एक योग्य और समक्ष सेनानायक सिद्ध कर दिया था-She proved to be a competent military leader.
अन्य तथ्यों को नहीं खोजा है, फिर भी ‘आगुन ज्वलेछिलो’-जली थी अग्निशिखा-उपन्यास में मैंने झाँसी की रानी के संबंध में ह्यूरोज़ के कथन को उद्धृत किया है। लगता है ठीक ही किया है।

इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद हो यह मेरी बड़ी इच्छा थी। किंतु इस तरफ किसी प्रकाशक ने कोई आग्रह नहीं दिखाया। प्रकाशक लोग सोचते थे लक्ष्मीबाई के संबंध में हिंदी में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। शायद इस विषयवस्तु के संबंध में उनकी कोई रुचि भी नहीं थी। आज हिंदी अनुवाद हो गया है, इसलिए मुझे बड़ी शांति मिल रही है। मेरी बहुत दिनों की इच्छा अशोक महेश्वरी ने पूरी कर दी। हिंदी पाठकों को यह पुस्तक कैसी लगेगी, नहीं जानती। पारसनीस द्वारा लिखित (रानी की) जीवनी बहुत विस्तृत (Comprihensive) थी। ‘माँझा प्रवास’ (‘आँखों देखा गदर’ अनु) में भी रानी का बहुत अंतरंग चित्र था। सबसे बड़ी समस्या तो रानी के आज्ञाकारी सैनिकों को लेकर थी, क्योंकि उनमें से बहुत से अफगानी और बलूची थे। रानी ने अपनी धर्मनिष्ठा अक्षुण्य रखते हुए, धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर सभी मनुष्य एक समान हैं इसी मानव धर्म का परिचय कायम रखा था।

मेरा यह जानने का बड़ा आग्रह है कि हिंदी के पाठक इस पुस्तक को पढ़कर यह बताएँ कि इस पुस्तक की हिंदी में जरूरत थी।
नहीं, समालोचना की अनेक बातें याद ही नहीं रहती हैं। सरोजदत्त अथवा ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ ने शायद कुछ लिखा था। मुझे पीछे मुड़कर देखने का अभ्यास नहीं है, पुस्तकों की समीक्षा की फाइल रखने की भी आदत नहीं है। यही तो।

 

-महाश्वेता देवी

 

भूमिका

 

 

बचपन में एक दिन झाँसी की रानी की कहानी नानी ने सुनाई थी। लालटेन के धुँधले आलोक में उनके कोमल कंठ से सुनी वह कहानी एक आश्चर्यजनक रूपक-कथा की तरह लगी थी।
उन सब दिनों की तरह वे मनुष्य भी विगत हो गए और उनके साथ गत हो गई हैं वे सब रूपकथाएँ। फिर भी उस दिन से ही झाँसी की रानी की कहानी मेरे चित्त में उज्जवल रूप में अंकित हो गई।

उसके पश्चात् शिक्षा एवं इतिहास-चेतना के साथ-साथ जब राष्ट्रीय जीवन के संबंध में अनुसंधान की इच्छा विकसित हुई तब झाँसी की रानी की कहानी को लेकर एक संपूर्ण ग्रंथ लिखने की इच्छा भी मन में जाग गई। किंतु प्रारंभिक प्रयास से ही पता चल गया कि 1857-58 ई. के राष्ट्रीय अभ्युत्थान के संबंध में जानने का सुयोग हमारे लिए एकांत रूप से ही सीमाबद्ध है। अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा लिखी गई पुस्तकों को छोड़कर प्रामाणिक पुस्तकों का एकांत रूप से ही अभाव है। प्रासंगिक चिट्ठी-पत्री अथवा अन्य किसी दस्तावेज का मिलना भी दुष्कर है। एकमात्र रजनीकांत गुप्त के अलावा अन्य किसी दृष्टिकोण से इस देशव्यापी विशाल जागरण के संबंध में और कोई प्रामाणिक ग्रंथ रचना का कोई उल्लेख योग्य प्रयास ही नहीं हुआ है। पर, वैसा न होने पर भी इस जागरण की महिमा को महत्व देने का समय आज आ गया है।

हाँ, उस दिन इस जागरण के पीछे भारतीयों के इस प्रबल अंग्रेज-विद्वेष को देखकर ब्रिटिश शासकगण नि:संदेह शंकाकुल हो गए थे, इसलिए प्रयत्नपूर्वक उन लोगों ने इतिहास से इन दोनों वर्षों को एकदम मिटा डालना चाहा था। इसी उद्देश्य से निर्मम अत्याचार एवं बिना विचारे नरसंहार करके ही वे लोग शांत नहीं हुए, इस जागरण के संबंध में जो कुछ साक्ष्य-प्रमाण थे, उन्हें नष्ट करने के लिए उन लोगों ने इस विद्रोह से संबद्ध जितने भी कागज-पत्र थे सबको अपने अधिकार में कर लिया था। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज़ ने झाँसी पर आक्रमण करने के पहले राहतगढ़ किले पर आक्रमण करने के संबंध में कहा है-

‘‘मंदसौर का शाहजादा किले में नहीं था जैसाकि बानपुर के राजा द्वारा उसके लिखे एक खुले पत्र के मिलने से सिद्ध होता है....’’
‘देशी पत्राचार का अकूर ढेर’ (सैन्य विभाग में संरक्षित राजकीय पत्र जिल्द 4, पृष्ठ 57-8)।

कालपी के युद्धक्षेत्र में ह्यूरोज को झाँसी की रानी की जो निजी पेटिका और चिट्ठी-पत्री मिली थी वह बात पुस्तक में उल्लिखित की गई है, किंतु उन सब चिट्ठियों के निश्चित विवरण की दिशा सदा के लिए लुप्त हो चुकी है। फिर भी इतिहास का सत्य इतनी सहजता से लुप्त नहीं होता है। भारत के जिस-जिस स्थान पर यह क्रान्ति घटित हुई थी, वहाँ के लोगों ने इसे किस भाव से ग्रहण किया था उसके प्रमाण मुझे लोकगीतों, छड़ा काव्यों, रासों एवं लोक में प्रचलित अनेक कहानियों में मिले हैं। स्थानीय लोगों में बहुत से आज भी रानी की मृत्यु को अस्वीकार करते हैं। आज भी झाँसी की रानी स्थानीय लोकगाथाओं और किंवदंतियों में जीवित है। गाँववासी उसकी कहानी श्रद्धा के साथ आज भी निश्चित रूप से स्मरण करते हैं।
यह तो हुई एक तरफ की बात। दूसरी ओर 1857 ई. के क्रांतिकारी आंदोलन अथवा झांसी की रानी के संबंध में हम लोगों के पास सच्चे तथ्यों का एकांत रूप से अभाव है। उसके फलस्वरूप हम लोगों की तरफ से भी क्रूर अवहेलना घटित हुई है कई क्षेत्रों में। तात्या टोपे का एक अँगरखा (संभवत: उनका अंतिम अँगरखा) आज भी अज्ञात कारणों से विलायत में रखा हुआ है। लखनऊ की रेजीडेंसी को केंद्र बनाकर एक दिन ब्रिटिश और भारतीयों में चूड़ांत संग्राम हुआ था। 1858 ई. से लेकर 1947 ई. तक वहाँ पर ब्रिटिश पताका गर्वपूर्वक फहराती रही है। 1947 ई. में वह वहाँ से जरूर उतार ली गई किंतु सुना जाता है उसके स्थान पर वहाँ राष्ट्रीय पताका आज भी नहीं फहराई जाती है। उपर्युक्त रेजीडेंसी सिर्फ ब्रिटिशों के गौरव और संग्राम के एक विशाल स्मृति मंदिर के रूप में आज भी विराज रही है। मारे गए अंग्रेजों के नाम की सूची उसकी प्रत्येक दीवार पर उज्जवल अक्षरों में खुदी हुई है। उनके समाधिस्थल पुष्पों से सजे रहते हैं। किंतु भारतीयों की तरफ से आज भी वहाँ शहीद भारतीयों की स्मृति रक्षा के लिए कोई आयोजन ही नहीं किया जाता है। उन लोगों का नाम वहाँ कहीं भी नहीं मिलता है।

भारतीयों के रक्त ने अजस्र धारा में बहकर किस भूमि को सींचा था इसका भी वहाँ कोई निशान नहीं मिलता है। उस दिन सिंहासन पर जिन लोगों का आधिपत्य था, कलम भी उन्हीं लोगों के अधिकार में थी। इसीलिए वे लोग जो लिख गए हैं, जिस दृष्टि से जो कुछ हमें सिखा गए हैं, वही हम लोग पढ़ रहे हैं, जान रहे हैं और देख रहे हैं। झाँसी में रानी की एक प्रतिमा को छोड़कर और कोई स्मृति-चिह्न ही नहीं है। और ग्वालियर में एक छोटी छतरी (समाधि) उनकी अंतिम शय्या का स्थान-निर्देश कर रही है।

इस परिप्रेक्ष्य में ही मेरे इस ग्रंथ की रचना का सूत्रपात हुआ है। किंतु लेखन आगे बढ़ने के समय मुझे और भी अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। श्रद्धेय श्री प्रतुलचन्द्र गुप्त की सहायता के बिना इस काम को पूरा करना मेरे लिए संभव नहीं था। उन्होंने तीन वर्ष लगातार मेरी अनेक प्रकार से सहायता की है। इस सुअवसर पर मैं उनके प्रति अपनी आंतरिक कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ।

विख्यात और सर्वश्रद्धेय इतिहासकार श्री रमेशचन्द्र मजूमदार और सुरेन्द्रनाथ सेन से प्रोत्साहन पाकर मैं धन्य हुई हूं। श्रीयुक्त (रमेशचन्द्र) मजूमदार महाशय ने प्रकाशन के पूर्व पुस्तक की पांडुलिपि अनुग्रहपूर्वक पढ़कर देखी है। उनके प्रति मैं विशेष रूप से ही कृतज्ञ हूं।

इस संदर्भ में जिनकी कथा स्मरण कर रही हूँ उनमें स्वर्गीय गोविन्दराम चिन्तामणि ताम्बे का नाम अग्रगण्य है। उस निरहंकार, सरल और उदारचित व्यक्ति को पुन: श्रद्धा निवेदित करती हूँ। इस ग्रंथ-रचना में उनका अपरिमित उत्साह एवं आंतरिकता का परिचय पाया है। उनके पास रानी के संबंध में अनेक तथ्यों का संग्रह था। उनके पिता चिन्तामणि ताम्बे ने चिमाबाई और झाँसी की अन्य कई अंत: पुरवासिनों की सहायता से रानी के संबंध में विविध तथ्य संगृहीत किए थे। उस संग्रह से मुझे ऐसे बहुत से तथ्य मिले हैं जो प्रचलित ग्रंथों में नहीं मिलते हैं। रानी के पौत्र श्री लक्ष्मणराव झाँसीवाले ने वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता के बाद भी मेरी अनेक प्रकार से सहायता की है। बड़ौदा के ताम्बे परिवार, ग्वालियर के सर्वश्री वी.के.दे. विधान मजूमदार भारत कुमार झामार और श्रीयुक्त भाले राव, झाँसी के श्री हरिकेश चट्टोपाध्याय मेजर और श्रीमती भड़भड़े और मेजर पाठक एवं श्री भगवान प्रसाद गुप्त1 आदि का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। विशेषकर झाँसी में शालिनी भड़भड़े एवं मेजर पाठक की सहायता न मिलने पर वहाँ का किला देखने में मुझे विशेष असुविधा होती। मेरे बड़े मामा श्रीयुक्त शचीन चौधुरी ने इस पुस्तक के लेखन और भ्रमण में विशेष सहायता की है। मैं जो रानी का एक प्रामाणिक जीवन-चरित लिख रही हूँ इस कारण उन्हें विशेष उत्साह था। इतिहास-कांग्रेस के माध्यम से जिनकी भी सहायता मिली है उन लोगों में से धन्यवाद देती हूँ श्रीयुक्त टिकेकर और श्री शोभन वसु को।

मेरा यह ग्रंथ प्रचलित अर्थों में इतिहास नहीं है, रानी का जीवन-चरित लिखने का एक विनीत प्रयास मात्र है। अनवधानतावश इस ग्रंथ में अगर कोई भूल, त्रुटि रह गई हो, आशा करती हूँ उसके लिए सहानुभूति संपन्न पाठक मुझे क्षमा कर देंगे।
इस पुस्तक को श्रीयुक्त सागरमय घोष2 ने आग्रहपूर्वक ‘देश’ पत्रिका में प्रकाशित किया था। इसलिए वे मेरे अशेष धन्यवाद के पात्र हैं। प्रकाशक निउ एज़3 पब्लिशर्स ने इस ग्रंथ के मुद्रण के समय अनेक प्रकार से मेरी सहायता की है। उनकी मंगल वृद्धि की कामना करती हूँ।
अनेक लोगों की सहायता के बिना मुझे अकेले के लिए इस ग्रंथ-रचना का काम पूरा करना संभव न होता। उन सभी लोगों के प्रति मैं अपनी विनम्र कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।
-महाश्वेता देवी
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1. इनका सही नाम डॉ. भगवानदास गुप्त है। इन्होंने छत्रसाल और मराठा इतिहास पर काम किया है। अब ये दिवंगत हो चुके हैं। अनु.
2.‘देश’ पत्रिका के संपादक। अब सेवा-निवृत्त। अनु.।
3.इस ग्रंथ के मूल बांग्ला संस्करण के प्रकाशक। अनु.

 

पृष्ठभूमि

 

 

बुदेलखंड में माघ मास की एक संध्या। पर्वताकीर्ण लाल मिट्टी के प्रांतर के अंत में प्रतिदिन की तरह उस दिन भी सूर्य अस्ताचल को चला गया। आदिगंत आकाश सोनाली रंग से लाल है। इमन कल्याण गुनगुनाती हुई संध्या वासर घर की ओर चलने लगी। प्रत्येक गोधूलि बेला में चिरस्वयम्बरा संध्या का यही प्रियाभिसार होता है। उस समय पशु चराकर लौट रही हैं किसान बालिकाएँ। कंपित गले की आवाज को हवा में तैराता हुआ रास्ता भूली हुई भैस को बुला रहा है एक छोटा (चरवाहा) बालक। (इस प्रकार) एक क्लांत चिरंतन दिन का अवसान होता है।

काठ के चेहला और सूखे पत्तों को जलाता हुआ सड़क के किनारे बैठा हुआ है लोधी लड़के-लड़कियों और मजदूरों का एक दल। उन लोगों के जीवन के आदि और अवसान में किसी निरापदता की कोई प्रतिश्रुति नहीं है। जननी (जन्मभूमि) बुंदेलखंड की तरह उनके भी भाग्य में विपत्तियाँ ही बदी हैं। उस भाग्य में फूल नहीं खिलते हैं, फल नहीं आते हैं। किसी का जन्म होने पर (उत्सव का) आनंद नहीं होता है, किंतु मृत्यु का शोक जरूर होता है। फिर भी वे लोग जीवित रहते हैं, काम करते हैं गीत गाते हैं। मेला के दिन प्रिया को चूड़ियाँ पहनाता है पुरुष, माँ बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाकर सुनाती है।

ये जो लोग हैं, उन लोगों के बीच में जाकर शाम के समय बैठो, तो सुनोगे कि वे लोग झाँसी की रानी की कथा कह रहे हैं। हमारे तुम्हारे लिए झाँसी की रानी इतिहास का एक पृष्ठ मात्र है। उनसे यदि कहो कि झाँसी की रानी तो कब की मर चुकी है-तो वे सब लोग तुम्हारी तरफ देखने लगेंगे। युग-युगांतर का बोझ वे लोग ढो रहे हैं, उनके रक्त में धैर्य है। इसलिए वे लोग प्रतिवाद में हड़बड़ा नहीं उठते हैं। सरल एवं सहज विश्वास के साथ कहेंगे-‘रानी मर नहीं गई हैं, अभी तो जिंदा है। वे कहेंगे-रानी को छिपा रखा है बुंदेलखंड के पत्थरों और मिट्टी ने। स्वाभिमानिनी रानी की पराजय की लज्जा ढके हुए है पृथ्वी –हम लोगों की माँ।

झाँसी में लक्ष्मीताल के पास आकर खड़े होकर तुम देखोगे कि लक्ष्मी तालाब के जल में अपनी काली छाया डालते हुए प्रतीक्षा कर रहा है एक भग्न मंदिर। अवहेलना और अनादर से उसकी देह जीर्ण-शीर्ण हो गई है। सर्वत्र झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। बुंदेलखंड के जितने गरीब लोग हैं वे उसके पासवाले घाट पर कपड़े पछोरते हैं। उनके पास जाकर खड़े होने पर भी तुम झाँसी की रानी की ही बातें सुनोगे। वे कहेंगे-

 

‘पत्थर मिट्टी से फौज बनाई,
काठ से कठवार;
पहाड़ उठा के घोड़ी बनाई

 

(रानी चली ग्वालियर।

 

हमारी तुम्हारी दृष्टि में (यह कोई) रुपकथा नहीं है। तुम कहोगे, यह किसकी कथा कह रहे हो’ वे कहेंगे ‘झाँसी की रानी की।’ वे कहेंगे-रानी अगर हाथ में मिट्टी उठा लेती तो उसी मि्टटी से फौज बन जाती, काठ उसके हाथ से स्पर्श मात्र से ही उठती धारदार तलवार। पत्थर को अपने स्पर्श से घोड़ी बनाकर वह ग्यालियर चली गई थी।

कालपी के रास्ते पर चलते-चलते यदि किसी बूढ़े किसान से भेंट हो जाए तो वह कहेगा- इसी कालपी की भूमि पर युद्ध किया था रानी ने, यही कहीं वह छिपी हुई है; शायद इस मिट्टी की गोद में ही। उसके दिन चले गए हैं, मौका (अवसर) नहीं है। मरती हुई रानी ने इसीलिए लोगों को फिर अपना मुँह नहीं दिखाया।

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