कहानी संग्रह >> यही सच है यही सच हैमन्नू भंडारी
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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...
कलकत्ता
गाड़ी जब हावड़ा स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर प्रवेश करती है तो जाने कैसी विचित्र आशंका, विचित्र-से भय से मेरा मन भर जाता है। प्लेटफ़ार्म पर खड़े असंख्य नर-नारियों में मैं इरा को ढूंढ़ती हूं। वह कहीं दिखाई नहीं देती। नीचे उतरने के बजाय खिड़की में से ही दूर-दूर तक नज़रें दौड़ाती हूं…। आख़िर एक कुली को बुलाकर, अपना छोटा-सा सूटकेस और बिस्तर उतारने का आदेश दे, मैं नीचे उतर पड़ती हूं। उस भीड़ को देखकर मेरी दहशत जैसे और बढ़ जाती है। तभी किसी के हाथ के स्पर्श से मैं बुरी तरह चौंक जाती हूं। पीछे देखती हूं तो इरा खड़ी है।
रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहती हूं, ‘‘सच, तुझे न देख कर मैं घबरा रही थी कि तुम्हारे घर भी कैसे पहुंचूंगी!’’
बाहर आकर हम टैक्सी में बैठते हैं। अभी तक मैं स्वस्थ नहीं हो पाई हूं। जैसे ही हावड़ा पुल पर गाड़ी पहुंचती है, हुगली के जल को स्पर्श करती हुई ठंडी हवाएं तन-मन को एक ताज़गी से भर देती है। इरा मुझे इस पुल की विशेषता बताती है और मैं विस्मित-सी उस पुल को देखती हूं, दूर-दूर तक फैले हुगली के विस्तार को देखती हूं, उसकी छाती पर खड़ी और विहार करती अनेक नौकाओं को देखती हूं, बड़े-बड़े जहाज़ों को देखती हूं।…
उसके बाद बहुत ही भीड़-भरी सड़कों पर हमारी टैक्सी रुकती-रुकती चलती है। ऊंची-ऊंची इमारतों और चारों ओर के वातावरण से कुछ विचित्र-सी विराटता का आभास होता है और इन सबके बीच जैसे मैं अपने को बड़ा खोया-खोया-सा महसूस करती हूं। कहां पटना और कानपुर और कहां यह कलकत्ता; सच, मैंने बहुत बड़े शहर देखे ही नहीं।
सारी भीड़ को चीरकर हम रोड पर आ जाते हैं। चौड़ी शान्त सड़क। मेरे दोनों ओर लम्बे-चौड़े खुले मैदान।
‘‘क्यों इरा, कौन-कौन होंगे इण्टरव्यू में? मुझे तो सच बड़ा डर लग रहा है ।’’
‘‘अरे, सब ठीक हो जाएगा! तू और डर? हम जैसे डरें तो कोई बात भी है। जिसने अपना सारा कैरियर अपने-आप बनाया, वह भला इण्टरव्यू में डरे!’’ फिर कुछ देर ठहरकर कहती है, ‘‘अच्छा, भैया-भाभी तो पटना ही होंगे? जाती है कभी उनके पास भी या नहीं?’’
‘‘कानपुर आने के बाद एक बार गई थी। कभी-कभी यों ही पत्र लिख देती हूं।’’
‘‘भई, कमाल के लोग हैं, बहिन को भी नहीं निभा सके!’’
मुझे यह प्रसंग क़तई पसन्द नहीं। मैं नहीं चाहती कि कोई इस विषय पर बात करे। मैं मौन ही रहती हूं।
इरा का छोटा-सा घर है, सुन्दर ढंग से सजाया हुआ। उसके पति के दौरे पर जाने की बात सुनकर पहले मुझे अफ़सोस हुआ था; वे होते तो कुछ मदद ही करते। पर फिर एकाएक लगा कि उनकी अनुपस्थिति में मैं शायद अधिक स्वतंत्रता का अनुभव कर सकूं। उसका बच्चा भी बड़ा प्यारा है।
शाम को इरा मुझे कॉफ़ी हाउस ले जाती है। अचानक मुझे वहां निशीथ दिखाई पड़ता है। मैं सकपकाकर नज़र घुमा लेती हूं। पर वह हमारी मेज़ पर आ पहुंचता है। विवश होकर मुझे उधर देखना पड़ता है, नमस्कार भी करना पड़ता है, इरा का परिचय भी करवाना पड़ता है। इरा पास की कुर्सी पर बैठने का निमन्त्रण देती है। मुझे लगता है, मेरी सांस रुक जाएगी।
‘‘कब आई?’’
‘‘आज सवेरे ही।’’
‘‘अभी ठहरोगी? ठहरी कहां हो?’’
जवाब इरा देती है मैं देख रही हूं, निशीथ बहुत बदल गया है। उसने कवियों की तरह बाल बढ़ा लिए हैं। यह क्या शौक चर्राया? उसका रंग स्याह पड़ गया है। वह दुबला भी हो गया है।
विशेष बातचीत नहीं होती और हम लोग उठ पडते हैं। इरा को मुन्नू की चिंता सता रही थी, और मैं स्वयं घर पहुंचने की उतावली हो रही थी। कॉफी हाउस से धर्मतल्ला तक वह पैदल चलता हुआ हमारे साथ आता है। इरा भी उससे बात कर रही है, मानो वह इरा का ही मित्र हो। इरा अपना पता समझा देती है और वह दूसरे दिन नौ बजे आने का वायदा करके चला जाता है।
पूरे तीन साल बाद निशीथ का यों मिलना! न चाहकर भी जैसे सारा अतीत आंखों के सामने खुल जाता है। कितना दुबला हो गया है निशीथ!…लगता है, जैसे मन में कहीं कोई गहरी पीड़ा छिपाए बैठा है।
मुझसे अलग होने का दुःख तो नहीं साल रहा है इसे?
कल्पना चाहे कितनी ही मधुर क्यों न हो, एक तृप्तियुक्त आनन्द देने वाली क्यों न हो, पर मैं जानती हूं यह झूठ है। यदि ऐसा ही था तो कौन उसे कहने गया था कि तुम इस सम्बन्ध को तोड़ दो। उसने अपनी इच्छा से ही तो यह सब किया था।
एकाएक ही मेरा मन कटु हो उठता है–यही तो है वह व्यक्ति जिसने मुझे अपमानित करके सारी दुनिया के सामने छोड़ दिया था महज़ उपहास का पात्र बनाकर! ओह! क्यों नहीं मैंने उसे पहचानने से इन्कार कर दिया! जब वह मेज़ के पास आकर खड़ा हुआ, तो क्यों नहीं मैंने कह दिया कि माफ़ कीजिए, मैं आपको पहचानती नहीं। जरा उसका खिसियाना तो देखती! वह कल भी आएगा। सच, मुझे उसे साफ़-साफ़ मना कर देना चाहिए था कि मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, मैं उससे नफ़रत करती हूं!…
अच्छा है, आए कल! मैं उसे बता दूंगी कि जल्दी ही मैं संजय से विवाह करने वाली हूं। यह भी बता दूंगी कि मैं पिछला सब-कुछ भूल चुकी हूं। यह भी बता दूंगी कि मैं उससे घृणा करती हूं और उसे ज़िन्दगी में कभी माफ़ नहीं कर सकती।…
यह सब सोचने के साथ-साथ, जाने क्यों, मेरे मन में यह बात भी उठ रही है कि तीन साल हो गए, अभी तक निशीथ ने विवाह क्यों नहीं किया? करे न करे, मुझे क्या!…
क्या वह आज भी मुझसे कुछ उम्मीद रखता है? हूं! मूर्ख कहीं का!
संजय! मैंने तुमसे कितना कहा था कि तुम मेरे साथ चलो, पर तुम नहीं आए।…इस समय जबकि मुझे तुम्हारी इतनी-इतनी याद आ रही है, बताओ, मैं क्या करूं?
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