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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...



क्षय


सावित्री के यहाँ से लौटी, तो कुन्ती यों ही बहुत थका हुआ महसूस कर रही थी। उस पर से टुन्नी के पत्र ने उसके मन को और भी बुरी तरह मथ दिया। पापा को भी दो बार खाँसी का दौरा उठ चुका था। वह जानती थी कि वे बोलेंगे कुछ नहीं, पर उनका मन कर रहा होगा कि टुन्नी को वापस बुला लें। रात में लेटी तो फिर उसी पत्र को खोलकर पढ़ने लगी :

‘‘दीदी, मेरा मन यहाँ ज़रा भी नहीं लगता। सारे समय पापा की और तुम्हारी याद आती रहती है। स्कूल वालों ने भी मुझे आठवीं में ही भरती किया है। उस दिन तुम मेरे हेडमास्टर साहब के पास चली जातीं तो कितना अच्छा होता, पूरा एक साल बच जाता। तुमने मेरा इतना-सा काम भी नहीं किया। दीदी, पूरा एक साल बिगड़वा दिया…’’

क्या सचमुच ही उसने टुन्नी का साल बिगड़वा दिया? नहीं, नहीं, जो कुछ उसने किया, ठीक ही किया। कोई उसके पास इस तरह की सिफारिश लेकर आए तो? उसका वश चले तो वह स्कूल के फाटक से ही निकाल बाहर करे। वह शुरू से ही इतना कहती थी कि टुन्नी, पढ़, मेहनत कर। पर उस समय पापा को टुन्नी बच्चा लगता था। अब फेल हो गया तो जान-पहचान का फायदा उठाओ, सिफारिश करो। उसने जो कुछ किया, ठीक किया। स्कूलों में यह सब देखकर उसका मन आक्रोश, दुःख और ग्लानि से भर जाता है। पर होता है और वह देखती भी है…लेकिन उससे क्या हुआ, वह स्वयं ऐसा कभी नहीं करेगी। जिस दिन पापा ने उससे यह बात कही थी, वह अवाक्-सी उनका मुँह देखती रह गई थी, जैसे विश्वास न हो रहा हो कि पापा भी कभी ऐसी बात कह सकते हैं और वह भी कुन्ती से…कुन्ती आज जो कुछ भी है, विचारों से, विश्वासों से पापा की ही तो बनाई हुई है…लेकिन पापा बदल गए हैं, बहुत बदल गए हैं। शायद यह बीमारी ही ऐसी होती है कि आदमी को बदलना पड़ता है। कुन्ती स्वयं महसूस करती है कि उसके जिस आदर्शवाद और दृढ़ आत्मविश्वास पर पापा कभी गर्व किया करते थे, उसी पर आज वे शायद दुःख करते हैं। उन्हें लगता है जैसे कुन्ती को बनाने में वे कहीं भूल कर बैठे हैं। वह अपना मन टटोलने लगी, क्या सचमुच ही कुछ गलत विश्वास और गलत सिद्धांत वह पाल बैठी है?

सामने वायलिन पड़ा था। वह उठी और वायलिन लेकर छत पर चली गई। जब उसका मन बहुत खिन्न होता है, उसे वायलिन बजाना बहुत अच्छा लगता है। रात के सन्नाटे में मन का अवसाद जैसे संगीत की स्वर-लहरियों पर उतर-उतरकर चारों ओर बिखरने लगता है। वह आँख मूँदकर बेसुध-सी वायलिन बजाने लगी उसकी त्रस्त आत्मा, खिन्न मन और शिथिल शरीर धीरे-धीरे सब थिरकने लगे। वह किसी और ही लोक में पहुँच गई।

खों, खों, खों…पापा की लगातार खाँसी से उसकी तन्मयता टूटी। एकाएक ही अंगुलियाँ शिथिल हो गईं, और वायलिन ठोड़ी के नीचे से सरककर छाती पर आ टिका, वह नीचे आई। पापा को आज तीसरी बार दौरा उठा था। उन्हें दवाई दी और पास बैठकर तब तक पीठ सहलाती रही, जब तक वे शान्त होकर लेट नहीं गए।

जब वह अपने कमरे में आकर लेटी तो रात करीब आधी बीत चुकी थी। आज सावित्री के यहाँ उसका पहला दिन था। उसे ख्याल आया, कल जब वह स्कूल जाएगी तो मिसेज़ नाथ उसे देखकर वैसे ही व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कराएँगी। उसकी इस मुस्कराहट ने हमेशा ही उसके मन में घृणा पैदा की है। उसे लगा, जैसे कल वह इस मुस्कराहट का सामना नहीं कर सकेगी। उसका उपहास करती, उस पर आरोप लगाती-सी मिसेज़ नाथ की मुस्कराहट अँधेरे में एक बार उसके सामने कौंध गई। कुन्ती ने करवट बदली तो मकान-मालिक के बच्चों के मास्टर का दयनीय, सूखा-सा चेहरा उसके सामने उभर आया। एक यह व्यक्ति है, जिसने उसके मन में हमेशा अपने काम के प्रति अरुचि उत्पन्न की है। ओह! क्या-क्या कल्पनाएँ थीं उसके मन में अध्यापन को लेकर!…लेकिन मिसेज़ नाथ…यह मास्टर…कुन्ती ने फिर करवट बदल ली।

एक महीने में ही घर का जैसे सब कुछ बदल गया। उसे वह दिन याद आया, जब वह डॉक्टर के यहाँ से पापा की एक्स-रे प्लेट के साथ रिपोर्ट लेकर आई थी कि उन्हें क्षय है। रास्ते-भर वह यही सोचती आई थी कि पापा को रिपोर्ट कैसे देगी? उन पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? दवाइयों का लम्बा नुस्खा और हिदायतों की लम्बी सूची समस्या के दूसरे पहलू को भी उभार-उभारकर रख रही थी। कैसे वह सब करेगी? करना तो सब उसी को है। पिछले चार सालों से इस घर के लिए वही तो सब-कुछ करती आई है। वही तो पापा की पहली संतान है और पापा हमेशा ही कहते थे, वह उनकी लड़की नहीं, लड़का है। शुरू से उसे लड़के की तरह ही पाला…बचपन में वह लड़कों के साथ खेली, लड़कों के साथ पढ़ी और अब लड़कों की तरह ही घर को सँभाल रही है। पर अब?

घर पहुँची तो पापा पलंग पर लेटे हुए थे। उसने चुपचाप वह लिफाफा उनके हाथ में थमा दिया और नौकर को चाय लाने का आदेश देकर अन्दर चली गई। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि पापा उसे बुलाएँगे, कुछ कहेंगे, पर उन्होंने नहीं बुलाया। क्या पापा को रिपोर्ट देखकर सदमा लगा? क्या वह पहले नहीं जानते थे कि उन्हें क्षय है? फिर?

चाय पीने वह बाहर जाकर बैठी। शायद अब कोई बात चले। पर फिर मौन। पापा पैर फैलाकर तकिए के सहारे बैठे शून्य नज़रों से आसमान निहार रहे थे। कुन्ती ने प्याला पकड़ाया तो चाय पीने लगे। खामोशी के वे क्षण कुन्ती को बहुत बोझिल लगे थे। सामने इतनी बड़ी समस्या है और दोनों यों ही मौन बैठे हैं। स्थिति की गम्भीरता को दोनों ही महसूस कर रहे थे, पर लग रहा था जैसे उसका नाम लेने-भर से वह और विकट हो जाएगी। पापा शायद सोच रहे थे कि दोनों बच्चे कितने असहाय महसूस करने लगेंगे! और कुन्ती सोच रही थी कि बात करने से ही पापा के मन में जीवन के प्रति कैसी घातक निराशा छा जाएगी। दोनों बच्चों के अनिश्चित भविष्य की चिन्ता उन्हें कितना व्यथित बना देगी? पर मौन रहने से ही तो यह सब नहीं सुलझ जाएगा। तब?

तब केवल बात करने-भर के लिए ही कुन्ती ने टुन्नी को इलाहाबाद भेजने की बात कह दी थी। वह जानती थी कि पापा इसका विरोध करेंगे। अपने बच्चों को वे एक दिन के लिए भी अपनी आँखों से दूर नहीं कर सकते। फिर टुन्नी छोटा था, अधिक लाड़ला। पर वे कुछ नहीं बोले थे। धीरे से इतना कहा था, ‘भेज देना।’ कुन्ती को लगा, जैसे पापा विवश होकर कह रहे हों–मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला? अब तो तुम्हीं सब कुछ हो, जो चाहो सो करो। मैं क्षय का रोगी…

कुन्ती की आँखें छलछला आई थीं।

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    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

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