विविध उपन्यास >> शब्दों के आलोक में शब्दों के आलोक मेंकृष्णा सोबती
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नये पुराने मुखड़ों और रचनात्मक टुकड़ों की बन्दिशों को एक जिल्द में संजोने का वर्णन है...
Shabdon ke aalok mein
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘शब्दों के आलोक में’ एक पुरानी जन्म तारीख के नए पुराने मुखड़ों और कार्यकारी उभरते पाठ के रचनात्मक टुकड़ों की बन्दिश है जिसे एक जिल्द में संजोया गया है। पाठ के नएपन से आक्रान्त है। और पुरानेपन से आतंकित। जीने का एक ऐसा मौसम इसके आर-पार फैला है जो न लेखक की कार्य-क्षमताओं पर हावी है और न साहित्य मुखौटों से भयभीत। ट्रैक पर दौड़ते हुए न किसी को पछाड़ने की हसरत और न किसी से पिछड़ने का डर।
साहित्य अपनी बेजोड़ सम्पदा, सम्पन्नता और समग्रता में सनातन पौरुषेय को स्तम्भित कर देनेवाली सफलताओं का प्रदाय नहीं है। साहित्य संस्थानों का वह संस्थान है जहाँ कमतर सफलता या विफलता किसी का सिर नीचा नहीं करती और अपूर्व सफलता से गर्व से मस्तक ऊँचा नहीं करती। साहित्य की यही वैचारिक, नैतिक और व्यावहारिक मर्यादा है।
साहित्य अपनी बेजोड़ सम्पदा, सम्पन्नता और समग्रता में सनातन पौरुषेय को स्तम्भित कर देनेवाली सफलताओं का प्रदाय नहीं है। साहित्य संस्थानों का वह संस्थान है जहाँ कमतर सफलता या विफलता किसी का सिर नीचा नहीं करती और अपूर्व सफलता से गर्व से मस्तक ऊँचा नहीं करती। साहित्य की यही वैचारिक, नैतिक और व्यावहारिक मर्यादा है।
शब्दों के आलोक में समय के रंग
रचनात्मक स्तर पर किसी भी पाठ की भाषिक संरचना जितनी सीधी-सादी और सरल होने का आभास देती है, उतनी ही संश्लिष्ट गूँथ उसकी बुनावट और बनावट में होती है। शब्दों के गम्भीर और विशिष्ट गतिशील रंग एक साथ पाठ के वजूद को, उसके अस्तित्व और पहरन को एक धड़कती लिखत के रूप में प्रस्तुत कर रहे होते हैं। शब्दों के संयोजन से पाठ वृत्तांत अथवा संवाद के प्रत्याशित और अप्रत्याशित तक पहुँच पाना, शब्दों को, ध्वनि को स्फूर्त रंग-रूप में ढालकर उनके अर्थों का आलोक ब्रश द्वारा अंकन के समान ही उभरता चला आता है।
एक साथ पन्ने से पाठक के अन्तर तक भाषायी दृश्य-श्रव्य के सहारे पाठ का मुखड़ा सजगता और सुगमता से अपनी बुनत में पढ़नेवाले की आत्मा को खटखटाता है और अन्तर्मन के कपाट खुलते ही मैत्री भाव से उसके संवेदन में पसर जाता है।
लेखक, पाठ और पाठक के संबंध एक साथ गहरे उलझे हुए और सरलता की ओर बढ़ते हुए होते हैं। ब्रश से रेखांकित करने वाले कलाकार की तरह ही। जो उलझन फाँस, रड़क, विरोध, सहमति के साथ-साथ विचार और दृश्य की रहस्यमयता सूत से उबरती हुई तागों के तन्तुजाल की तरह बाहर की ओर बढ़ती है। सरल हो जाने के बिन्दु को उलाँघ उस आकार की ओर बढ़ती है जो जन्म के रूप में उसे लेखक, कलाकार या मूर्तिकार के हाथों से मिलने वाला है।
अपने मूल रंग स्वरूप में यह कुछ भी बन सकता है। छोटे और बड़े आत्मतत्त्व के सहारे शब्द और अर्थ की भंगिमाएँ कोई भी अंश साकार हो देह और आत्मा ग्रहण कर सकते हैं। शब्दों की विचार-क्रियाएँ अपनी भाषायी सत्ता में मानवीय अभिव्यक्ति की ओर अग्रसर होती हैं। उनकी अर्थ-संगीत मन के आन्तरिक भावों-अनुभवों और देह धर्म की अस्मिता को प्रस्तुत करती है। वह जान लेना चाहती है उसे, जो दीखता है और उसे भी, जो दीखता नहीं। गोचर और अगोचर दोनों। भाषा का यह स्वाभाविक गुण-धर्म है जो लेखक की वैयक्तिक भूमि पर जमा होता रहता है। इसी के सहारे लेखक परम्परा, सिद्धान्त और मानवीय मूल्यों को अपनी क़लम से नया करता चला जाता है। वह उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना वह है। वह उतनी ही नई है, जितना नया समय है।
समय ही वह रंग है जो अनेक-अनेक रंगों में विभाजित होता है और पठन-पाठन प्रक्रिया द्वारा फिर एक हो जाता है भिन्न-भिन्न खेमों में। गहरे, हलके और चमकीले रंगों में। स्वयं शब्द उन्हें अपने आलोक में स्थित करते हैं। बरखा में, धूप की गरमाहट में, देह की आहट में और आत्मा के विराट में। शब्द ही अपने मुखड़ों में से अपने अर्थ पहचानते हैं। वह उन्हें चित्रित करते हैं जो उनके चितेरे हैं। चित्र-अंकन की तरह ही शब्द भाषा द्वारा वैचारिक व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। जैसे चित्र में आकार स्वरूप लेते हैं, वैसे ही शब्दों की विशेष ध्वनि गूँज-गूँथ पाठ अथवा वृत्तांत के सन्दर्भ में अर्थ प्रदान करती चली जाती है।
लेखक की अन्तरभेदी दृष्टि मानवीय मन-भावों में मूल्यों के साथ-साथ जाने-अनजाने परिचित-अपरिचित को पंक्तिबद्ध करती है। कुछ ऐसी सहज गहराई से कि शब्दों के जरिए एक सर्वव्यापी चैतन्य संप्रेषित होकर साकार हो उठे।
आकारिक बनावट एक चित्र दृष्टि सँजोए रहती है। उसी के लचकीले अर्थ में रचना और पाठ का उदात्त उदय होता है। उसी में से दु:ख-दर्द, आशा-निराशा, द्वन्द्व, प्रेम, मैत्री, वैर, लगाव, ममता, प्यार-असंख्य मानवीय अनुभूतियाँ प्रवाहित होती हैं।
भाषा का सहजसिद्ध स्वाभाविक स्वरूप ‘लोक’ के सांस्कृतिक संस्कार में निहित होता है। लेखक जितनी गहराई से उसे समझता-देखता है, वह उतना ही पारदर्शी पाठ प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखता है।
किसी एक क्षण को, व्यक्ति, द्रष्टा और घटना को जैसे ही शब्द छूते हैं, उनमें वे रंग प्रकट होते हैं, जिन्हें वह संवेदन विशेष से अपने में सँजोए रहते हैं। वह शब्दों के माध्यम से कैसे-कैसे पुरर्जीवित होते हैं, नए अस्तित्व में आते हैं, यह विलक्षण जादू मानवीय स्मृति और समझ का विशिष्ट आलेखन है। समय, स्थान और मानवीय ऊर्जा-गति का ऐन्द्रजालिक समन्वय कुछ ऐसी रंग-संगीत में रेखांकित हो उठता है कि लेखक बाहर की दुनिया के तालमेल में शब्दों के रंग देखने लगता है और अपनी रचना-प्रक्रिया में अन्तरकोणों को उजागर कर देता है।
भाषा की शैली विन्यास लेखक की अवचेतना विचार क्रिया से जुड़े हैं। यह जुड़ाव जितना आसान और स्वाभाविक दीखता है, वह उतना ही उलझा हुआ और जटिल भी है। कल्पना और सहज ज्ञान का सम्मिश्रण क्या तथ्य और सत्य की भिन्नता को, दूरी और निकटता को देख सकने में सक्षम है ? क्या विविध मनोभावों और स्वभाव-मुद्राओं को शाब्दिक रंगों में लिपिबद्ध कर सकने में समर्थ है ? कौशल से अलग हर लेखक की भाषा अपनी अंकन-पद्धति का आविष्कार करने की चेष्टा करती है। रंगों की तरह ही शब्दों के सजीव मुखड़े और रंग हैं। किसी भी पाठ संवाद या वृत्तांत का समतल पृष्ठभूमि पर वास्तविक या प्रतीकात्मक आकारों में शब्द अपनी लय-ताल में अर्थ प्रकट करते हैं और यथार्थ के स्थूल को सूक्ष्म कर गहनता में बदल देते हैं। पंक्तियों के समूह को तरंगित करते हैं और तरंगित होते हैं, ध्वनि की गूँज में और सुनने पढ़ने वालों को खटखटाते हैं। उनके अन्तरंग तक पहुँचते हैं।
शब्द शोर नहीं, भाषा के स्पंदन अर्थ को साधे रहता है। लेखकीय मन: स्थिति पाठ की रचना को प्रभावित करती है। आनन्द, अत्यानन्द, उत्साह, उदासी, उदासीनता, अतिरेक, आवेश-सभी भाषायी विधान को प्रभावित करते हैं। भाषा की उदासीनता और प्रखरता चमकीले या सौम्य रंगों को मर्यादित करती है। अतिरंजित अथवा अतिरिक्त शब्दावली अर्थ के उद्गम स्रोत्र तक पहुँचने में बाधक होती है। पारदर्शिता के स्तर पर ध्वनि-विरोधी भी। भाषा की संयमित सहृदयता चुनौती, स्पष्टता और घुलनशीलता लेखकीय उत्कर्ष को चरितार्थ की संभावाएँ रखती हैं। यह आन्तरिक गूढ़ता और सहजपन लेखक के बौद्धिक, मानसिक पर्यावरण पर निर्भर है। कभी-कभार रचना का कोई पात्र सहजसिद्ध होता है जो अपनी भाषा स्वयं गढ़ता है। लेखक मैत्रीपूर्ण दबाव से मात्र उसे संयमित करता है। लेखक के अन्तर्मन और उसके आसपास फैले संसार की विलक्षणता, एकरसता कठोरता, कोमलता, भय, आतंक, मैत्री, वैर-सब अपने-अपने स्वभाव का व्याकरण चुनते हैं और शब्दों को रंग-विशेष में प्रस्तुत करते हैं।
दिलचस्प है यह जाँच भी कि भाषा की लचक या ऐंठन किस तरह पाठ संवाद की तरलता से तिरोहित करती है या उसे कलफ़ की तरह अकड़ा देती है।
किसी भी पाठ का सूक्ष्म तत्त्व लेखक के भाषायी हथियार में नहीं, रचना के कथ्य और कथन में से ध्वनित और प्रवाहित होता है, जिसको लिखने का जोख़िम लेखक ने उठाया है। सर्जन तत्त्वों के रूप में विषयानुसार भाषा अपने प्राकृतिक लय, रंग, रूप, रस और सामंजस्य में पाठ को प्रेरित करते हैं और उसे मानवीय स्निग्धता से प्रसारित भी।
चित्र अंकन की तरह लेखन में भी रंग-सम्मिश्रण की कार्य-शैली जितनी एक-दूसरे से अलग दीखती है, उतनी विलग होती नहीं। भाषिक कला माध्यम शब्द और विचार से उद्भासित और अनुप्राणित होता है। तूलिका द्वारा रंग-सम्मिश्रण की जो चेष्टाएँ कलात्मक क्षमताएँ प्रस्तुत और प्रदर्शित की जाती हैं, उनके समानान्तर पाठ-संयोजन को चीन्हने और पढ़ने के लिए भाषा के मौन का विस्तार होता है।
लिखित पाठ में भाषा की मुखरता उसके अर्थ में खामोशी से ही स्फूर्त और सक्रिय हो उठती है। कई बार पाठ के पिछवाड़े से भावों के सौम्य, निर्मल गुण ध्वनित होते हैं, वही चितकबरे पाठ की आंतरिक भूमिका निभाते हैं। विचार की स्पष्टता को संयम से विस्तार देते हैं-विषयवस्तु के व्याकरण पर आँख रखते हुए।
कथ्य में से उभरता और अर्जित होता आत्मविश्वास लेखक के कौशल से कहीं ज़्यादा होता है। रचनात्मक लेखन के सन्दर्भ में यही वह मूल और मौलिक रंग है, जिससे रचना का लौकिक और अलौकिक गठित होता है।
एक साथ पन्ने से पाठक के अन्तर तक भाषायी दृश्य-श्रव्य के सहारे पाठ का मुखड़ा सजगता और सुगमता से अपनी बुनत में पढ़नेवाले की आत्मा को खटखटाता है और अन्तर्मन के कपाट खुलते ही मैत्री भाव से उसके संवेदन में पसर जाता है।
लेखक, पाठ और पाठक के संबंध एक साथ गहरे उलझे हुए और सरलता की ओर बढ़ते हुए होते हैं। ब्रश से रेखांकित करने वाले कलाकार की तरह ही। जो उलझन फाँस, रड़क, विरोध, सहमति के साथ-साथ विचार और दृश्य की रहस्यमयता सूत से उबरती हुई तागों के तन्तुजाल की तरह बाहर की ओर बढ़ती है। सरल हो जाने के बिन्दु को उलाँघ उस आकार की ओर बढ़ती है जो जन्म के रूप में उसे लेखक, कलाकार या मूर्तिकार के हाथों से मिलने वाला है।
अपने मूल रंग स्वरूप में यह कुछ भी बन सकता है। छोटे और बड़े आत्मतत्त्व के सहारे शब्द और अर्थ की भंगिमाएँ कोई भी अंश साकार हो देह और आत्मा ग्रहण कर सकते हैं। शब्दों की विचार-क्रियाएँ अपनी भाषायी सत्ता में मानवीय अभिव्यक्ति की ओर अग्रसर होती हैं। उनकी अर्थ-संगीत मन के आन्तरिक भावों-अनुभवों और देह धर्म की अस्मिता को प्रस्तुत करती है। वह जान लेना चाहती है उसे, जो दीखता है और उसे भी, जो दीखता नहीं। गोचर और अगोचर दोनों। भाषा का यह स्वाभाविक गुण-धर्म है जो लेखक की वैयक्तिक भूमि पर जमा होता रहता है। इसी के सहारे लेखक परम्परा, सिद्धान्त और मानवीय मूल्यों को अपनी क़लम से नया करता चला जाता है। वह उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना वह है। वह उतनी ही नई है, जितना नया समय है।
समय ही वह रंग है जो अनेक-अनेक रंगों में विभाजित होता है और पठन-पाठन प्रक्रिया द्वारा फिर एक हो जाता है भिन्न-भिन्न खेमों में। गहरे, हलके और चमकीले रंगों में। स्वयं शब्द उन्हें अपने आलोक में स्थित करते हैं। बरखा में, धूप की गरमाहट में, देह की आहट में और आत्मा के विराट में। शब्द ही अपने मुखड़ों में से अपने अर्थ पहचानते हैं। वह उन्हें चित्रित करते हैं जो उनके चितेरे हैं। चित्र-अंकन की तरह ही शब्द भाषा द्वारा वैचारिक व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। जैसे चित्र में आकार स्वरूप लेते हैं, वैसे ही शब्दों की विशेष ध्वनि गूँज-गूँथ पाठ अथवा वृत्तांत के सन्दर्भ में अर्थ प्रदान करती चली जाती है।
लेखक की अन्तरभेदी दृष्टि मानवीय मन-भावों में मूल्यों के साथ-साथ जाने-अनजाने परिचित-अपरिचित को पंक्तिबद्ध करती है। कुछ ऐसी सहज गहराई से कि शब्दों के जरिए एक सर्वव्यापी चैतन्य संप्रेषित होकर साकार हो उठे।
आकारिक बनावट एक चित्र दृष्टि सँजोए रहती है। उसी के लचकीले अर्थ में रचना और पाठ का उदात्त उदय होता है। उसी में से दु:ख-दर्द, आशा-निराशा, द्वन्द्व, प्रेम, मैत्री, वैर, लगाव, ममता, प्यार-असंख्य मानवीय अनुभूतियाँ प्रवाहित होती हैं।
भाषा का सहजसिद्ध स्वाभाविक स्वरूप ‘लोक’ के सांस्कृतिक संस्कार में निहित होता है। लेखक जितनी गहराई से उसे समझता-देखता है, वह उतना ही पारदर्शी पाठ प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखता है।
किसी एक क्षण को, व्यक्ति, द्रष्टा और घटना को जैसे ही शब्द छूते हैं, उनमें वे रंग प्रकट होते हैं, जिन्हें वह संवेदन विशेष से अपने में सँजोए रहते हैं। वह शब्दों के माध्यम से कैसे-कैसे पुरर्जीवित होते हैं, नए अस्तित्व में आते हैं, यह विलक्षण जादू मानवीय स्मृति और समझ का विशिष्ट आलेखन है। समय, स्थान और मानवीय ऊर्जा-गति का ऐन्द्रजालिक समन्वय कुछ ऐसी रंग-संगीत में रेखांकित हो उठता है कि लेखक बाहर की दुनिया के तालमेल में शब्दों के रंग देखने लगता है और अपनी रचना-प्रक्रिया में अन्तरकोणों को उजागर कर देता है।
भाषा की शैली विन्यास लेखक की अवचेतना विचार क्रिया से जुड़े हैं। यह जुड़ाव जितना आसान और स्वाभाविक दीखता है, वह उतना ही उलझा हुआ और जटिल भी है। कल्पना और सहज ज्ञान का सम्मिश्रण क्या तथ्य और सत्य की भिन्नता को, दूरी और निकटता को देख सकने में सक्षम है ? क्या विविध मनोभावों और स्वभाव-मुद्राओं को शाब्दिक रंगों में लिपिबद्ध कर सकने में समर्थ है ? कौशल से अलग हर लेखक की भाषा अपनी अंकन-पद्धति का आविष्कार करने की चेष्टा करती है। रंगों की तरह ही शब्दों के सजीव मुखड़े और रंग हैं। किसी भी पाठ संवाद या वृत्तांत का समतल पृष्ठभूमि पर वास्तविक या प्रतीकात्मक आकारों में शब्द अपनी लय-ताल में अर्थ प्रकट करते हैं और यथार्थ के स्थूल को सूक्ष्म कर गहनता में बदल देते हैं। पंक्तियों के समूह को तरंगित करते हैं और तरंगित होते हैं, ध्वनि की गूँज में और सुनने पढ़ने वालों को खटखटाते हैं। उनके अन्तरंग तक पहुँचते हैं।
शब्द शोर नहीं, भाषा के स्पंदन अर्थ को साधे रहता है। लेखकीय मन: स्थिति पाठ की रचना को प्रभावित करती है। आनन्द, अत्यानन्द, उत्साह, उदासी, उदासीनता, अतिरेक, आवेश-सभी भाषायी विधान को प्रभावित करते हैं। भाषा की उदासीनता और प्रखरता चमकीले या सौम्य रंगों को मर्यादित करती है। अतिरंजित अथवा अतिरिक्त शब्दावली अर्थ के उद्गम स्रोत्र तक पहुँचने में बाधक होती है। पारदर्शिता के स्तर पर ध्वनि-विरोधी भी। भाषा की संयमित सहृदयता चुनौती, स्पष्टता और घुलनशीलता लेखकीय उत्कर्ष को चरितार्थ की संभावाएँ रखती हैं। यह आन्तरिक गूढ़ता और सहजपन लेखक के बौद्धिक, मानसिक पर्यावरण पर निर्भर है। कभी-कभार रचना का कोई पात्र सहजसिद्ध होता है जो अपनी भाषा स्वयं गढ़ता है। लेखक मैत्रीपूर्ण दबाव से मात्र उसे संयमित करता है। लेखक के अन्तर्मन और उसके आसपास फैले संसार की विलक्षणता, एकरसता कठोरता, कोमलता, भय, आतंक, मैत्री, वैर-सब अपने-अपने स्वभाव का व्याकरण चुनते हैं और शब्दों को रंग-विशेष में प्रस्तुत करते हैं।
दिलचस्प है यह जाँच भी कि भाषा की लचक या ऐंठन किस तरह पाठ संवाद की तरलता से तिरोहित करती है या उसे कलफ़ की तरह अकड़ा देती है।
किसी भी पाठ का सूक्ष्म तत्त्व लेखक के भाषायी हथियार में नहीं, रचना के कथ्य और कथन में से ध्वनित और प्रवाहित होता है, जिसको लिखने का जोख़िम लेखक ने उठाया है। सर्जन तत्त्वों के रूप में विषयानुसार भाषा अपने प्राकृतिक लय, रंग, रूप, रस और सामंजस्य में पाठ को प्रेरित करते हैं और उसे मानवीय स्निग्धता से प्रसारित भी।
चित्र अंकन की तरह लेखन में भी रंग-सम्मिश्रण की कार्य-शैली जितनी एक-दूसरे से अलग दीखती है, उतनी विलग होती नहीं। भाषिक कला माध्यम शब्द और विचार से उद्भासित और अनुप्राणित होता है। तूलिका द्वारा रंग-सम्मिश्रण की जो चेष्टाएँ कलात्मक क्षमताएँ प्रस्तुत और प्रदर्शित की जाती हैं, उनके समानान्तर पाठ-संयोजन को चीन्हने और पढ़ने के लिए भाषा के मौन का विस्तार होता है।
लिखित पाठ में भाषा की मुखरता उसके अर्थ में खामोशी से ही स्फूर्त और सक्रिय हो उठती है। कई बार पाठ के पिछवाड़े से भावों के सौम्य, निर्मल गुण ध्वनित होते हैं, वही चितकबरे पाठ की आंतरिक भूमिका निभाते हैं। विचार की स्पष्टता को संयम से विस्तार देते हैं-विषयवस्तु के व्याकरण पर आँख रखते हुए।
कथ्य में से उभरता और अर्जित होता आत्मविश्वास लेखक के कौशल से कहीं ज़्यादा होता है। रचनात्मक लेखन के सन्दर्भ में यही वह मूल और मौलिक रंग है, जिससे रचना का लौकिक और अलौकिक गठित होता है।
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