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बनिया बहू

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2549
आईएसबीएन :9788171196074

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बनिया-बहू की कथा 16 वीं शताब्दी के एक आख्यान पर आधारित है, जिसे तत्कालीन कवि मुकुंदराम चक्रवर्ती ने अपनी कृति ‘चंडीमंगल’ में लिपि बद्ध किया था।

Baniya Bahu a hindi book by Mahasweta Devi - बनिया बहू - महाश्वेता देवी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बनिया-बहू की कथा 16 वीं शताब्दी के एक आख्यान पर आधारित है, जिसे तत्कालीन कवि मुकुंदराम चक्रवर्ती ने अपनी कृति ‘चंडीमंगल’ में लिपि बद्ध किया था। महाश्वेता देवी ने यह आख्यान इसी पुस्तक से उठाया है और उसे एक अत्यंन्त मार्मिक उपन्यास में ढाला है।

महाश्वेता जी का मानना हैः ‘‘बनिया-बहू संभवतः आज भी प्रासंगिक है। कानून को धता बनाकर आज भी बहुविवाह प्रचलित है।....और बेटे की माँ न हो सकने की स्थिति में आज भी स्त्रियाँ खुद को अपराधी मानती हैं....अर्थात् अभी भी हम बीसबीं शताब्दी तथा अन्य बीती शताब्दियों में एक साथ रह रहे हैं।’’

बनिया बहू बहुविवाह प्रथा की इसी विराचरित त्रासदी की कहानी है। एक स्त्री के बाँझपन के हाहाकार के साथ उसके द्वारा एक दूसरी अत्यन्त कोमल कमनीय तथा सरल बालिका पर किए गए अथक अत्याचार से नष्ट होते पारिवारिक जीवन और सुख-शान्ति का मर्मस्पर्शी आख्यान है यह उपन्यास। अंततः दोनों ही स्त्रियाँ सामाजिक कुरूतियों, अंधविश्वासों के मकड़जाल में फँस कर दम तोड़ देती है, जबकि उनका कोई दोष नहीं।

लेखिका ने दोनों स्त्रियों के साथ पूरी सहानुभूति के साथ, तन्मय होकर उन स्थितियों का विश्लेषण तथा उद्घाटन किया है, जिनमें एक भयानक सामाजिक विनाश के बीज निहित हैं। एक सिद्धहस्त कथा लेखिका की कलम से निकली एक अनुपम औपन्यासिक कृति।


भूमिका



‘‘बनिया-बहू’’ की कहानी की जड़ में हैं, सोलहवीं शताब्दी के कवि मुकुंदराम चक्रवर्ती। मैं बार-बार इस कवि के पास लौट कर आती हूँ। ‘ब्याघखंड’ और ‘बनिया बहू’ उनकी पुस्तक ‘चंडी मंगल’ से ही उधार लिए गए हैं। वे कवि कैसे बने इसका वर्णन पढ़कर ही ‘कवि वंद्यघटी गाईंर जीवन ओ मृत्यु’ लिखने को उत्साहित हुई थी। ‘बनिया बहू’ की कहानी संभवतः आज भी प्रासंगिक है। कानून को धता बताकर आज भी बहुविवाह प्रचलित है। स्त्री-परित्याग की घटनाएँ आम हैं। मगर ऐसी स्थिति में निम्न वर्ग की स्त्रियाँ मेहनत मजदूरी करने निकल पड़ती हैं। ऊँचे वर्गों में इन सब घटनाओं के परिणाम भिन्न प्रकार के होते हैं। और बेटे की माँ न हो सकने की स्थिति में आज भी स्त्रियाँ खुद को अपराधी मानती हैं। निम्न वर्ग में कन्या भूण को नष्ट करने की घटनाएँ विरल हैं। अर्थात् अभी भी हम बीसवीं शताब्दी तथा अन्य बीती शताब्दियों में एक साथ रह रहे हैं। इसी कारण भारतीय समाज में किसी महिला की कहानी, जो इसका अपवाद हो, जान कर उसे रेखांकित करना उचित है। कमला दीदी एक ऐसी ही महिला हैं। आज जो बीस इक्कीस साल की होने के बहुत पहले से उन्होंने अंगारों पर चलना सीख लिया था।

कमला दीदी का जन्म 1913 में इस पार के बंगाल में हुआ और लिखाई-पढ़ाई पालन पोषण उस पार के बंगाल में। उनकी उम्र जब सिर्फ तीन महीने की थी, उनके क्रांतिकारी पिता जर्मनी चले गए। उसके बाद से प्रमथनाथ चट्टोपाध्याय की कोई खोज खबर नहीं मिली। कमला दीदी की माँ ने मैमनसिंह के विद्यामयी स्कूल के हॉस्टल में नौकरी करके अमरेंद्र नाथ, तापस (बड़ी बेटी) और कमला दीदी की परवरिश की। यह परिवार स्वाधीनता सेनानी था। इनके दादा (बड़े भाई) 1921 में परलोकवासी हुए। तापस पढ़ाई-लिखाई में तेज थीं। बाद में अपने नाम के अनुरूप वाकई उन्होंने तपस्विनी के रूप में हिमालय प्रवास शुरू किया। 1977 में उनकी मृत्यु हुई।

सन् 1928 में साइमन कमीशन का बॉयकाट करने के कारण कमला दीदी को पंद्रह वर्ष की छोटी उम्र में हॉस्टल से निकाल बाहर किया गया। उन दिनों वे मैमनसिंह के क्रांतिकारी दल ‘युगांतर’ के संपर्क में थीं। सन् 1929 में मैट्रिक पास करके वे कलकत्ता आईं। स्कॉटिश चर्च कॉलेज में नाम लिखाया। पढ़ने में अच्छी थीं। सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल हुईं। साथ ही क्रांतिकारियों के कागज पत्र और हथियार छिपाकर रखने का काम भी करती थीं। चटगाँव अस्त्रागार लूट केस के क्रांतिकारियों के साथ वे घनिष्ठ भाव से जुड़ी हुई थीं। सन् 1931 में उन्होंने आई.ए. (इंटर) पास किया। शांति घोष और सुनीति चौधुरी द्वारा कुमिल्ला के मैजिस्ट्रेट स्टीवेंस की हत्या के बाद ढेर सारी अन्य महिलाओं के साथ कमला दीदी भी गिरफ्तार हुईं। सन् 1932 में उन्हें सिउड़ी और कुख्यात हिजली जेलों में बंदी बनाकर रखा गया। सन् 1938 में उन्हें रिहाई मिली। तब उनकी उम्र पचीस वर्ष थी।

तब वे छात्र और महिला आंदोलनों से जुडीं। ‘मंदिरा’ नामक पत्रिका का संपादन किया और राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए आंदोलन किया। सन् 1938 में ही कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी। सन् 1943 में महिला आत्मरक्षा समिति की स्थापना के बाद उन्होंने अकाल पीड़ितों की सहायता में योगदान किया। सन् 1944 में उन्होंने निराश्रित और उत्पीड़ित स्त्रियों की सहायता के लिए नारी सेवा संघ की स्थापना की। नौकरी के दौरान ही उन्होंने एम.ए. और बी.टी. परीक्षाएँ पास कीं। सन् 1946 में नोआखाली में सांप्रदायिक दंगों के बाद अपने शिशु पुत्र को रिश्तेदारों की देख-रेख में छोड़कर वे दंगा-निवारण के काम में जुट गईं। इसी प्रकार जीवन-भर वे काम में जुटी रहीं। मैंने देखा है उन्यासी वर्ष की आयु में ट्राम में बैठकर वे साहित्य संसद के कार्यलय में किताबें खरीदने जा रही हैं। कोई भी काम आधा अधूरा वे नहीं छोड़ती थीं।

पर्वतारोहण शुरू किया तो हिमालयन इंस्टीट्यूट में बाकायदा नाम लिखाया। आदिवासी और गैर आदिवासी ग्रामीण जनों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए कमला दीदी भारत के सुदूर भीतरी इलाकों में घूमती रहीं। अभी तक मुझे जो चिट्ठियों उन्होंने लिखी हैं, सभी में पीड़ित जनों के प्रति उनकी चिंताओं का आर-पार नहीं: चकमा आदिवासियों की दुर्गति, नर्मदा बाँध विरोधी आदिवासियों का क्या होगा, कालाहांडी के आदिवासियों को कौन बचाएगा वगैरह, वगैरह। कितने सौभाग्य की बात है कि अस्सी पार करके भी एक बंगाली औरत, परलोक की नहीं, इहलोक की चिंता में डूबी हुई है। आजकल की युवा पीढ़ी की स्त्रियाँ क्या इसकी बराबरी कर सकती हैं ? औरतों की तो बात ही छोड़िए स्वाधीन और पूर्णतः विकसित मनुष्य बनने के वास्ते भी कोई राह नहीं बनाता। राह खुद ही बनानी पड़ती है। कमला दीदी इसका पक्का प्रमाण हैं।

आइए, आपको एक अंतरंग बात बताती हूँ। उमा सेहानवीस ने बताया था, उन दिनों कमला दीदी के लिए गिरफ्तारी का वारंट कटा हुआ था। और तभी ये यूनिवर्सिटी की क्लास में दाखिल हुईं। इधर कमला दीदी पर वारंट कटा हुआ है, उधर वे मजे से यूनिवर्सिटी में कानून की क्लासें अटेंड कर रही हैं। एक दिन उमा के सामने ही पुलिस ने कमला दीदी को धर लिया। उमा किसी तरह दौड़ती भागती कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में पहुँची। रेणु चक्रवर्ती से हाँफते हुए कहा, ‘‘रेणुदी, रेणुदी, कमलादी को पुलिस पकड़ ले गई।’’
‘‘पकड़ती कैसे ? मैं भाग आई।’’ उतनी ही हड़बड़ी में कमरे में घुसती कमला दीदी ने पीछे से कहा।
यह जरूर है कि हर बार पुलिस को चकमा देकर भाग पाने में कमला दीदी को कामयाबी नहीं मिली। 1948 से 1951 तक वे जेल में रहीं।

पहाड़ों पर चढ़ने का शौक हुआ तो लंबे अर्से तक वही जुनून सवार रहा उन पर। एक बार की बात है कि किसी पहाड़ पर चढ़ने गई थीं। अक्तूबर का महीना था। पहाड़ों पर चढ़ने का सीजन 15 अक्तूबर के बाद खत्म हो जाता है। कमला दीदी को यह बात याद ही न थी। कुलियों ने पहाड़ पर चढ़ने से इनकार कर दिया, पर हमारी कमला दीदी कहाँ मानने वालीं। एक बार मन में ठान लिया तो करके रहेंगी। झोला उठाया और अकेली ही चल पडीं। पहाड़ी की छाती रौंदने। ऐसी वीरांगना हैं हमारी कमला दीदी !

बाद में उन्होंने खुद बताया था, ‘‘एकदम सुनसान जगह थी। सिर्फ एक मंदिर था, वह भी बंद पड़ा था। एक पेड़ था, जिसके नीचे चबूतरा बना था। मैं वहीं आराम से सो गई।
दूसरे दिन जब वे उतर रही थीं तो लोग अवाक् होकर उनकी ओर देख रहे थे। कारण यह था कि वे जिस ओर गई थीं, वहाँ पहाड़ी भालुओं का डेरा था और उनका आचार व्यवहार जरा भी अहिंसक न था। कमला दीदी पहाड़ी भालुओं के मुँह में से जिंदा लौट आई थीं, यही सबके आश्चर्य की वजह थी।

कमला दीदी आज भी जीवित हैं, हमारे बीच हैं। ऐसे लोगों की पीढ़ी इला मित्र पर आकर खत्म होती है। ये लोग हाड़ माँस के जीवंत लोग थे। हम लोग तीन सितारा युग के मनुष्य हैं और हमारी पर्वर्ती पीढ़ी एस.एल. वर्ल्ड की प्रजाति की है। देश, काल, मनुष्य, समाज, गरीबी इन सबसे पूरी तरह अनभिज्ञ यह आत्मरत, आत्मलीन पीढ़ी बड़े मजे में अपने दिन काट रही है।
मगर मैं कहूँगी, कमला दीदी इस पीढ़ी की तुलना में आज भी ज्यादा जवान हैं। मैं उन्हें किसी संघर्षशील महिला की कहानी अर्जित नहीं कर पाई, एक दुखी लड़की की जीवन गाथा समर्पित कर रही हूँ। ऐसा न कर पाती तो अपराधिनी ही बनी रहती। कमला दीदी ने ही मेरी जवानी के दिनों में एक बार मुझसे कहा था। ‘‘काम नहीं करेगी। तो जिंदा कैसे रहेगी ?’

कमला दीदी, शायद यह बात आपको याद न हो, पर मुझे अभी याद है।
महाश्वेता देवी


एक



बड़ा सुंदर सवेरा था। मगर दामिन्या गाँव के मुकुंद और उसकी पत्नी के लिए पिछली रात बड़ी परेशानी में बीती। मुकुंद और उसका हलवाहा बलराम देर रात तक गौशाले में अटके रहे। मुकुंद की पत्नी की दुलारी गाय राँगामनि पिछली रात पहली बार माँ बनी थी।

राँगामनि को बेहद, बेहद तकलीफ हुई थी। मुकुंद की पत्नी लगातार भगवान को मनाती रही। सुना जाता है कि औरतें संतान को जन्म देते समय कभी-कभी बहुत कष्ट पाती हैं, पर क्या गाय-गोरू भी संतानोपत्ति में मनुष्य की तरह कष्ट पाते हैं ? मुकुंद की पत्नी ने देवता से गुहार लगाई थी, ‘‘हे ठाकुरजी मेरी राँगामनि की जचगी आराम से बीती तो मैं कयाली को बुलाकर भजन कराऊँगी। पूजा दूँगी।’’

बलराम ने कहा, ‘‘तकलीफ नहीं पाएगी तो और क्या होगा ? इधर-उधर घूमती रही डहकती हुई। गोहाल में बाँधने चलो तो सींग चलाएगी। तुम्हारे दुलार से बिगड़ गई राँगी। एकदम मरकट हो रही है। मरकट।’’
‘‘देवर, इसकी ठीक से जचगी करा दो। आदमी तो है नहीं कि दाई आकर बच्चा जनमाएगी।’’
‘‘चिंता काहे करती हो, भौजी ? बलराम के रहते क्या फिकर ?’’
रात में यही सब गोलमाल होता रहा। सवेरे देखा गया मुकुंद-बहू की दुलारी राँगामनि सद्यःजात बछड़ी को जी-जान से चाटे जा रही है।

मुकुंद ने हँसकर कहा, ‘‘लो तुम्हारी नतनी हुई है। मैंने कहा था न...’’
‘‘देवर को मैं नए कपड़े और गमछा दूँगी और पानी पीने के लिए लोटा दूँगी।’’
‘‘और मुझे ?’’ मुकुंद ने पूछा।
‘‘तुम्हें दूँगी ठेंगा’’, मुसकरा कर मुकुंद-बहू ने पति को स्नेह से देखा और कहा देवर से कहो, कयाली को न्यौता दे आएँ, आकर भजन गाए, गाय का मंगल होगा। कैसी काली है जी यह बछड़ी !’’
‘‘माँ का रंग तो दूध जैसा और बेटी इतनी काली ! इस बेटी के बारे में तुम्हें कोई चिंता नहीं हो रही ?’’
‘‘अरे ! वह क्या आदमी की बेटी है कि चिंता होगी ? और फिर काली होने से क्या किसी का ब्याह नहीं होता ?’’
‘‘हाँ ! यह तो है !’’

‘‘काली गाय का दूध मीठा होता है, जानते हो ? कहा गया है-काली गाय का दूध मीठा, काली कोयल की कूक मीठी, काले हाथों की रसोई मीठी।’’
‘‘क्या मालूम, कैसे जान सकता हूँ ?’’
‘‘क्यों ? मेरे हाथ की रसोई खाते नहीं हो ?’’
‘‘कौन कहता है तुम काली हो ?’’
‘‘गोरी तो नहीं ही हूँ। तुम्हारी बगल में मैं....? खैर, जैसी हूँ, उसके लिए मेरे मन में कोई दुःख नहीं।’’
‘‘मुझे तो काले रंग में ही उजाला दिखाई देता है।’’
‘‘तुम विद्वान हो, कितनी ही पोथियाँ पढ़ रखी हैं। तुम्हारे विचार अलग हैं।’’
‘‘मान लो, मैं ही काला होता तो ?’’
‘‘मर्द-मानुस का रंग कौन देखता है ? गनपति बनिया देखने में कुछ भी नहीं, मगर उसकी दोनों घरवालियों को देखो। बड़ी बहू कनका भी सुंदर है, मगर छोटी बहू अहना तो जैसे देवी प्रतिमा है।’’
‘‘रहने दो, मुझसे सुना नहीं जाता।’’

‘‘अहना की बात सोचकर...आह ! मैं सोच भी नहीं पाती कि उसके माँ-बाप ने ऐसी सोने की पुलती जैसी लड़की को किस कलेजे से सौतवाले घर में ब्याह दिया ?’’
‘‘रहने दो ! दो घंटे में रात खतम हो जाएगी ! थोड़ा सो लो।’’
‘‘अच्छा ! चलो। रोज सोते समय भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि सवेरे अहना की रुलाई से नींद न टूटे।’’
मुकुंद ने नीचे गले से कहा, ‘‘सवेरे की बात करती हो ? तुम तो सात दिन खटने के बाद बिछौने पर पड़ते ही सो जाती हो। मैं बहुत बाद में सोता हूँ। कितनी,-कितनी रात तक मुझे उसकी रुलाई सुनाई पड़ती है...कितनी रात...’’
‘‘हाय मोरी मैया, सच्ची ?’’
‘‘जानती हो, मुझे लगता है दामिन्या गाँव की लक्ष्मी रो रही है। जैसे इस गाँव की लक्ष्मी न्याय माँग रही हो। उन्हें न्याय नहीं मिलता, इसी दुःख में रोती है।’’
मुकुंद की पत्नी ने कहा, ‘देवी-देवताओं की महिमा होती तो क्या ऐसा होने पाता ?’’
‘‘अच्छा ! तुम सो जाओ।’’
‘‘और तुम ?’’

‘‘मैं भी सोऊँगा।’’
मुकुंद को नींद नहीं आ रही थी। बहुत दिनों से वह बनिया-बहू अहना की असहाय अकेली कातर रुलाई सुनता आ रहा है।
क्या केवल वह सुनता है ? और कोई नहीं सुनता ?
सुनता है और सोचता है-यह तो बड़ा अन्याय है, बहुत बड़ा अन्याय !
हाय ! दामिन्या गाँव में क्या आदमी नहीं हैं, समाज नहीं है ? एक-एक जाति का एक-एक मोहल्ला है। बनियों का भी तो एक मोहल्ला है, समाज है, समाज प्रमुख है।
वे क्यों कर यह घोर अन्याय सह रहे हैं ? क्यों ढेर सारी औरतें ही अन्याय की चक्की में पिस रही हैं ?
मुकुंद की माँ कहती थीं। क्या कहती थीं, औरतें घर की लक्ष्मी होती हैं। लक्ष्मी को कष्ट देने से गृहस्थी जलकर राख हो जाती है।

मुकुंद कहता, ‘‘किसने किसे सताया है ? तुम इतनी चिंता क्यों करती हो ?’’
‘‘तू क्या समझेगा, मुकुंद ? इस घर में तो तूने कोई अत्याचार अनाचार देखा ही नहीं ?’’
सचमुच नहीं देखा था मुकुंद ने। पिता और दादा का साहचर्य तो उसे ज्यादा नहीं मिला था। पर माँ-बेटे की दुनिया में बड़ी शांति थी। उसकी पत्नी तो माँ के लिए अपनी बेटी से बढ़कर थी।
असल में मुकुंद का मन बड़ा नरम था। पशु-बलि भी देख नहीं सकता था। कुत्ते को ढेला मारने पर भी उसका कलेजा काँपता था।
और वही मुकुंद अहना की अजस्र रुलाई सुनता रहता था।
मन-ही-मन मुकुंद बुदबुदाता अगर अहना भी लड़किन होती तो कनका ऐसा नहीं कर पाती। जो व्यक्ति एकदम असहाय होता है, उसी पर निष्ठुर का अत्याचार वज्र के समान गिरता है।
यही सब सोचते-सोचते मुकुंद की आँख लगी थी। कि सवेरा होते-न-होते दामिन्या का आसमान जैसे खंड-खंड होकर बिखर गया।
एक बालिका के आर्त-क्रंदन ने दामिन्या के आकाश को जैसे चीर डाला।
और, एक दूसरी औरत की चील के चीत्कार सरीखी चीख साथ ही सुनाई पड़ी। कनका, कनका, गनपति बनिया की बड़ी बहू कनका।

कनका बड़ी मुँहजोर है। आज भी वह माँ नहीं हो पाई है। निस्संतान स्त्री का यौवन सिर ऊँचा किए रहता है, नरम नहीं होता। कनका को देखकर भ्रम होता है, जैसे उसका यौवन अपने चरम पर आकर थम गया है, उसकी उम्र ने बढ़ना बंद कर दिया है। देह की रस्सी जैसे अभी भी कसी हुई है।
कनका तेज हाथों काम करती है और शान-चढ़ी आवाज में बातें करती है। और पास-पड़ोस के दुःख-सुख में दौड़ पड़ती है, औरों की तरह दोष-गुण वाली औरत है।
घर में सौत के आने के बाद भी कनका ने यह रौद्र रूप नहीं धरा था।
गनपति बनिए के परदेश जाने के बाद से पिछले कुछ दिनों से उनके घर में यह लंकाकांड चल रहा है, वह भी एकतरफा। छोटी बहू अहना की रुलाई सुन पड़ती है और कनका की आवाज में लहर लेता विष।
मुकुंद की बहू ने दौड़कर खिड़की से कान सटाया। उसका मुँह सफेद हो रहा था।
‘‘खिड़की बंद करो जी !’’

बहू मुकुंद की बात सुन न सकी। खिड़की में मुँह धँसाए अस्फुट स्वर में बोली-‘‘राक्षसी ! राक्षसी कहीं की !’’
शायद गनपति की बुआ बोली, ‘‘बड़ी बहू ! यह क्या करती हो, बेटी ? पूरा मोहल्ला जाग गया है।’’
‘‘चुप करो ! अपनी सौत को मैं सजा दे रही हूँ। मोहल्ले के लोग क्या कहेंगे ? उनसे मतलब ?’’
‘‘सौतें तो और घरों में भी हैं, हैं कि नहीं ?’’
‘‘ऐसी कुलच्छनी तो नहीं ही हैं। दरवाजे पर पानी भी अभी नहीं छिड़का गया। बासी कपड़े भी हटाए नहीं गए। दरवाजा बंद करके राक्षसी भूजा खा रही है। देखो ! छिः छिः औरत जात को ऐसा दरिद्रपना शोभा देता है क्या ?’’
रुलाई से भरी बालिका कंठ की आवाज उभरी, कल से मुझे कुछ भी खाने को नहीं दिया। मुझे भूख नहीं लगती क्या ?’’
‘‘यह क्या तेरे बाप का घर है ? सवेरा होते-न-होते माँ मुझे दूध भात खिलाएगी ?’’
‘‘दूध भात कौन माँगता है ? कल खुद खा लिया और भात की हाँडी में पानी डाल दिया, मुझे खाने नहीं दिया। क्या यह मेरा घर नहीं है ? घर में सब कुछ होते हुए भी मुझसे क्यों उपास कराया जाता है ?’’
‘‘फिर मुँहामुँही जवाब देगी ? ले..ले..!’’

सटाक्-सटाक् मार की आवाज सुनाई पड़ी।
‘‘अरे दीदी हो ! तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, दीदी हो। मार खाते-खाते सारे अंग छिल गए हैं। अब मत मारो...’’
‘‘तुझे तो ऊपर नीचे काँटा डालकर फूँक भी दूँ तो मेरा गुस्सा नहीं जाएगा।’’
‘‘अरे बाप रे ! क्या दामिन्या में कोई आदमी नहीं है, जो मुझे बचा ले ! कोई मुझे नहीं बचाता रे...’’
और अचानक सब कुछ शांत हो गया।
मुकुंद की पत्नी जमीन पर बैठ गई।
‘‘तुम सुनती ही क्यों हो ? दूसरे के घर की बातें सुनना अच्छी बात तो नहीं !’’
‘‘सुनना बड़ा अच्छा लगता है, इसलिए सुनती हूँ क्या ? उसकी रुलाई हवा में तैरकर आती है। मेरा कलेजा फटने लगता है।’’
‘‘सचमुच ! रोज-रोज की यह मार-पीट सही नहीं जाती।’’
‘‘अभी अहना कह रही थी-क्या दामिन्या में कोई आदमी नहीं है, जो उसे बचाए ! सुनो जी, सभी तुम्हारा मान आदर करते हैं। तुम क्या इसका कोई उपाय नहीं कर सकते ?’’
‘‘गनपति होता तो मैं उससे कहता। स्त्रियों के बारे में मेरा कुछ कहना अच्छा लगेगा क्या ? दूसरे बनिए क्यों कुछ नहीं करते ?’’
‘‘कनका की जीभ में विष और आँखों में आग है। सभी उससे डरते हैं।’’
‘‘तुम इसे लेकर इतना फिकर मत करो।’’
‘‘कनका ऐसी पत्थर कैसे बन गई ? बाँझ औरत है ! संतान होती और लड़की होती तो अहना की ही उमर की होती ! बाँझ कहीं की !’’

‘‘हाँ ! बाँझ तो है ही।’’
‘‘सुनोजी ! बेटा-बेटी न हों तो औरत को बाँझ कहते हैं। कनका के संतान न थी, तभी तो बनिए ने दूसरा ब्याह किया ! न करता तो अच्छा था। बेचारी लड़की इस तरह तो मर ही जाएगी।’’
‘‘जिस दुःख का तुम कोई समाधान नहीं कर सकती, उसको लेकर क्यों चिंता में मरी जा रही हो ?
‘‘संतान भाग्य में नहीं थी, नहीं हुई, यह बात क्या कनका मान लेगी ? पिताजी के काका ने तीन-तीन ब्याह किए, फिर भी कोई संतान हुई क्या ? उसकी आखिरी औरत तो बतिए की तरह कच्ची उम्रवाली थी। शादी के दो साल बाद ही विधवा हो गई। इतनी कम उम्र में सादी धोती पहनकर बाप के घर नौकरानी बनने जाना पड़ा।’’
भाग्य !’’
‘‘कैसा भाग्य ? तुम लोगों का यह कैसा विधान है जी ? बहत्तर साल का बूढा़ कच्चीकली जैसी छोकरी से ब्याह रचाता है ?’’
‘‘यही तो विधान है, लोकाचार है।’’
‘‘आह ! अभी से दशमी, एकादशी कितने ही व्रत, सिर के बालों का मुंडन कितने ही कष्ट उसे झेलने होंगे।’’
‘‘शायद उसके भाग्य में वैधव्य योग लिखा था।’’
मुकुंद-बहू ने बड़े कष्ट से मुसकराकर कहा, जैसे अहना के भाग्य में सौत लिखी थी ! इतना दुःख सिर्फ औरतों के भाग्य में क्यों लिखा होता है, जी ?’’
‘‘मैं ही लिखता हूँ क्या ?’’

‘‘कौन विधाता पुरुष लिखता है ? अगर एक बार मैं उसे देख पाती...’’
‘‘तो क्या कहती ? सभी स्त्रियों को मेरे जैसा घर वर, देना, क्यों ?’’
‘‘ऐसा होता है क्या ? फिर भी एक बात जरूर कहती। हाथ जोड़कर विधाता से कहती-सभी स्त्रियों को सधवा रखना। उनकी गोद में बच्चे देना। दुहाई है तुम्हारी, सौत की आग में किसी को न झुलसाना।’’
‘‘मान लो, मैं ही तुम्हारी सौत ले आऊँ, तो ?’’
‘‘ला सकते हो। वह सदर दरवाजे से अंदर आएगी और मैं पिछले दरवाजे बाल बच्चों को लेकर बाहर चली जाऊँगी।’’
‘‘मगर जाओगी कहाँ ?’’
‘‘जहाँ मर्जी होगी, चली जाऊँगी। कटवा नवद्वीप डूमरपुर कितनी ही जगहें हैं।’’
‘‘जा के दिखा, देखता हूँ कैसे जाती है मुझे छोड़कर ?’’
‘‘छिः छिः दिन-दहाड़े हाथ पकड़ते हो !’’
‘‘तो क्या हुआ ?’’
‘‘माँ स्वर्ग गईं तो देखती हूँ, तुम्हारी हिम्मत बहुत बढ़ गई है ? दिन दहाड़े छेड़-छाड़ करने लगे हो। अभी शीबू या शिउली आ जाते तो ?’’
मुकंद ने पत्नी का हाथ छोड़ दिया।
‘‘आ जाते तो देख लेते ! पिता ने माँ का हाथ पकड़ रखा है, यही न ? तो क्या हो जाता ?’’
‘‘यह ठीक नहीं है, लोग क्या कहेंगे ? मर्द को तो कोई दोष नहीं देता। कहेंगे-मुकुंद की औरत को देखो ! सास के आँख मूँदते ही राजरानी बनकर बेहयाई पर उतर आई है।’’
‘‘अरे बड़ी राजरानी बन गई है तू।’’

‘‘छिः छिः यह क्या तू तड़ाक कर रहे हो ? अब न मैं छोटी हूँ और न तुम ही। मुझे काम है, जाती हूँ।’’
‘‘जाओ, मैं भी निकलता हूँ। तुमने माँ की बात चलाई सो एक बात कहता हूँ। माँ अच्छे मुहूर्त में विदा हुईं।
‘‘क्यों...कोई नई बात हुई है क्या ?’’
‘‘देश दुनिया का हाल अच्छा नहीं है। सभी कहते हैं, अगर यही हाल रहा तो देश छोड़ना होगा।’’
‘‘सवेरे-सवरे कैसा अशुभ बोल रहे हो ?’’
‘‘पाँच आदमी जो कहते हैं, वही कह रहा हूँ। जो भी हो, यह बात किसी से कहना मत।’’
‘‘हाँ ! मैं तो पूरे मोहल्ले में घूम-घूमकर गप गी करती रहती हूँ; मुझे और काम ही क्या है ?’’
‘‘तुम लोगों की असली गप-शप तो घाट पर होती है। घाट पर भी यह बात मुँह से नहीं निकालनी है। मान लो, हमें देश छोड़कर जाना ही पड़ता, तो माँ को कैसे ले जाता मैं ?’’

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