नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
कात्या : ये जूते पहनकर जाओगे? मेरी नाक कटवाओगे? कल जूतों का इन्तज़ाम क्यों
नहीं किया? मैं कहती नहीं थी...
हानूश : जानती तो हो, महीनेभर से मरने की फुरसत नहीं थी। मीनार की एक
पूरी-की-पूरी दीवार तोड़नी पड़ी थी, फिर उसमें घड़ी जोड़ना, लगाना...।
कात्या : और लोग भी तो थे। क्यों, वे काम पूरा नहीं कर सकते थे?
हानूश : वे क्या करते? घड़ी मैंने बनाई है या किसी दूसरे ने? क्या सब काम
मिस्त्रियों-मज़दूरों पर छोड़ देता और खुद अपने लिए जूते ढूँढ़ता फिरता?
कात्या : ये जूते पहनकर तो मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी। (यान्का से) यान्का,
भागकर पादरी चाचा के घर जाओ और उनसे कोई बढ़िया-सा जूतों का जोड़ा माँग लाओ।
जल्दी करो।
यान्का : जाती हूँ, माँ।
हानूश : (कमरे में ऊपर-नीचे शान से टहलते हुए) वाह, अब ठीक है, अब चलने में भी मज़ा आता है। ऐसे कपड़े पहने हों तो गली में पैदल चलना तो हिमाकत है। यह पोशाक तो घोडागाड़ी के लिए बनी है। अब पता चला कि दरबारी लोग क्यों घोड़ागाड़ियों में बैठते हैं, क्योंकि उन्होंने बढ़िया पोशाक पहन रखी होती है। हम भी मुहल्ले में से घोडागाड़ी में बैठकर निकलें, ज़रा रुआब गाँठे। वाह, सामने से शीश्का आ रहा हो तो कहें- 'क्यों भाई शीश्का, आज पैदल ही टाँगें घसीट रहे हो?'
कात्या : मुहल्ले में तो अपने ही गरीब लोग रहते हैं, उन पर क्या रुआब गाँठोगे?
हानूश : अरे, हँसी-मज़ाक है, रुआब कौन गाँठ रहा है!
कात्या : तुम तो हँसी-मज़ाक में कहोगे, वे लोग समझेंगे, ऐंठ रहा है। यह अच्छा नहीं है। भगवान से डरते रहना चाहिए।
[सारा वक़्त कात्या उसकी पोशाक ठीक करती रहती है।]
हानूश : ऐंठ कौन रहा है, मैं तो मज़ाक कर रहा हूँ।
कात्या : मुझे ऐसा मज़ाक पसन्द नहीं है। मुहल्लेवाले तो हमारे अपने हैं, सुख-दुख में हमारा हाथ बँटाते हैं। और फिर, क़ामयाबी का सेहरा तो तुम्हारे सिर लगा है, वे लोग तो वैसे-के-वैसे गरीब हैं, उनसे क्या मज़ाक!
हानूश : भगवान बचाए इन धार्मिक औरतों से! आज के दिन, सुबह से अब तक कितनी बार प्रार्थना कर चुकी हो?
कात्या : आज ही क्यों, मैं तो सारा वक़्त प्रार्थना करती रहती हूँ। इसी से तो भगवान ने आज यह दिन दिखाया है।
हानूश : सच?
कात्या : सच नहीं तो और क्या?
हानूश : कात्या, तीन बार तो तुम घड़ी की कमानियाँ तोड़ चुकी हो, दो बार सारा सामान खिड़की में से बाहर फेंक चुकी हो, कुछ नहीं तो छह बार मुझे पीट चुकी हो। फिर भी कहती हो कि आज तुम्हारी प्रार्थना क़बूल हुई है?
कात्या : कमानियाँ तोड़ना दूसरी बात है। मैं दिल से तो यही चाहती थी कि तुम्हें क़ामयाबी मिले, भगवान से भी यही माँगती थी।
हानूश : मैंने तुम्हें बहुत दुख पहुँचाए हैं न, कात्या? मुझसे किसी को सुख नहीं मिला।
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