नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
हानूश : (कात्या की ओर देखता है) क्या, कात्या?
कात्या : तुम परले दर्जे के स्वार्थी हो। तुम्हें सारा वक़्त अपने काम से मतलब
रहता है-हम जिएँ-मरें, तुम्हारी बला से।
हानूश : यह स्वार्थ नहीं है, कात्या। मैं अपने लिए नहीं करता।
कात्या : यह स्वार्थ नहीं तो और क्या है? पैसे के लिए करते हो, या नाम कमाने के
लिए? पैसे के लिए करते तो इतने स्वार्थी नहीं होते। तुम्हारे पैसों से परिवार
का पेट तो पलता।
हानूश : तुम ऐसी बातें कहकर मेरा बचा-खुचा विश्वास भी छीन लेती हो।
कात्या : मैं तुमसे कुछ नहीं कहती, हानूश! जो तुम्हारे मन में आए, करो। मैंने
अगर इस लड़के को रखा है तो इसलिए कि तुम्हें घर की ज़िम्मेदारी से बिलकुल
छुटकारा मिल जाए। यह ताले बना दिया करेगा और मैं बेच आया करूँगी। तुम्हारा जो
मन आए, करो।
हानूश : (उसे अपनी बाँहों में लेते हुए) तुम्हें मेरे साथ बहुत दुख झेलने पड़े,
है न, कात्या?
कात्या : अब तुम आज़ाद हो। अपने वज़ीफ़े का इन्तज़ाम करो और घड़ी बनाओ। मैं
तुमसे कभी कुछ नहीं कहूँगी। तुम उसी से निबटो तो बहुत बड़ी बात है।...न जाने
यान्का कब लौटेगी! ऐमिल को हमारा ध्यान आया तो रसद देने के लिए यान्का को साथ
ले गया।...कभी कोई खैरात दे देता है, कभी कोई...
[धीरे से हानूश से हटकर पिछले कमरे की ओर आँसू पोंछते हुए चली जाती है। हानूश
कुछ देर तक कमरे के बीचोबीच खड़ा रहता है, फिर पीछे अपनी मशीन की ओर चला जाता
है। मशीन की टिक्-टिक् कभी धीमी तो कभी ऊँची बराबर सुनाई देने लगती है।
वह मशीन पर झुक जाता है। थोड़ी देर बाद कात्या सिर ढके प्रार्थना करने के लिए
जलती मोमबत्ती हाथ में लिये आती है और स्टेज के बाएँ सिरे पर लगी देव-प्रतिमा
के सामने बत्ती जलाने के बाद सिर झुकाए प्रार्थना करती है।]
[पर्दा गिरता है।]
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