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हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126705405

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए। इसकी पहली प्रस्तुति का ही दिल्ली में जैसा स्वागत हुआ, वह हिन्दी रंगमंच की एक उपलब्धि है।
भीष्म साहनी मूलतः कथाकार हैं, नाट्य-लेखन के क्षेत्र में उनका यह पहला लेकिन सशक्त प्रयास है-एक ऐसा प्रयास जो भीष्म साहनी की प्रतिभा को रेखांकित करता है और हिन्दी रंगमंच के एक बड़े अभाव को पूर्ण करने की आशा बँधाता है।
चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में आज से लगभग पाँच सौ साल पहले ताले बनाने वाले एक सामान्य मिस्त्री के दिमाग में घड़ी बनाने का भूत सवार हुआ, और तरह-तरह की विषम परिस्थितियों में लगातार सत्रह साल की कड़ी मेहनत के बाद वह चेकोस्लोवाकिया की पहली घड़ी बनाने में कामयाब हुआ, जो नगर पालिका की मीनार पर लगाई गई। लेकिन इतनी बड़ी सफलता के बाद उस कलाकार को मिला क्या ? बादशाह ने उसकी आँखे निकलवा ली कि वह उस तरह की दूसरी घड़ी न बना सके। चेक-इतिहास ने इस छोटी सी घटना ने भीष्म साहनी के रचनाकार को आन्दोलित किया, और यों हिन्दी में एक श्रेष्ठ नाटक जन्म ले सका।

‘हानूश’ के माध्यम से भीष्म साहनी ने एक ओर कलाकार की दुर्दमनीय सिसृच्छा और उसकी निरीहता को रूपायित किया है तो दूसरी ओर धर्म एवं सत्ता के गठबन्धन के साथ सामाजिक शक्तियों के संघर्ष अभिव्क्ति दी है। कलाकार के परिवारिक तनावों का अंकन ‘हानूश’ की एक उपलब्धि है, जो आज भी उतने ही सच हैं जितने पाँच शताब्दी पहले थे।

 

दो शब्द

बहुत दिन पहले, लगभग 1960 के आस-पास मुझे चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में मुझे जाने का सुअवसर मिला था। प्राग में धूमते हुए लगता जैसे मैं युरोप के किसी मध्युगीन काल-खण्ड में पहुँच गया हूँ। प्राचीन गिरजे, पुरानी वज़ह की सड़कें, पुराने बीयर-घर, आदि, प्राग का अपना माहौल है जो भुलाये नहीं भूलता। मेरे मित्र निर्मल वर्मा उन दिनों वहीं पर थे, और चेक भाषा तथा संस्कृति की उन्हें खासी जानकारी थी। सड़कों पर घूमते-घामते एक दिन उन्होंने मुझे एक मीनारी घड़ी दिखायी जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं, कि यह प्राग में बनायी जानेवाली पहली मीनारी घड़ी थी, और इसके बनानेवाले को उस समय के बादशाह ने अजीब तरह से पुरस्कृत किया था।

बात मेरे मन में कहीं अटकी रह गयी, और समय बीत जाने पर भी यदाकदा मन को विचलित करती रही। आखिर मैंने इसे नाटक का रूप दिया जो आज आपके हाथ में है।

यह नाटक ऐतिहासिक नाटक नहीं है, न ही इसका अभिप्राय घड़ियों के आविष्कार की कहानी कहना है। कथानक के दो एक तथ्यों को छोड़कर, लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है। नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्युगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयासमात्र है।

‘हानूश’ को पहली बार दिल्ली के दर्शकों के सामने ‘अभियान’ द्वारा, श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एण्ड कल्चर द्वारा आयोजित प्रथम राष्ट्रीय नाटक समारोह के अवसर पर 18-19 फरवरी 1977 को पेश किया गया। इसका निर्देशन ‘अभियान के सुयोग्य’ डायरेक्टर श्री राजेन्द्रनाथ द्वारा किया गया था।
 
रंगमंच पर इसे पेश करते समय श्री राजेन्द्रनाथ ने अपने बहुमूल्य सुझाव दिये, नाटक की भाषा के बारे में भी और, नाटक को और ज़्यादा चुस्त और गतिशील बनाने के लिए भी। मैंने उनके अधिकांश सुझावों को स्वीकार किया है, नाटक में से कुछेक अनावश्यक प्रसंग निकाल या बदल दिये हैं और भाषा को बोलचाल की भाषा के और ज़्यादा नज़दीक लाने की कोशिश की है। इन सुझावों के लिए मैं उनका आभारी हूँ।

उन कलाकारों तथा संयोजकों के प्रति भी जिन्होंने श्री राजेन्द्रनाथ के साथ मिलकर इस नाटक को जिन्दगी का जामा पहनाया है, मैं हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।

 

भीष्म साहनी

 

इस नाटक का सर्वप्रथम प्रदर्शन ‘अभियान’, दिल्ली द्वारा श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एण्ड कल्चर द्वारा आयोजित पहले ‘राष्ट्रीय नाट्य समारोह’ में 18 फरवरी 1977 को हुआ।

 

नेपथ्य में

 

 

निर्देशक : राजिन्दर नाथ
दृश्य बन्ध : अशोक भट्टाचार्य
आलोक : सितांशु मुकर्जी

 

पात्र

 

 

कात्या : सुषमा सेठ
हानूश का पादरी भाई : भूपेन्द्र कुमार
यान्का : रंजना जोशी
हानूश : रवि बासवानी
बूढ़ा लोहार : गिरीश माथुर
एमिल : सुभाष गुप्ता
जेकब : दलीप सूद
हुसाक : सुभाष त्यागी
जॉन : प्रेम भाटिया
शेवचेक : गुलशन कुमार
जॉर्ज : सुरिन्दर शर्मा
टाबर : महेश्वर दयाल
पहला आदमी : रवीन्द्र सैनी
दूसरा आदमी : आदित्य
राजा : उमेश श्रीवास्तव
पहला अधिकारी : तिलक बालिया
दूसरा अधिकारी : सुधीर पारीक
लाट पादरी : दिलीप बासु
एक आदमी : कमल वर्मा

 



पहला अंक


[साधारण-सा, मेहराबदार, मध्ययुगीन कमरा। दाईं ओर एक या दो बड़ी खिड़कियाँ। साथ में अन्दर आने का दरवाज़ा। पिछली दीवार के साथ लम्बी मेज़ जिस पर मीनारी घड़ी बनाने के तरह-तरह के पुर्जे, औज़ार, चक्के आदि रखे हैं तथा दीवारों पर टँगे हैं। लगता है, इसी मेज़ पर घर के लोग खाना भी खाते हैं। पिछली दीवार में अन्दर के कमरे की ओर खुलनेवाला दरवाज़ा। बाईं ओर दीवार के साथ दो-तीन कुर्सियाँ, पुराने मध्ययुगीन ढंग की। कोने में दीवार पर देवचित्र। पर्दा उठने पर पादरियों के वेश में हानूश का बड़ा भाई खड़ा है। हानूश की पत्नी उत्तेजित-सी उसके साथ बातें कर रही है।]

कात्या : मैंने आज तक आपके सामने मुँह नहीं खोला, लेकिन अब मैं मजबूर हो गई हूँ। इस तरह से यह घर नहीं चल सकता।

[पादरी भाई कमरे में टहलते हुए रुक जाता है।]

पादरी : अब तुम बड़े अनादर और तिरस्कार के साथ अपने पति के बारे में बोलने लगी हो, कात्या।

कात्या : उसमें पतिवाली कोई बात हो तो मैं उसकी इज्जत करूँ। जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता, उसकी इज़्ज़त कौन औरत करेगी?

पादरी : (ठिठककर उसकी ओर देखता है, फिर टहलने लगता है।) हूँ!)

कात्या : मामूली ताले बनाने का काम जो पहले किया करता था, अब वह भी नहीं करता। कभी दो ताले बना देता है, कभी वह भी नहीं बनाता। इस तरह क्या घर चलते हैं? सारा वक़्त घड़ी बनाने की धुन उस पर सवार रहती है। उसी की ठक्-ठक् में लगा रहता है।

पादरी : हर बात को अपनी ही नज़र से नहीं देखना चाहिए, कात्या! अगर हानूश घड़ी बनाने में क़ामयाब हो जाए तो क्या यह छोटी-सी बात होगी?

कात्या : भाई साहिब, वर्षों से इस काम के पीछे पड़ा हुआ है, अभी तक तो बनी नहीं, और जो अभी तक नहीं बनी तो अब क्या बनेगी? मेरी सारी जवानी बीत गई है-यह ठक्-ठक् सुनते हुए। अब मुझसे और बर्दाश्त नहीं हो सकता।

पादरी : ज़रा सोचो, कात्या, अगर यह क़ामयाब हो जाए तो देश में बननेवाली यह पहली घड़ी होगी।

कात्या : हानूश से यह बन चुकी। न पढ़ा, न लिखा, मामूली कुफ़्लसाज़ भी कभी घड़ी बना सकता है? बड़े-बड़े दानिशमन्द, बड़े-बड़े कारीगर घड़ी नहीं बना सके, यह क्या घड़ी बनाएगा!

पादरी : तुम तो अब इसे पहले से भी ज़्यादा दुत्कारने लगी हो, कात्या! इससे तो अच्छे-भले आदमी का भी हौसला टूट जाएगा। जहाँ सारा वक़्त दुत्कार पड़ती रहे, वहाँ कोई काम क्या करेगा?

कात्या : आप तो उसी की तरफ़दारी करेंगे। उसके बड़े भाई जो ठहरे! सच पूछे तो आप ही ने उसे बिगाड़ रखा है।

पादरी : क्यों? मैंने कैसे बिगाड़ा है?

कात्या : अगर आपने यह पुश्तैनी घर उसके नाम न लिखवा दिया होता तो यह इस वक़्त किसी काम में लगा होता। इसे अपने परिवार की चिन्ता होती। अब यह जानता है, इसके सिर पर छत है, कात्या रो-धोकर कुछ ताले बेच आएगी...दो जून रोटी का प्रबन्ध हो जाएगा। इसे किसी बात की परवाह ही नहीं।

पादरी : (पास आकर) घबराओ नहीं, कात्या! यह उसके लिए मुश्किल के दिन हैं। अगर यह क़ामयाब हो गया तो तुम्हारी सब परेशानियाँ दूर हो जाएँगी। अगर हानूश के हाथ से घड़ी बन गई तो महाराज इसे मालामाल कर देंगे। इसकी शोहरत दुनिया भर में फैलेगी। क्या यह छोटी-सी बात है? महाराज इसे अपना दरबारी तक बना सकते हैं।

कात्या : पिछले दस साल से यही सुन रही हूँ। (तड़पकर) मैं बहुत उपदेश सुन चुकी हूँ। क्या मैं अपने लिए उससे कुछ माँगती हूँ? घर में खाने को न हो तो मैं अपनी बच्ची को कैसे पालूँ? मुझे सभी उपदेश देते रहते हैं। मेरा बेटा सर्दी में ठिठुरकर मर गया। जाड़े के दिनों में सारा वक़्त खाँसता रहता था। घर में इतना ईंधन भी नहीं था कि मैं कमरा गर्म रख सकूँ। हमसायों से लकड़ी की खपचियाँ माँग-माँगकर आग जलाती रही।

[पिछले दरवाजे में, कात्या की दुबली-सी, पन्द्रह साल की बेटी आकर सहमी-सी खड़ी हो जाती है।]

छह महीने तक मैं बच्चे को छाती से लगाए घूमती रही। किधर गया मेरा मासूम बेटा? मैं इसकी घड़ी को क्या करूँ? क्या मैं इससे कुछ अपने लिए माँगती हूँ? मैंने अपने लिए कभी इससे ज़ेवर माँगा है, या कपड़ा माँगा है? पर कौन माँ अपने बच्चों को अपनी आँखों के सामने ठिठुरता देख सकती है?

पादरी : ठीक है कात्या, पर पहले तो तुम्हारी गुज़र जैसे-तैसे चल ही जाती थी।

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