| नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
    कात्या : इसने अपना काम ख़ुद चौपट किया है। ताले बनाने छोड़ दिए, कभी बनाता है,
    कभी दस-दस दिन नहीं बनाता। अब यहाँ दो यहूदी कुफ़्लसाज़ आ गए हैं। हमसे कोई
    ताले लेता ही नहीं। मैं दस ताले सुबह थैले में डालकर ले गई थी, गली-गली घूम आई
    हूँ, केवल एक बिका है। 
    
    यान्का : (आगे आ जाती है, माँ का बाजू पकड़कर) क्या बात है, माँ, बापू घड़ी
    बनाते हैं तो बनाने दो न! तुम रोकती क्यों हो? 
    
    कात्या : क्या बक रही है? क्या मैं तेरे बाप का हाथ पकड़े हुए हूँ? घड़ी नहीं
    बनाता तो और काम ही क्या करता है? बेटी को भी उसने अपने हाथ में कर लिया है। 
    
    पादरी : सारा वक़्त पीछे की ओर ही नहीं देखते रहते, कात्या। कभी भविष्य की ओर
    भी देखना चाहिए। सियाने यह भी कह गए हैं : पीठ अतीत की ओर, और मुँह भविष्य की
    ओर होना चाहिए। 
    
    कात्या : सियाने यह भी कह गए हैं कि जो अतीत से सबक हासिल नहीं करता, वह
    वर्तमान में भी अन्धा और भविष्य में भी अन्धा बना रहता है। आप कहते हैं, मैं
    पीछे मुड़कर नहीं देखा करूँ, मुझे इस ब्याह में मिला क्या है? छोटी-सी थी, जब
    मैं इसके घर ब्याहकर आई थी। घर में हानूश को कोई पूछता ही नहीं था। दुनिया में
    इज़्ज़त भी उसी की होती है जिसका घरवाला कमानेवाला हो। यह सभी की पूँछ बना
    घूमता था। और आज यह दिन आया, इसकी हालत सुधरने की बजाय और भी नीचे गिरती गई है।
    
    यान्का : गिर कहाँ गई है माँ! घड़ी तो अब तैयार होने लगी है। कल यूनिवर्सिटी के
    बड़े हिसाबदान आए थे न? बापू की पीठ थपथपा रहे थे। कह रहे थे-तुमने बहुत बड़ा
    सवाल हल कर लिया है। 
    
    कात्या : मेरा बस चले तो इस मुई घड़ी का सारा सामान खिड़की के बाहर फेंक दूं।
    जिस वक़्त देखो, घड़ी, घड़ी...। 
    
    पादरी : अगर आदमी सारा वक़्त ऊँच-नीच की ही बात सोचता रहे कात्या, तो उसके मन
    को शान्ति कहाँ मिलेगी? 
    
    कात्या : मुझे क्या सिखाते हो जी, मैंने यह उपदेश बहुत सुन रखे हैं। एक ही
    ज़िन्दगी इनसान को मिलती है, उसमें से आधी बीत गई है। बाक़ी भी रो-धोकर कट
    जाएगी। 
    
    पादरी : पैसेवाले कौन-से सुखी हैं, कात्या? अगर पैसे से सुख मिलता हो तो
    राजा-महाराजों जैसा सुखी ही दुनिया में कोई नहीं हो। 
    
    कात्या : उन्हें दुख भी कौन-सा है? अच्छा खाते-पहनते हैं, प्रजा पर राज करते
    हैं, लाखों पर उनकी कलम चलती है। और सुख क्या होता है? मुझसे पूछो तो हानूश को
    भी किस बात का दुख है? दिन-भर अपना शौक़ पूरा करता रहता है। पिसती तो मैं हूँ!
    
    
    पादरी : नहीं कात्या, सच पूछो तो हानूश इस वक़्त तुमसे भी ज़्यादा परेशान है।
    वह जानता है कि तेरह साल बीत गए हैं और उसके काम का कोई कूल-किनारा नज़र नहीं आ
    रहा। उसे इस बात का भी दुख है कि वह अपने परिवार की देखभाल ठीक तरह से नहीं कर
    पाया। उसे अपने काम में भी कोई कामयाबी अभी तक नहीं मिली है।
    
    कात्या : मैं क्या जानूँ, अगर दुख है तो छोड़ क्यों नहीं देता? किसी को खाना
    नसीब न हो, उसकी परेशानी तो समझी जा सकती है, पर घड़ी न बने तो कोई परेशान हो,
    ऐसा तो कभी नहीं सुना। 
    
    पादरी : तुम तो जानती हो कात्या, कई बार वह इस काम को छोड़ चुका है। कई बार तो
    मेरे सामने आकर रो चुका है कि उससे कुछ नहीं बन पा रहा। 
    
    कात्या : इसने घड़ी नहीं बनाई तो क्या दुनिया का कारोबार बन्द हो जाएगा? इसे
    इसमें मिलेगा क्या? 
    
    पादरी : अपने लिए कुछ हासिल करने के लिए वह थोड़े ही बना रहा है। शौक़ है, और
    क्या! 
    
    कात्या : घड़ियाँ बनाने का शौक़ था तो फिर ब्याह नहीं करना चाहिए था। यह नहीं
    हो सकता कि घर-गिरस्ती भी बनाओ और उनके खाने-ओढ़ने का इन्तज़ाम भी नहीं करो...।
    
    
    पादरी : तुम नहीं जानतीं कात्या, अगर आदमी को उसकी पत्नी का विश्वास मिले तो
    उसके हौसले दुगुने हो जाते हैं, उसका उत्साह दुगुना हो जाता है। 
    
    कात्या : जी, मैंने बहुत सुन लिया। बच्चे तो भूखों मरते रहें और मैं उसका हौसला
    बढ़ाती रहूँ? मुझसे यह नहीं होगा। घर की हालत क्या आपसे छिपी है? बच्ची के
    चिथड़े क्या उसे नज़र नहीं आते? जाड़ों में हमारा घर गर्म नहीं हो पाता। क्या
    उससे छिपा है? इस हालत में मैं उसका हौसला बढ़ाती रहा करूँ?...इससे इतना-भर कहा
    था कि कम-से-कम दस ताले महीने में बना दिया करे ताकि घर की गुज़र चलती रहे, पर
    इससे इतना भी नहीं हुआ। मैं अपने कपड़े-गहने बेच चुकी हूँ। यह तो भला हो आपका
    कि आपने सिर छिपाने के लिए घर दे दिया है, या फिर गिरजेवाले थोड़ी-सी माली मदद
    दे देते हैं वरना न जाने कहाँ-कहाँ ठोकरें खाते फिरते! (कुछ देर रुककर) मैं भी
    बड़ी मूर्ख हूँ। मैं जानती हूँ, मेरे रोने-चिल्लाने से कुछ नहीं बनेगा। पहले भी
    कई बार ऐसा हो चुका है। यह दस दिन के लिए घड़ी बनाना छोड़ देगा, पर ग्यारहवें
    दिन फिर उससे जा चिपकेगा, फिर वही कमानियाँ और छड़ और जाने क्या-क्या! मैं
    रो-धोकर चुप हो जाऊँगी। 
    
    पादरी : मैं तुमसे एक ख़ास बात कहने आया हूँ, कात्या! कुछ दिन पहले हानूश ने
    गिरजे के अधिकारियों को माली इमदाद जारी रखने के लिए दरख्वास्त दी थी,
    वह...नामंजूर हो गई है। अब इसे गिरजे से इमदाद नहीं मिल सकेगी। 
    
    कात्या : क्या कहा? वह भी बन्द कर दी गई है? अब कमानियों-चक्करों के पैसे भी
    अपनी जेब से देने होंगे? हम खाएँगे कहाँ से? आप भगवान के लिए इससे कहिए, यह काम
    छोड़ दे। मैं हाथ जोड़ती हूँ, यह काम उसके बस का नहीं है, न ख़ुद मरे, न हमें
    मारे। 
    			
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