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स्वच्छंद

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2468
आईएसबीएन :81-267-0092-0

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सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं का संचयन

Svachchhand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कविश्री सुमित्रानंदन पंत का काव्य-संसार अत्यंत विस्तृत और भव्य है। प्रायः काव्य-रसिकों के लिए इसके प्रत्येक कोने-अँतरे को जान पाना कठिन होता है। पंतजी की काव्य-सृष्टि में, किसी भी श्रेष्ठ कवि की तरह ही, स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठता के शिखरों के दर्शन होते हैं, नवीन काव्य-भावों के अभ्यास का ऊबड़-खाबड़ निचाट मैदान भी मिलता है और अवरुद्ध काव्य-प्रसंगों के गड्ढे भी। किन्तु किसी कवि के स्वभाव को जानने को लिए यह आवश्यक होता है कि यत्नपूर्वक ही नहीं, रुचिपूर्वक भी उसके काव्य-संसार की यात्रा की जाए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पंतजी के बारे में लिखा कि आरम्भ में उनकी प्रवृति इस जग-जीवन से अपने लिए सौंदर्य का चयन करने की थी, आगे चलकर उनकी कविताओं में इस सौंदर्य की संपूर्ण मानव जाति तक व्याप्ति की आकांक्षा प्रकट होने लगी। प्रकृति प्रेम, लोक और समाज-विषय कोई भी हो, पंत-दृष्टि हर जगह उस सौंदर्य का उद्घाटन करना चाहती है, जो प्रायः जीवन से बहिष्कृत रहता है। वह उतने तक स्वयं को सीमित नहीं करती, उस सौंदर्य को एक मूल्य के रूप में अर्जित करने का यत्न करती है।

श्री सुमित्रानंदन पंत की जन्मशती के अवसर पर उनकी विपुल काव्य-संपदा से एक नया संचयन तैयार करना पंतजी के बाद विकसित होती हुई काव्य-रुचि का व्यापक अर्थ में अपने पूर्ववर्ती के साथ एक नए प्रकार का संबंध बनाने का उपक्रम है। यह चयन पंतजी के अंतिम दौर की कविताओं के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमता, जो काल की दृष्टि से हमारे अधिक निकट है, बल्कि उनके बिलकुल आरंभ काल की कविताओं से लेकर अंतिम दौर तक की कविताओं के विस्तार को समेटने की चेष्टा करता है। चयन के पीछे पंतजी को किसी राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा, किसी नई नैतिक-दार्शनिक दृष्टि जैसे काव्य-बाह्म दबाव में नए ढंग से प्रस्तुत करने की प्रेरणा नहीं है-यह एक नई शताब्दी और सहस्राब्दी की उषा वेला में मनुष्य की उस आदिम साथ ही चिरनवीन सौंदर्याकांक्षा का स्मरण है, पंतजी जैसे कवि जिसे प्रत्येक युग में आश्चर्यजनक शिल्प की तरह गढ़ जाते हैं।

किसी कवि की जन्मशती के अवसर पर परवर्ती पीढ़ी की इससे अच्छी श्रद्धाजंलि क्या हो सकती है कि वह उसे अपने लिए सौंदर्यात्मक विधि से समकालीन करे। पंत-शती के उपलक्ष्य में उनकी कविताओं के संचयन को ‘स्वच्छंद’ कहने के पीछे मात्र पंतजी की नहीं, साहित्य मात्र की मूल प्रवृत्ति की ओर भी संकेत है। संचयन में कालक्रम के स्थान पर एक नया अदृश्य क्रम दिया गया है, जिसमें कवि-दृष्टि, प्रकृति, मानव-मन, व्यक्तिगत जीवन, लोक और समाज के बीच संचरण करते हुए अपना एक कवि-दर्शन तैयार करती है। ‘स्वच्छंद’ के माध्यम से पंतजी के प्रति विस्मरण का प्रत्याख्यान तो है ही, इस बात को नए ढंग से चिन्हित भी करना है कि जैसे प्रकृति का सौंदर्य प्रत्येक भिन्न दृष्टि के लिए विशिष्ट है, वैसे ही कवि-संसार का सौंदर्य भी अशेष है, जिसे प्रत्येक नई दृष्टि अपने लिए विशिष्ट प्रकार से उपलब्ध करती है।


पन्त-पथ पर

 


कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मशती के अवसर पर निकाले जा रहे इस संचयन को ‘स्वच्छंद’ कहने के पीछे सिर्फ़ हिन्दी की स्वच्छन्तावादी काव्यधारा को, उसके बाद एक प्रमुख स्थगित के माध्यम से, अनुगुँजित करना अभीष्ट नहीं है। अभीष्ट यह भी है कि हिन्दी भाषा और कविता को अपना जातीय छन्द देने में पन्त की भूमिका को कृतज्ञतापूर्वक याद किया जाना चाहिए। बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ ही पन्त जी की जन्मशती में जो लेखक हिन्दी भाषा पर व्याप्त रहे हैं उनमें निश्चित ही पंत जी हैं। बल्कि जिन मूर्धन्यों ने हमारों लिए शताब्दी को रचा-गढ़ा और उससे समझने-सहने की शक्ति दी उनमें पन्त जी शामिल हैं।

यह भी निर्विवाद सा है कि छायावाद कविता के लिए इस शताब्दी का स्वर्णयुग था। अब, इतने बरसों बाद और कविता की संवेदना भूगोल के अप्रत्याशित विस्तार के बाद, यह स्पष्ट दीख पड़ता है कि छायावाद स्वाधीनता, मुक्ति और व्यक्तित्व के आग्रह के कविता के केन्द्रीय होने का युग था। हालाँकि छठवें दशक के शुरू में पन्त जी ने अपने पहले ‘निराला व्याख्यान’ में यह कहने पर नयी कविता छायावाद का विस्तार है, हम सभी चौंके और नाराज़ हुए थे लेकिन उसमें काफ़ी सचाई है। छायावाद का ऐसा ऊर्जस्वी वितान न होता तो आज कविता में कुछ भी कह पाने का साहस, अपने समय और दृष्टि करने का जोखिम और सारे संसार को कविता के परिसर में शामिल करने को उदग्र सम्भव न होता। यह अकारण नहीं हो सकता है कि अनेक नये कवि इधर बिना किसी हिचक या संकोच के अपने को किसी छायावादी मूर्धन्य से जोड़ते रहे हैं।

पन्त जी की काव्यधारा विपुल है : छायावादियों में उन्होंने सबसे अधिक और सबसे लम्बे समय तक कविताएँ लिखी हैं लगभग अबोध विस्मय से आरम्भ कर उनका कविता-संसार दार्शनिक अभिप्रायों और आध्यात्मिक चिन्ताओं तक जाता हुआ संसार है। हर कवि, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, और पन्त एक बड़े कवि है इसमें क्या संशय, अपनी यात्रा में कई मुकाम और पड़ाव तय करता है। लेकिन बाद में उनमें से कई स्वयं उसके लिए और प्राय: दूसरो के लिए पीछे छू़ट जाते हैं, मुबहम हो जाते हैं। इस बीच, यानी पन्त जी के कविता की रुचि बेहद बदल गई है। बल्कि वह तो उनके रहते भी खासी बदल चुकी थी और इस बदली हुई रुचि और संवेदना से पन्त स्वयं प्रतिकृत हुए थे। आसान नहीं था लेकिन दो छायावादी मूर्धन्यों- निराला और पन्त- ने अपने छायावादी मुहावरों को जोखिम उठाकर, पर बड़ी खरी पारदर्शिता के साथ पुनराविष्कार किया था। कविता के पन्त-प्रयत्न को उसकी पूरी विविधता और विपुलता में समेटना कठिन कार्य है : ऐसा बहुत सा है जो एक समय मार्मिक और प्रभावपूर्ण लगता था पर अब अपनी धार खो चुका है। सौभाग्य से, ऐसा पर्याप्त है जो बासी या पुराना नहीं पड़ा है; उसमें न सिर्फ पन्त की दृष्टि, शिल्प और भंगिमाएँ समय पार कर हमसे कुछ सार्थक बात कर पाती हैं उन्हें जाने-सुना बिना स्वयं हिन्दी कविता की अपनी आन्तरिक लय, उसका अन्त:संगीत और उसका शब्द सौष्ठव समझना संभव नहीं है।

हमारा समय, दुर्भाग्य से, ऐसा समय हैं जिसमें मनुष्य के साधारण जीवन-व्यापार और साहित्य से विस्मय-बोध गायब ही हो गया है। पर्यावरण के नाश की सारी दुश्चिन्ताओं के बावजूद हम काफ़ी हद तक मनुष्यों के समाज में बँध गये हैं, बजाय उस लोक में होने के जिसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच इतना अपरिचय या दूरी नहीं थीं। पन्त की कविता पढ़ना इन दिनों अपने जीवन और भाषा में विस्मय के पुरनर्वास की सम्भावना से दो-चार होना है। पन्त की कविता उनकी गहरी ऐन्द्रियता से भी निकली थी : उसमें शास्त्री गरिमा और लोक उच्छलता दोनों संग्रथित थीं। आज उनकी कविता को पढ़ने से खड़ी बोली ऐन्द्रियता के मूल का संस्पर्श करने की ओर बढ़ते हैं। खड़ी बोली के खड़ेपन के बावजूद उसमें कविता के उपर्युक्त अन्त:संगीत विन्यस्त कर पाना आसान नहीं, लगभग क्रान्तिकारी काम था जो पन्त ने बड़ी सूझबूझ और कल्पनाप्रवणता के साथ किया था। यह काम उनकी कविता में अपनी अनेक छटाओं में है।

 उसे देखना खड़ी बोली की लयात्मक सम्भावनाओं और उलझनों का साक्षात् करना है और स्वयं आज कविकर्म के सामने मौजूद चुनौतियों को बेहतर समझ की ओर बढ़ना है। कविता ने इधर कुल मिलाकर अगर गाना छोड़ दिया तो इसलिए नहीं कि समय बदल गया और अधिक कठिन-जटिल हो गया। हर समय में, वह कितना भी असंभव और असहनीय या अकल्पनीय क्यों न हो, भाषा कविता में गाती रही है और हमारा समय इसका अपवाद नहीं हो सकता। अपने को अधिकतर मुक्त छन्द की रूढ़ि में फँसाकर और लय और गति के कठिन अभ्यास से बचकर हमारे समय में कवि प्रतिभा ने जो रास्ता चुना, वह एक तरह से पन्त-पथ से विरत होना है। यह विपथगामिता अनुभव की जटिलता और समय के काठिन्य से जूझना उतना नहीं, जितना कि उनका सरलीकरण है। किसी दह तक यह पन्त-प्रयत्न का अवमूल्यन भी है। पन्त में छंदों और लय-प्रयोग की विविधता देखना स्वयं अपने समय में कविकर्म की जटिलता को बेहतर समझना है।

कविता कहीं न कहीं भाषा में स्मृति-पुनस्संयोजन और शब्द की सम्भावनाओं का अप्रत्याशित विस्तार है। हमारा समय कई अर्थों में स्मृतिक्षीण और शब्द-दरिद्र समय है। ऐसे समय में पन्त एक प्रतिकल्प की तरह उभरते हैं। उनकी कविता में हमारी लम्बी भारतीय कविता में हमारी कविता और सौन्दर्यबोध की असमाप्त अनुगूँजें हैं जिनमें एक साधारण जीवनप्रक्रिया भी अदम्य शास्त्रीय अर्थाभा से भर जाती है। पन्त ने सैकड़ों नये शब्द गढ़े और उनमें से अनेक का काव्यप्रवेश ही उनके यहाँ पहली बार हुआ होगा। शब्द से कविता गढ़ना और कविता के लिए उपयुक्त और नये शब्द खोजना-गढ़ना सच्चे कविकर्म का ज़रूरी हिस्सा हैं : पन्त-काव्य पढ़ना कविकर्म ऐसा अटूट और अकाट्य, समृद्ध और उत्तेजक, अप्रत्याशित लेकिन अनिवार्य साक्ष्य देखना है।

कविता हमेशी ही स्थानीय और सार्वभौम, दोनों को साधने की चेष्टा करती है। बल्कि शायद यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि कविता स्थानीय से सार्वभौम को छूने की चेष्टा करती है और साथ-साथ सार्वभौम को स्थानीय बनाने का यत्न भी। पन्त के यहाँ यह साधना अपनी पूरा उदात्तता के साथ व्यक्त हुई है। कौसानी, कूर्मांचल, काला कांकर आदि की इतनी सारी निपटा स्थानीय छवियाँ उनकी कविता में हैं। इस पर ध्यान कम गया है कि बचपन की यादें और धरती में पैसे बोने जैसी हरकतें अपनी पूरी ऐन्द्रियता में जितनी पन्त के यहाँ हैं उतनी किसी अन्य छायावादी के यहाँ नहीं हैं। कई बार तो लगता है कि पन्त अपने जीवन भर संसार, भाषा और समय को एक तरह के अक्षय बालविस्मय से देखते रहे और यह हिन्दी का सौभाग्य है कि यह विस्मय काव्य-विन्यस्त होता रहा।

मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन आदि के प्रति पन्त के आकर्षण को कई तरह से समझा गया है और प्राय: यह माना गया है कि उनकी काव्य-संवेदना उनसे उपजे वैचारिक बोझ का सफलतापूर्वक वहन करने में समर्थ प्राय: सिद्ध नहीं हुई। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छायावाद का दौर भारतीय समाज में आदर्शवादिता का दौर था। एक तरह के व्यापक मानववाद का प्रभाव प्राय: हर कलाचेष्टा पर था। इसलिए कितनी भी सुकुमार संवेदना क्यों न हो, उसका विचार प्रवाह से बचना संभव नहीं था। पन्त के मामले में इन वैचारिक आकर्षणों ने उन्हें अपनी कविता का भूगोल विस्तृत करने के लिए प्रेरित किया। वे अपने विस्मय और ऐन्द्रियता के साथ जिस ‘भूमा’ के कवि थे। उसे इन वैचारिक प्रभावों ने एक ओर ठोस बनाया तो दूसरी ओर उनकी काव्य और जीवन-दोनों की ही चेतना को एक तरह की उर्ध्वगामिता भी दी। आज ये देखा जा सकता है कि पन्त की परवर्ती कविता-उपवन के भूमा में विस्तार व आकाश में वितान के बीच सन्तुलित है। उससे यह सबक आज भी सीखा जा सकता है कि कविता अपने आप में दर्शन है, संसार को छूने-समझने-बदलने की एक विधा है और उसे अन्य दर्शनों की, कम-से-कम उनके वर्चस्व की, कतई दरकार नहीं है।

वही कवि बड़ा हो पाता है जो अपनी दृष्टि और शैली का अतिक्रमण करने की दुस्साहसिकता कर सके। पन्त में यह साहस था: उनकी कविता छायावाद के स्वर्णलोक का कारक थी पर आगे चलकर वह उससे मुक्त होकर एक नये संसार में प्रवेश कर पायी। बदलने के बाद भले उसमें वैसा काव्योत्कर्ष सम्भव न हो। लेकिन उसमें तेजी से आ रहे परिवर्तनों के प्रति खुला रहने का उदार साहस था, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

अज्ञेय ने पन्त की षष्ठिपूर्ति पर हिन्दी प्रकृति-काव्य का प्रख्यात संचयन ‘रूपाम्बरा’ संपादित-प्रकाशित कर उन्हें भेट किया था। जाहिर है यह हिन्दी के प्रकृति-काव्य में पन्त की शीर्षस्थानीयता का एक कविजनोचित स्वीकार था। उन्हीं दिनों नरेश मेहता और श्रीकान्त वर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘कृति’ ने गजानन माधव मुक्तिबोध और नामवर सिंह के निबंध विशेष रूप से प्रकाशित कर उन्हें एक और तरह की आलोचनात्मक प्रणति दी थी। चार दशक बीत जाने के बाद यह स्वीकार करने का अवसर है कि न सिर्फ हिन्दी प्रकृति-काव्य में बल्कि समूचे आधुनिक काव्य में पन्त की गौरवस्थानीयता असंदिग्ध है और उसे स्पष्ट किया जाना चाहिए। हिन्दी में आधुनिकता का इतिहास बिना पन्त के अवदान के लिखना संभव नहीं है।


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