बहुभागीय पुस्तकें >> कृष्णावतार : भाग-7 - युधिष्ठिर कृष्णावतार : भाग-7 - युधिष्ठिरकन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
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प्रस्तुत है कृष्णावतार का सातवाँ खंड इसमें धर्मराज युधिष्ठिर के जीवन पर प्रकाश डाला गया है...
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Yudhishthir
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुविख्यात गुजराती उपन्यासकार क.मा. मुंशी की बहुचर्चित और बहुपठित उपन्यास माला कृष्णावतार के पूर्व प्रकाशित छः खण्डों-बंसी की धुन, रुक्मिणी हरण, पाँच पाँण्डव, महाबलि भीम, सत्यभामा तथा महामुनि व्यास- के बाद ‘युधिष्ठिर’ नामक यह सातवाँ खण्ड है। साथ ही आठवाँ, किन्तु अधूरा खण्ड ‘कुरुक्षेत्र’ मुंशीजी इससे इस ग्रन्थ माला का समापन कहनेवाले थे।
‘महाभारत’ में युधिष्ठिर ‘धर्मराज’ के रूप में विख्यात इतिहास पुरुष हैं। अधर्म, अशान्ति और रक्तपात से उन्हें घोर विरक्ति है। उनकी राजनीति-धर्म-साधना का माध्यम भर है-धर्म को उसका साधन नहीं बनाया जा सकता है। यह जानते हुए भी कौरव उनका और उनके भाइयों का सर्वस्व हड़प कर जाना चाहते हैं, युद्ध उन्हें स्वीकार नहीं। यही कारण है कि दुर्योधन और शकुनि के षंडयन्त्र को जानते हुए भी वे दूतसभा का बुलावा स्वीकार कर लेते हैं और भाइयों आदि के निषेध का बावजूद लगातार हारते चले जाते हैं। उपन्यास में इस समूचे घटनाक्रम के दौरान युधिष्ठिर के अन्तर्द्वन्द्व और बेचैनी का मार्मिक अंकन हुआ है। वनवास और अज्ञातवास के बावजूद अन्ततः उन्हें ‘कुरुक्षेत्र’ जाना पड़ा।
और ‘कुरुक्षेत्र’ अधूरा है-यहाँ और जीवन, दोनों जगह। पता नहीं कब से यह कुरुक्षेत्र हमारे बाहर-भीतर अपूर्ण है और कब तक रहेगा ? पर शायद मानव-विकास का बीज भी इसी अपूर्णता में निहित है।
‘महाभारत’ में युधिष्ठिर ‘धर्मराज’ के रूप में विख्यात इतिहास पुरुष हैं। अधर्म, अशान्ति और रक्तपात से उन्हें घोर विरक्ति है। उनकी राजनीति-धर्म-साधना का माध्यम भर है-धर्म को उसका साधन नहीं बनाया जा सकता है। यह जानते हुए भी कौरव उनका और उनके भाइयों का सर्वस्व हड़प कर जाना चाहते हैं, युद्ध उन्हें स्वीकार नहीं। यही कारण है कि दुर्योधन और शकुनि के षंडयन्त्र को जानते हुए भी वे दूतसभा का बुलावा स्वीकार कर लेते हैं और भाइयों आदि के निषेध का बावजूद लगातार हारते चले जाते हैं। उपन्यास में इस समूचे घटनाक्रम के दौरान युधिष्ठिर के अन्तर्द्वन्द्व और बेचैनी का मार्मिक अंकन हुआ है। वनवास और अज्ञातवास के बावजूद अन्ततः उन्हें ‘कुरुक्षेत्र’ जाना पड़ा।
और ‘कुरुक्षेत्र’ अधूरा है-यहाँ और जीवन, दोनों जगह। पता नहीं कब से यह कुरुक्षेत्र हमारे बाहर-भीतर अपूर्ण है और कब तक रहेगा ? पर शायद मानव-विकास का बीज भी इसी अपूर्णता में निहित है।
प्राक्कथन
भगवद्गीता का उपदेश देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान का नाम कौन नहीं जानता ? भागवत में उन्हें ‘भगवान स्वयं’ कहा गया है।
मुझे जहाँ तक स्मरण है, बचपन से श्रीकृष्ण मेरे मन-मस्तिष्क पर छाये हुए हैं। जब मैं नन्हा-सा बालक था, तब मैं इनके पराक्रम की गौरव-गाथाएँ सुना करता था। बाद में इनके विषय में लिखे हुए ग्रन्थ पढ़े, कहानियाँ और कविताएँ पढ़ीं, इनकी स्मृति में लिखे हुए पदों का गान किया, अनेक मन्दिरों में इनकी पूजा की और प्रत्येक जन्माष्टमी को घर के आँगन में मैंने इन्हें आर्घ्य दिया। दिन-प्रतिदिन, वर्ष-प्रतिवर्ष, इनका संदेश मेरे जीवन की एक प्रबल प्रेरणादायिनी शक्ति बनता चला गया।
मूल महाभारत में हमें इनके आकर्षक व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से उस पर लोगों ने पिछले तीन हजार वर्षों में भक्तिभाव से भरी हुई स्तुतियों, चमत्कारों और दन्तकथाओं की अनेक परतें चढ़ा दी हैं।
श्रीकृष्ण बुद्धिवान और बलवान थे, स्नेह करते थे और स्नेह पाते थे। उनकी जीवन-शैली अद्भुत थी। दूरदर्शी थे लेकिन समसामयिक को भी समर्पित थे, सन्त के समान नि:स्पृह थे लेकिन एक सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में जीवनदायी उत्साह और उल्लास से सराबोर थे। सन्त, कूटनीतिज्ञ और कर्मयोगी के गुणों से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व इतना भव्य था कि उसका प्रभाव बिल्कुल ईश्वरीय प्रभाव-सा लगता था।
मैंने कई बार सोचा था कि मैं इनके जीवन और पराक्रम की गौरवगाथा को फिर से लिखूँगा। कभी लगता था कि नहीं लिख सकूँगा। लेकिन सदियों से असंख्य साहित्यकार उन पर लिखते आये हैं, यह याद करके उनकी तरह मैंने
भी अपनी रचनात्मक सृजनशीलता और कल्पना का यथाशक्य उपयोग किया और यह नन्हीं-सी अंजलि उन्हें अर्पित कर डाली।
इस पूरी ग्रन्थमाला को मैंने ‘कृष्णावतार’ नाम दिया है। कंस-वध के साथ समाप्त होने वाले इनके जीवन के प्रथम भाग को मैंने ‘बंसी की धुन’ नाम दिया है, क्योंकि कृष्ण का पूरा बचपन बंसी या बाँसुरी से जुड़ा था। इस बंशी ने पशु-पक्षियों और मनुष्यों को समान रूप से सम्मोहित किया है। असंख्य कवियों ने इसके माधुर्य का बखान किया है।
दूसरा भाग रुक्मिणी-हरण के साथ पूरा होता है। ‘रुक्मिणी-हरण’ में मैंने मगध-सम्राट जरासन्ध के प्रति श्रीकृष्ण के सफल विरोध की घटना को प्रमुख रूप से चित्रित किया है।
तीसरे भाग को मैंने ‘पाँच पाण्डव’ शीर्षक दिया है। वह द्रौपदी-स्वयंवर के साथ पूरा होता है।’
चौथा भाग है ‘महाबली भीम’, जो युधिष्ठिर के वचन-पालन के साथ पूरा होता है और उसमें श्रीकृष्ण की सलाह पर भीम व अन्य पाण्डव खाण्डवप्रस्थ की ओर प्रयाण करते हैं।
पाँचवाँ भाग है ‘सत्यभामा’, जो सत्यभामा और श्रीकृष्ण के विवाह के साथ पूरा होता है। इसमें मैंने विविध पुराणों में वर्णित हुई स्यमन्तक मणि की घटना का चित्रण किया है। यह घटना श्रीकृष्ण के जीवन से घनिष्ठ संबंध रखती है। मैंने इसे प्रतीक रूप में लिया है।
छठे भाग में ‘महामुनि व्यास’ की कथा है।
इस सातवें भाग में ‘युधिष्ठिर की कथा है। इसमें मैंने वह प्रसंग प्रस्तुत किया है जिसमें शकुनि की चालबाजी से धर्मराज युधिष्ठिर की जुए में हार होती है और पाँचों पाण्डवों को हस्तिनापुर छोड़कर बारह वर्ष तक जंगलों में छिपकर रहना पड़ता है।
ईश्वर को स्वीकार हुआ तो मेरी इच्छा है कि मैं इस कथा को वहाँ तक ले जाकर पूरा करूँ जहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन कराते हैं। इस आठवें भाग का शीर्षक रहेगा ‘कुरुक्षेत्र’।
इससे पहले ‘पुरन्दर-पराजय’ में मैंने च्यवन और सुकन्या का चित्रण किया था, ‘अविभक्त आत्मा’ में मैंने विशिष्ट और अरुन्धती को चित्रित किया था; अगस्त्य, लोपामुद्रा, वशिष्ट, विश्वामित्र, पशुराम और सहस्रार्जन को लोपामुद्रा के चार भागों के अलावा ‘लोमहर्षिणी’ और ‘भगवान पशुराम’ में भी प्रस्तुत किया था, और अब श्रीकृष्ण तथा महाभारत के अन्य पात्रों को ‘कृष्णावतार’ के इन खण्डों में रूपायित कर रहा हूँ। मैं एक बार फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इनमें से कोई भी कृति प्राचीन पुराणों का अनुवाद नहीं है।
श्रीकृष्ण भगवान के जीवन और पराक्रम की गौरवगाथा लिखते वक्त उनके व्यक्तित्व, व्यवहार तथा दृष्टिकोण को सुसंगत बनाने के लिए, अपने कई पूर्वजों की भाँति, मैंने कई घटनाओं की पुनर्रचना कर ली है। महाभारत में वर्णित कई अल्पज्ञात चरित्रों को भी पुन: मूर्तिमान करने का प्रय्त्न किया है।
ऐसा करते वक्त कई बार ‘महाभारत’ के प्राचीन परम्परागत प्रसंगों को मैंने नये अर्थ में प्रस्तुत किया है। आधुनिक रचनाकार जब प्राचीन जीवन का निरूपण करता है तो उसे कल्पना का आश्रय लेना ही पड़ता है।
मुझे विश्वास है कि मैंने जो छूट ली है उसके लिए
भगवान मुझे क्षमा करेंगे लेकिन उनको उसी रूप में अभिव्यक्त करना चाहिए, जिस रूप में मैंने उन्हें अपनी कल्पना-दृष्टि से देखा है।
‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला के प्रत्येक भाग को स्वतन्त्र कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है।
मुझे जहाँ तक स्मरण है, बचपन से श्रीकृष्ण मेरे मन-मस्तिष्क पर छाये हुए हैं। जब मैं नन्हा-सा बालक था, तब मैं इनके पराक्रम की गौरव-गाथाएँ सुना करता था। बाद में इनके विषय में लिखे हुए ग्रन्थ पढ़े, कहानियाँ और कविताएँ पढ़ीं, इनकी स्मृति में लिखे हुए पदों का गान किया, अनेक मन्दिरों में इनकी पूजा की और प्रत्येक जन्माष्टमी को घर के आँगन में मैंने इन्हें आर्घ्य दिया। दिन-प्रतिदिन, वर्ष-प्रतिवर्ष, इनका संदेश मेरे जीवन की एक प्रबल प्रेरणादायिनी शक्ति बनता चला गया।
मूल महाभारत में हमें इनके आकर्षक व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से उस पर लोगों ने पिछले तीन हजार वर्षों में भक्तिभाव से भरी हुई स्तुतियों, चमत्कारों और दन्तकथाओं की अनेक परतें चढ़ा दी हैं।
श्रीकृष्ण बुद्धिवान और बलवान थे, स्नेह करते थे और स्नेह पाते थे। उनकी जीवन-शैली अद्भुत थी। दूरदर्शी थे लेकिन समसामयिक को भी समर्पित थे, सन्त के समान नि:स्पृह थे लेकिन एक सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में जीवनदायी उत्साह और उल्लास से सराबोर थे। सन्त, कूटनीतिज्ञ और कर्मयोगी के गुणों से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व इतना भव्य था कि उसका प्रभाव बिल्कुल ईश्वरीय प्रभाव-सा लगता था।
मैंने कई बार सोचा था कि मैं इनके जीवन और पराक्रम की गौरवगाथा को फिर से लिखूँगा। कभी लगता था कि नहीं लिख सकूँगा। लेकिन सदियों से असंख्य साहित्यकार उन पर लिखते आये हैं, यह याद करके उनकी तरह मैंने
भी अपनी रचनात्मक सृजनशीलता और कल्पना का यथाशक्य उपयोग किया और यह नन्हीं-सी अंजलि उन्हें अर्पित कर डाली।
इस पूरी ग्रन्थमाला को मैंने ‘कृष्णावतार’ नाम दिया है। कंस-वध के साथ समाप्त होने वाले इनके जीवन के प्रथम भाग को मैंने ‘बंसी की धुन’ नाम दिया है, क्योंकि कृष्ण का पूरा बचपन बंसी या बाँसुरी से जुड़ा था। इस बंशी ने पशु-पक्षियों और मनुष्यों को समान रूप से सम्मोहित किया है। असंख्य कवियों ने इसके माधुर्य का बखान किया है।
दूसरा भाग रुक्मिणी-हरण के साथ पूरा होता है। ‘रुक्मिणी-हरण’ में मैंने मगध-सम्राट जरासन्ध के प्रति श्रीकृष्ण के सफल विरोध की घटना को प्रमुख रूप से चित्रित किया है।
तीसरे भाग को मैंने ‘पाँच पाण्डव’ शीर्षक दिया है। वह द्रौपदी-स्वयंवर के साथ पूरा होता है।’
चौथा भाग है ‘महाबली भीम’, जो युधिष्ठिर के वचन-पालन के साथ पूरा होता है और उसमें श्रीकृष्ण की सलाह पर भीम व अन्य पाण्डव खाण्डवप्रस्थ की ओर प्रयाण करते हैं।
पाँचवाँ भाग है ‘सत्यभामा’, जो सत्यभामा और श्रीकृष्ण के विवाह के साथ पूरा होता है। इसमें मैंने विविध पुराणों में वर्णित हुई स्यमन्तक मणि की घटना का चित्रण किया है। यह घटना श्रीकृष्ण के जीवन से घनिष्ठ संबंध रखती है। मैंने इसे प्रतीक रूप में लिया है।
छठे भाग में ‘महामुनि व्यास’ की कथा है।
इस सातवें भाग में ‘युधिष्ठिर की कथा है। इसमें मैंने वह प्रसंग प्रस्तुत किया है जिसमें शकुनि की चालबाजी से धर्मराज युधिष्ठिर की जुए में हार होती है और पाँचों पाण्डवों को हस्तिनापुर छोड़कर बारह वर्ष तक जंगलों में छिपकर रहना पड़ता है।
ईश्वर को स्वीकार हुआ तो मेरी इच्छा है कि मैं इस कथा को वहाँ तक ले जाकर पूरा करूँ जहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन कराते हैं। इस आठवें भाग का शीर्षक रहेगा ‘कुरुक्षेत्र’।
इससे पहले ‘पुरन्दर-पराजय’ में मैंने च्यवन और सुकन्या का चित्रण किया था, ‘अविभक्त आत्मा’ में मैंने विशिष्ट और अरुन्धती को चित्रित किया था; अगस्त्य, लोपामुद्रा, वशिष्ट, विश्वामित्र, पशुराम और सहस्रार्जन को लोपामुद्रा के चार भागों के अलावा ‘लोमहर्षिणी’ और ‘भगवान पशुराम’ में भी प्रस्तुत किया था, और अब श्रीकृष्ण तथा महाभारत के अन्य पात्रों को ‘कृष्णावतार’ के इन खण्डों में रूपायित कर रहा हूँ। मैं एक बार फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इनमें से कोई भी कृति प्राचीन पुराणों का अनुवाद नहीं है।
श्रीकृष्ण भगवान के जीवन और पराक्रम की गौरवगाथा लिखते वक्त उनके व्यक्तित्व, व्यवहार तथा दृष्टिकोण को सुसंगत बनाने के लिए, अपने कई पूर्वजों की भाँति, मैंने कई घटनाओं की पुनर्रचना कर ली है। महाभारत में वर्णित कई अल्पज्ञात चरित्रों को भी पुन: मूर्तिमान करने का प्रय्त्न किया है।
ऐसा करते वक्त कई बार ‘महाभारत’ के प्राचीन परम्परागत प्रसंगों को मैंने नये अर्थ में प्रस्तुत किया है। आधुनिक रचनाकार जब प्राचीन जीवन का निरूपण करता है तो उसे कल्पना का आश्रय लेना ही पड़ता है।
मुझे विश्वास है कि मैंने जो छूट ली है उसके लिए
भगवान मुझे क्षमा करेंगे लेकिन उनको उसी रूप में अभिव्यक्त करना चाहिए, जिस रूप में मैंने उन्हें अपनी कल्पना-दृष्टि से देखा है।
‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला के प्रत्येक भाग को स्वतन्त्र कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है।
कन्हैयालाल मुंशी
आरम्भ और अन्त
अपूर्ण आठवें भाग के साथ ‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला समाप्त हो रही है। इसलिए गुजरात और गुजरात के बाहर व्यापक प्रसिद्धि प्राप्त करनेवाले स्व. मुंशीजी के इस बृहद् पौराणिक उपन्यास के विषय में यहाँ कुछ उपयोगी सूचना देना आवश्यक है। इसके प्रारम्भ का इतिवृत्ति आनन्ददायी है जबकि इसके अन्त की कथा करुणाजनक है।
सन् 1952 से 1957 तक मुंशीजी उत्तरप्रदेश के राज्यपाल थे अब उन्हें श्रीकृष्ण की लीलाभूमि के मथुरा, वृन्दावन, ब्रज, गोकुल आदि विविध स्थानों को निकट से देखने के कई अवसर मिले थे। श्रीकृष्ण का उनके मन-मस्तिष्क पर बचपन से प्रभाव था। राज्यपाल के पद की अवधि समाप्त होने के बाद जब वे बंबई आये तो उनकी इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण के जीवन और पराक्रम की गौरव-गाथा का नये सिरे से सृजन किया जाय। सन् 1958 में उन्होंने ‘हरिवंश’ और ‘श्रीमद्भागवत’ के आधार पर इस कथा की पृष्ठभूमि तैयार की और लेखन-कार्य प्रारम्भ कर दिया। जब प्रारम्भ किया तो उनका विचार इतना ही था कि ‘श्रीमद्भागवत’ के दसवें स्कन्द को केन्द्र मानकर श्रीकृष्ण-जन्म की कथा को थोड़ा कल्पना का पुट देते हुए अपनी विशिष्ट सरस शैली में प्रस्तुत किया जाय- और वह भी केवल दो भागों में।
भारतीय विद्याभवन की अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका ‘भवन्स जर्नल’ में इस योजना के अनुसार 22-2-1959 के अंक से यह कथा प्रकाशित होनी प्रारम्भ हो गई। उस समय उन्होंने यही सोचा कि वे इसे दो भागों तक ही सीमित रखेंगे, इसलिए उन्होंने इस कथा का शीर्षक दिया था- ‘श्रीमद्भागवत, कृष्णावतार: द डिसेन्ट ऑफ द लॉर्ड’; लेकिन ज्यों-ज्यों कथा के अध्याय आगे बढ़ते गये त्यों-त्यों पाठकों का इसके प्रति आकर्षण भी बढ़ने लगा। मुंशीजी को महाभारत और पुराणों के उन पात्रों में रस आने लगा जिनका श्रीकृष्ण के जीवन से किसी न किसी कारण गहरा संबंध था। फल यह हुआ कि कंसवध के साथ जब पहला भाग पूर्ण हो गया तो उन्होंने इस कथा को आगे बढ़ा दिया और अपने जीवन के अन्तिम दिनों में आठवें भाग तक भी वें अनवरत लिखते रहे।
भारतीय विद्याभवन के गुजराती पाक्षिक ‘समर्पण’ में उसके 7-8-1960 के अंक से ‘कृष्णावतार’ गुजराती में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गया। इसके सभी भाग ‘समर्पण’ में धाराप्रवाह प्रकाशित होते रहने के बाद ही पुस्तक-रूप में प्रकाशित हुए थे। आठवाँ भाग भी ‘समर्पण’ के 15-7-73 के अंक तक चलता रहा।
सातवाँ भाग लिखने के बाद मुंशीजी का स्वास्थ्य गिरने लग गया। आठवें भाग का तेरहवाँ अध्याय उन्होंने 1971 की जनवरी में लिखा। लेकिन स्वास्थ्य ज्यादा खराब हो जाने के कारण ‘कृष्णावतार’ का समूचा लेखन-कार्य वहीं अटक गया। वहाँ से आगे वह नहीं बढ़ सका क्योंकि 8 फरवरी 1971 को मुंशीजी का देहवसान हो गया। आठवाँ भाग अपूर्ण ही रहा। इस भाग का नाम उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र की कथा’ रखा था। मुंशीजी का विचार था कि कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में अर्जुन के रथ के पास जहाँ श्रीकृष्ण भगवद् गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन को विश्व-रूप दर्शन कराते हैं वहाँ तक ‘कृष्णावतार’ की ग्रन्थमाला की कथा को ले जाकर सम्पूर्ण करेंगे, किन्तु विधाता को यह मंजूर नहीं था। आठवें भाग की समूची पृष्ठभूमि उन्होंने मस्तिष्क में तैयार कर रखी थी और इससे संबंधित कई तरह के बिन्दु भी उन्होंने नोट्स के रूप में तैयार कर लिये थे।
मेरे एक मित्र लेखक का सुझाव था कि मुंशीजी इस कथा को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में समाप्त नहीं करें, बल्कि नौवाँ भाग और लिखकर इस कथा को श्रीकृष्ण के देहावसान तक ले जाना चाहिए। मैंने इस सुझाव को मुंशीजी के समक्ष रखा। वे मुस्कराकर बोले, ‘‘लेकिन उसे लिखेगा कौन ? तुम जानते ही हो कि आठवाँ भाग लिखने में भी दो बार व्यवधान पड़ चुका है।’’ (दो व्यवधान उनकी बामारी के कारण पैदा हुए थे।)
तेहर वर्ष तक ‘कृष्णावतार’ का लेखन-कार्य चला। इस लेखन के दौरान मुंशी जी का सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित रहा। उनकी प्रसिद्धि आत्मकथा-ग्रन्थमाला के अन्तिम ग्रन्थ ‘स्वप्नसिद्धि की खोज में’ उनके 1926 तक के जीवन का चित्रण है। उसके बाद की काफी सामग्री उपलब्ध देखकर मैं उनसे 1926 के बाद वर्षों की आत्म कथा लिखने का निवेदन किया था लेकिन उनका एक ही जवाब था कि ‘पहले मुझे ‘कृष्णावतार’ पूरा करना है, फिर समय होगा तो, आत्मकथा लेंगे।’ गुजराती साहित्य का दुर्भाग्य समझिए कि वह समय वापस आया ही नहीं।
26 जनवरी 1971 के दिन सातवें खण्ड के प्रकाशन में मुंशीजी ने लिखा था-
‘‘ईश्वर को मंजूर हुआ तो मेरी इच्छा है कि मैं इस कथा को वहाँ तक ले जाकर पूरा करूँ जहाँ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्व रूप का दर्शन कराते हैं।’’
ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। उपरोक्त इच्छा व्यक्त करने के बारह दिन बाद ही उनकी इहलीला समाप्त हो गयी और एक महान कथाकृति अधूरी रह गयी। इतना संतोष जरूर हैं कि ‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला के प्रत्येक भाग की रचना इतनी कुशलता के साथ हुई है कि उसे बिना रसभंग के एक स्वतंत्र कथा के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।
सन् 1952 से 1957 तक मुंशीजी उत्तरप्रदेश के राज्यपाल थे अब उन्हें श्रीकृष्ण की लीलाभूमि के मथुरा, वृन्दावन, ब्रज, गोकुल आदि विविध स्थानों को निकट से देखने के कई अवसर मिले थे। श्रीकृष्ण का उनके मन-मस्तिष्क पर बचपन से प्रभाव था। राज्यपाल के पद की अवधि समाप्त होने के बाद जब वे बंबई आये तो उनकी इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण के जीवन और पराक्रम की गौरव-गाथा का नये सिरे से सृजन किया जाय। सन् 1958 में उन्होंने ‘हरिवंश’ और ‘श्रीमद्भागवत’ के आधार पर इस कथा की पृष्ठभूमि तैयार की और लेखन-कार्य प्रारम्भ कर दिया। जब प्रारम्भ किया तो उनका विचार इतना ही था कि ‘श्रीमद्भागवत’ के दसवें स्कन्द को केन्द्र मानकर श्रीकृष्ण-जन्म की कथा को थोड़ा कल्पना का पुट देते हुए अपनी विशिष्ट सरस शैली में प्रस्तुत किया जाय- और वह भी केवल दो भागों में।
भारतीय विद्याभवन की अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका ‘भवन्स जर्नल’ में इस योजना के अनुसार 22-2-1959 के अंक से यह कथा प्रकाशित होनी प्रारम्भ हो गई। उस समय उन्होंने यही सोचा कि वे इसे दो भागों तक ही सीमित रखेंगे, इसलिए उन्होंने इस कथा का शीर्षक दिया था- ‘श्रीमद्भागवत, कृष्णावतार: द डिसेन्ट ऑफ द लॉर्ड’; लेकिन ज्यों-ज्यों कथा के अध्याय आगे बढ़ते गये त्यों-त्यों पाठकों का इसके प्रति आकर्षण भी बढ़ने लगा। मुंशीजी को महाभारत और पुराणों के उन पात्रों में रस आने लगा जिनका श्रीकृष्ण के जीवन से किसी न किसी कारण गहरा संबंध था। फल यह हुआ कि कंसवध के साथ जब पहला भाग पूर्ण हो गया तो उन्होंने इस कथा को आगे बढ़ा दिया और अपने जीवन के अन्तिम दिनों में आठवें भाग तक भी वें अनवरत लिखते रहे।
भारतीय विद्याभवन के गुजराती पाक्षिक ‘समर्पण’ में उसके 7-8-1960 के अंक से ‘कृष्णावतार’ गुजराती में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गया। इसके सभी भाग ‘समर्पण’ में धाराप्रवाह प्रकाशित होते रहने के बाद ही पुस्तक-रूप में प्रकाशित हुए थे। आठवाँ भाग भी ‘समर्पण’ के 15-7-73 के अंक तक चलता रहा।
सातवाँ भाग लिखने के बाद मुंशीजी का स्वास्थ्य गिरने लग गया। आठवें भाग का तेरहवाँ अध्याय उन्होंने 1971 की जनवरी में लिखा। लेकिन स्वास्थ्य ज्यादा खराब हो जाने के कारण ‘कृष्णावतार’ का समूचा लेखन-कार्य वहीं अटक गया। वहाँ से आगे वह नहीं बढ़ सका क्योंकि 8 फरवरी 1971 को मुंशीजी का देहवसान हो गया। आठवाँ भाग अपूर्ण ही रहा। इस भाग का नाम उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र की कथा’ रखा था। मुंशीजी का विचार था कि कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में अर्जुन के रथ के पास जहाँ श्रीकृष्ण भगवद् गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन को विश्व-रूप दर्शन कराते हैं वहाँ तक ‘कृष्णावतार’ की ग्रन्थमाला की कथा को ले जाकर सम्पूर्ण करेंगे, किन्तु विधाता को यह मंजूर नहीं था। आठवें भाग की समूची पृष्ठभूमि उन्होंने मस्तिष्क में तैयार कर रखी थी और इससे संबंधित कई तरह के बिन्दु भी उन्होंने नोट्स के रूप में तैयार कर लिये थे।
मेरे एक मित्र लेखक का सुझाव था कि मुंशीजी इस कथा को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में समाप्त नहीं करें, बल्कि नौवाँ भाग और लिखकर इस कथा को श्रीकृष्ण के देहावसान तक ले जाना चाहिए। मैंने इस सुझाव को मुंशीजी के समक्ष रखा। वे मुस्कराकर बोले, ‘‘लेकिन उसे लिखेगा कौन ? तुम जानते ही हो कि आठवाँ भाग लिखने में भी दो बार व्यवधान पड़ चुका है।’’ (दो व्यवधान उनकी बामारी के कारण पैदा हुए थे।)
तेहर वर्ष तक ‘कृष्णावतार’ का लेखन-कार्य चला। इस लेखन के दौरान मुंशी जी का सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित रहा। उनकी प्रसिद्धि आत्मकथा-ग्रन्थमाला के अन्तिम ग्रन्थ ‘स्वप्नसिद्धि की खोज में’ उनके 1926 तक के जीवन का चित्रण है। उसके बाद की काफी सामग्री उपलब्ध देखकर मैं उनसे 1926 के बाद वर्षों की आत्म कथा लिखने का निवेदन किया था लेकिन उनका एक ही जवाब था कि ‘पहले मुझे ‘कृष्णावतार’ पूरा करना है, फिर समय होगा तो, आत्मकथा लेंगे।’ गुजराती साहित्य का दुर्भाग्य समझिए कि वह समय वापस आया ही नहीं।
26 जनवरी 1971 के दिन सातवें खण्ड के प्रकाशन में मुंशीजी ने लिखा था-
‘‘ईश्वर को मंजूर हुआ तो मेरी इच्छा है कि मैं इस कथा को वहाँ तक ले जाकर पूरा करूँ जहाँ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में ‘शाश्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्व रूप का दर्शन कराते हैं।’’
ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। उपरोक्त इच्छा व्यक्त करने के बारह दिन बाद ही उनकी इहलीला समाप्त हो गयी और एक महान कथाकृति अधूरी रह गयी। इतना संतोष जरूर हैं कि ‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला के प्रत्येक भाग की रचना इतनी कुशलता के साथ हुई है कि उसे बिना रसभंग के एक स्वतंत्र कथा के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।
शान्तिलाल तोलाट
पृष्ठभूमि
शक्तिशाली भरतों के सम्राट शान्तनु के तीन पुत्र थे- देवव्रत गांगेय (जो भीष्म कहलाते थे), चित्रांगद और विचित्रवीर्य। गांगेय ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और हस्तिनापुर की पैतृक राजगद्दी पर न बैठने की भीषण प्रतिज्ञा ले ली थी। इसलिए वे भीष्म कहलाये। चित्रांगद और विचित्रवीर्य दोनों युवावस्था में ही निस्संतान स्वर्ग सिधार गये।
विचित्रवीर्य के दो पत्नियाँ थी- अम्बिका और अम्बालिका। अम्बिका के धृतराष्ट्र नाम का पुत्र हुआ। अम्बालिका के पाण्डु नाम का पुत्र हुआ जिसका स्वास्थ्य कमजोर रहता था।
प्राचीन परम्परा के अनुसार अन्धा धृतराष्ट्र राजगद्दी पर नहीं बैठ सकता था। इस कारण कुछ समय तक पाण्डु ने हस्तिनापुर की राजगद्दी को सुशोभित किया। उसके दो पत्नियाँ थीं- कुन्ती और माद्री। इन दोनों से उसको पाँच पुत्र हुए- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा दो जुड़वा भाई- नकुल और सहदेव।
पाण्डु का देहवसान हुआ तब माद्री सती हो गयी और उसके दोनों पुत्रों की देख-रेख का जिम्मा कुन्ती पर आया। इस प्रकार कुन्ती पाँचों भाइयों की माता बनी। ये भाई पाँच पाण्डवों के नाम से प्रसिद्ध हुए।
धृतराष्ट्र के अनेक पुत्र हुए, वे कौरव कहलाये। उनमें सबसे बड़ा दुर्योधन था। सबसे छोटा था दु:शासन।
सम्राट शान्तनु की विधवा पत्नी राजमाता सत्यवती तथा भीष्म ने पाण्डवों को पाण्डपुत्र के रूप में स्वीकार किया और उनमें जो सबसे बड़ा था-युधिष्ठिर- उसे युवराज का पद दिया।
पाण्डु की मृत्यु के बाद अपनी दोनों पुत्र वधुओं- अम्बिका और अम्बालिका को लेकर राजमाता सत्यवती गौतम आश्रम में निवास करने के लिए चली गयीं।
भीष्म ने द्रोणाचार्य तथा उनके साले कृपाचार्य को हस्तिनापुर में रह कर पाण्डवों और कौरवों के गुरु के रूप में उनकी शिक्षा का भार लेने के लिए आमन्त्रित किया। द्रोण तथा कृप दोनों शस्त्रविद्या के प्रसिद्ध आचार्य थे। भीष्म की इच्छा थी पाण्डवों और कौरवों को भरतों की परम्परा स्तर के अनुरूप शिक्षा मिले। इसी उद्देश्य से उन्होंने इन आचार्यों को हस्तिनापुर बुलाया था।
विचित्रवीर्य के दो पत्नियाँ थी- अम्बिका और अम्बालिका। अम्बिका के धृतराष्ट्र नाम का पुत्र हुआ। अम्बालिका के पाण्डु नाम का पुत्र हुआ जिसका स्वास्थ्य कमजोर रहता था।
प्राचीन परम्परा के अनुसार अन्धा धृतराष्ट्र राजगद्दी पर नहीं बैठ सकता था। इस कारण कुछ समय तक पाण्डु ने हस्तिनापुर की राजगद्दी को सुशोभित किया। उसके दो पत्नियाँ थीं- कुन्ती और माद्री। इन दोनों से उसको पाँच पुत्र हुए- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा दो जुड़वा भाई- नकुल और सहदेव।
पाण्डु का देहवसान हुआ तब माद्री सती हो गयी और उसके दोनों पुत्रों की देख-रेख का जिम्मा कुन्ती पर आया। इस प्रकार कुन्ती पाँचों भाइयों की माता बनी। ये भाई पाँच पाण्डवों के नाम से प्रसिद्ध हुए।
धृतराष्ट्र के अनेक पुत्र हुए, वे कौरव कहलाये। उनमें सबसे बड़ा दुर्योधन था। सबसे छोटा था दु:शासन।
सम्राट शान्तनु की विधवा पत्नी राजमाता सत्यवती तथा भीष्म ने पाण्डवों को पाण्डपुत्र के रूप में स्वीकार किया और उनमें जो सबसे बड़ा था-युधिष्ठिर- उसे युवराज का पद दिया।
पाण्डु की मृत्यु के बाद अपनी दोनों पुत्र वधुओं- अम्बिका और अम्बालिका को लेकर राजमाता सत्यवती गौतम आश्रम में निवास करने के लिए चली गयीं।
भीष्म ने द्रोणाचार्य तथा उनके साले कृपाचार्य को हस्तिनापुर में रह कर पाण्डवों और कौरवों के गुरु के रूप में उनकी शिक्षा का भार लेने के लिए आमन्त्रित किया। द्रोण तथा कृप दोनों शस्त्रविद्या के प्रसिद्ध आचार्य थे। भीष्म की इच्छा थी पाण्डवों और कौरवों को भरतों की परम्परा स्तर के अनुरूप शिक्षा मिले। इसी उद्देश्य से उन्होंने इन आचार्यों को हस्तिनापुर बुलाया था।
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