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कृष्णावतार : भाग-2 - रुक्मिणी हरण

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :311
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2434
आईएसबीएन :9788171786824

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प्रस्तुत है कृष्णावतार का दूसरा खंड इसमें बंसी की धुन के बाद की कथा कही गई है....

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Rukmini haran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्व भूमिका

यहाँ से इस कथा का नया खण्ड आरम्भ होता है। इसके साथ ही श्रीकृष्ण के, जीवन प्रसंगों के आलेखन की कठिनाइयाँ और अधिक बढ़ जाती हैं।
अपने जीवनकाल में ही जो प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँच गया था, उस नरोत्तम के सही जीवन प्रसंगों को खोजकर उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। ऐसे पुरुषों के पराक्रम चमत्कार बन जाते हैं। उनके अनुयायी व्यक्ति पूजक बन जाते हैं। उनके शत्रुओं को असुर समझा जाने लगता है।

श्रीकृष्ण की जीवन कथा के आलेखन का काम तो इससे भी हजार गुना कठिन बन गया है; क्योंकि अपने जीवनकाल में ही वे ईश्वर के अवतार माने जाने लगे थे। तीन हजार वर्षों से लोग उन्हें पूर्वावतार मानते आ रहे हैं। युगों से विविध भक्ति सम्प्रदाय उनकी उपासना परम तत्त्व के रूप में करते आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैंने एक ऐसा दायित्व ओढ़ लिया है, जिसे लगभग अशक्य कहा जा सकता है। जिन चमत्कारों तथा दिव्यशक्ति का आरोपण श्रीकृष्ण पर किया गया है, उससे उनका मानव रूप ढँक-सा गया है। मानव के लिए दुःसाध्य कहे जानेवाले चमत्कारों का एक गहरा रंग उनके जीवन की वास्तविक घटनाओं पर चढ़ गया है। फिर इतना तो कहना ही पड़ेगा कि उनमें दैवी शक्ति का आरोपण श्रीकृष्ण पर किया गया है, उससे उनका मानव रूप ढँक सा गया है। मानव के लिए दुःसाध्य कहे जानेवाले चमत्कारों का एक गहरा रंग उनके जीवन की वास्तविक घटनाओं पर चढ़ गया है। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि उनमें दैवी शक्ति अद्भुत मात्रा में थी। दुर्भाग्यवश सदियों के अन्तर से रचे गये विभिन्न पुराणों ने अपने-अपने युग के अनुकूल प्रसंगों तथा मान्यताओं को उनकी जीवनगाथा में स्थान देने में संकोच नहीं किया।

श्रीकृष्ण के जीवन की सर्वाधिक प्रमाणित साधन-सामग्री महाभारत में मिलती है। श्रीकृष्ण के बाल्यकाल के प्रसंगों का उसमें विस्तार से वर्णन नहीं है; फिर भी उनके बाल्यकाल के अधिकांश पराक्रमों का वर्णन करने के लिए ही इस ग्रन्थ की रचना हुई है। व्यास के मूल महाभारत की रचना के बहुत समय बाद सदियाँ बीत गयीं, तब इस ग्रन्थ की रचना हुई। परन्तु जिस परम्परा, विशेषकर मथुरा के यादवों की परम्परा, के आधार पर उसकी रचना की गयी है। वह प्रमाणभूत मानी जा सकती है। उसके प्रसंग स्वाभाविक लगते हैं और उद्देश्य तथा प्रजोजन भी मानव सदृश, लौकिक प्रकार के दिखाई पड़ते हैं।

‘वायु’, ‘विष्णु’, तथा ‘मत्स्य’ पुराण में भी इसी परम्परा का आलेखन किया गया है परन्तु अत्यन्त संक्षिप्त रूप में। आठवीं सदी में रचे गये भागवत पुराण में हमें कृष्ण पूजा का भक्ति सम्प्रदाय दृढ़ता से स्थापित होता लगता है। इसमें वर्णित प्रसंग प्रधानतया ‘हरिवंश’ से लिये गये हैं परन्तु इन प्रसंगों की नये सिरे से रचना की गयी है, घटना के पूर्वापर सम्बन्धों को आगे पीछे कर दिया गया है और इस ग्रन्थ की प्रधान भावना के अनुरूप हर सम्भव तरीके से उनके तारम्य पर जोर दिया गया है। बहुत से प्रसंगों के मानव अथवा लौकिक भावों को पहचाना न जा सके, इस प्रकार उलट फेर भी कर दिया गया है। भागवत पुराण की शास्त्र-ग्रन्थ के रूप में बड़ी प्रतिष्ठा है और विश्व साहित्य के एक सर्वश्रेष्ठ काव्य के रूप में उसकी गणना की जाती है; परन्तु श्रीकृष्ण के जीवन प्रसंगों की साधन-सामग्री के लिए वह ‘हरिवंश’ से भी कम उपयोगी है।

इतिहास अथवा दन्तकथाओं में वर्णित सभी पुरुषों में लोकोत्तर दैवी पुरुष के रूप में गिने जाने का जिसे सबसे विशेष अधिकार है और जो अन्य सभी की तुलना में उच्चतम जीवनयापन के लिए सर्वश्रेष्ठ पुरुष गिना जा सकता है, ऐसे श्रीकृष्ण के वास्तविक जीवन प्रसंगों का संशोधन कार्य करने के लिए ब्रह्मवैवर्त जैसे उत्तरकालीन पुराण बिल्कुल व्यर्थ है; क्योंकि उनमें श्रीकृष्ण के जीवन प्रसंगों में भाँति-भाँति की घटनाएँ तथा हेतु जोड़ दिये गये हैं।
पहले खंड में श्रीकृष्ण के बाल्यकाल के प्रसंगों का आलेखन किया गया है, जिसमें राधाविषयक प्रसंग के बारे में ऐतिहासिक आधार शंकास्पद होने पर भी उसका वर्णन किया गया है, क्योंकि श्रीकृष्ण के साथ राधा का नाम इस प्रकार संलग्न हो गया है कि उसके बिना काम चल ही नहीं सकता।

इस दूसरे खण्ड के लिए मैंने मुख्यतः ‘हरिवंश’ का आधार लिया है। इसमें भी श्रीकृष्ण के चमत्कारों का वर्णन है, फिर भी जिन आधारभूत प्रसंगों का उल्लेख इसमें किया गया है, वह प्रमाणभूत का ही अनुसरण करता है। यहां पर जिन्हें दिव्य और अलौकिक चमत्कार दिखाया गया है, उनमें मैंने मानव भाव तथा हेतुओं का दर्शन करने का प्रयत्न किया है। मैं आशा करता हूँ कि यह क्षम्य समझा जायगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी पर जिस प्रकार अवतार लिया, जीवन व्यतीत किया और विविध पराक्रम किये, उन सबका पुनः संस्करण कर उनके आलेखन का लगभग अशक्य कहा जा सके, ऐसा कार्यभार मैंने स्वयं पर लिया है और यदि इसमें मेरे द्वारा कहीं कोई प्रमाद हो गया हो तो मुझे विश्वास है कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे इन दोषों को क्षमा करेंगे।
लेखक

 

राजमुकुट का त्याग

 

कृष्ण का अनुमान सही था। कंस का सहसा संहार हो जाने पर सभी स्तब्ध रह गये; फलस्वरूप नृशंस हत्याकाण्ड एवं संभ्रम की जो सम्भावना थी, वह समाप्त हो गयी।
क्षण भर के लिए सभी किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गये। बाद में उन्हें घटना का सही भान हुआ और एक स्वर से सभी के कण्ठों से मुक्तिदायक उद्घोष फूट पड़ा, ‘‘परित्राता का पदार्पण हो चुका है। अत्याचारी का अन्त हुआ, भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई !’’
मागधी सैनिक भी किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे। जिस प्रतापी कंस की आज्ञाओं का पालन करते वे अघाते नहीं थे, उसका अन्त हो चुका था। उनकी अपेक्षा यादवों की संख्या अधिक थी। यद्यपि प्रद्योत को वे कंस का स्वामिभक्त सेनापति सदा से समझते थे; किन्तु उसने ही मागधियों के प्रधान वृत्रिध्न का वध कर डाला था। सभी यादव आनन्दातिरेक से पुलकित हो उठे। सेनापतिविहिन उनके क्षुब्ध प्रतिपक्षियों में अब आक्रमण करने का साहस नहीं रहा।

यादवों के अगुआ, जिस शक्तिशाली तरुण ने मुष्टिक का मर्दन किया था, उसने यादवों को आक्रमण न करने का आदेश दिया। हाथ में विशाल गदा लेकर वह दोनों पक्षों के मध्य में खड़ा हो गया और आग्नेय नेत्रों से सभी को निहारता हुआ गरज उठा, ‘‘अगर अब किसी ने अपना शस्त्र उठाया तो निश्चय ही मैं उसका शिरच्छेद कर डालूँगा।’’ उसकी इस चेतावनी से सभी ने अपने शस्त्र भूमि पर डाल दिये। इसी बीच बसुदेव जो अकूर एवं प्रद्योत से मन्त्रणा कर रहे थे, राज अतिथियों के पास पहुँचे। शस्त्रों से सुसज्जित एवं अनुचरों के घिरे, सभी बड़ी अधीरता से यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि आगे क्या होता है।
राजोत्तम, आप सबको चिन्ता करने का कोई कारण नहीं। आप यादवों के भी सम्मान्य अतिथि हैं। आप सब मेरे साथ आयें, मैं आप सब को राजमहल में ले जाऊँगा, जहाँ सभी के ठहरने की व्यवस्था की गयी है। हम सब आपकी सेवा के लिए उपस्थित है !’’ वसुदेव ने कहा।
कंस के शव को महल में ले आने का राजप्रतिहारी को आदेश देकर अकूर शोक निमग्न रानियों को सान्त्वना देने के लिए अन्तःपुर की ओर चल पड़े।

इसी बीच पद्योत ने राजमहल एवं नगर की सुरक्षा का भार सँभाल लिया था। उसने अपने सहयोगियों को शहर में शान्ति स्थापित रखने के लिए सदैव सचेष्ट रहने का आदेश दिया।
घेरा तोड़कर लोगों के दल के दल कृष्ण के आस-पास एकत्र हो गये और हर्ष ध्वनि के साथ जय कृष्ण जय वासुदेव पुकार उठे। कितनों ने भूमि पर गिरकर साष्टांग दण्डवत् किया कितनों ने इसके चरण छुए। वह उनका तारणहार जो हो गया था।
शोकभरी दृष्टि से कृष्ण ने सभी को निहारा। कंस के रक्त से रंजित अपने हाथों को उसने ऊपर उठाया। सब शान्त हो गये। उसने कहा, ‘‘यह आनन्द और उल्लास का समय नहीं है। शान्तिपूर्वक कृपया सभी अपने-अपने घर जायें। यह शोक का समय है। हमारे राजा की मृत्यु हो गयी है।’’
कृष्ण की गम्भीर वाणी सुनकर सब ने अपने अपने घर की राह ली। बाद में कृष्ण वहाँ गया, जहाँ नन्द गोपों के साथ खड़े थे।

‘‘हे तात् मुझे मेरे इस कृत्य के लिए क्षमा करने की कृपा करें !’’ नन्द के चरणों में गिरते हुए कृष्ण ने कहा, ‘‘दुष्ट का अन्त एक दिन होना ही चाहिए। यही विधि का विधान है।’’
‘‘कृष्ण मेरे प्रिय पुत्र।’’ भावविभोर हो नन्द ने कहा, ‘‘शत्-शत् वर्ष जियो मेरे गोविन्द’’ कृष्ण के मित्र उद्धव ने उसे धोती निकालकर पहनने को दी। मामा की मृत्यु पर शोक चिह्न स्वरूप धोती पहनना आवश्यक था। ऐसे अवसर पर अन्य वस्त्र धारण करना वर्जित था।
कृष्ण ने कहा, ‘‘पिताजी आप अपने शिविर में पधारें। मैं मामा की अन्त्येष्टि करके शीघ्र ही आता हूँ।’’
उत्तल से उतरकर देवकी अन्तरावेदी पर आयीं। उनकी दृष्टि कृष्ण पर स्थिर हो गयी।
चाणूर ने जब कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा था तो उसका हृदय भय से प्रकम्पित हो उठा। पच्चीस वर्षों की लम्बी अवधि, जब से वह सुहागन बनी उसने शोक शैया पर ही काट दी। उसका सम्पूर्ण जीवन दुख की छाया में बीता था। कितनी क्रूरता से उसकी सन्तानों का वध होता रहा। उसके स्मरण मात्र से वह भय से विचलित हो उठी। अत्याचारी भाई के भय से उसके दो पुत्र विचित्र परिस्थियों में पल रहे थे। इसी विश्वास पर वह अब तक जी रही कि मेरा आठवाँ पुत्र एक दिन अवश्य मेरे पास आयेगा।’’

साँस रोककर वह इसी घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। क्षण मात्र के लिए भी वह अपने हृदय से यह बात नहीं निकाल सकी थी। नन्हें से पालने में नन्हीं सी स्वर्ण प्रतिमा को वह झुलाती रहती, जैसे वह प्रतिमा ही उसके विश्वास का आधार स्तम्भ हो। वह उस प्रतिमा को ही जीता जागता। कृष्ण समझती। उसे लगता..जैसे उसके साथ वह हँस रहा है, खेल रहा है, ठनगन कर रहा है, अपनी सुकोमल भुजाओं में उसे लपेट लेने का प्रयास कर रहा है और बाल सुलभ क्रोध के पश्चात् उसकी गोद में छुप रहा है...उसके जीवन जगत् में बस दो ही प्राणी थे, एक वह और दूसरा उसका लाडला कृष्ण। आशा की मिटती उभरती ज्योति में वह किसी अटल विश्वास के सहारे प्रतीक्षा कर रही थी-कृष्ण के आने की।
उसे यह भी बताया था कि भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होने के पूर्व कृष्ण उसके पास नहीं आयेगा। ऐसा करने से उसके अनिष्ट की पूरी सम्भावना है। इसलिए वह इस घड़ी की प्रतीक्षा साँस रोककर कर रही थी।

यादव सरदारों में मतभेद की लपटें किस भयानकता से उठ रही हैं, यह बात उसके कुलगुरु आर्यगर्गाचार्य ने उसे बता दी थी। उसने तत्काल ही यह निश्चित कर लिया था कि अगर वह जीवित रहेगी तो मात्र अपने प्यारे पुत्र के लिए। अगर उसका भी वध हुआ तो भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जायगी। तब उसके जीने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। अतः वह दृढ़प्रतिज्ञ थी कि अगर उसके पुत्र का अनिष्ट हुआ तो वह अग्नि स्नान कर लेगी। उसने यादव सरदारों को भी अपने इस प्रण से अवगत करा दिया था।

किन्तु आज...वह उसका प्यारा पुत्र आमने-सामने थे...। प्रवेशद्वार से होकर आते हुए उसने देखा था उसे। और उसके पीछे आते हुए देखा था अपने सातवें पुत्र को भी, जो विश्व की दृष्टि में रोहिणी का पुत्र था। वह सलोनीसूरत उसके नेत्रों में नाच रही थी...सुवर्णमय वस्त्रों से अलंकृत, केशों में मोर पंख खोंसे विशाल कमल नेत्रोंवाले सौन्दर्य एवं लावण्य की अप्रतिम प्रतिमा के रूप में भुवन मोहिनी मुस्कान बिखेरते, जैसे उसने सबका हृदय पलक मारते जीत लिया हो, ऐसे अपने पुत्र को आते हुए उसने देखा।

उसके बाद चाणूर आया था और मल्ल युद्ध के लिए उसे चुनौती दी थी। भय से प्रकम्पित हृदय की गति को वह किसी प्रकार सँभाल पायी थी। लगा, जैसे उसके विश्वास के पर्वत में दरारें पड़ रही हों। नहीं नहीं। कुछ नहीं हो सकेगा-यही उसका आठवाँ पुत्र है अवतार पुरुष ! परित्राता ! उसका कोई अनिष्ट नहीं हो सकता।

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